आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

अप्रकट करुणा के पक्ष में : ही भी किन्तु परन्तु रंगनाथ – हिमांशु पंड्या

Art: Samia Singh

“कुछ ही दिनों में रंगनाथ को शिवपालगंज के बारे में ऐसा लगने लगा कि महाभारत की तरह, जो कहीं नहीं है वह यहाँ है, और जो यहाँ नहीं है वह कहीं नहीं है. उसे जान पड़ा कि हम भारतवासी एक हैं और हर जगह हमारी बुद्धि एक सी है. उसने देखा कि जिसकी प्रशंसा में सभी मशहूर अखबार पहले पृष्ठ से ही मोटे मोटे अक्षरों में चिल्लाना शुरू करते हैं, जिसके सहारे बड़े बड़े निगम, आयोग और प्रशासन उठते हैं, गिरते हैं, घिसटते हैं, वही दांव-पेंच और पैंतरेबाजी की अखिल भारतीय प्रतिभा यहाँ कच्चे माल के रूप में इफरात से फ़ैली पडी है. ऐसा सोचते ही भारत की सांस्कृतिक एकता में उसकी आस्था और भी मजबूत हो गयी.”[1]

हिन्दी में यदि आलोचकीय अनुदारता और पाठकीय प्रशंसा के व्युत्क्रमानुपाती सम्बन्ध का कोई पैमाना बनाया जाए तो निश्चय ही श्रीलाल शुक्ल कृत राग दरबारी (आगे से राद ) उसमें सर्वोच्च स्थान पर होगा. ऐसा नहीं कि राद की व्यंग्य की धार का लोहा नहीं माना गया या राद के वर्णन की सत्यता में संदेह किया गया लेकिन दांव-पेंच और पैंतरेबाज़ी की जिस अखिल भारतीय प्रतिभा का वर्णन शिवपालगंज और उसकी सार्वजनिक संस्थाओं जैसे ग्राम पंचायत, कोऑपरेटिव सोसाइटी और सबसे बढ़कर छंगामल इंटर कॉलेज के माध्यम से किया गया, उसे आलोचकों ने संयमहीन हास्य माना, उपन्यासकार किस वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहा है, ये सवाल उठाते हुए उपन्यास की पक्षधरता को संदेह के घेरे में लिया.यहाँ प्रस्तुत निबंध में मुख्यतः इन्हीं आलोचनाओं से सम्बंधित  कुछ प्रश्नों पर विचार किया जा रहा है कि – राद की पक्षधरता क्या वाकई संदेहास्पद है, क्या वाकई वंचितों/उत्पीड़ितों का चित्रण समस्यामूलक है, क्या उनके स्वर का सही अंकन नहीं हो पाया है, क्या राद के व्यंग्य की धार वाकई गलत दिशा में जाती है, क्या यह उपन्यास प्रेमचंद की परम्परा से विक्षेप है आदि आदि.

राद को पढने और आनंदित होने वाले पाठक/आलोचक एक किस्म के ‘गिल्ट प्लेजर’ (यानी ऐसा आनंद जिसे स्वीकारने में खुद से भी शर्मिंदगी हो) के शिकार नज़र आते हैं. सहृदय आलोचक भी किन्तु-परन्तु के साथ राद के व्यंग्य को ‘कुछ ज्यादा ही हो गया’ बताते आये हैं. उदाहरण के लिए कुंवर नारायण लिखते हैं, “हम श्रीलाल शुक्ल के इरादों से पूरी तरह सहमत हैं फिर भी अक्सर हिंदुस्तान की उस तस्वीर पर हंस पाना मुश्किल हो जाता है जिसे श्रीलाल शुक्ल चित्रित करते हैं. जरूर यह यथार्थ है कि नब्बे फीसदी हिंदुस्तानियों को मलमूत्र त्यागने की आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं- और यह एक बड़ी शर्म की बात है- लेकिन यह एक बड़े व्यंग्य की बात भी है, इसे मान लेने में थोड़ा मतभेद हो सकता है. ऐसे कई स्थल हैं जहाँ इच्छा होती है कि लेखक यदि इतना अधिक यथार्थ के पीछे न पडता तो अच्छा होता- व्यंग्य के हित में बहुत अच्छा होता.”[2] 

अर्थात राद में यथार्थ तो है लेकिन अतियथार्थ है, जैसा कि खुद राद में पंक्ति है, “भागो, भागो, यथार्थ तुम्हारा पीछा कर रहा है.”[3] यह यथार्थ इतना अधिक पारदर्शी है कि प्रख्यात समाजशास्त्री श्यामाचरण दुबे कह उठते हैं, “भारत के बदलते गाँवों को समझने के लिए राग दरबारी पांडित्य पीड़ित अनेक समाजशास्त्रीय अध्ययनों से कहीं अधिक उपयोगी है.”[4] फिर इस यथार्थ से हमें परहेज क्यों है ? क्या इसलिए कि इसमें द्वंद्वात्मकता नहीं है ? बकौल नेमिचन्द्र जैन, “अतिकथन इस बात का स्पष्ट प्रमाण होता है कि रचना में लेखक यथार्थ के जटिल हिस्से को पकड़ने में असमर्थ रहा है. अतिकथन से ग्रस्त उपन्यास राग दरबारी इसी तरह का उदाहरण है- यह उपन्यास उसकी पूरी तस्वीर तो है ही नहीं क्योंकि उसमें न तो द्वंद्व है, न गति.सारा जीवन एक ही धूसर रंग में अंकित है.”[5]

यहाँ द्वंद्व को मार्क्सवादी सन्दर्भ में समझा जाए तो – सद और खल के बीच टकराव के दृश्य,संघर्ष चेतना और अलिखित चाह ये कि कुछ आशा का सन्देश हो.( मैं यहाँ व्यवस्था के अंतर्विरोधों आदि को शामिल नहीं कर रहा और नेमि जी द्वारा जिस अभाव पर निराशा प्रकट की गयी है, उसी तक अपने को सीमित रख रहा हूँ.)जहाँ ये आशावादिता नहीं दिखती वहाँ प्रकृतवाद है, निषेधवाद है, विध्वंस है- सृजन नहीं है.

