आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

शीर्ष कथा / Lead Feature

आज़ादी के मज़मून / Freedom Posts

शीर्ष कथा / Lead Feature

अंग्रेजी, उर्दू, बांग्ला, तमिल और हिंदी के 20 लेखकों की रचनाएँ

Featuring 20 writers from Bangla, English, Hindi, Tamil and Urdu



इसी पृथ्वी पर: दूसरों का जीवन / On This Planet: The Lives of Others

शीर्ष कथा / Lead Feature

१० स्त्री लेखकों का गल्प.

Fiction by 10 Women Writers.



एक गाँव-विहीन भविष्य की ओर / Towards a Village-Less Future

शीर्ष कथा / Lead Feature

इस अंक की शीर्ष कथा तीन साक्षात्कारों, एक कहानी, एक जीवनी अंश और एक चित्रकार के काम से मिलकर बनी है. दक्षिण एशिया के अग्रणी समाज चिंतक आशीष नंदी से संवाद गाँव के बारे में सर्जनात्मक कल्पना के निरंतर हो रहे हास, नगरीय औद्यौगिक यूटोपिया और विकास की सीमाओं और आदिवासी जीवन पद्धति और हिंसा आधारित विचारधारा के इंटरफेस पर केंद्रित है. प्रसिद्ध कबीर अध्येता और राजनैतिक टिप्पणीकार पुरूषोत्तम अग्रवाल से बातचीत तथाकथित ‘ऑनर किलिंग’ पर एकाग्र है. अग्रवाल इन हत्याओं को स्वाभाविक रूप से ग्रामीण-मध्यकालीन फिनॉमिना मानने से इंकार करते हुए इसे जाति आधारित अस्मिता राजनीति से और आधुनिक राज्य की विभिन्न समुदायों की परंपराओं से जैविक विछिन्नता से जोड़ते हैं. पिछले कुछ समय से गाँव को ही अपना ठिकाना बना चुके विचारक सच्चिदानंद सिंहा से हिन्दी कवि मनोज कुमार झा की बातचीत गाँव में समय, अनुभव और ज्ञान की भिन्न अवधारणाओं और उनकी पारस्परिकता को समझने का प्रयास करती है.

शीर्ष कथा की उपलब्धि है इसके दो कथात्मक मज़मून. बीसवीं शताब्दी में जिन थोड़े-से भारतीय लेखकों ने आधुनिकता को अपनी देशज शर्तों और परंपरा से उत्तीर्ण किया, उसे लेखन और जीवन में परिवर्तन की प्रणाली बनाया उनमें नागार्जुन अग्रणी हैं. यह नागार्जुन का जन्म शताब्दी वर्ष है और इस अवसर पर उनके पुत्र शोभाकांत द्वारा लिखी जा रही उनकी जीवनी का एक अंश बाबा की स्मृति में नमनपूर्वक प्रकाशित है. शोभाकांत के सघन सान्द्र और उतप्त गद्य के कारण यह जीवनी स्वयं को तत्क्षण एक उपन्यास में बदलती रहती है.

मैट रीक और आफ़ताब अहमद के अंग्रेज़ी अनुवाद में कथाकार मेराज अहमद की हिन्दी कहानी विभाजन की पृष्ठभूमि में उजाड़ हो रहे गाँवों के एक पात्र की असाधारण प्रेमकथा है जो अपनी रिहाईश ही नहीं अपनी पहचान और धर्म से भी लगातार विस्थापित होता रहता है. शीर्ष कथा की अंतिम प्रविष्टि भज्जू श्याम की कला है जो इस पूरे अंक के पीछे कार्यरत दृष्टि के बहुत नजदीक है.

