आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

फीचर्स / Features

गाँव और नये लेखकः कथा / Village and the New Writers: Fiction

फीचर्स / Features

मृदुला कोशी के अप्रकाशित, अब तक अनाम अंग्रेज़ी उपन्यास में कथा भारत के दक्षिण में केरल से अमेरिकी मिडवेस्ट तक फैली हुई है. प्रकाशित अंश में इसका मुख्य पात्र उन्नीकृष्णन हड़ताल और कम्युनिस्ट सरगर्मी के बैकड्रॉप में बरसों पुराना वह दिन याद कर रहा है जब एक स्त्री खुद को बिना कपड़ों के कैद किये जाने का प्रतिरोध करते हुए एक गाँव के बीच से निर्वस्त्र गुजर जाती है. हरे प्रकाश उपाध्याय और कुणाल सिंह के उपन्यास अंशों में दो भिन्न तरह के गाँव हैं. हरेप्रकाश की कथा में गाँव के जीवन के कुछ परिचित चित्र और शहर के साथ उसकी डॉयनमिक्स एक आत्मीय कथा-शैली में उभरते हैं जबकि कुणाल सिंह के आदिग्रामउपाख्यान में गाँव एक ऐसी डिस्टोपियाई फंतासी के कथावाचन की जगह है जिसमें कलिंग युद्ध तीसरा विश्व युद्ध बन जाता है और ‘सेनापति’ ‘राजा’ को एसएमएस से युद्ध शुरु होने की सूचना देते हैं. चरण सिंह पथिक न सिर्फ गाँव में रहते हैं वैसा ही उनका जीवन भी है. शायद इसी कारण, उनके लेखन में गाँव की उपस्थिति बहुत अंतरंग और जीवंत है. उनकी कहानी यात्रा में दो प्रतिस्पर्धी तीर्थयात्राएँ और उनके प्रति निवासियों की प्रतिक्रिया विज्ञापन-युद्ध का एक चुटीला देसी संस्करण बन जाती हैं. खंड की अंतिम कथा शरथ कुमारराजू की द क्लाक टावर है.

Mridula Koshy’s as-yet-unpublished novel ranges over Kerala and the American mid-west. In the excerpt here, the barber Unnikrishnan remembers Annakutty – a young woman who reacted with defiance when shewas caught with her lover and stripped of her clothes in an attempt to confine her to the house –against the backdrop of a rubber-tappers’ strike and Communist party machinations.There are two different sorts of villages in the novel-excerpts from Hare Prakash Upadhyay and Kunal Singh. In Hare Prakash’s story, some familiar images of village life and their dynamic with the city is explored in a personal narrative-style, whereas in Kunal’s Aadigramupakhyan, the village is the site for telling a dystopian fantasy where the Kalinga War turns into World War III and the ‘general’ informs the ‘king’ that the war has begun by sending an SMS. Charan Singh Pathik not only lives in a village but his lifestyle too is the same. Perhaps that is why the presence of the village in his writing is so intimate and lively. In his story, Yatra, two competing pilgrimages and the reaction of the villagers to them turns into a rural version of a media-war. The last piece in this feature is Sharath Komarraju’s The Clock Tower, the second story in his series of little mysteries, which plays out in a village.



देशज आधुनिकता का जन्म / The Birth of Indian Modernity

फीचर्स / Features

पुरूषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक अकथ कहानी प्रेम की कबीर के कालखंड को देशज आधुनिकता के उदय होने के समय की तरह स्थापित करती है. इस पुस्तक पर विनोद शाही और राजेन्द्र पॉण्डेय की समीक्षाएँ और मीरां की कविता का एक नया पाठ करता हुआ माधव हाडा का लेख मिलकर इस खंड को पूरा करते हैं.

Purushottam Agrawal’s book Akath Kahani Prem Ki establishes Kabir’s period as the time of the birth of Indian modernity. This feature comprises readings of the book by Vinod Shahi and Rajendra Pandey, as well as a new reading of Mira’s poetry by Madhav Hada.



बिज्जी / Bijji

फीचर्स / Features

समकालीन भारतीय लेखकों में बिज्जी सबसे अनूठे हैं. अपना सारा जीवन जोधपुर के एक गाँव बोरूंदा में बिताने वाला यह डोकरा भारतीय आत्मा का लोक गायक है. यह अंक बिज्जी और उनके अभिन्न मित्र दिवंगत लोक कला मर्मज्ञ कोमल कोठारी के जीवन और कर्म को समर्पित है. क्रिस्टी मेरिल द्वारा अनूदित उनकी कहानी के प्रकाशन की अनुमति देने के लिये कथा के और हिन्दी कवि-कथाकार उदय प्रकाश द्वारा उन पर बनाई गई फिल्म को अपलोड करने की अनुमति के लिये हम निर्देशक और साहित्य अकादेमी के आभारी हैं.