वंचित की विजय का आग्रह तो, जाहिर है, यथार्थवाद की समझ रखने वाला कोई भी विद्वान आलोचक नहीं करेगा पर यह आशा अवश्य की जाती है कि उत्पीडित के भीतर संघर्ष चेतना दिख जायेगी और कुछ नहीं तो कम से कम इस वंचित/उत्पीडित का पक्ष तो उपन्यासकार रख ही देगा. राद में आलोचकों को ये नज़र नहीं आता. वीरेंद्र यादव के शब्दों में, “ ‘राग दरबारी’ और ‘पहला पड़ाव’ दोनों ही उपन्यासों में लूट तंत्र के खलनायकों के चित्रण में श्रीलाल शुक्ल की जो दक्षता दीखती है, वह तंत्र के पीड़ितों के वर्णन में नहीं है. दरअसल आभिजात्य के जिस धरातल पर खड़े होकर वे नकार की कामिक शैली अपनाते हैं उसमें खल पात्रों की ही उत्कृष्ट रचना हो सकती है. यही कारण है कि ग्राम्य पृष्ठभूमि के बावजूद ‘राग दरबारी’ में होरी, धनिया, गोबर, दुखी चमार, घीसू, शंकर, हल्कू सरीखे दुखी व उत्पीडित पात्र नहीं हैं.”[6] 

पहली बात- यह कामिक शैली जहाँ भाषाई तिर्यकता वहन करती है, उसे इस आलोचना से अलगाए जाने की जरूरत है. उपन्यास के प्रारंभिक पैरेग्राफ में ही ट्रक के वर्णन के दौरान लिखा है, “चालू फैशन के हिसाब से ड्राइवर ने ट्रक का दाहिना दरवाज़ा खोलकर देने की तरह फैला दिया था. इससे ट्रक की खूबसूरती बढ़ गयी थी; साथ ही यह खतरा मिट गया था कि उसके वहाँ होते हुए कोई दूसरी सवारी भी सड़क के ऊपर से निकल सकती है.”[7] यानी प्रारंभिक पंक्तियों से ही लेखक गलत को सही और सही को गलत कहने का ढब अख्तियार कर लेता है. इस शैली को अपनाने के बाद लेखक को अपने विशेषणों को एकल उध्दरण चिह्न में रखकर उनका तिर्यक अर्थ बताने की जरूरत नहीं रहती. इसके उलट यह हमारे लोकमानस में बसे पूर्वाग्रहों पर सहज ही व्यंग्य बनकर सामने आता है. उदाहरणार्थ, “किसी भी शारीरिक विकार के लिए हम  भारतीयों में जो सात्विक घृणा होती है, उसे थूककर बाहर निकालते हुए सनीचर ने कहा, “लंगड़वा जा रहा है साला !”[8] अथवा, “मुलजिम हरिराम जज के कह देने भर से बाइज्जत तो नहीं बन गए- रहे गुंडे के गुंडे ही- पर जेल से वापस आते ही उन्होंने पूरे इलाके में बाइज्जत समझे जानेवालों को- यानी स्त्रियों, अछूतों और मुसलमानों को- छोडकर मनुष्य-मात्र को एक दावत बोल दी.”[9] 

इस शैली में आये पदबंधों को अभिधा में लिया जाना तो गलत होगा, हाँ, चित्रण की आपत्तियों को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता.नित्यानंद तिवारी ऐसी ही आपत्तियां उठाते हैं. ढब- इस पदावली का प्रयोग उन्होंने ही किया है. वे मानते हैं कि, “राग दरबारी में वर्णन का ढब इतना छाया हुआ और एकरूप है कि ३०-४० पृष्ठों में ही वह फार्मूलेबाजी लगाने लगता है.लेखक की सम्पृक्ति इस ढब में इतनी ज्यादा महसूस होने लगती है कि वास्तविकता से उसका सम्बन्ध छूटने लगता है. घटनाएं चाहे छोटी हों या बड़ी वे इस ढब के लिए इस्तेमाल की जाती हैं. बहुत कम महसूस होता है कि ढब और घटना या परिस्थिति का द्वंद्व क्या है.”[10]श्री तिवारी ने एक सटीक उदाहरण द्वारा अपनी बात को स्पष्ट किया है.वे रिक्शे वाले के वर्णन के प्रसंग में राद का ये अंश उद्धृत करते हैं, “आज के भावुकतापूर्ण कथाकारों ने न जाने किससे सीखकर बार-बार कहा है कि दुःख मनुष्य को मांजता है. बात कुल इतनी ही नहीं है, सच तो यह है कि दुःख मनुष्य को पहले फींचता है, फिर फींचकर निचोड़ता है; फिर निचोड़कर, उसके चहरे को घुग्घू जैसा बनाकर उस पर दो चार काली-सफ़ेद लकीरें देता है.दुःख इंसान के साथ यही करता है और उसने गोंडा के रिक्शेवाले के साथ यही किया था.पर शहरी रिक्शावाले पर इसका कोई असर नहीं हुआ. सिगरेट फेंक कर उसकी ओर बिना ध्यान दिए, उसने अपना रिक्शा तेजी से आगे बढ़ाया.” इसके बाद श्री तिवारी लिखते हैं, “गोंडा के रिक्शावाले का वर्णन बहुत संक्षिप्त किन्तु पर्याप्त है साथ ही शहरी रिक्शावाले का वर्णन बहुत फैला हुआ लेकिन अपर्याप्त है.कारण क्या है ? उद्धृत अंश में वर्णन के ढब और मानवीय दुःख का द्वंद्व उभर जाता है जबकि शहरी रिक्शावाले के वर्णन के साथ वर्णन का ढब स्थिति के साथ औपचारिक सम्बन्ध स्थापित करता है.इन दोनों का वर्णन पढते हुए कोई भी महसूस कर सकता है कि लेखक का ढब एक जगह स्वाद उभारता है तो दूसरी जगह तनाव.”[11]

