आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

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लोक-प्रिय / Lok-Priya

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टेलिविजन ने आतंक को एक नज़ारे में – एक्शन और स्पाई सिनेमा के ‘गल्पात्मक’ के बरक्स ‘वास्तविक’ नज़ारे में बदला है; युद्ध कैमरे के सामने लड़े जाते हैं, उनका सीधा प्रसारण संभव है.

युवा शोधकर्ता विनीत कुमार टेलिविजन द्वारा ‘आतंकवादी’ की पॉपुलर छवि के निर्माण की प्रक्रिया पर लिखते हुए यह कहते हैं कि यह छवि एडीटिंग मशीन पर निर्मित छवि है और टेलिविजन पर ‘आतंकवाद’ एक बिकाऊ उत्पाद बन चुका है. टेलिविजन और आतंक के सिलसिले में जेन भंडारी की कवितायें भी पठनीय हैं.

रे ब्रैडबरी के 1953 में प्रकाशित उपन्यास ‘फॉरेनहाइट 451’ पर 1966 में फ्रांस्वा त्रुफो द्वारा बनाई गई फिल्म का एक समकालीन पठन किया है पुरुषोत्तम अग्रवाल ने क्योंकि ‘आहत भावनाओं, राष्ट्रहित या ‘सही’ विचार की रक्षा के नाम पर किताबों पर बढ़ते हमलों का समय, गंभीर समस्याओं को पंद्रह सेकंड की बाइट में निबटाते और पुलिस मुठभेड़ों और फांसियों के लाइव टेलीकास्ट करते खबरिया चैनलों का समय कहाँ भूलने देता है- ‘फॉरेनहाइट 451’ को.

लोक-प्रिय में इसके अतिरिक्त है (अमेरिकी) सुपरहीरो की अवधारणा और उसमें उत्तर-९/११ आये परिवर्तनों पर गिरिराज किराडू का गद्य.

Television has turned terror into a spectacle – a “real” spectacle as opposed to the “fictional” spectacle of action cinema. Wars are fought on camera and telecast live.

But young media-scholar Vineet Kumar, while writing how television has constructed the popular stereotyped image of a ‘terrorist’, says that this conception is one that has been born on the editing machine, and that terrorism has become a salable commodity on television. Jane Bhandari’s poems on TV and terror are also worthwhile.

Purushottam Agrawal does a contemporary reading of Truffaut’s 1966 film “Fahrenheit 451” (based on Ray Bradbury’s 1953 novel of the same name) because “These times, when books are increasingly being attacked for having “hurt sentiments”, or to protect “national interest” or “correct” thought, where news-channels deal with serious matters in 15-second bites and telecast, live, police skirmishes and hangings… these times will not let me forget Fahrenheit 451.”

Besides these texts, Lok-Priy also features Giriraj Kiradoo’s essay on the myth of the (American) superhero and the changes it has seen, post-9/11.



प्रतिलिपि प्रश्नावली/Pratilipi Questionnaire

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प्रतिलिपि की आतंक के अनुभव पर प्रश्नावली और उस पर प्राप्त प्रतिक्रियाओं से एक चयन.

A selection from the responses to Pratilipi’s questionnaire on the experience of terror.



Home From A Distance: 4 Hindi Poets in Translation

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पिछले अंक में आपने विनय धारवाड़कर के अनुवादों में चार हिन्दी कवियों को पढ़ा. इसी क्रम में इस बार प्रस्तुत है नागार्जुन, विष्णु खरे, विनोद कुमार शुक्ल और अरुण कमल. अन्तिम तीन बहु-अनूदित कवि हैं और नागार्जुन बहुत कम अनूदित. नागार्जुन की कविता की महानता का स्वीकार देर से हुआ, जब मानों एक तरह से बूर्ज्वा प्रगतिशीलता ने सर्वहारा कवित्त को देखा, जब मानों उपनिवेशीकृत, नगरीय आधुनिकता ने (भ)देस को देखा, जब मानों कवि ने बादलों को घिरते देखा. हमें खुशी है युवा शोधकर्ता और कवि मनोज कुमार झा ने यह अनुवाद हमारे लिए किया.