The lead feature in this issue comprises three interviews, one short story, an excerpt from a biography and the work of a painter. The conversation with leading South Asian social thinker Ashis Nandy centers on the the continual decline of creative imagination of village, the limits of urban industrial utopias and their idea of development, and the interface between tribal life and militant ideology. The conversation with eminent Bhakti scholar and political commentator Purushottam Agrawal is about so-called ‘honor killings’. Agrawal refuses to think of these killings as an essentially rural-medieval phenomenon, linking them instead with identity politics, the cult of identity the modern nation state’s lack of an organic relation with the various traditions of the communities that inhabit it. Sacchidanand Sinha, who has made his home in the village for a while now, talks to Hindi poet Manoj Kumar Jha about the mutuality of the different conceptions about time, knowledge and experience in the village.

Among the few Indian writers of the twentieth century who managed to qualify, in their writing, the colonial modernity on their own terms and tradition, and turned it into a system for bringing about change in writing and in life, was Nagarjun. This year is the birth centenary of Nagarjun, on the occasion of which we present an excerpt from the dense, passionate and novelistic biography, being written by his son Shobhakant.

Meraj Ahmed’s story, in Matt Reeck and Aftab’s translation, set against the backdrop of the Partition, tells the unusual love story of a character who is constantly displaced not just from his village, but from his religion and identity. The lead feature is completed by the art of Bhajju Shyam which comes very close to the vision behind this entire issue.



विपथगामियों का जलसा: वार्षिकांक विशेष कथा / Caravan of Contrarians: Anniversary Special Fiction

शीर्ष कथा / Lead Feature

हुआन होज़े सेयर (1937-2005) को बमुश्किल ही ‘लातिन-अमेरिकी’ लेखक कहा जा सकता है. खुद अपने शब्दों में ‘लातिन-अमेरिकी-पन के घेटो’ – जादुई यथार्थवाद – से परे घटित होने वाले इस विपथगामी को अब बोर्खे़ज के बाद सबसे महत्वपूर्ण अर्जेंटीनी लेखक माना जाता है. 1985 में प्रकाशित उनके उपन्यास ग्लॉस के स्टीव डोल्फ द्वारा किये जा रहे और हिन्दी कथाकार मंज़ूर एहतेशाम के अविस्मरणीय उपन्यास दास्तान-ए-लापता के जेसन ग्रुनेबॉम और उलरिके स्टॉर्क द्वारा किये जा रहे अंग्रेज़ी अनुवादों के अंश; अप्रतिम मलयाली कथाकार पॉल ज़कारिया की अनुपमा राजू द्वारा अनूदित कहानी; और चार युवा कथाकारों कुरली मनिकावेल और शर्मिष्ठा मोहंती (अंग्रेजी) तथा शुभाशीष चक्रवर्ती और आशुतोष भारद्वाज (हिंदी) की कहानियाँ मिलकर इस खंड को विपथगामी कथा लेखन के एक जलसे में बदल देती हैं. खंड में दो युवतर कथाकारों – भूतनाथ और सौदा – की कहानियाँ भी शामिल हैं.

Juan Jose Saer (1937-2005) can hardly be called a Latin American writer. Having rejected what he called ‘the ghetto of Latin-American-ness’ (i.e. magic realism) he is now considered the most important Argentinian writer since Borges. In this section, we present an excerpt from Steve Dolph’s translation of his 1985 novel Glosa (courtesy Open Letter Books), along with an excerpt from Manzoor Ahtesham’s unforgettable novel Dastan-E-Lapata in Jason Grunebaum and Ulrike Stark’s translation, Anupama Raju’s translation of a story by the great Malayalam writer Paul Zachariah, and stories by Sharmistha Mohanty and Kuzhali Manickavel (English) and Shubhashish Chakraborty and Ashutosh Bhardwaj (Hindi) – a veritable caravan of contrarians! This section also includes stories by Bhootnath and Saudha Kasim.