तिवारी जी की यह आलोचना गंभीर विचार की मांग करती है, उनका यह कहना उचित ही है कि ‘शहरी रिक्शावाले में जो शोह्दापन,बडबडाहट,स्वाभिमान जैसी अकड़ है’, उसके प्रति लेखक एक आनंद लेने वाली मुद्रा ही अपनाता है. ‘उसमें एक वाक्य भी ऐसा नहीं है जो उसकी विकृति के वास्तविक कारणों की टोह लेता हो.’ श्रीलाल शुक्ल यदि वंचितों के चित्रण में थोड़ी निस्संगता छोड़कर उसकी परिस्थिति के कारकों का विश्लेषण कर पाते तो क्या ही अच्छा होता ! तो क्या यह माना जाए कि यह ढब ही श्रीलाल शुक्ल की सीमा है ? मेरा मत यह है कि जिस स्वाद की बात नित्यानंद तिवारी कर रहे हैं- और यह इस ढब के कारण ही संभव हो पाया है- वही उपन्यास के अंत तक आते-आते पाठक को तनाव तक पहुंचाता है और सामान्य परिस्थितियों के सरलीकृत निष्कर्ष निकालने की उसकी प्रारम्भ से बनी आयी आदत को झटका देकर तोडता है. मैं लेख के उत्तरार्ध में इस बात को स्पष्ट करने का प्रयास करूँगा.

वंचित का पक्ष यानी प्रेमचंद की विरासत आखिर है क्या ?

सुधीश पचौरी ने लिखा है, “राग दरबारी पढने के बाद प्रमचंद के गांव अचानक झूठे लगने लगते हैं. प्रेमचंद की दूकान में अपना माल रखकर बेचने वालों के लिए उस उत्तर आधुनिक ‘शिफ्ट’ से बचना मुश्किल है जो राग दरबारी की ‘पैरोडी’ पैदा करती है. वरना इस प्रश्न का उत्तर क्या है कि छत्तीस तक जो ग्राम्य जीवन एक मनोहारी ‘इन्नोसेंस’ में मौजूद दीखता है वह अड़सठ तक आते-आते भयावह गंजहेपन में क्यों तब्दील हो जाता है ?”[12] 

मेरी इससे विनम्र असहमति है. विडम्बना यह भी है कि अनेक नकारात्मक आलोचनाओं के बीच उपलब्ध यह एकमात्र सकारात्मक आलोचना अधिक समस्यामूलक है क्योंकि यह राद का यथार्थवाद और प्रेमचंद की परम्परा से विक्षेप बताकर प्रकारांतर से अन्य आलोचकों की प्रस्थापनाओं की पुष्टि ही करती है. प्रेमचंद शुरुआती रूमानी आदर्शवाद को अंत तक आते-आते छोड़ चुके थे.स्वयं श्रीलाल शुक्ल को पढना यहाँ दिलचस्प होगा. वे लिखते हैं, “प्रेमचंद जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर हिन्दी-साहित्य में, लगता है, ग्रामीण जीवन के प्रति दो प्रकार की दृष्टियाँ विकसित हुई हैं.पहली दृष्टि ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’ वाली है, दूसरी ‘चरमर चरमर चूं चरर मरर जा रही चली भैंसा गाड़ी’ वाली. पहली दृष्टि ग्रामीण परिस्थिति को प्रकृति की रम्यता, सरलता, लोकगीतों और लोककथाओं की रूमानी तन्द्रिलता से जोडती है जिसकी हास्यास्पद परिणति “ऊंची अरहर में लुकाछिपि खेलती युवतियां मदमाती चुम्बन पा प्रेमी युवकों के…” जैसी पंक्तियों में होती है. ग्राम जीवन की इस फर्जी, रूमानी, संघर्ष रहित छवि को रेडियो और सिनेमा ने और भी पुष्ट किया है जिसके खिलाफ मेरी प्रतिक्रया ‘स्वर्ण ग्राम और वर्षा’ या ‘पहली चूक’ जैसी मेरी आरंभिक रचनाओं में व्यक्त होती है. दूसरी दृष्टि गाँव के छोटे किसानों, मजदूरों और दूसरे कमजोर वर्गों को केन्द्र बनाकर सामाजिक विषमता और उनके शोषण की कथाओं में परिलक्षित होती है. यह स्वस्थ दृष्टि है पर इससे अनुप्राणित साहित्य भी ज्यादातर रस्मी,सतही और प्राणहीन है, उसके प्रणेताओं में अधिकाँश का दर्शन (विजन) सतह के नीचे बिलकुल अस्पष्ट है जिससे सामाजिक अन्याय की स्थिति, जो एक विशेष प्रकार की आर्थिक व्यवस्था का सहज परिणाम है, सस्ती भावुकता के माध्यम से प्रकट होती है और उलझाव भरे मुद्दों का अतिसाधारणीकरण हो जाता है.”[13] 

