आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

फीचर्स / Features

एक देश के दो विभाजित आत्म / The Divided Self of a Country

फीचर्स / Features

भारतीय उपमहाद्वीप के आधुनिक इतिहास में – औपनिवेशिक और उपनिवेशोत्तर के, गुलामी और आज़ादी के ठीक संधि स्थल पर – विभाजन हिंसा के आतंक का पहला, और संभवतः सबसे जटिल, सबसे त्रासद, सबसे अधिक दूरगामी प्रभाव वाला ऐसा अनुभव है जिसने निजी और सार्वजनिक दोनों स्तरों पर करोडों लोगों के जीवन को और दो नवजात राष्ट्र राज्यों की दिशा को प्रभावित किया. यहाँ सआदत हसन मंटो और मोहन राकेश की कहानियाँ और कृष्ण बलदेव वैद के उपन्यास-अंश के साथ है सुकृता पॉल कुमार का शोधपत्र जो विभाजन की पूर्णतः पुरूष-हिंसा को स्त्री देह और आत्म के वध के रूपक में पढ़ता है; युवा समाजविज्ञानी सदन झा का गद्य जो विभाजन के अनुभव को सुनने के संत्रास के साथ साथ उस दूरी का भी पाठ करता है जो अनुभव और उसके वचन, पीडित और शोधकर्ता, इतिहास और वर्तमान के मध्य है और आलोक भल्ला का निबंध जो विभाजन और अस्मिता राजनीति को भाषा – ‘अन्य’ के साथ संबंध स्थापित करने की मनुष्य की सबसे बुनियादी कोशिश- के एक फलित के रूप में मन के नगर में अहिंसा के अनूठे बिम्ब में अवस्थित करता है.

In the modern history of the Indian subcontinent – at the point where the Colonial and the Post-Colonial, where slavery and freedom, intersect – Partition is the first experience of the terror of violence, and probably the most complex, most tragic and most far-reaching in its effects. One that, on private and public levels, changed the lives of millions of people and affected the direction that the two resulting, newborn nation-states would take. In this feature we present stories by Saadat Hasan Manto and Mohan Rakesh, an excerpt from Krishna Baldev Vaid’s novel, Sukrita Paul Kumar’s paper that reads Partition as “the uncontrolled release of a bizarre male violence on the one hand and a nerve-wrecking dis-membering of the female body and self on the other.” We also have a piece by the young sociologist Sadan Jha which not only presents the anxiety of hearing accounts of Partition, but also reads the distance between experience and its expression, between a victim and a researcher, between history and the present, and an essay by Alok Bhalla that locates Partition and identity politics as reflected in language – the most basic means of communicating with the “other” – and invents this fascinating metaphor of non-violence in the city of the mind.



हँसो कि तुम पर निगाह रखी जा रही है / Big Brother’s Watching You

फीचर्स / Features

भारत में लोकतंत्र पर, एक जीवन पद्धति के रूप में स्वराज पर पहला सांघातिक आक्रमण आपातकाल के रूप में था – एक ऐसा राजनीतिक निर्णय जिसने एक भारतीय (नागरिक) के राष्ट्र राज्य के साथ संबंध को हमेशा के लिये बदल दिया. लोकतांत्रिक अधिकारों के स्थगन/हनन और सेंसरशिप के साथ साथ यह स्वाधीन भारतीय मनुष्य के चित्त में एक सर्वथा नये किस्म के आतंक – सर्विलेंस – का, आर्वेलियन डिस्टोपिया का पहला, पीड़ापूर्ण दृष्टांत था.

इस खण्ड में है आपातकाल के समय की हिन्दी पत्र पत्रिकाओं और सेंसरशिप पर अमरेंद्र शर्मा का शोध पत्र.

The first deadly attack on Indian democracy, on Swaraj as a way of life, came in the form of Emergency – a political decision that forever changed the way an Indian (citizen) related to the nation-state. Along with censorship and the suspension/erosion of democratic rights, it was also the first, painful introduction of Indian citizens to an entirely new sort of terror – that of the Surveillance State, of the Orwellian dystopia.