मेरी भाषा में तुम शामिल हो / You Are Part of My Language

शीर्ष कथा / Lead Feature

इस बार की शीर्ष कथा जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल 2010 के दलित फोकस पर केन्द्रित है. यहाँ शामिल चार भाषाओं – अंग्रेजी, हिन्दी, पंजाबी और तमिल – के छह दलित लेखकों का लेखन इस प्रचलित मान्यता का एक सर्जनात्मक प्रतिवाद तो है ही कि वह लेखन दलित राजनैतिक आंदोलन का एक सीधा उप-उत्पाद है, वह उस राजनीति का भी एक प्रतिवाद है जो दलित लेखन के एकाश्म, अपवर्जी आख्यान होने के अपने कन्स्ट्रक्ट को लगभग एक स्वयंसिद्ध तथ्य की तरह प्रस्तुत करती है. दलित एक्टिविस्ट काँचा इलैया के ‘मायथो-हिस्टोरिकल’ प्रवचन और फीचर के अन्य ‘गल्पात्मक’ मज़मूनों के बीच भी एक तरह का द्वन्द्वमूलक संबंध लक्ष्य किया जा सकता है.

पंजाबी के रैडिकल वामपंथी लाल सिंह दिल और हिन्दी में दलित लेखन को स्थापित करने वाले लेखकों में से एक ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं में जहाँ, काँचा की तरह अन्य की एक विचारधारात्मक छवि है वहीं देसराज काली, बामा और अजय नावरिया की कहानियों में आत्म और अन्य की पारस्परिकता का गल्प कई जटिल और अपूर्वानुमेय संरचनाओं में निर्मित होता है. ये पाठ याद दिलाते हैं कि अस्मिता के सभी संघर्ष न सदैव एकस्क्लूजिव होते हैं ना सदा वैसे बने रहते हैं; उन्हें एलियनेट करने वाली राजनीति को यह अवश्य पहचान सकना चाहिये कि अपनी ‘प्रदत्त’ सार्वभौमिकता के बरक्स इन संघर्षों को ‘सीमित’ समझना मनुष्य मात्र की पीड़ा, उसके दमन और उसके मुक्ति के स्वप्न का एक सुप्रीमेसिस्ट नकार है.

दलित लेखन में प्रतिनिधित्व एक बेहद समस्यात्मक पद रहा है इस तथ्य की पृष्ठभूमि में यह शीर्ष कथा खुद लेखकों/उनके अनुवादकों के चुने हुए मजमूनों से बनी है एक कांचा इलैया के अपवाद को छोड़कर जिन्होंने विकट निजी समस्याओं के चलते यह काम हम पर छोड़ दिया. हमें उम्मीद है यह फेस्टिवल, निर्देशक नमिता गोखले की प्रत्याशाओं के अनुरूप, भारतीय दलित लेखन के लिए अंतर्राष्ट्रीय एक्सपोज़र का एक सुअवसर बन पायेगा.

This issue’s lead story highlights the Dalit Focus at the Jaipur Literature Festival, 2010. The writings presented here – six authors from four languages: English, Hindi, Panjabi, Tamil – are not only a creative negation of the popular myth that Dalit writing is a by-product of the Dalit political movement, but are also a serious challenge to the politics that constructs Dalit writing as a monolithic, exclusivist narration and presents it as fact — which is also reflected in a kind of dialectical relationship between the ‘mytho-historical’ text of the Dalit activist Kancha Ilaiah and the other ‘literary’ texts presented here.

Whereas, in the poems of Lal Singh Dil, the radical leftist from Punjab, and Omprakash Valmiki, one of the writers responsible for establishing a Hindi Dalit literature, one can see, as in Kancha Ilaiah, that a kind of ideological Other is inevitable; in the stories of Desraj Kali, Ajay Navaria and Bama, we find more complex and unexpected representations of the mutuality of the Self and the Other. These texts are a reminder that identity struggles/discourses are never entirely exclusivist, nor do they remain so for long; the politics that alienates them in India by considering their struggles ‘limited’ — as opposed to the ‘given’ universality of its own — can barely conceal that such an alienation is merely a supremacist belittling of the pain, the repression, and the dreams of freedom of all human beings.

Representation in Dalit writing has always been an extremely problematic point. Therefore, the pieces included in this lead feature have been selected by the authors/translators themselves (barring Kancha Ilaiah who, due to some personal issues, left the task to us). We hope that the festival proves, as Director Namita Gokhale hopes, an occasion for bringing a wider international exposure to Indian Dalit writing.