Bijji is unique among contemporary Indian writers. He is the folk-singer of the Indian soul. This issue is dedicated to Bijji and to his dear friend, the folklorist and ethnomusicologist Komal Kothari, their life and work. We are thankful to Katha for permitting us to carry Christi Merrill’s translation of Bijji’s story, and to Uday Prakash and the Sahitya Akademi for permitting us to upload Uday’s film on Bijji.



असबाब में देवता: वार्षिकांक विशेष कविता / A God in Your Luggage: Anniversary Special Poetry

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अशोक वाजपेयी और वीरेन डंगवाल से अधिक एक दूसरे से भिन्न दो कवि हिन्दी में नहीं हैं. एक मध्यकालीन फ्रेंच मठ/गाँव आविन्यों में रहते हुए लिखी गई अशोक वाजपेयी की कविताओं और कविता-जैसे-ही गद्य में अनुपस्थिति, ईश्वरहीनता, नश्वरता, जीवन में कविता की जगह और सब चीज़ों के पड़ोस के रूप में पृथ्वी जैसी उनके लेखन की कुछ स्थायी थीमें एक दूसरे देश-काल की छाया में पुनर्विन्यस्त हैं. वीरेन डंगवाल की कविता कटरी की रुकुमिनी और उसकी माता की खंडित गद्यकथा विट् और उम्मीद के उनके काव्यशास्त्र में एक कथात्मक, गद्यमय विषयांतर है जो इधर उनकी अन्य कविताओं में भी घटित हुआ है. दोनों कवि राहुल सोनी के अंग्रेज़ी अनुवाद में. आर्लीन ज़ीद और तेजी ग्रोवर के अंग्रेज़ी अनुवादों में कमलेश और शिरीष ढोबले की हिन्दी कविताएँ; इन्ग्रिड स्टोरहॉमेन की नार्वीज़ी कविताएँ तथा स्वयं अपनी काव्य-श्रृंखला कठपुतली की आँख तेजी के ही अंग्रेज़ी अनुवाद में; और अनिरुद्ध उमट की नयी हिन्दी कविताएँ हमारा परिचय ऐसी आवाज़ों से कराती हैं जो हाशिये और एकांत में रहती हुई अपनी भाषा में, और मानवीय अस्तित्व के हमारे अनुभव में कुछ बिल्कुल विलक्षण जोड़ती रहती हैं. खंड में लक्ष्मी आर्य की तीन अंग्रेज़ी और समर्थ वाशिष्ठ की तीन हिन्दी कविताएँ भी शामिल हैं.

There cannot be two more different poets in Hindi than Ashok Vajpeyi and Viren Dangwal. Ashok Vajpeyi’s poems and poem-like-pieces written while staying at a chartreuse in Avignon revisit some of his poetry’s permanent themes, i.e. absence, godlessness, mortality, poetry’s place in life and the earth as the neighborhood of all things – but under the shadow of a foreign time and space. Viren Dangwal’s poem Katri Ki Rukmini is an excursion into prose within his poetics of wit and hope, a tendency also seen in some of his other recent work. Kamlesh and Shirish Dhoble’s poems, in Arlene Zide and Teji Grover’s translation, Ingrid Storholmen’s Norwegian poems and Teji’s own poem-sequence Puppet’s Eye, in Teji’s translations, and some new poems by Aniruddh Umat introduce us to some voices that, while living in solitude, have added something extraordinary to both language and human experience. The feature also includes poems by Samartha Vashishtha and Lakshmi Arya.



जिन्हें स्मार्ट लोग छोड़ गए उनके किस्से: वार्षिकांक विशेष कथेतर / Lives and Texts without Smart People: Anniversary Special Non-Fiction

फीचर्स / Features

नोबडीज़ डिट्रॉइट में पुलित्ज़र पुरस्कार से सम्मानित अमेरिकी कवि फिलिप लवीन अपने छोटे शहर लौटते हैं अपने एक अध्यापक के सेवानिवृति समारोह में ‘सरप्राईज स्पीकर’ बन कर, एक ऐसे शहर जहाँ से ‘सारे स्मार्ट लोग चले गये’. भारतभूषण तिवारी के हिंदी अनुवाद में. अंग्रेज़ी उपन्यासकार अमिताव कुमार का गद्य भी अंशतः संस्मरणात्मक है और हमारा परिचय अनुनय चौबे की चित्रकला से कराता है जिसमें स्मार्ट लोगों द्वारा पीछे छोड़ दिये गये शहर और चरित्र अपनी हार्डकोर यथार्थमयता से सीधे हमारी आँखों और दृष्टि को बींध देते हैं. इन दोनों से बहुत भिन्न एक पाठ में कवि-दार्शनिक रुस्तम (सिंह) ‘सौभाग्य’ पर, और इस तरह ‘दुर्भाग्य’ पर, मनन करते हैं. यह काव्यमय और दार्शनिक के मेल से नहीं, उनकी एक दूसरे से प्रति बहुत बारीक घृणा से उपजता हुआ आत्म-प्रतिष्ठ लेखन है जिसे पढ़ने की खुद उसी के फरेब में आ जाने के अलावा कोई और विधि शायद नहीं है. भारत के दो अग्रणी चित्रकारों हकु शाह और अखिलेश के साथ हिन्दी लेखक-सम्पादक पीयूष के संवाद की दो अत्यंत मौलिक और महत्वपूर्ण पुस्तकों पर आशुतोष भारद्वाज की समझदार टिप्पणी इस खंड की अंतिम पेशकश है.