विष्णु खरे ने बहुत अनूठे, अप्रत्याशित स्रोतों से कविता हिन्दी में सम्भव की है. यहाँ प्रस्तुत महाभारत, क्रिकेट की पृष्ठभूमि की कवितायें और यूरोपीय शास्त्रीय संगीत के इतिहास से कौतूहल करती कविता इसका प्रमाण है. विनोद कुमार शुक्ल को बहस करके पिछले तीस वर्षों का सबसे अधिक मौलिक और प्रयोगशील कवि/कथाकार ही नहीं, सबसे बड़ा कवि/कथाकार ठहराया जा सकता है लेकिन सौभाग्य से उनकी कविता इससे भिन्न बहुत चुनौतियों और बहुत आनंदों का मार्ग खोलती है. अरुण कमल भी नागार्जुन और विनोदकुमार शुक्ल की तरह अनुवादसुगम कवि नहीं हैं. उनकी कविता हिन्दी काव्य वाक्य को, और छंदमुक्त कविता की एकरस लय को सूक्ष्म स्तर पर उतना ही बदलती रही है जितना एक अधिक प्रत्यक्ष, ‘विजिबल’ स्तर पर विनोद कुमार शुक्ल की कविता.

In the last issue, you read 4 Hindi poets in Vinay Dharwadkar’s translation. Continuing the series, this time we present Nagarjuna, Vishnu Khare, Vinod Kumar Shukla and Arun Kamal. The latter 3 are translated often; Nagarjuna, rarely. The importance of Nagarjuna’s poetry gained a belated acceptance when, one could say, bourgeois progressivism looked back on proletariat poetry, when the colonized urban modernity looked back on the indigenous, when the poet saw clouds gathering. The young poet and research scholar Manoj Kumar Jha has translated Nagarjuna for us.

Vishnu Khare has made Hindi poetry possible from very unusual and unexpected sources. The selection of poems presented here – which play out against the backdrop of the Mahabharata, cricket and the history of western classical music – should be proof enough. One could argue that Vinod Kumar Shukla is not only Hindi’s most original and experimental writer, but also the most important. Nevertheless (and, fortunately), his poetry offers many challenges and many pleasures. Like Nagarjuna and Vinod Kumar Shukla, Arun Kamal too is not easily translatable. His poetry, like Vinod Kumar Shukla’s, transforms the Hindi poetic syntax and the rhythms of free verse, albeit more subtly.



६ कवि शहर की तलाश में

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A group of people, who would come to be friends, found themselves together in the mid-1990s. They had come to the city from different places. In time, their lives would once again take different paths. Devyani, the daughter of a Hindi/Rajasthani writer, would go from writing poetry to journalism, love, family, translation and research. The ‘critic’ of the group, Manoj Kumar Meena, would, after much thought, go into the Administrative Services. Pramod would go deeper into the field of education and working with children. Vishal Kapoor would complete his studies in History and become a guide. Shivkumar Gandhi would earn his name as a painter. And full-time poet Prabhat, too, would have much to do. But the years they were together in Jaipur, they all wrote poetry, in Hindi. (All of them still do). And indulged in experiments in living. Mostly, staying away from publication and discussion, they created poetry in their own way. We are glad we could convince them to present their work in Pratilipi.

There were two others in the group, Himanshu Pandya who would go to JNU and later become known as a critic and cultural activist; and Vishvambhar who would go on to edit one of the most significant Hindi publications on education.

१९९० के दशक के मध्य में कुछ मित्रों ने अपने को एक साथ पाया. ये अलग अलग जगहों से महानगर आए थे. अलग अलग जातियों-समुदायों के थे. कुछ समय बाद इनका जीवन फिर से अलग अलग रास्तों पर चल पड़ना था. देवयानी जो एक हिन्दी-राजस्थानी लेखक की बेटी थी उसे कविता लिखते लिखते पत्रकारिता, प्रेम, गृहस्थी, अनुवाद, शोध की ओर चले जाना था. ग्रुप के ‘आलोचक’ मनोज कुमार मीणा को बहुत सोच-विचार के बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा में चले जाना था. प्रमोद को शिक्षा और बच्चों के अपने काम में अधिक डूब जाना था. विशाल कपूर को इतिहास की पढ़ाई पूरी करके गाइड बन जाना था. शिवकुमार गाँधी को एक पेंटर के रूप में विख्यात होना था. और पूरावक्ती कवि प्रभात को भी और बहुत कुछ करना था. जिन वर्षों में ये मित्र एक शहर में एक साथ रहे इन सबको हिन्दी में कविता लिखना था. (कविता सभी अपने अपने अंतरालों में अब भी और लगातार लिखतेरहे हैं) और जीने की शैलियों के घनघोर प्रयोग करने थे. वे प्रकाशन और चर्चा के रोज़मर्रा से परे अपने ढंग से लिख रहे थे और बहुत जिम्मेदारी भरा कविकर्म कर रहे थे. हमें खुशी है ये हमारे बहकावे में आ गए.

