लोक-प्रिय / Lok-Priya
फीचर्स / Featuresटेलिविजन ने आतंक को एक नज़ारे में – एक्शन और स्पाई सिनेमा के ‘गल्पात्मक’ के बरक्स ‘वास्तविक’ नज़ारे में बदला है; युद्ध कैमरे के सामने लड़े जाते हैं, उनका सीधा प्रसारण संभव है.
युवा शोधकर्ता विनीत कुमार टेलिविजन द्वारा ‘आतंकवादी’ की पॉपुलर छवि के निर्माण की प्रक्रिया पर लिखते हुए यह कहते हैं कि यह छवि एडीटिंग मशीन पर निर्मित छवि है और टेलिविजन पर ‘आतंकवाद’ एक बिकाऊ उत्पाद बन चुका है. टेलिविजन और आतंक के सिलसिले में जेन भंडारी की कवितायें भी पठनीय हैं.
रे ब्रैडबरी के 1953 में प्रकाशित उपन्यास ‘फॉरेनहाइट 451’ पर 1966 में फ्रांस्वा त्रुफो द्वारा बनाई गई फिल्म का एक समकालीन पठन किया है पुरुषोत्तम अग्रवाल ने क्योंकि ‘आहत भावनाओं, राष्ट्रहित या ‘सही’ विचार की रक्षा के नाम पर किताबों पर बढ़ते हमलों का समय, गंभीर समस्याओं को पंद्रह सेकंड की बाइट में निबटाते और पुलिस मुठभेड़ों और फांसियों के लाइव टेलीकास्ट करते खबरिया चैनलों का समय कहाँ भूलने देता है- ‘फॉरेनहाइट 451’ को.
लोक-प्रिय में इसके अतिरिक्त है (अमेरिकी) सुपरहीरो की अवधारणा और उसमें उत्तर-९/११ आये परिवर्तनों पर गिरिराज किराडू का गद्य.
Television has turned terror into a spectacle – a “real” spectacle as opposed to the “fictional” spectacle of action cinema. Wars are fought on camera and telecast live.
But young media-scholar Vineet Kumar, while writing how television has constructed the popular stereotyped image of a ‘terrorist’, says that this conception is one that has been born on the editing machine, and that terrorism has become a salable commodity on television. Jane Bhandari’s poems on TV and terror are also worthwhile.
Purushottam Agrawal does a contemporary reading of Truffaut’s 1966 film “Fahrenheit 451” (based on Ray Bradbury’s 1953 novel of the same name) because “These times, when books are increasingly being attacked for having “hurt sentiments”, or to protect “national interest” or “correct” thought, where news-channels deal with serious matters in 15-second bites and telecast, live, police skirmishes and hangings… these times will not let me forget Fahrenheit 451.”
Besides these texts, Lok-Priy also features Giriraj Kiradoo’s essay on the myth of the (American) superhero and the changes it has seen, post-9/11.