राग दरबारी: आज़ादी पर व्यंग्य / Raag Darbari: Mocking Freedom
१९६८ में प्रकाशित श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास राग दरबारी को अपने ह्यूमर से भारतीय गाँव के बारे में रूमानी मिथक को तोड़ने और आज़ादी के साथ जुड़ी उम्मीदों और मूल्यों के पतन की कथा कहने के लिए याद किया जाता है. यह उपन्यास १९४७ में हासिल राजनीतिक आज़ादी का हिंदी में गांधीवादी और वाम आलोचनाओं से इतर एक महत्वपूर्ण औपन्यासिक क्रिटीक है. युवा आलोचकों हिमांशु पंड्या और अमितेश कुमार के लेख इस उपन्यास की अपार पाठकीय लोकप्रियता के बरक्स इसे एक ‘महान कृति’ मानने से इंकार करने वाले आलोचकीय पूर्वग्रहों की पड़ताल कर रहे हैं.
Published in 1968, Shrilal Shukla’s satirical novel Raag Darbari shattered the myth of ‘idyllic Indian village’, and gave us a bold, humorous account of the socio-political disillusionment of the 1960s. Looking beyond the Gandhian and leftist criticism of the political freedom achieved in 1947, Raag Darbari was its first novelistic critique. Two outstanding pieces by young critics Himanshu Pandya and Amitesh Kumar revisit the biases of the critical establishment which has over the years refused to consider this immensely popular work as part of ‘great literature’.
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अप्रकट करुणा के पक्ष में : ही भी किन्तु परन्तु रंगनाथ – हिमांशु पंड्या