यूँ दो और भी थे इस ग्रुप में, हिमांशु पंड्या जिन्हें जे.एन.यू से पढ़ाई करके हिन्दी पढ़ना था और संस्कृति कर्मी/आलोचक बनना था और विश्वंभर जिन्हें हिन्दी में शिक्षा की सबसे महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में से एक का यशस्वी संपादक होना था.



किताबत / Kitabat

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We have sometimes had pieces about books in Pratilipi, but not nearly as much as we’d like. We are introducing a new (irregular?) section in this issue – Kitabat – which will talk about books but not be limited to ‘criticism’. To start off, we have pieces on 2 Hindi books: one on Pankaj Chaturvedi’s book of poems by the young research scholar Mrityunjay, the other on Gagan Gill’s account of her journey to Kailash-Mansarovar, Avaak. Another essay by Giriraj Kiradoo, published under the lead story, is also basically a reading of Tejaswini Niranjan’s Siting Translation: History, Post-structuralism and the Colonial Context.

प्रतिलिपि में पुस्तकों पर कभी कभी लिखा गया है किंतु यह एक कमी बनी रही है. इस बार से हम एक अनियतकालिक स्तम्भ ‘किताबत’ शुरू कर रहे हैं जिसे हम इस समीक्षा-सीमित स्पेस नहीं बनाना चाहते. इस बार दो हिन्दी पुस्तकों पर लिखा गया है. पंकज चतुर्वेदी की कविताओं की किताब पर लिख रहे हैं युवा शोधकर्ता मृत्यंजय और गगन गिल के कैलाश-मानसरोवर यात्रा वृतांत अवाक् पर गिरिराज किराडू. शीर्ष कथा के अंतर्गत प्रकाशित गिरिराज किराडू का निबंध भी मूलतः तेजस्विनी निरंजन की पुस्तक साईटिंग ट्रांसलेशन: हिस्ट्री, पोस्ट-स्ट्रक्च्रलिज्म एंड द कॉलोनियल कन्टेक्स्ट की एक पढ़त है.



Indian Documentary: Peripheral Visions

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भारतीय डॉक्यूमेन्टरी फिल्मकारों के अपने काम के बारे में लेखन की श्रृंखला में इस बार प्रस्तुत है दो ऐसे फिल्मकार जो श्रृंखला-संयोजक श्रीदला स्वामी के शब्दों में भारतीय राष्ट्रराज्य की परिधि के, मुख्यधारा के बाहर हाशिये के यथार्थ को व्यंजित करते हैं. मणिपुर में एक महिला की हत्या के विरोध में जुलाई २००४ में १२ महिलाओं द्वारा किए गए ‘न्यूड प्रोटेस्ट’ को मुख्यधारा मीडिया में एक उत्तेजक ख़बर की देखना सबको याद होगा. कविता अपनी फ़िल्म टेल्स फ्रॉम मार्जिन्स में उस ख़बर के आर पार जाती हैं और मणिपुर में जारी अशांति को मूलतः राष्ट्र के महाख्यान में उपेक्षित हाशिये की त्रासदी की तरह देखती हैं.