In this feature, we present Amarendra Sharma’s paper on the censorship of Hindi newspapers, magazines etc. during Emergency.



उत्तर-पूर्व की आवाज़ / Voices From the North-East

फीचर्स / Features

यह बहुत दुखद है कि उत्तर-पूर्व में इतने लम्बे समय से जारी अशांति, हिंसा और आतंकवाद भारतीय राष्ट्र राज्य की मुख्यधारा में एक गौण विषयांतर से अधिक नहीं है – विडंबनापूर्वक ढंग से राष्ट्रीय मुख्यधारा के कलाकर्म में भी जो अन्यथा बहुत आक्रोशमय और प्रतिश्रुत नज़र आता है. तरूण भारतीय के अनुवाद में छह कवियों की और उद्दीपना की कविताएँ तथा तीन कथाकारों – मित्रा फूकन, श्रुतिमाला और आरूणी कश्यप की कहानियाँ हमें यह याद दिलाती है कि ‘उत्तर-पूर्व’ एक भौगोलिक, राजनीतिक इकॉनामि या ईकाई भर नहीं, वह कई भाषाओं, संस्कृतियों का एक समुच्चय है.

It is tragic that the long-running unrest, violence and terrorism in the North-East has remained a mere digression in the mainstream of the Indian nation-state – ironically, even in the mainstream arts that otherwise come across as very charged and political. The poems by Uddipana Goswami and six poets translated by Tarun Bhartiya, along with stories by Mitra Phuka, Srutimala Duara and Aruni Kashyap, serve as a reminder that the “North-East” is not a geographical, political unit, but a place of many languages and cultures.



‘झूठा’ राज्य / The State That Failed

फीचर्स / Features

दिल्ली चौरासी और गुजरात दो हजार दो को मुख्यतः भारतीय राष्ट्र राज्य की विफलता की तरह, उसके संवैधानिक ‘प्रॉमिस’ के उल्लंघन की तरह, नागरिक-घात की तरह पढ़ा गया है. ज्ञानपीठ से सम्मानित असमिया लेखक इंदिरा गोस्वामी अपने साक्षात्कार में कहती हैं कि चौरासी में दिल्ली में होने का ‘यथार्थ’ और उनके उपन्यास ख़ून से भरे पन्ने का ‘गल्प’ दोनों ‘एक’ ही वस्तु हैं. सारा राय की कहानी (अंग्रेजी अनुवाद में) और यहाँ पुनर्प्रकाशित कुंवर नारायण, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल, देवीप्रसाद मिश्र और कात्यायनी की हिन्दी कवितायें तथा सुकृता पॉल कुमार और माईकल क्रेटन की अंग्रेजी कविताएँ गुजरात त्रासदी के अपरिहार्य नागरिक-राजनीतिक संवेदन के साथ साथ मनुष्य होने की गरिमा के पराभव और कला के औचित्य पर संदेह का भी बखान हैं. हिन्दी कविताओं का चयन युवा कवि व्योमेश शुक्ल ने किया है.

Delhi 1984 and Gujarat 2002 have been read mostly as a failure of the Indian nation-state, as a violation of its constitutional “promise”. Jnanpith winner Indira Goswami says in her interview that the “reality” of being in the Delhi of 1984 and the “fiction” of her novel Pages Stained with Blood is one and the same. Sara Rai’s story (in English translation) and the poems by Kunwar Narain, Vishnu Khare, Mangalesh Dabral, Deviprasad Mishra, Katyayani (in Hindi), Sukrita Paul Kumar and Michael Creighton (in English) tell not only of the unavoidable civil and political failure but also of the downfall of human dignity and doubts about the relevance of art. The poems in Hindi have been selected by Vyomesh Shukla.



