द परफेक्ट शॉट / The Perfect Shot
फीचर्स / Features१७ अंग्रेजी कहानियां.
17 English Stories.
६ भाषाओं से अनूदित गल्प.
Translated fictions from 6 languages.
१ लोक-कथा और १ नाटक का संपूर्ण पाठ.
Full texts of a folk-tale and a play.
पाठकों, संपादकों, और प्रतिलिपि के सबसे लोकप्रिय कथाकार की पसंदीदा कथाकृतियाँ.
Readers, editors and Pratilipi’s most popular storyteller choose their favorite fictions.
इस खंड में वे पाठ और व्यक्तित्व शामिल हैं जिन्हें (उत्तर) भारतीय गाँव का कैननिकल प्रतिनिधि माना जाता हैः प्रेमचंद (कफ़न), फणीश्वरनाथ रेणु, राही मासूम ऱजा (आधा गाँव), महबूब (मदर इंडिया), केदारनाथ सिंह (कुदाल). कफ़न और ए वंडरफुल स्टूडियो (रेणु) के नये अनुवाद, हमारे आग्रह पर, अर्शिया सत्तार और भारतभूषण तिवारी ने किये हैं. कुदाल पर कृष्ण मोहन झा का और आधा गाँव व मदर इंडिया पर गिरिराज किराड़ू के निबंध तथा गाँव के समकालीन कथाकारों में प्रमुख शिवमूर्ति से प्रभात रंजन का संवाद जहाँ इस समस्यामूलक प्रतिनिधत्व के विभिन्न पक्षों को पढ़ने का प्रयास करते हैं वहीं विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास खिलेगा तो देखेंगे को वरिष्ठ आलोचक मदन सोनी ने इस तरह पढ़ा हैं कि यह अद्वितीय उपन्यास गाँव को एक विषय भर नहीं बनाता बल्कि खुद उसकी सरंचना एक पाठीय गाँव की है. रेणु के लेखन को युवा समाज विज्ञानी सदन झा ऐसे लेखन की तरह पढ़ते हैं जो देश-काल में काल को वरीयता देने पर आधारित औपनिवेशिक आधुनिकता की राष्ट्रवादी निर्मिति के बाहर संभव होता है – अपने ढब से, अपनी शर्तों पर आधुनिक और अपने लोकेल जैसा ही अनोखा, हेटेरोटोपियाई लेखन.
This section features writers/artists who are considered the canonical representatives of the (north) Indian village: Premchand, Phanishwar Nath Renu, Rahi Masoom Raza, Mehboob and Kedarnath Singh. Premchand’s Kafan and Renu’s A Wonderful Studio are in new translations by Arshia Sattar and Bharatbhooshan Tiwari respectively. Krishna Mohan Jha’s piece on Kedarnath Singh’s Kudal, Giriraj Kiradoo’s essays on Aadha Gaon(Raza) and Mother India(Mehboob), and Prabhat Ranjan’s conversation with Shivmurty, one of the leading voices in contemporary Hindi fiction, try to read various aspects of this problematic representation, whereas Madan Soni’s piece on Vinod Kumar Shukla’s Khilega to Dekhenge discovers that the novel does not merely take the village as its subject, but structures itself like one. Sadan Jha reads Renu’s work as the sort of writing that is possible only outside the nationalist constructs that give precedence to time over space- a heterotopian writing, modern on its own terms and as unusual as its locale.