इस लंबे उद्धरण में प्रारम्भ में श्रीलाल शुक्ल ने प्रेमचंद को अपवाद न भी बताया होता तो भी हम स्वयं देख सकते हैं कि ग्राम बनाम शहर के द्वंद्व से उभरकर प्रेमचंद ने गोदान में ग्राम के भीतर ही शोषण की जटिल संरचना को रेशा रेशा करके दिखया था. होरी की मृत्यु ग्राम्य जीवन से जुडी रुमानियत का अंत ही थी और यदि होरी, धनिया, गोबर जैसे पात्रों के जरिये त्रासद करुणा थी भी तो कफ़न के घीसू-माधव तक आते-आते उसका भी लोप हो चुका था. यदि घीसू-माधव को कहानी का खल पात्र नहीं बल्कि उत्पीड़ित ही मानें, जैसा मेरी उस कहानी को पढ़ने की दृष्टि रही है, तो अंतिम पछतावे के फ़ौरन बाद की पंक्ति,‘श्रद्धालुता का यह रंग तुरंत ही बदल गया’  और अंतिम विलाप के बाद उन्हें झूमते दिखाए जाने का दृश्य कोई भ्रम नहीं रहने देते कि प्रेमचंद यथार्थ की उस सीमा तक पहुँच चुके थे जहाँ शोषण तंत्र को दिखाने के लिए शोषित को ‘आदर्श निरीह’ की तरह चित्रित करना आवश्यक नहीं है.

शोषित/उत्पीड़ित/दलित को ‘आदर्श निरीह’ की तरह दिखाने से उस विलोम की सृष्टि होती है जो उत्पीडक/शोषक/पूंजीपति/ब्राहमणवादी  के प्रति हमारे मन में आये आक्रोश को द्विगुणित करती है.श्रीलाल शुक्ल इस विलोम को सायास नष्ट करते हैं और इस प्रकार हमारे लिए सुविधाजनक रास्ता बंद कर देते हैं. दो उदाहरण देखें- एक, पंडित राधेलाल एक महिला को ‘भगा’ लाये हैं. इस स्त्री को सभी छेड़ते हैं क्योंकि बकौल कथावाचक, “ वह भागकर आयी थी इसलिए कुतिया थी.” यह तो बताने की जरूरत नहीं कि ‘कुतिया’ शब्द उसी तिर्यक भाषा का उदाहरण है, जो उस स्त्री के लिए नहीं बल्कि लोकमानस में बसे पूर्वाग्रह पर व्यंग्य है, यहाँ, जो बताने के लिए यह उदाहरण चुना गया है वो ये कि, उसे यह मजाक/छेड़ा जाना अच्छा लगता है. “वह बडबडाती जा रही थी, जिसका तात्पर्य यह था कि कल के छोकरे जो उसके आगे नंगे-नंगे घूमा करते थे, आज उससे इश्कबाजी करने चले हैं. ससरे मोहल्ले को यह समाचार देकर कि लडके उसे छेड़ते हैं और वह अब भी छेडने लायक है, वह औरत वहीं अँधेरे में गायब हो गयी.”[14] 

दूसरा उदाहरण- खन्ना मास्टर अपनी कक्षा में एक लडके को ‘मेटाफर’ का अर्थ पूछते हुए फटकार रहे हैं. वे कहते हैं, “हिन्दी में तो बड़ी बड़ी प्रेम कहानियां लिखा करते हो पर अंग्रेज़ी में कोई जवाब देते हुए मुंह घोड़े-जैसा लटक जाता है !” यहाँ यह लंबा उद्धरण देखें जो सवर्ण मानस की घृणा और उससे भी ज्यादा यथास्थिति के चरमराने की खीझ को बड़े ही धारदार तरीके से हलाल करता है, “कुछ दिन पहले इस देश में यह शोर मचा था कि अपढ़ आदमी बिना सींग-पूंछ का जानवर होता है. उस हल्ले में अपढ़ आदमियों के बहुत से लड़कों ने देहात में हल और कुदालें छोड़ दीं और स्कूलों पर हमला बोल दिया. हज़ारों की तादाद में आये हुए ये लडके स्कूलों, कॉलेजों,यूनिवर्सिटियों को बुरी तरह से घेरे हुए थे.शिक्षा के मैदान में भम्भड मचा हुआ था.अब कोई यह प्रचार करता हुआ नहीं दीख पडता था कि अपढ़ आदमी जानवर की तरह है. बल्कि दबी जबान में यह कहा जाने लगा था कि ऊंची तालीम उन्हीं को लेनी चाहिए जो उनके लायक हों, इसके लिए ‘स्क्रीनिंग’ होनी चाहिए. इस तरह से घुमा-फिराकर इस देहाती लड़कों को फिर से हल की मूठ पकडाकर खेत में छोड़ देने की राय दी जा रही थी. पर हर साल फेल होकर, दर्जे में सब तरह की फटकार झेलकर और खेती की महिमा पर नेताओं के निर्झरपंथी व्याख्यान सुनकर भी वे लडके हल और कुदाल की दुनिया में वापिस जाने को तैयार न थे.वे कनखजूरे की तरह स्कूल से चिपके हुए थे और किसी भी कीमत पर उससे चिपके रहना चाहते थे.”[15] 