आत्म और उसके अनुवाद / The Self and Its Translations

शीर्ष कथा / Lead Feature

इस अंक की शीर्ष कथा आत्म और उसके अनुवाद एक तरह से स्वयं प्रतिलिपि को परिभाषित करती है – जितनी यह एक दार्शनिक या सौन्दर्यशास्त्रीय या विचारधारात्मक समस्या है उतनी ही इस पत्रिका के लिये यह अपने होने की एक नितांत दैनिक और व्यावहारिक समस्या है. इस पत्रिका का जो भी आत्म है वह कई अनूदित और तथाकथित ‘मूल’ पाठों/आत्मों से बना है जिनमें परस्पर कोई एकरूपता या समरसता न है ना काम्य है. उम्मीद है संवाद की कुछ संभावनाएँ जरूर बनी हैं.

जिन छह पाठों से मिलकर यह शीर्ष कथा बनी है उनमें भी समरसता नहीं यद्यपि सहमति और असहमति के कई उपपाठ हैं. सबसे बड़ी सह-मति है इनकी आत्मीयता जिसका एक बहुत संदर उदाहरण है के. सच्चिदानंदन का निबंध जिसमें वे अपनी कविताओं में रह रहे अपने कई आत्मों के बारे में बात करते हैं. केकी दारूवाला का लेख कवि-कर्म और कवि-आत्म के बारे एक उजले विट के साथ उनकी कई कविताओं के लिखे जाने के पीछे की कहानी कहता है.

वाल्मीकि रामायण के अपने अनुवाद और उस पर अपनी कमेंटरी लिखने के बीच के सालों में संस्कृत अध्येता अर्शिया सत्तार का संबंध रामकथा व राम के साथ बदल गयाः एक ‘कॉर्ड-कैरिंग’फेमिनिस्ट अब राम और सीता के उत्तर-वनवास संबंध को उनके प्रेम के लोप की तरह पढ़ती है और राम के आचरण को अधिक सहृदयता से परखने की कोशिश करती है. प्रतिपाठकों की मध्यस्थता में यह पाठ और पाठक की पारस्परिकता की एक अनोखी दास्तान है.

प्रिया सरुक्काई छाबरिया जहाँ हमें यह याद दिलाने की कोशिश करती हैं कि लेखन से उभरने वाला लेखकीय आत्म अपनी ही बनाई हुई भूलभुलैया में भटकता हुआ एक बहुरूपिया होता है वहीं किन्नौर के एकांत में रहने वाली नूर ज़हीर इस बात का कि कैसे इस लेखकीय आत्म का विस्तार होता है, कैसे वह अन्यों तक पहुँचने की विधियाँ ढूँढ़ता है. गिरिराज किराड़ू की द्विभाषी मल्टी-मीडिया प्रस्तुति पाठों और परिप्रेक्ष्यों के एलबम की तरह विन्यस्त है और बोर्खेज़ के इस कथन पर एक विनम्र पाद-टिप्पणी है कि कैसे मूल अनुवाद के प्रति वफादार नहीं होता.

ये सब पाठ साहित्य अकादेमी और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग द्वारा आयोजित एक परिसंवाद में प्रस्तुत किये गये थे.

The lead story – The Self and Its Translations – in a way tries to define Pratilipi. For Pratilipi this is as daily and practical a ‘problem’ as it is philosophical, aesthetic or ideological. Whatever the ‘self’ of this magazine is it is made of many translated and ‘so-called’ original selves/texts which neither are in any harmony nor is it intended to be so. However, we do hope that possibilities of some kind of dialogue have surely emerged out of it.

The six texts that constitute this lead story are also not harmonious though there are many subtexts of agreement/disagreement across them. The over-riding agreement is all the six are intimate texts, and a very beautiful example of this intimacy is K.Satchidanandan’s essay in which he maps many selves that have inhabited his poetry. Keki Daruwala, with a bright wit, talks about the poetic self and the act of writing poetry; and takes us to the backdrop of many of his poems and a short story.