गाँव आधुनिकता और विकास की कर्मभूमि शहर का स्वाभाविक अन्य रहा है . इस भुला दिये गये अन्य के साथ शहर का संबंध निरंतर जटिल और अन्यायमूलक होता गया है. अमित चौधरी, सुनील गंगोपाध्याय और प्रेमेन्द्र मित्रा के लेखन और लोकप्रिय सिनेमा में गाँव की निर्मितियों को प्रश्नांकित करता हुआ युवा अंग्रेज़ी लेखक सुमना रॉय का निबंध इस अन्यता और अज़नबियत का पाठ खुद अपने लेखन के बरक़्स करता है. ऋत्विक घटक के सिनेमा पर कवि और अभिनेता ट्रिना बनर्जी का शोध-पत्र निर्वासन और यात्रा के रूपकों में शहर और गाँव के संबंध को समझने की कोशिश करता है. काशीनाथ सिंह के हिंदी उपन्यास काशी का अस्सी के अपने बेजोड़ पठन में युवा आलोचक हिमांशु पंड्या एक शहर के भीतर मौज़ूद देहात द्वारा किये जा रहे समूचे संसार के देहातीकरण को भूमंडलीकरण द्वारा किये जा रहे संस्कृतियों के समरूपीकरण के विरुद्ध एक प्रभावी प्रतिरोध की तरह पढ़ते हैं. वरूण ग्रोवर का टेलिविजन पर गाँव की छवियों की कथा कहता हुआ लेख खुद और मिहिर पंड्या का अपने छोटे शहर लौटने का वृतांत ऐसे पाठ हैं जिनमें अपने अपने देहात/देहातनुमा शहरों को छोड़ चुके आख्याता उसके साथ फिर एक संबंध बनाने की कोशिश करते हैं.
The village is the natural ‘other’ to the playground of modernity and progress that is the city. The city’s relationship to this forgotten other has progressively become more complex and unjust. Sumana Roy’s piece on this other-ness and alienation questions the representations of the village in the writings of Amit Chaudhuri, Sunil Gangopadhyay and Premendra Mitra, in popular cinema and, indeed, in her own work. Trina Banerjee’s paper on the cinema of Ritwik Ghatak tries to understand the metaphors of exile and travel in relation to the city and village. Himanshu Pandya’s piece on Kashinath Singh’s novel Kashi ka Assi reads the provincialization of the whole world by a village inside a city as an effective resistance against the normalization of cultures happening through globalization. Varun’s piece on representation of the village on TV and Mihir Pandya’s piece on his return to his small town are two texts in which an author who has left an almost-village home tries to reestablish a relationship with it.
इस खंड के दो पाठों को आदिवासी जीवन पद्धति और आधुनिक राष्ट्र राज्य के उसके साथ विकटतर हो रहे संबंध की पृष्ठभूमि में पढ़ा जा सकता है. प्रसिद्ध गोंड-परधान चित्रकार जनगढ़ सिंह श्याम की कला पर लिखी गयी हिन्दी कवि-कथाकार उदयन वाजपेयी की पुस्तक पुस्तक जनगढ़ कलम, तेजी ग्रोवर और रुस्तम (सिंह) के अंग्रेजी अनुवाद में,उस साभ्यतिक काउंटर प्वाईंट को निरंतर कहने के साथ ही जो आदिवासी कल्पना में रहा आया है , उस व्यक्तिगत प्रतिभा की भी कथा कहती है जो एक परंपरा का पुनराविष्कार करती है. रणेन्द्र का उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता असुर समुदाय के समकालीन संकट का एक यथार्थवादी चित्रण है जो ‘विकास’ की आधुनिक एजेंसियों द्वारा किये जा रहे उपेक्षित समुदायों के नये हाशियाकरण की तरह पढ़ा गया है. उसके कुछ अंशों का अंग्रेज़ी अनुवाद राजेश कुमार ने किया है.
The texts in this section can be read against the backdrop of tribal life and its increasingly precarious relation to the modern nation state. Udayan Vajpeyi’s book on the art of famous Gond artist Jangadh Singh Shyam (in Teji Grover and Rustam (Singh)’s translation) tells not only the story of an individual talent rediscovering tradition, but also of the social counterpoint that has always lived in the tribal imagination. Ranendra’s novel God of the Global Village is a realistic depiction of the contemporary crisis in the Asur community, reading it as the marginalization of overlooked communities by the modern agencies of ‘progress’– an excerpt is presented here, in Rajesh Kumar’s English translation.