In Nobody’s Detroit, Pulitzer Prize winning poet Philip Levine returns to the city of his childhood – a city from which all the smart people have left – as a surprise speaker at his teacher’s retirement ceremony. (In Bharatbhooshan Tiwari’s Hindi translation.) Amitava Kumar’s memoir-ish piece introduces us to the art of Anunaya Chaubey in which a city and characters left behind by the smart people stare at us with a piercing, uncompromising verisimilitude. Very different from those two texts is Rustam’s poetic-philosophic reflection on ‘fortune’ and, therefore, on ‘misfortune’. This is an ‘self’-rooted text that comes not from the meeting of the poetic and philosophical but from their mutual disdain, and the only way to read it is perhaps to let yourself be completely beguiled by its delicate forgeries. The last piece in the feature is Ashutosh Bhardwaj’s commentary on Piyush Daiya’s two original and important books of conversations with leading Indian painters, Haku Shah and Akhilesh.



मंटो की बम्बई / Manto’s Bombay

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महान उर्दू कथा लेखक सआदत हसन मंटो की बम्बई – ‘सबको मौका देने वाली नगरी’ – चालों, दादाओं और तवायफों की, अनोखे कॉस्मोपॉलिटनिज़्म की और अब अकल्पनीय नज़र आने वाले धार्मिक सद्भाव की नगरी भी थी. मैट रीक और आफ़ताब अहमद के इन नए अनुवादों में बम्बई अपने इस स्वरुप में मानो फिर से लौटती है. फीचर में मंटो की दो कहानियों – जानकी और पैरन – और दो निबन्धों के साथ साथ अनुवादकों का लिखा मंटो की बम्बई का परिचय भी शामिल है.

पिछले कुछ बरस मंटो के पुनराविष्कार के बरस रहे हैं लेकिन मंटो हमेशा यहीं थे, हमारे आसपास क्योंकि मंटो हमसे संवाद कर रहे थे. ये अनुवाद उस संवाद के प्रतिनिधि हैं जो मंटो ने हमसे – अपने भविष्य के पाठकों – से शुरू किया था.

The great Urdu fiction writer, Saadat Hasan Manto’s Bombay – ‘the land of opportunities’ – was also a land of chawls, dadas and prostitutes, of strange cosmopolitanism and of a now unimaginable inter-faith harmony. These wonderful new translations by Matt Reeck and Aftab Ahmed, of Manto’s writing about Bombay, bring all of this back. The feature has two short stories – Janaki and Pairan, two non-fiction pieces – Why I Don’t Go To The Movies and Women and the Film World and a short introduction by the translators.

The last few years have seen a kind of rediscovery of Manto but he has, perhaps, always been there because he talked to us. These translations represent the dialogue Manto initiated with us, his future readers.



जिस वर्ष भास की खोज हुई / The Year Bhasa was Discovered

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1909 में त्रिवेन्द्रम के पंडित गणपति शास्त्री ने संस्कृत नाटककार भास के तेरह नाटकों की पाँडुलिपि – भासनाटकचक्र – की खोज की थी. इस असाधारण खोज की शताब्दी के अवसर पर हम भास के तीन आधुनिक निर्देशकों कावालम नारायण पणिक्कर, हबीब तनवीर और रतन थियम से हिन्दी कवि और संस्कृत अध्येता संगीता गुंदेचा के तीन साक्षात्कार प्रस्तुत कर रहे हैं. अपने अपने विलक्षण ढंग से इन तीनों दिग्गजों ने भास की पुनर्व्याख्या की है और ऐसा करते हुए ख़ुद नाट्यशास्त्र की भी. ये साक्षात्कार भास, नाट्यशास्त्र, यथार्थवाद और कई सुलभ द्विक विरोधों – लोक/शास्त्र, देसी/मार्गी, परंपरा/आधुनिकता, पश्चिमी/भारतीय – पर दुर्लभ अंतर्दृष्टि से संपन्न हैं. फीचर में भास के एक नाटक प्रतिमानाटकम् का गिरिराज किराड़ू द्वारा किया गया पठन भी शामिल है.