इससे आगे की पंक्तियाँ तो उत्तर मंडल काल के सवर्ण हाहाकार को तीस साल पहले ही देख चुकी थीं, “घोड़े के मुंह वाला यह लड़का भी इसी भीड़ का अंग था; दर्जे में उसे घुमा-फिराकर रोज-रोज बताया जाता था कि जाओ बेटा, जाकर अपनी भैस दुहो और बैलों की पूंछ उमेठो; शैली और कीट्स तुम्हारे लिए नहीं है.”( यहाँ भी दृष्टव्य है और आगे भी लडके के लिए कथावाचक द्वारा ‘घोड़े के मुंह वाला’ ही संबोधन दिया जाता है. जाहिर है, किसी का मुंह घोड़े जैसा नहीं होता, हर बार इस विशेषण के दोहराव के साथ मास्टर साहब की उपमा हास्यास्पद होती चली जाती है.) पर इस प्रसंग में भी लडके के बारे में उल्लेख है कि जब, “ उसका बाप आज भी अपने बैलों के लिए बारहवीं शताब्दी में प्रचलित गंडासे से चारा काटता था, उस वक्त लड़का एक मटमैली किताब में अपना घोड़े-जैसा मुंह छुपाकर बीसवीं शताब्दी के कलकत्ते की रंगीन रातों पर गौर करता रहता था.”

कहना यह है कि दोनों ही प्रसंगों में स्त्री और लड़का ‘आदर्श निरीह’ की छवि में फिट नहीं होते. यह विलोम रचना बहुत आसान होता लेकिन तब यह उपन्यास साधारणता की ढलान पर लुढकता, विशिष्टता के दुर्गम रास्ते पर न चल पाता. यह उलटबांसी सी लगती है, किन्तु- ‘आदर्श निरीह’ रचकर सामाजिक पूर्वाग्रहों को चुनौती नहीं दी जा सकती है, वरन वे पुष्ट ही होते हैं. स्त्रीवादी संगठनों द्वारा ‘स्लट वाक’ के आयोजन में इन प्रतीकों को चुनौती देखी जा सकती है. पंडित राधेलाल की पत्नी/जीवनसाथी कैसी है इससे उसके बारे में राय रखने वालों को राय रखने के अधिकार की वैधता/अवैधता नहीं स्थापित होगी और न ही खन्ना मास्टर के विद्यार्थी के होनहार होने से ही उनकी पूर्वाग्रही दृष्टि कठघरे में आयेगी. श्रीलाल शुक्ल उस लोकमानस को प्रश्नचिह्नित कर रहे हैं जिसमें एक ही घटना के जरिये पंडित राधेलाल ‘कभी न चूकने वाले मर्द’  के रूप में विख्यात हुए जबकि उनकी पत्नी को उपरोक्त संबोधन मिला.श्रीलाल शुक्ल इसी दोहरेपन पर तंज करते हैं, और अब इसे पूरा पढ़िए- “पंडित राधेलाल की जो भी प्रतिष्ठा रही हो, उनकी प्रेयसी की स्थिति बिलकुल साफ़ थी. वह भागकर आयी थी, इसलिए…”

ठीक यहीं पर बेला का भी उदाहरण ले लें जो रुप्पन बाबू और रंगनाथ दोनों के सपनों में आती थी, लेकिन उसका चयन बद्री पहलवान थे. रंगनाथ और रुप्पन बाबू की कुंठाएँ हस्तमैथुन या स्वप्नदोष में स्खलित होती हैं तो छोटे पहलवान की कुंठा उसे आसानी से सार्वजनिक रूप से बदचलन कह देने में. क्या यहाँ भी सामाजिक पूर्वाग्रह नहीं काम कर रहा ? छतों को लांघकर अभिसार के लिए आती बेला के चित्रण पर आपत्ति रखने वाली दृष्टि अंततः उसके एक सुशीला के रूप में चित्रण की आकांक्षा तक ही जाती है ( और यह भी कम समस्यामूलक नहीं है.) श्रीलाल शुक्ल फिर हमारे सामाजिक दोहरेपन पर सटीक टिप्पणी कर देते हैं, प्रसंग है वैद्य जी द्वारा बेला के पिता के यहाँ रिश्ते की बात करने जाने का, “बड़े आदमियों का जीवन चरित ही हमारे यहाँ इतिहास माना जाता है और अगर उसकी परिभाषा न बदली तो भविष्य में हाईस्कूल में लड़कों की वार्षिक परीक्षा में अवश्य पूछा जाएगा कि “वैद्यजी के जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना क्या थी?” और वे उत्तर में लिखेंगे, “वे फलाँ तारीख को अपना दरवाजा छोड़कर गयादीन नामक एक महासामन्त के घर गए थे.” इसी के साथ दूसरा सवाल होगा, “इस घटना का कारण क्या था?” और लडके जवाब लिखेंगे, “इस घटना का कारण उनके बड़े लडके बद्री पहलवान का आचरण और गयादीन की लडकी बेला का दुराचरण था.”[16] ( बल मेरा )

