आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

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विशेष – एक तिलस्मी उपाख्यान: वागीश शुक्ल

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Wagish Shukla has been writing a novel, Atha Yajnyavalkyopakhyaan, for some years now; some of its extracts have appeared in Hindi magazines and journals. We are happy to publish excerpts from Vishesh: Ek Tilismi Upakhyaan, written recently and intended to be a part of the novel.

वागीश शुक्ल पिछले कई वर्षों से एक उपन्यास लिख रहे हैं, अथः याज्ञवल्क्योपाख्यान, जिसके कुछ अंश हिन्दी पत्रिकाओं में छप चुके हैं. हमें खुशी है कि इस सिलसिले में हाल ही में लिखे गए इस उपाख्यान का एक अंश हम यहाँ प्रकाशित कर कर रहे हैं.



The Role of Dalits in the 1857 Revolt: Badri Narayan

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पिछले अंक में सुधीर चंद्र ने अपने आलेख में १८५७ के बौद्धिक उत्तरजीवन को विषय बनाया था; इस बार हिन्दी कवि और समाज विज्ञानी बद्री नारायण इसी क्रांति में दलित जातियों के योगदान के विषय में मुख्यधारा और दलित इतिहासकारों के महावृतान्तों के समकक्ष दलित लोक स्मृति में बसे आख्यानों और मिथकों की पड़ताल करते हुए न सिर्फ़ मुख्यधारा वृतान्तों में गौण इतिहास के विलोपन का एक और किस्सा बयान करते हैं, बल्कि इतिहास को समायोजित करने वाली समकालीन प्रेरणाओं की और भी इशारा करते है.

Like Sudhir Chandra in the previous issue, Hindi poet and social scientist Badri Narayan also returns to 1857, but to write about the role of dalit caste groups in the revolt. By reading together the narratives and myths in Dalit oral memory with the versions of mainstream and Dalit historians, Badri Narayan’s text not only tells another tale of a piece of subaltern history effaced in the mainstream narratives but also makes a hint at the contemporary interests that inspire readjusting of history.



Death and the Self: Rustam (Singh)

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पिछले अंक में प्रकाशित सेल्फ एंड टाइम की श्रृंखला में, उसका एक ‘सखा-पाठ’, जिसे लगभग उन्हीँ संकेतकों से चिन्हित किया जा सकता है जिससे कि इसके पूर्वर्ती को: दिगंबर सरलता, प्रदर्शनविमुखता आदि.

A companion to the previous issue’s Self and Time, this text is also marked by the same signifiers: naked simplicity, lack of exhibitionism et cetera.



रंग अभी गीले हैं: मलयज

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This month will see the publication of Malayaj’s correspondence with Hindi poet, novelist and critic Ramesh Chandra Shah. We are grateful to poet and fiction-writer Aniruddh Umath, and Prashant Bissa of Surya Prakshan Mandir, for making its excerpts available to us.

हिन्दी कवि-कथाकार-आलोचक रमेश चंद्र शाह के नाम लिखे गए मलयज के पत्र सूर्य प्रकाशन मन्दिर से शीघ्र प्रकाश्य हैं. पैंतीस बरस पुराने इस संवाद के अंश उपलब्ध कराने के लिए हम कवि-कथाकार अनिरुद्ध उमट के कृतज्ञ हैं.



तीन कवि और एक स्त्री-मैक्स ब्रॉड / Three Poets and a Female Max Brod

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हिन्दी कवि-अनुवादक तेजी ग्रोवर इस अंक में तीन कवियों को ‘प्रकाशित’ कर रही हैं सार्वजनिक स्पेस में. ‘प्रकाशन’ और ‘विश्वासघात’ की इस ‘घटना’ पर हमारी संक्षिप्त पूर्व-पीठिका.

Hindi poet and translator Teji Grover ‘unearths’ three poets who have resisted a public identity as poets. We preface this act of publication and betrayal.



1857 And The Indian Intelligentsia: Sudhir Chandra

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Social historian Sudhir Chandra,by reading together and against the generations of the native intelligentsia’s response to the event, problematizes the intellectual after-life of 1857, a chronolgical mark more deeply stamped in Indian collective memory, perhaphs, than 1947, ‘Chhabbis Janvari’ etc.

१८५७ की संघटना के विषय में की गयी ‘नेटिव’ प्रतिक्रियाओं की कई पीढियों को एक दूसरे के साथ और विरुद्ध पढ़ते हुए, समाजेतिहासकार सुधीर चंद्र १८५७ के बौद्धिक उत्तर-जीवन को समस्यांकित करते है. उस १८५७ को जो, संभवतः, सामूहिक भारतीय स्मृति में १९४७, ‘छब्बीस जनवरी’ जैसे अन्य तिथिक्रमिय चिह्नों से अधिक गहरा अंकित है.



Self And Time: Rustam (Singh)

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Minus all kinds of scholarly exhibitionism, Rustam’s text is inquiring at its barest, simplest. Self and time become ideas, much happier in the company of a writing-self that is unimposing to the extent that it is virtually absent (except when it decides to appear in italics).

सभी तरह की अकादमिक प्रदर्शनप्रियता से बचते हुए, रुस्तम का पाठ ‘दार्शनिक अन्वेषण’ की दुसाध्य, दिगंबर-सरलता का एक आकार है. इस पाठ में, ‘आत्म’ और ‘काल’ ‘प्रसन्न’ प्रत्यय हो जाते हैं एक ऐसे लेखकीय-आत्म की संगत में आकर जो अपने को पाठ पर इतना कम आरोपित करता है कि उसके ‘अनुपस्थित’ होने का आभास होता है (सिवाय उन क्षणों के जब वह अपने को इटेलिक्स में प्रकट करता है).