In 1909, Pt. Ganpati Shastri of Trivandrum discovered thirteen manuscripts by the Sanskrit playwright Bhasa, the Bhasanatakachakra. Celebrating the first centenary of this extraordinary discovery, we present here Hindi poet and Sanskrit scholar Sangeeta Gundecha’s dialogues with three great contemporary directors who have staged Bhasa’s plays – Kavalam Narayan Panikker, Habib Tanvir and Ratan Thiyam. In their own unique ways, these masters have reinterpreted Bhasa and, in doing so, they have also reinterpreted the Natyashastra. These interviews are full of rare insight into Bhasa, Natyashastra, realism and many commonplace dualisms: folk/classical, margi/desi, tradition/modernity, Indian/western. The feature also has a reading of Bhasa’s play Pratimanatakam by Giriraj Kiradoo.



मैंने फिराक़ को देखा था / I Saw Firaq

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फिराक़ गोरखपुरी एक महान लेखक से कुछ अधिक थे. फ़ैज, प्रेमचंद और निराला की तरह वे उस दौर में हुए जो लेखकों को ‘लेखक से कुछ अधिक’ होने का मौका देता था. फिराक़ अपने इर्द-गिर्द फैले किस्सों में भी उतने ही जीवित हैं जितने उस शायरी में जिसने उन्हें उपमहाद्वीप के महानतम लेखकों में से एक बनाया.

फिराक़ की शायरी और उस पर खुद उनके एक बयान के फिराक़ के शागिर्द रहे नुरूल हसन द्वारा किये गये ख़ूबसूरत अंग्रेजी अनुवाद हमें इन सारी चीज़ों से फिर से गुजरने का मौका देते हैं उस अंग्रेजी जबान में जिसे खुद फिराक़ ने, नुरूल हसन की तरह, बरसों पढ़ाया.

Firaq Gorakhpuri was more than a great writer. Like Faiz, Premchand and Nirala, he lived in an era that allowed writers to be more than just writers. Firaq continues to live as much in the aura of the anecdotes around him, as in the poetry that made him one of the greatest writers in the subcontinent.

Firaq’s poems (translated by his former student Noorul Hasan), followed by a piece Firaq wrote about his poetry, give us a chance to relive all this in English — a language Firaq, like Noorul Hasan, taught for many years.



ये कवितायें मेरे लिये अंत हैं: दिलीप चित्रे / These Poems Are The End For Me: Dilip Chitre

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One word that defines Dilip Chitre is ‘unconventional’. Except the manner of his death, everything remained unconventional about this Marathi and English poet. It is too early to say what Dilip Chitre’s absence will do to the Indian literary scene, but it’s effects are already being felt. As a tribute, we have here some of his poems, translated by one of the close friends of his last years, the Hindi poet Tushar Dhawal.

शायद जो एक शब्द दिलीप चित्रे को परिभाषित करता है वह है ‘गैर-पारंपरिक’. एक मृत्यु के ढंग को छोड़कर इस मराठी-अंग्रेजी कवि के बारे में सब कुछ गैर-पारंपरिक ही रहा. यह कह सकना अभी संभव नहीं कि उनकी अनुपस्थिति का भारतीय साहित्यिक संसार पर क्या असर पड़ेगा लेकिन वह महसूस अभी से होने लगी है. उनके प्रति श्रद्धांजलि के रूप में प्रस्तुत है अंतिम बरसों में उनके करीबी मित्र रहे युवा हिन्दी कवि तुषार धवल के किये हुए उनकी कविताओं के अनुवाद.



पड़ौस I / Padaus I

फीचर्स / Features

साहित्य के अलावा सब दूसरे कला रूपों – सिनेमा, चित्रकला, संगीत, नृत्य – पर लेखन के एक स्पेस के रूप में यह नया फीचर कल्पित है. सिनेमा पर एकाग्र इसके पहले संस्करण में फेदेरिको फेल्लीनी की क्लैसिक पर प्रमोद सिंह का चंचल, काव्यमय गद्य और आकी काउरिसमाकी के सिनेमा पर गीत चतुर्वेदी का निबंध.

फीचर के शीर्षक के लिये हम हिन्दी कवि अशोक वाजपेयी के आभारी हैं जिन्होंने भोपाल स्थित अनूठे कला केन्द्र भारत भवन की कल्पना कलाओं के पड़ौस के रूप में की थी.

This new feature focuses on writings about cinema, painting, music, dance and art forms other than writing. Its inaugural edition, dedicated to cinema, has Pramod Singh’s meandering, poetic piece on Fellini’s classic and Geet Chaturvedi on Aki Kaurismäki’s cinema.

For the title of the feature, we are indebted to Hindi poet Ashok Vajpeyi who famously conceived Bharat Bhavan, the unique multi-art center in Bhopal, as a neighborhood of all arts.