Between translating Valmiki’s Ramayana and writing a commentary on it, Sanskrit scholar Arshia Sattar’s relationship with the Rama story and its hero changed: an erstwhile ‘card-carrying’ feminist now reads Ramayana, post-exile, as a story of loss of love and perhaps to her own surprise reads the protagonist with a new-found sympathy. Under the shadow of antireaders, this is a fabulous tale of mutual love between a text and its reader.

If Priya Sarukkai Chhabaria attempts at reminding us that a writing self is all but a masquerader caught in its own labyrinth; Noor Zaheer, blessed to be living in the solitude of Kinnaur, seeks to understand how self finds ways of extending to various others. Giriraj Kiradoo’s bilingual multi-media presentation is an album of texts and contexts and submits itself as a foot note to Borges’s wonderful articulation that ‘the original is not faithful to the translation’.

All the texts were presented at a conference organized by the Sahitya Akademi and the Department of English, Benares Hindu University.



मेट्रो / Metro

शीर्ष कथा / Lead Feature

मेट्रोपोलिटन स्पेस में जीवन को पिछले कुछ वर्षों में बहुत तरह से पढ़ा गया है. इस बार की हमारी शीर्ष कथा उस जीवन की लय को, उसकी कविता को पकड़ने की कोशिश करती है. तीन माध्यमों – कविता, गद्य और फोटोग्राफी में कुल सात पाठ और चार मेट्रो शहर इसमें शामिल हैं. कोलकाता जहाँ एक ओर अभिनेता और लेखक ट्रिना बनर्जी की कविताओं में इस तरह आत्मसात हो जाता है कि ये कवितायें कोलकाता का नहीं लिखने वाले के आत्म का बखान हो जाती हैं वहीं कथाकार सुमना राय के बहुस्वरीय संस्मरण में वह एक परिवार की तीन पीढ़ियों और उस परिवार के आश्रितों के स्वप्न और यथार्थ, सम्मोहन और निराशा, मौन और आवाज़ के मध्य डोलता हुआ ‘एकमात्र’ शहर है. कौशिक सेन गुप्ता के विजुअल निबंध में वही कोलकाता एक बिल्कुल भिन्न शहर है – अपनी सबआल्टर्न पृष्ठभूमि से अधिक चमकते देवी देवता मानो तत्क्षण उसी तरह उससे एलियनेटेड और उसी में समाहित हैं जैसे परंपरा और आधुनिकता भारत के इस सबसे अनोखे महानगर में। इन छायाचित्रों पर ट्रिना बनर्जी का गद्य भी कोलकाता-पाठों में शामिल है।

दिल्ली के पुराने रेड लाईट एरिया जी.बी. रोड़ की रिक्शे से सवारी कराता हुआ प्रभात रंजन का गद्य औपनिवेशिक नज़रिये और एक्टिविस्ट आवेग के बिना इस ‘बदनाम बस्ती’ में प्रवेश करता है और वहाँ ‘लज्जा’ के अनूठे दृष्टांत ढूँढ़ लेता है; जे. संजना की गद्य कविताओं का ‘बॉम्बे’ कभी अलसुबह की शांति में और कभी लोकल ट्रेन, रेल्वे स्टेशनों और सड़कों के अतिपरिचित में प्रकट होता है और धीरे धीरे इसे देखने वाली को ‘घरों के प्रति उन्मादी’ बना देता है; और तेजी से मेट्रो होता गया जयपुर इस अंक के फीचर्ड आर्टिस्ट हिमांशु व्यास के छायाचित्रों में कभी कभी वह शहर है जो शायद जल्दी ही वह नहीं रहेगा – हिमांशु के सब चित्र मिलकर कोई महानगर नहीं बनाते, वे महानगर की अवधारणा को विसर्जित करते हुए चित्र हैं.