भूमंडलीय की हिंसा / Violence of the Global

फीचर्स / Features

भूमंडलीय (ग्लोबल) हमारे समय का संभवतः सबसे संक्रामक उपसर्ग है उतना ही जितना कभी ‘आधुनिक’ हुआ करता था. आतंकवाद के साथ भूमंडलीय का अर्थ मुख्यतः ‘भौगोलिक’ है – लेकिन उसका एक ध्वन्यार्थ पश्चिमी दुनिया में ‘गैर-पश्चिमी’ भी है. फ्रांसीसी चिंतक बॉद्रिला ‘ग्लोबल’ (= ‘प्रौधौगिकी’, ‘बाज़ार’, ‘पर्यटन’, ‘सूचना’) को ‘यूनिवर्सल’(= ‘मानवाधिकार’, ‘स्वतंत्रता’, ‘संस्कृति’, ‘लोकतंत्र’) से अलगाते हुए, आतंकवाद को भूमंडलीय का ‘समकालीन जोड़ीदार’ बताते हैं और आतंकवाद को ऐसी संस्कृतियों के ‘अपमान’ की अभिव्यक्ति की तरह पढ़ते हैं जिन्हें यह अहसास सालता है कि उन्होंने पश्चिम से लिया बहुत कु़छ, पर उसे दिया क्या?

अमिताव कुमार द पोर्टे्ट ऑव द ऑर्टिस्ट एज ए यंग टेररिस्ट में काफ़्काई और आर्वेलियन दुस्वपनों की एक ‘सच्ची’ कथा बयान करते हैं जिसमें उत्तर-9/11 अमेरिका में एक मुस्लिम अपने को ‘क्लीन’ साबित करने के लिये वह काम अपने हाथ में ले लेता है जो राज्य करना चाहता है – सर्विलेंस. पैंतीस वर्षीय हसन ईलाही ने अपनी हर गतिविधि का, हर हरकत का वीडियो या फोटोग्राफ़ या स्कैन अपनी वेबसाईट पर लगा रखा है ताकि राज्य को पता रहे वह क्या कर रहा है. यह एक अनोखा, मार्मिक, ‘आतंककारी’ और बेहद उदास करने वाला दृष्टांत है – मनुष्य की बुनियादी आज़ादी के नाम एक शोकगीत.

“Global” is possibly the most pernicious prefix of our times, much like “modern” used to be once. In the context of terrorism, the meaning of “global” is mostly geographical – but one of its resonances in the western world is also “non-western”. The French thinker Baudrillard, while separating “global” (= “industrial”, “market”, “tourism”, “information”) from “universal” (= “human rights”, “independence”, “culture”, “democracy”), calls terrorism the “present partner” of the global and reads terrorism as the expression of the insult to such cultures who feel humiliated by the thought that they have taken much from the West, but not given anything back.

In The Portrait of an Artist as a Young Terrorist, Amitava Kumar tells the true story of a Kafkan/Orwellian nightmare in which a Muslim artist living in post-9/11 America, to prove himself “clean”, takes upon himself what the state wanted to do – Surveillance. 35 year old Hasan Elahi took photographs and videos of his each and every move and put them up on his website so that the state could see what he was up to. A unique, affecting and depressing tale – a dirge for the loss of fundamental human freedom.



आतंक के निजी आख्यान / Personal Narratives of Terror

फीचर्स / Features

जहाँ एक अर्थ में कुछ भी निजी नहीं है, ‘राजनीतिक’ या सार्वजनिक है वहीं एक दूसरे अर्थ में सब कुछ निजी है – यहाँ प्रस्तुत चारों आख्यान इसी ‘एम्बीवैलेंस’ के चार भिन्न उदाहरण हैं. समाजविज्ञानी टी.एन. मदन से सुधीर चंद्र की बातचीत जहाँ एक स्तर पर एक निजी, पारिवारिक स्पेस में कश्मीर में जारी चरमपंथ के दो पीडितों कश्मीरी पंडितों और कश्मीरी मुसलमानों के अनुभव को बयान करती है वहीं वह ‘प्रगतिशीलों’ और ‘उदारवादियों’ की उस अंधता को भी समझने की कोशिश करती है जो एक मानवीय त्रासदी के प्रति उन्हें उदासीन बना देती है और किसी दूसरी के प्रति अतिसंवेदनशील. एक अन्य पाठ में सुधीर चंद्र दुर्लभ, प्रेरणादायी साहस के साथ आतंक के सम्मुख अपने क्षणिक, निपट निजी विचलन को सार्वजनिक करते हैं.