इस खंड के सातों पाठों में एक शहरी/मेट्रोपोलिस आख्याता गाँव की यात्रा करता है. सुंदरवन के पर्यावरण संकट पर अध्ययन करने के सिलसिले में गीताश्री वहाँ जाती हैं और उनका गद्य संकट की एक प्रामाणिक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के साथ साथ लेखक के भीतर शुरू हुई यात्रा का एक व्यक्तिगत वृतांत भी बन जाता है. ‘बिहार का शोक’ कही जाने वाली कोसी से गुजर रहे अध्ययनकर्ताओं व पत्रकारों के दल में शामिल दीपिका की नज़र एक बाहरी की तटस्थता के बावजूद नेहरूवादी विकास मॉडल को शोक के असली मानव-निर्मित कारक की तरह देख पाने से नहीं चूकती है. पंजाब के गाँवों में सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों में भटकते हुए एनी ज़ैदी को कंकाल स्त्रियां मिलती हैं और वे पंजाब के ‘विकसित’ होने के लोकप्रिय मिथ के और ‘वर्ल्ड-क्लॉस’ विकास के हमारे सामूहिक आत्म-छल के पार देख पाती हैं. राजस्थान के गाँवों में अपनी सांवेदनिक बुनावद में गाँव के कवि प्रभात और उनके साथी विष्णु गोपाल मीणा यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि जंगल बचाने के लिये मनुष्यों को विस्थापित कर रही व्यवस्था के पास मनुष्यों को बचाने के लिये कोई जुगत है कि नहीं? एक कहानी की शक्ल में लिखा गया पीयूष दईया का पाठ उत्तरांचल में स्थित है और एक शिक्षापरक उद्देश्य के लिये लिखा गया है. यह कहानी आधुनिक शिक्षा में निहित औपनिवेशिकता के सम्मुख सर्जनात्मक कल्पना के सामर्थ्य का एक बेहतर उदाहरण है. शेष खंड से भिन्न दो पाठों में व्योमेश शुक्ल और गिरीन्द्रनाथ क्रमशः प्रेमचंद और फणीश्वरनाथ रेणु के गाँवों की यात्रा करते हैं यह जानने के लिये कि उनकी खुद अपने गाँवों में कैसी और कितनी उपस्थिति है? व्योमेश के वृतांत में प्रेमचंद की स्मृति के साथ स्थानीय लोगों और सरकार जैसी एजेंसियों के बदलते बर्ताव के बीच एक महान लेखक का मरणोपरांत जीवन फिर भी किसी तरह रहता है लेकिन लगाव और दूरी के बेहतरीन संतुलन से लिखे गये गिरीन्द्र के लेख में रेणु अपने गाँव में पूरी तरह अनुपस्थित हैं, एक तरह की अंतिम, निर्विकल्प, उदास अनुपस्थिति.
In all the (seven) texts in this section, a narrator from the city travels to the village. Geeta Shree goes to the Sundarbans to study the environmental crisis there, and her text presents not only a factual report of the crisis but a description of the journey that starts inside the author as well. Deepika Arwind, part of a group of academics and journalists gone to study the sorrow of Bihar, i.e. the Kosi, does not, despite an outsider’s neutrality, shirk from seeing the Nehruvian development model as the real, man-made reason behind the sorrow. Wandering through the Public Health Centers of Punjab, Annie Zaidi meets malnourished women and sees through the popular myth of Punjab’s development’ and the mass delusion of ‘world-class’ development. Poet of the village, Prabhat, and Vishnu Gopal Meena travel through two Rajasthani villages, trying to understand whether a system that displaces human beings to save forests also has a solution to save humans. Piyush Daiya’s text, set in Uttaranchal and written as a fiction with educational motives, is a great example of the power of the creative imagination against the inherent colonialism of modern education.In the remaining two texts, Vyomesh Shukla and Girindranath visit the villages of Premchand and Phanishwar Nath Renu respectively, to find out how much and what kind of presence they retain in their own villages. In Vyomesh’s piece, one sees how, amidst the changing attitudes of the local people and governmental agencies towards the memory of Premchand, how a great writer still lives on after his death. But in Girindra’s text, finely balanced between emotion and detachment, Renu is completely absent from his village: a final, unequivocal, depressing absence.