Life in the metropolitan space has been studied variously in recent years. Our lead feature consisting of seven texts in three media – poetry, prose and photography – tries to frame the rhythm and the poetry of this life. Kolkata which, in actor-writer Trina Banerjee’s poems, is internalized in such a way that they appear more as an expression of the writer’s self (and not of the city as such), is also the ‘only’ city around, oscillating between dream and reality, fascination and despair, silence and voice of three generations of a family and its dependants in Sumana Roy’s memoir. The same (?) Kolkata is very different in Kaushik Sengupta’s visual essay – strikingly bright images of gods and goddesses emerging out of a subaltern background, at once alienated from and dissolved into it, just as modernity and tradition have always been in this strangest of Indian cities. Trina Banerjee’s text on Kaushik’s work is the last of the four Kolkata-texts.

Taking us on a rickshaw ride of GB Road, the old red light area of Delhi, Prabhat Ranjan’s piece enters the ‘badnaam bastee’ without the usual colonial attitude and activist passion and, perhaps because of that, is able to witness some very surprising moments of ‘shyness’. In J. Sanjana’s prose poems, ‘Bombay’ that is visible either in the calm of the early mornings or in the very familiar space of roads, local trains and railway stations, gradually finds the poet ‘obsessing with the houses’.

In Himanshu Vyas’s photographs, Jaipur (fast becoming a metro) is sometimes the city it will soon cease to be. Put together, Himanshu’s visuals do not construct Jaipur as a Metro, instead they try to deconstruct the very notion of ‘big cities’.



एक नये पीड़ित के सम्मुख / Before A New Kind Of Victim

शीर्ष कथा / Lead Feature

हमारे सार्वजनिक और निजी स्पेस में, आतंक के अनुभव पर एकाग्र इस पहले वार्षिकांक की शीर्ष कथा तीन समाजविज्ञानियों के मज़मूनों से बनी है: आशीष नंदी का एक साक्षात्कार, मुख्यधारा मीडिया में ९/११ के भारतीय प्रति-हस्ताक्षर बन चुके ‘२६/११’ को पढने का यत्न करता हुआ अश्वनी कुमार का निबंध और महात्मा गाँधी के अंतिम दिनों के बारे में सुधीर चन्द्र की ताजा, अप्रकाशित पुस्तक के कुछ अंश.

यह अंक, अपनी प्रस्तावित योजना के अनुसार आतंक के अनुभव पर एकाग्र है और शीर्ष कथा के पहले दो मज़मून ऐसे विमर्श के उदहारण हैं जिसके केंद्र में आतंक के सबसे हिंसात्मक सार्वजनिक प्रदर्शन – आतंकवाद- के पीड़ित हैं. सीरियल बम धमाकों और नए किस्म के आतंकवाद के साथ हम एक सर्वथा नए पीड़ित के सम्मुख हैं. एक ऐसा पीड़ित जो किसी भी ‘पारंपरिक’ कारण/व्याख्या – रंग, नस्ल, धर्म, जाति, राष्ट्रीयता, विचारधारा, सम्पत्ति या उसके अभाव से पीड़ित नहीं. वह सिर्फ इसलिए एक पीड़ित है कि वो या उसका कोई परिजन, मित्र एक स्थान-विशेष पर एक समय-विशेष पर मौजूद था. पहले दोनों मज़मून जहाँ इस नयी आतंकवादी हिंसा की यादृच्छिकता, इसकी समाज-मनोवैज्ञानिक श्रेणियों और इसके संभावित उपचारों का विश्लेषण करते हैं वहीं सुधीर चंद्र का गाँधी-स्मरण इस पूरे परिदृश्य का न सिर्फ़ एक काउंटर-प्वायंट है, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के विशेष संदर्भ में अहिंसात्मक प्रतिरोध के इतिहास को ठीक उस बिंदु पर पढ़ता है जहाँ वह स्वयं अपने प्रणेता के द्वारा प्रश्नांकित है. क्या गाँधी की सफलता से अधिक उनकी असफलता को ठीक से – जैसी वह है वैसे – पढ़ने से ही उनका सार्थक पुनराविष्कार संभव है?