सच तो यह है कि राद के वंचित दयनीय नहीं हैं. श्रीलाल शुक्ल ने स्वयं लिखा है, “गाँव का आदमी अगर सफ़ेद कालर वाले शहरी की तरह आत्मदया और कुंठा का शिकार हो जाए और उसे अपने व्यवहारों में भी दिखाने लगे तो जीवित रहना उसके लिए दूभर हो जाएगा और गाँव सामूहिक आत्महंताओं के केन्द्र हो जायेंगे. विपत्तियों और संघर्षों को झेलने में नियतिवाद ही उनका एकमात्र शास्त्र नहीं है, जीवन के प्रति उनमें एक खुली हुई दृष्टि भी है जो उतने ही कारगर एक दूसरे अस्त्र की सृष्टि करती है जिसका नाम परिहासबोध है.”[17] जो बात श्री शुक्ल ने नहीं लिखी वो ये कि जो गंजहापन शिवपालगंज के सभी पात्रों में नज़र आता है, वह परिहासबोध उनकी बचे रहने की जद्दोजहद का हिस्सा ही है. सनीचर, जिसके बौडमपने का उपहासास्पद चित्रण हम शुरुआती हिस्से में पढते हैं, प्रधान बनने की प्रक्रिया में सरकारी योजनाओं का दलाल भी बन जाता है और परचून की दूकान भी खोल लेता है. “प्रधान बन  जाने के बाद सनीचर ने उस मैदान के एक कोने पर लकड़ी का एक केबिन खडा किया और वहाँ परचून की एक दूकान खोल ली. यह काम वह प्रधान बनने के पहले क्यों नहीं कर सका, इसके बारे में उसे कुछ नहीं कहना था.”[18] इस ‘कुछ नहीं कहने’ में राद के पाठक के लिए जो सन्देश है वह कोई गूढ़ नहीं है. सनीचर का बौडमपना, रिक्शेवाले की बेफिक्री, गयादीन का ( बकौल रंगनाथ-) गयादीनवाद – ये सभी रूमानहीन सामाजिक व्यवस्था में टिके रहने के उनके पैंतरे ही हैं. ये पैंतरे कभी सफल होते हैं कभी असफल. पुनः शहरी रिक्शेवाले के प्रसंग में नित्यानंद तिवारी जी की शिकायत पर ध्यान दें. प्रसंग के प्रारम्भ में ही शहरी रिक्शेवाले के सन्दर्भ में कथावाचक की टिप्पणी थी( जिसकी तिवारी जी से उपेक्षा हो गयी), “उसका पसीने से लथपथ चेहरा देखकर वेदना का फोटोग्राफ नहीं, बल्कि वेदना का कार्टून आँखों के आगे आ जाता था.” सनीमा देखने और सिगरेट पीने की ढींगों के बावजूद शहरी रिक्शेवाले और गोंडा के रिक्शेवाले की वर्गीय स्थिति एक ही है. बस, दूसरे की स्थिति का तनिक कारुणिक विश्लेषण उसे ‘वेदना का फोटोग्राफ’ बनाता है जबकि पहले द्वारा उसे ढंकने की असफल कोशिश उसे ‘वेदना का कार्टून’ बनाती है …और ये ज्यादा कारुणिक है.

राद के उत्पीड़ितों के बारे में दूसरी महत्त्वपूर्ण बात ये है कि वे अपने उत्पीडन को दैवी नियति नहीं मानते हैं.वे जानते हैं कि यह शक्ति संरचना का हिस्सा है जिसमें फिलहाल वे शोषित पक्ष में होने के लिए अभिशप्त हैं. वे उस गोबर के वंशज हैं जिसने होरी द्वारा ‘बड़े लोगों’ की चिंताओं और दुखों की बात सुनकर कहा था, “तो फिर अपना इलाका हमें क्यों नहीं दे देते ! हम अपने खेत, बैल, हल, कुदाल सब उन्हें देने को तैयार हैं. करेंगे बदला ? यह सब धूर्तता है, निरी मोटमरदी !”[19] रुप्पन बाबू जब कई दिनों बाद चमरही से निकलते हैं तब लेखक इस बदली हुई परिस्थिति का चित्रण यों करता है, “जमींदारी टूटने का यह नतीजा तो नहीं निकला कि चमरही गाँव के भीतर समा जाती या वहाँ ढंग के दो-चार कुएँ और मकान बन जाते, पर पहले जैसा ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ न दिया जाए. इसलिए “हाय ! कहाँ वे दिन ! और कहाँ आज के दिन !” की दीनता के भाव से बचने के लिए बाँभनों ने- और खास तौर से वैद्यजी ने- यथासंभव उधर से निकलना बंद कर दिया था.” और सबसे करारा संवाद चुरइया – जिसने अपने बेटे का नाम चंद्रप्रकाश रखा है और वो उसे चंदपकास उच्चारित करता है- के द्वारा यहाँ आता है, “ पंचायत चुनाव तो हो गया. अब कौनसा चुनाव होना है, भैया ?” और चुरइया की हिम्मत देखकर अचकचाए रुप्पन बाबू बस यही कह पाते हैं, “ स्साले ! गंजाहपन झाड रहे हो.”[20] 