अपनी फ़िल्म जश्न-ए-आजादी के बारे में लिखते हुए संजय काक अपने निबंध में उस सांस्कृतिक-राजनीतिक भूगोल के बारे में लिखते है जिसमें उन्होंने फ़िल्म को टुकडा टुकडा इकठ्ठा किया. ‘फ़िल्म के स्क्रीनिंग इतिहास’ पर बात करते हुए वे एक ऐसे बिन्दु पर पहुँचते है जहाँ भारत के छोटे छोटे शहरों पटना, नासिक, शिलाँग, गोरखपुर, बरेली की ‘ऑडियेन्स’ का खुलापन और बौद्धिक उत्सुकता ख़ुद उन्हें हैरत में डाल देते हैं. उनका निबंध फ़िल्म, उसकी राजनीति, उसकी निर्माण प्रक्रिया, को उसके ग्रहण की प्रक्रिया से भिन्न नहीं करने का आग्रह करता है.

Continuing our feature on Indian documentary films, we present two filmmakers who, according to series-curator Sridala Swami, give voice to the realities of the Indian nation-state’s peripheries, give voice to those outside the mainstream. You will remember the mainstream media’s sensationalized reporting of the ‘naked protest’ by 12 women against the custodial killing of a young woman named Thangjam Manorama in Manipur (July 2007). In her film Tales from the Margins, Kavita Joshi goes beyond the news and reads the ongoing unrest in Manipur as the tragedy of the margins neglected in the national narrative.

Writing about his film Jashn-e-Azadi, Sanjay Kak tells us about the cultural and political backdrop against which he gathered the raw material for his film. Writing about the film’s ‘screening history’, he tells us of the surprising openness and intellectual curiosity he encounters in his audience in small towns like Shillong, Nashik, Patna, Gorakhpur and Bareilly. His essay argues that a film, its politics and its making are inseparable from the ways it is received/viewed.



लोक-प्रिय/Lok-Priya: दास्तानगोई/Dangal

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When Mahmood Farooqui, a Rhodes Scholar, returned to India from Oxford, he would never have guessed that in the coming years he’d become involved with a lost tradition and art of telling stories. Mahmood, single-handedly, is responsible for reviving ‘Dastangoi’. Solo, at first, and then with the English poet Danish Husain, he has traveled around the world presenting fantastic tales from the Dastan e Amir Hamza. Here we present you Mita’s interview with Mahmood and Danish.

You can find poets of a different sort in the district of Alwar, Rajasthan. They are not versifying comedians, yet thousands come to hear them. These events are not called ‘poetry readings’ but ‘dangals’. And in these dangals, stories too are often told. We present here a piece on the tradition of dangals, its current stars poets – Dhavale and Jagan – and the society in which these dangals take place, by the poet Prabhat, as well as a video of one such performance, courtesy Madan Meena.

महमूद फ़ारूकी जब अपनी रोड्स स्कालरशिप ख़त्म करके हिंदुस्तान लौटे तो उन्हें अंदाजा नहीं था कि आने वाले सालों में उनकी ज़िंदगी किस्सा कहने की एक लुप्त हो चुकी परम्परा को, दास्ताँ सुनाने की एक चलनबाहर कला-शैली को फ़िर से जीवित करने के एक दिलचस्प कारोबार में उलझ जायेगी. महमूद ने अपने दम पर इस ‘दास्तानगोई’ को पुनर्जीवित कर दिया है. पहले अकेले और बाद में अंग्रेज़ी कवि दानिश हुसैन के साथ देश-विदेश के कई शहरों में उन्होंने दास्तान-ए-हम्ज़ा के हैरतंगेज़ किस्सों, कारनामों को पेश किया है. यहाँ प्रस्तुत है दोनों से पत्रकार-लेखक मीता कपूर की बातचीत.

राजस्थान के अलवर जिले में कुछ अलग तरह के कवि पाए जाते हैं. उनको सुनने हजारों आते है और वे हास्यकवि नहीं हैं. उनके कविता आयोजनों को ‘कवितापाठ’ नहीं ‘दंगल’ कहा जाता है और इन पद-दंगलों में भी अक्सर कहानियाँ कही जाती है. यहाँ प्रस्तुत है दंगल की परम्परा, उसके वर्तमान ‘स्टार कवियों’ – धवले और जगन – तथा इस सबके साथ साथ उस समाज के बारे में हिन्दी कवि और इस इलाके की भाषा में ख़ुद भी कविता करने वाले प्रभात का लेख और एक दंगल का वीडियो जिसे उपलब्ध कराने के लिए हम मदन मीणा के आभारी हैं.