The lead feature of our first anniversary issue, focusing on terror in our public and private spaces, comprises of 3 pieces: An interview with Ashis Nandy, Ashwani Kumar’s essay that tries to read what has become the Indian counterpart of 9/11 in the mainstream media (“26/11”), and excerpts from Sudhir Chandra’s new book on the last days of Mahatma Gandhi.

The first two pieces are examples of the kind of discourse that focuses on the victims of the most violent public face of terror – terrorism. With bombings and serial blasts, we have entered a unique phase in human history. We are confronting a completely new, unprecedented kind of victim who is victimized not for his/her gender, color, caste, nationality, identity, ideology, property, wealth or lack of it. Instead, this is a victim who is victimized only because s/he happened to be there at a particular place at a particular time.

Whereas the first two pieces analyze this new terrorism, its randomness, its socio/psychological categories and its probable solutions, Sudhir Chandra’s piece on Gandhi serves not only as a counterpoint, but reads nonviolent resistance, particularly in the context of the Indian subcontinent, precisely at the point where it is questioned by its own originator. Can it be that the meaningful rediscovery of Gandhi is possible more by reading his failures – for what they are – than by reading his successes?



Translating Bharat / India: Something Will Ring

शीर्ष कथा / Lead Feature

एक बार फिर, हमारी शीर्ष कथा कई मज़मूनों से बनी है और पिछले अंक के सम्पादकीय की थीम को आगे बढ़ाती है। जैसा पिछले सम्पादकीय में कहा गया था, हमारे समय में अनुवाद के नये संकेतक/मध्यस्थ सक्रिय हुए हैं। भारत में, भारत के विषय में अनुवाद को लेकर सक्रियता अकादमिक और व्यावसायिक दोनों स्तरों पर नये ढंग से बढ़ी है। इस वर्ष के शुरु में सियाही ने अनुवाद पर एक आयोजन किया जिसका शीर्षक था ट्रांसलेटिंग भारत. उस आयोजन में भारतीय भाषाओँ के अलावा मुख्यतः फ्रांसीसी और ब्रितानी अनुवादकों और साहित्यिक एजेंटो ने हिस्सेस्दारी की. पिछले महीने स्विट्जरलैंड के लोज़ान विश्वविद्यालय में एक आयोजन हुआ जिसका शीर्षक था ट्रांसलेटिंग इंडिया. इसमें हिन्दी लेखकों, आलोचकों और इतिहासकारों के साथ साथ स्विस, फ्रांसीसी, जर्मन और अमेरिकन अकादमिकों ने हिस्सेदारी की. सियाही के आयोजन के उद्देश्यों में ‘आर्थिक महाशक्ति’ के तौर पर उभरे देश और ‘ग्लोबल हो रहे संसार’ में भारत से अनुवाद की संभावनाओं का पता लगाना, अनुवाद कर्म और अनुवाद उद्योग की समस्याओं पर विचार करना और भारतीय भाषाओं से अंग्रेज़ी एवं यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद कर्म से जुड़े विभिन्न व्यावसायिकों को एक नेट्वर्किंग प्लेटफार्म उपलब्ध करना था. लोज़ान विश्वविद्यालय के आयोजन का उद्देश्य हिन्दी साहित्य के अनुवादों से निर्मित होने वाले ‘सांस्कृतिक भारत’ का अध्ययन करना था. लोज़ान का आयोजन अधिक औपचारिक रूप से वैचारिक/अकादमिक किस्म का आयोजन था और इसमें पढ़े गए पर्चे विश्वविद्यालय द्वारा प्रोफेसर माया बर्गर और निकोला पोज्जा के संपादन में पुस्तककाकार प्रकाशित होंगे. उसमें पढ़े गए पर्चों में से पाँच हमारी शीर्ष कथा में शामिल हैं. प्रतिलिपि में उनके प्रकाशन की अनुमति के लिए हम माया और निकोला के आभारी हैं.