जहाँ ये ‘फिलहाल’ बदलता है वहाँ दूसरे दृश्य और परिणाम भी देखने को मिल जाते हैं. चुनाव जीतने की तीसरी अर्थात नेवादा तकनीक प्रसंग में ऐसा ही दृश्य है जिसमें दो उम्मीदवारों में से एक ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के उद्धरण द्वारा स्वयं को ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न बता रहा था, “ वह चबूतरे पर बैठा था और बोलता जाता था. अचानक उसका वाक्य अधूरा ही रह गया.उसे अपनी कमर पर इतनी जोर से चोट का अहसास हुआ कि वह ‘तात लात रावन मोहि मारा’ कहने लायक भी न रहा. वह चबूतरे से नीचे लुढककर गिरा ही था कि उस पर दस ठोकरें और पड़ गयीं और जब उसने आँख खोली तो पता लगा कि संसार स्वप्न है और मोह-निद्रा का त्याग हो चुका है. इसके बाद इस तरह की कई घटनाएं हुईं और ब्राह्मण उम्मीदवार को मालूम हो गया कि पुरुष-ब्रह्मा का मुख पुरुष-ब्रह्मा के पैर से ज्यादा दूर नहीं है. और संक्षेप में जहाँ मुंह चलता हो और जवाब में लात चलती हो, वहाँ मुंह बहुत देर तक चल नहीं पाता.”[21]

उपन्यास पर एक आरोप यह है कि यह वंचितों के प्रति पर्याप्त संवेदना नहीं दिखाता. राद दुखों के वर्णन से सायास बचता है. राद में करुणा की संभावना वाले पर्याप्त दृश्य हैं किन्तु राद वंचित के मन के भीतर नहीं झांकता, इसके बावजूद उस (वंचित/उत्पीड़ित) की मनःस्थिति को समझने के पर्याप्त संकेत दे देता है. दो उदाहरणों के जरिये बात करें.रंगनाथ और विद्रोही मास्टर लोग जब गयादीन के पास गए हैं, गयादीन अपनी बेटी की बदनामी से हलकान हो उसकी कहीं बाहर शादी कर देने के इच्छुक हैं, वहाँ गयादीन, जो अपने नामानुसार दीनहीन ही रहते हैं, पहली बार मुस्कुराते हैं. पंक्ति है, “रंगनाथ समझ गया कि यह मुस्कराहट रो न पाने की मजबूरी से पैदा हुई है.”[22] दूसरा प्रसंग- जब लंगड़ मिसिल पाने के धर्मयुद्ध में परास्त हो वापिस जा रहा है. वहाँ लंगड़ हँसने की कोशिश करने में रोने लगता है.[23] 

आदमी रोने की बजाय हंसने लग जाय और  हँसने की बजाय रोने लग जाए, यह दुःख की चरमावस्था है. हो सकता है कि उस स्थिति विशेष में यदि उपन्यासकार  लंगड़ के मन के भीतर झांकता तो वहाँ भी वैसा ही शोकभाव होता जैसा ‘गोदान’ में अंत में होरी के मन में था लेकिन यह न झांकना राद के लेखक का सायास निर्णय है. मुझे इसके दो कारण लगते हैं. पहला – ऐसा करके श्रीलाल शुक्ल ने एक प्रकार से लंगड़ के आत्माभिमान की रक्षा की है. हम उसे मूर्ख मान सकते हैं पर कमजोर नहीं. राद के क्रूर यथार्थ में वैद्यजी जैसा ताकतवर आदमी अपने दुखों का वर्णं करके मानवीय दिखने का प्रयास भले ही कर ले, कोई वंचित अपने दुखों का वर्णन करके कमजोर दिखने की गलती नहीं करता.

दूसरा कारण ज्यादा जटिल है. उपन्यास यदि ग्रामीणों/वंचितों/उत्पीड़ितों के मन में क्या है, इसे झांकने का प्रयास करता तो यह उपन्यास उस दृष्टि का प्रतिनिधित्त्व नहीं करता जो अभी कर रहा है. इसे अगले खंड में स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है.

कथावाचक और कथाकार की भिन्नता यानी असल में कौन किस पर हंस रहा है ?

उपन्यास से सर्वाधिक शिकायत यह रही है कि यह ग्रामीण जीवन पर ‘संयमविहीन हास्य’ का रुख अपनाता है और इस क्रम में त्रासद करुणा का लोप हो जाता है और यह सब उपन्यासकार की दृष्टि के कारण होता है. प्रसिद्द आलोचक शम्भुनाथ ने लिखा है, “गाँव की रोमानी छवि को श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी ने तोड़ा है. यह उपन्यास तोड़ सब कुछ देता है, रचता है सिर्फ कुछ विशिष्ट मुहावरे. एक मुहावरा है, ‘सच्चे हिन्दुस्तानी की यही परिभाषा है कि वह इंसान जो कभी भी पान खाने का इंतज़ाम करले और कहीं भी पेशाब करने की जगह ढूंढ ले.’ गाँव की राजनैतिक चेतना पर टिप्पणी के रूप में धूमिल की यह पंक्ति कई बार आयी है – ‘जिस किसी की दम उठाकर देखो, मादा ही नज़र आता है.’ कथाकार को अपने अराजकतावादी दृष्टिकोण का सार्वभौमीकरण भी करता है, ‘सारे मुल्क में शिवपालगंज ही फैला हुआ है.’ कहने के लिए यह उपन्यास देश के लोकतंत्र पर व्यंग्य है, पर वस्तुतः यह गाँव की आम जनता का मखौल है और एक तरह से उस पर लांछन भी. कथाकार को मैदान जाते स्त्री-पुरुष असभ्य लगते हैं और उसे बड़ा मजा आता है, जब कोई ट्रेन आते ही वे ‘गार्ड ऑफ ऑनर’ में तुरंत खड़े हो जाते हैं. कथाकार शिवपालगंज को भीतर से नहीं, बाहर से देखता है, अभिजात शहरी दृष्टि से. साठोत्तरी साहित्य पर निषेधवाद हावी था, ‘राग दरबारी’ इसकी चपेट में आ गया था.”[24] 