दलित लेखन ने मुख्यधारा लेखन में परिकल्पित (इमेजिंड) के समांतर, अक़्सर उसके विरुद्ध, एक नया गाँव रचा है. उसके बारे में यह कहा जा सकता है कि वह भी उतना ही इमेजिंड है लेकिन उसने “गाँव” के आशयों में एक ऐसा विचलन घटित किया है कि बिना उसकी प्रति-कल्पना की सन्निधि के गाँव की कोई गाथा अब पूरी नहीं हो पायेगी. इसके साक्ष्य सुभाष नीरव और घनश्याम रंजन के हिन्दी अनुवादों में देसराज काली, भगवंत रसूलपुरी और मक्खन मान की पंजाबी कहानियों और मीना कंदसामी के अंग्रेज़ी अनुवाद में रविकुमार की तमिल कविताओं में पढ़े जा सकते हैं.
Dalit writing has often created a new village counter to the one imagined in mainstream writing. It could be said that that too is, to the same extent, imagined – but it has occasioned such a destabilization in the significations of ‘village’ that, without facing up to this counter-imagination, no story of the village can be complete. As proof of this, read the Punjabi stories by Desraj Kali, Bhagwant Rasoolpuri and Makhan Mann (in Subhash Neerav and Ghanshyam Ranjan’s Hindi translations), as well as Meena Kandasamy’s translations of Ravi Kumar’s Tamil poems.
ज्यादातर समकालीन लेखक शहरों में रहते हैं, उनमें से कई गाँवों से आये हैं. संसार को एक गाँव की तरह देखने वाली कल्पना और गाँव को भविष्य के स्थापत्य की तरह देखने वाली कल्पना के धीरे धीरे लुप्त होने के साथ साथ लेखन की संवेदन-भूमि के रूप में भी गाँव विस्थापित हुआ है. बोधिसत्व, एकांत श्रीवास्तव, विनोद पदरज हिन्दी में इस संवेदना के जाने माने कवि हैं; रॉबर्ट हक्सटेड के अंग्रेज़ी अनुवाद में कृष्ण मोहन झा की और मूल में प्रभात, मनोज कुमार झा और शरण्या की कविताएँ जहाँ संसार को एक गाँव की तरह देखने वाली कल्पना का सशक्त पुनराविष्कार हैं वहीं उमाशंकर चौधरी की कविता में एक व्यक्तिगत, सबऑल्टर्न संघर्ष को कवि एक राष्ट्रीय आख्यान से मिला देता हैः गाँव में पिता बहादुर शाह जफ़र हो जाते हैं और उनका संघर्ष 1857 का असफल विद्रोह.
Most contemporary writers live in the city; many of them have come from villages. While the imagining of the world as a village, or the village as a part of the future, has slowly disappeared, the village as the site of creative imagination has also been displaced. Bodhisattva, Ekant Srivastav and Vinod Padraj are the famous Hindi writers of this sensibility. The poems presented here, by Krishnamohan Jha (in Robert Hueckstedt’s translation), Prabhat, Manoj Kumar Jha and Sharanya Manivannan are a powerful rediscovery of an imagination that sees the world primarily as village, while Umashankar Chaudhary’s poem conflates an individual, subaltern struggle with the national narrative: the father in the village becomes Bahadur Shah Zafar, and his struggle the unsuccessful revolt of 1857.