मुम्बई में नवम्बर दो हजार आठ की त्रासदी की पृष्ठभूमि में अभिनेता, निर्देशक नंदिता दास और युवा लेखक वरूण के गद्य भी क्रमशः सार्वजनिक के निजी और निजी के सार्वजनिक में संक्रमण के बहुत ‘क्लोज़’ पाठ हैं.

Whereas, in one sense, nothing is personal, all is “political” or public, in another sense everything is personal – the four narratives presented here are examples of this ambivalence. Sudhir Chandra’s conversation with sociologist T.N. Madan, on one level, tells of the experiences of the victims of the extremism in Kashmir (the Kashmiri Pundits and the Kashmiri Muslims) in a personal/familial space. On another level, it also seeks to understand the “blindness” of “progressives” and “liberals” which makes them indifferent to one human tragedy and ultra-sensitive to another. In another text, Sudhir Chandra, with rare, inspiring courage, confronts his own, completely personal, moment of fear in the face of terror.

The pieces by actor and filmmaker Nandita Das and the young writer Varun, against the backdrop of the tragedy in Mumbai, Nov. 2008, are also close-readings of the interbleeding between the public and the personal.



धार्मिक युद्दों का उद्दण्ड अट्टाहास / The Mocking Laughter of Religious Wars

फीचर्स / Features

यहां प्रस्तुत आलोक भल्ला, एच. एस. शिवप्रकाश, लाल्टू, प्रिया सरूक्काई छाबरिया, अंजुम हसन, दानिश हुसैन, अनुपमा राजू, अनिंदिता सेन और अदिति मचाड़ो की कविताएँ आतंक के कई रूपों, स्रोतों को कई विधियों से अभिव्यक्त करती हैं – एच. एस. शिवप्रकाश और लाल्टू 9/11 को अपना काव्य विषय बनाते हैं; आलोक भल्ला की कवितायें उनके ‘इजरायली जर्नल’ से हैं, दानिश हुसैन की कविता युद्ध और युद्ध-कविता के बारे में है; अंजुम हसन, अदिति मचाडो और अनिंदिता सेनगुप्ता की कविताएँ एक बहुत संयत, पर्सनल लय में संभव होती हैं, प्रिया सरूक्काई की कविता कई कवितांशों से मिलकर बनी है और अनुपमा राजू की कविता हिंसा के कुछ जाने पहचाने विवरणों से बनती है.

The poems by Alok Bhalla, H.S. Shivaprakash, Laltu, Priya Sarukkai Chhabria, Anjum Hasan, Danish Husain, Anupama Raju, Anindita Sengupta and Aditi Machado presented here express in various forms the various faces and sources of terror. H.S. Shivaprakash and Laltu make 9/11 the subject of their poetry, Alok Bhalla’s poems are from his “Israeli Journal”, Danish’s poems are about war and war-poetry, Anjum Hasan, Anindita Sengupta and Aditi Machado’s poems are marked by a restrained, personal rhythm, Priya Sarukkai’s poem is made up of fragments of different poems and Anupama Raju’s haiku are built upon some recognizable descriptors of violence.



वह / That

फीचर्स / Features

कविताओं की तरह ही, यहां प्रस्तुत कहानियाँ भी आतंक के कई रूपों, स्रोतों को कई विधियों से अभिव्यक्त करती हैं – गुलज़ार की कहानी अन्तरसामुदायिक हिंसा की अंधता को आदिम हिंसा के सहजात की तरह व्यक्त करती है जैसे कि एक दूसरी तरह से मंजुला पद्मनाभन का गद्य भी; प्रीता समरासन की कहानी 1948 में जापानी आधिपत्य वाले मलाया में घटित होती है; गीतांजलि श्री का उपन्यास खाली जगह बम धमाके में मर चुके एक लड़के की विचलित करने वाली मरणोत्तर उपस्थिति का आख्यान है जिसकी कुछ झलक प्रकाशित अंश में है; और निताशा कौल की आतंक-फंतासी में जिसका आतंक है उसका कोई नाम नहीं, वह एक सर्वनाम है – वह.