No Other Tongue: 4 Hindi Poets in Vinay Dharwadker’s Translation

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प्रसिद्द अकादमीशियन, कवि और अनुवादक विनय धारवाड़कर के ये अनुवाद पिछले ४० बरस में हिन्दी कविता को सबसे ज़्यादा प्रभावित करने वाले कवियों में से चार का काम अंग्रेजी में एक समुच्चय में रखते हैं. मुख्यतः सत्तर और अस्सी के दशक की यह कवितायें हिन्दी के दो, एक दूसरे से बहुत भिन्न, एंग्री यंग कवियों धूमिल और श्रीकांत वर्मा से होते हुए केदारनाथ सिंह के बोलचाल के आत्मीय लहजे और कुंवर नारायण के ज्ञान मार्ग की ओर आती हैं. हिन्दी काव्य वाक्य जैसा अभी अक्सर दिखता है, उस पर इन चार कवियों का गहरा असर है.

These translations by renowned academician, poet and translator, Vinay Dharwadkar, bring together works by 4 of the most influential Hindi poets of the past 40 years. Mostly from the 70s and 80s, this selection begins with some angry young poetry by two (very different) poets Dhoomil and Shreekant Verma, moves on to Kedarnath Singh’s intimate, conversational tone, finally reaching the Gyan Marg of Kunwar Narain. Hindi syntax, as one now finds it in poetry, owes much to these four poets.



मृत्युरोग: मार्ग्रीत द्यूरास

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Marguerite Duras’ barely 5000 word long novel, La Maladie de la Mort, has been praised for a new configuration of impermanence, love, eroticism and absence; for its serious experimentation with the form and structure of the novel; for creating feminist images of sexuality, as an act of resistance. It has been staged many times – the novel itself provides directions / suggestions for this.

Here, we present excerpts from Teji Grover’s Hindi translation (via English) of the same.

बमुश्किल ५००० शब्दों में लिखे गये फ्रेंच उपन्यासकार और फ़िल्मकार मार्ग्रीत द्यूरास के उपन्यास ला मलदि द ला मॉह को नश्वरता, प्रेम, रति, अनुपस्थिति के नए संयोजनों की तरह, उपन्यास के रूप और सरंचना के साथ किए गए एक गंभीर प्रयोग की तरह, यौनता की स्त्रीवादी छवियाँ गढ़ने वाले प्रतिरोधी कलाकर्म की तरह पढ़ा गया है. इसे कई बार मंचित भी किया गया है, ख़ुद उपन्यास इसके लिए निर्देश / सुझाव उपलब्ध कराता है.

यहाँ प्रस्तुत है हिन्दी कवि-कथाकार तेजी ग्रोवर के अंग्रेज़ी के मार्फ़त किए गए अनुवाद के कुछ अंश.



An Interview with Kasi Anandan: Meena Kandasamy

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तमिल ईलम संघर्ष के पिछले ४० बरस से मुख्य स्वर रहे, क्रांतिकारी-लिरिकल कवि कासी आनंदन से युवा दलित अंग्रेज़ी कवि मीना कंदसामी की बातचीत और उनकी कुछ कविताओं के अंग्रेज़ी एवं हिन्दी अनुवाद. मूल से अंग्रेज़ी में लाने का काम मीना कंदसामी ने किया है और अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद गिरिराज किराडू ने. राजनितिक कविता के बोझिल बड़बोलेपन के बरक्स कासी की लगभग सूक्तिनुमा छोटी-छोटी कवितायें मितव्ययी होने के साथ ‘अचूक’ होने में विश्वास करती हैं;, वे महाकाव्यात्मकताओं के छल को पहचानते हैं. दूसरी तरफ़ साक्षात्कार में वे ‘सुंदर’ के विरूद्ध अपनी रणनीति के बारे में बात करते हैं.

English poet Meena Kandasamy’s conversation with revolutionary-lyrical poet Kasi Anandan who has been the voice of the Tamil Eelam struggle for the past 40 years, along with some of his poems translated into English (Meena Kansadasmy) and Hindi (Giriraj Kiradoo). In contrast to the tedious stridency of most political poems, Kasi’s poems are epigrammatic and precise: he has come to recognize the emptiness of the epic grandiosity. On the other hand, he also talks about his stand against beauty.