Once more, our Lead Story is the sum of many parts and takes forward the theme set out in the last issue’s Editorial. As was stated in that Editorial, in our time, new signifiers/mediators of translation have become active. Whether academic or commercial, there seems to be an increase in activity around translation in India and about India. At the start of the year 2008, Siyahi organized a translation event titled “Translating Bharat” in which the participants included French and British translators, besides those working in Indian languages, and literary agents. Last month, there was a conference at Laussane University (Switzerland) titled “Translating India“. Participants included Hindi writers, critics and historians as well as Swiss, French, German and American academics. The aims of Siyahi’s event were to explore the possibilities of translation in India (an ‘economic superpower’ in a ‘globalized world’), to discuss the various problems in the process and the economics of translation, and to provide a platform for networking to people in the translation market. The conference at Laussane intended to study the ‘Cultural India’ created by translations. This event was obviously more academic in nature and the papers read here will be published in book form, edited by Maya Burger and Nicola Pozza. Pratilipi is grateful to Maya and Nicola for permission to print five of those papers as part of our Lead Story.

[Continued…]



In Search of Ramanand – The Guru of Kabir and Others: Purushottam Agrawal

शीर्ष कथा / Lead Feature

प्रसिद्द कबीर अध्येता पुरुषोत्तम अग्रवाल का यह शोध आलेख उस रामानंद की खोज करता है जिसे परम्पराएं और मध्यकालीन स्रोत संत-कवि कबीर और अन्यों के गुरु की तरह स्वीकार करती आयी हैं किन्तु आधुनिक पांडित्य न सिर्फ़ ‘एक ब्राह्मण’ रामानंद के ‘एक जुलाहे’ कबीर का गुरु होने से, बल्कि दोनों के समकालीन होने से भी इनकार करता है. यह पाठ, सप्रमाण, इन दोनों आधुनिक मिथकों का खंडन करते हुए उस ‘संस्कृत रामानंद’ को भी एक्सपोज करता है जिसे बीसवीं शताब्दी में ‘आविष्कृत’ किया गया और जिसे बाद के शोधकर्ताओं ने सर्वसम्मति से ‘ऐतिहासिक रामानंद’ की तरह प्रतिष्ठित कर दिया.

पुरुषोत्तम अग्रवाल का पाठ ‘संस्कृत रामानंद’ के बरक्स ‘हिन्दी रामानंद’ को, ‘आधुनिक’ के बरक्स ‘मध्यकालीन’ को पढ़ते हुए अस्मितामूलक विमर्शों का, और उनमें सक्रिय ‘प्रामाणिक प्रतिनिधित्व’ की धारणा का भी, क्रिटीक निर्मित करता है, जो समूची परंपराओं को ‘संस्थाबद्ध साज़िश’ में और एक मनुष्य को अपनी जातीय, सामुदायिक पहचान के आत्मचेतनाहीन नमूने (Sample) में घटा देती है.जैसा यह पाठ कटु व्यंग्य से पूछता है, क्या कबीर के ‘प्रामाणिक प्रतिनिधित्व’ के लिये हमें किसी ‘ओबीसी आलोचक’ की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी?

Renowned Kabir scholar, Purushottam Agarwal’s research paper sets off in search of Ramanand whom tradition(s) and medieval sources have referred to as the guru of the Sant-poet Kabir and others. Modern scholarship, however, holds that Ramanand and Kabir were not contemporaries and that the Brahman Ramanand could not have been the guru of the low-caste Kabir. This text, in disproving both these modern myths also exposes the ‘Sanskrit Ramanand’ as a 20th century construct whom later scholars have, almost unanimously, estabished as the ‘Historic Ramanand’.

By reading the ‘Hindi Ramanand’ against the ‘Sanskrit Ramanand’, the ‘medieval’ against the ‘modern’, Purushottam Agarwal’s text develops a critique of the identity discourses (and the undercurrent notion of ‘authentic representation’) which reduce entire traditions into ‘institutionalized conspiracies’ and reduce a human being to merely a function of his caste or communal identity. As the text asks sarcastically, will we have to wait for a “critic belonging to the OBCs” to receive an “authentic representation” of Kabir?