Like the poems, the stories presented here also express in various forms the various faces and sources of terror – Gulzar’s story presents the blindness of communal violence as the spontaneity of an atavistic violence, which, in its own way, Manjula Padmanabhan’s monologue also does; Preet Samarasan’s story takes place in the Japan-occupied Malaya of 1948; the excerpts from Geetanjali Shree’s novel Khali Jagah tell of the disturbing presence of a boy killed in a bomb blast; and Nitasha’s terror-fantasy presents an unnamed terror, a terror that is know only by the pronoun That.



पुस्तक में आतंक / Terror in Books

फीचर्स / Features

किताबत में, अंक की थीम के अनुरूप ही, प्रभात रंजन द्वारा जॉन अपडाईक के उपन्यास द टेररिस्ट की समीक्षा, ओरहन पामुक के उपन्यास स्नो के एक किरदार ब्लू पर गिरिराज किराडू का निबंध और गीताजली श्री के उपन्यास खाली जगह पर हिंदी आलोचक मदन सोनी और युवा समाजशास्त्री दीपेन्द्र बघेल की बातचीत तथा इसी उपन्यास के बारे में लेखक से गिरिराज किराडू की बातचीत.

In keeping with the issue’s theme, our regular feature Kitabat includes a review of John Updike’s novel The Terrorist by Prabhat Ranjan, Giriraj Kiradoo’s essay on the character called Blue from Orhan Pamuk’s novel Snow and a conversation between Hindi critic Madan Soni and young sociologist Deependra Baghel on the subject of Geetanjali Shree’s novel Khali Jagah as well as Giriraj Kiradoo’s interview with Geetanjali about the same.



आतंक के कुछ और चेहरे / More Faces of Terror

फीचर्स / Features

राजनीति और मुख्यधारा मीडिया के बावज़ूद, आतंक के अनुभव को पूर्णतः आतंकवाद में निश्शेष नहीं किया जा सकता, ‘आतंकवाद’ से ‘नियमित’ अर्थों के अलावा, उनसे परे भी इसके कई ‘अर्थ’ ‘हैं – भोपाल गैस त्रासदी के पीडितों के जीने के, मरने के, होने भर के आतंक पर बुकर नामांकित उपन्यासकार इन्द्र सिंहा की रिपोर्ट हिन्दी अनुवाद में (जिसे उपलब्ध कराने के लिये हम सम्भावना क्लिनिक, भोपाल के सतीनाथ षडंगी -सथ्यू- के आभारी हैं); नोबेल पुरस्कार से सम्मानित नार्वीजी लेखक नूट हाम्सुन (जो कई दशकों से एक पहेली है – नार्वे के जर्मन अधिग्रहण के दौरान हिटलर के समर्थक रहे हाम्सुन के लेखन में ‘उस खौफ़नाक विचारधारा’ के शायद ही कोई लक्षण हों) पर हाम्सुन की हिन्दी अनुवादक तेजी ग्रोवर का निबंध जो कहता है कि युद्ध के बाद जाँच के बहाने वृद्ध हाम्सुन को जैसी अमानवीय यंत्रणा दी गई वह प्रमाण है कि ‘सिर्फ़ नात्ज़ी ही नात्ज़ी नहीं थे’ और युवा लेखक एनी जैदी का पत्र शैली में लिखा गया गद्य जो महानगरीय पब्लिक स्पेस में एक स्त्री के दैनिक आतंक को व्यक्त करता है.

Despite politics and mainstream media, the experience of terror cannot be entirely subsumed within terrorism. Terror has meanings beyond those regulated by the term “terrorism” – presented here are Booker-nominee Indra Sinha’s report (courtesy Satinath Sarangi (Sathyu) of Sambhavana Clinic, Bhopal) on the victims of the Bhopal gas tragedy and their terror – of living, of dying, of being, Teji Grover’s essay on the Nobel prize winning Norwegian author Knut Hamsun (an enigma – a Hitler sympathizer during Norway’s occupation, Hamsun’s writing has no signs of “that terrible philosophy”) which says that the inhuman torture inflicted on the aging Hamsun in the name of investigations after WW-II proves that “it is not just the Nazis who are Nazis”, and Annie Zaidi’s epistolatory fiction that talks of the daily terror experienced by women in urban public spaces.