शम्भुनाथ जी की कम से कम एक बात से तो सहमत हुआ जा सकता है कि कथाकार शिवपालगंज को भीतर से नहीं बाहर से, अभिजात शहरी दृष्टि से देखता है. लेकिन सवाल ये है कि क्या यह दृष्टि अवगुण है ?  उपन्यास में जिस पात्र का दृष्टिकोण सर्वाधिक प्रमुखता से व्यक्त हुआ है, वो है रंगनाथ.शेष जगह जहाँ कथावाचक बोलता है वहाँ भी रंगनाथीय दृष्टि ही विस्तार पाती लगती है.आलोचक वीरेंद्र यादव तो यह मानते हैं कि रंगनाथ ‘औपन्यासिक पात्र के आवरण में लेखकीय उपस्थिति’ है. दरअसल वीरेंद्र यादव को इस स्वर से ही दिक्कत है. वे लिखते हैं, “जहाँ धूमिल भदेस को रचनात्मक शक्ति के रूप में इस्तेमाल करते हुए नागरिकता को कठघरे में खडा करते हैं, वहीं श्रीलाल शुक्ल नागरिकता के धरातल पर खड़े होकर भदेस की कपाल क्रिया करते हैं.”[25] उनका मानना है कि “ जहाँ धूमिल और राजकमल चौधरी ‘एंग्री यंग मैन’ की शैली में जनतंत्र की समालोचना करते हुए ‘एक अदद आदमी’ को अपनी रचनात्मक सहानुभूति के केन्द्र में रखते हैं,वहीं श्रीलाल शुक्ल कौतुक मुद्रा अपनाते हुए अपने ‘सिनिकल’ मुहावरे में उसी ‘एक अदद आदमी’ को अपने व्यंग्य बाणों का लक्ष्य बनाने से नहीं चूकते.” यहाँ मेरा विनम्र मत यह है कि एंग्री यंग मैन की दृष्टि यथार्थवाद के साथ दूर तक नहीं जाती, अमिताभ बच्चन के सन्दर्भ में तो नहीं ही, धूमिल के सन्दर्भ में भी नहीं. मजेदार बात यह है कि खुद श्रीलाल शुक्ल भी इससे मिलती जुलती बात कह चुके हैं, “ राग दरबारी लिखते हुए मेरे सामने दो ही विकल्प थे : या तो मैं उसे ‘एंग्री यंग मैन’ की मनःस्थिति में लिखता जो कि मैं नहीं था, या उसे सनीचर, रुप्पन बाबू, प्रिंसीपल, वैद्यजी के साथ उठने-बैठने वाले पढ़े लिखे गंवार की तरह लिखता, जो कि मैं था.”[26] 

यदि इस कथन में ‘पढ़े लिखे गंवार’ पदबंध के निहितार्थ की पूर्ण उपेक्षा करते हुए श्रीलाल शुक्ल के कथन को जाहिर अर्थ में ( फेस वैल्यू पर ) लें और वीरेंद्र जी की तर्क श्रृंखला को मान लें तो हमें मानना होगा कि कथावाचक और कथाकार के विचार तो एक हैं ही, मुख्य पात्र के विचार भी दरअसल कथाकार के ही विचार हैं.कथावाचक के विचार सदा कथाकार के विचार नहीं होते हैं. रेणु के उपन्यासों/ कहानियों में इसे देखा जा सकता है. वहाँ कथावाचक रेणु नहीं होते हैं, वे उस ( उदाहरण के लिए मेरीगंज ) अंचल के बाशिंदे की ही तरह दृश्य को देखते/दिखाते हैं, विचार/ विश्लेषण भी रेणु के रूप में नहीं उसी गाँव के बाशिंदे के रूप में करते हैं. विश्वनाथ त्रिपाठी ने बताया है कि इसी कथाकार के दृष्टि के लोप और पात्र में परकाया प्रवेश कर उसकी दृष्टि से सब कुछ देखने के कारण हम रेणु की रचनाओं में उस अंचल की धडकनें सुन पाए हैं.[27] राद में भी यही है . यह औपन्यासिक पात्र के आवरण में लेखकीय उपस्थिति नहीं बल्कि औपन्यासिक पात्र की दृष्टि का लेखकीय विस्तार है.

यह रंगनाथ कौन है ? रंगनाथ के शिवपालगंज आने के साथ उपन्यास प्रारम्भ होता है और उसके लौटने के फैसले के साथ खत्म. रंगनाथ स्वास्थ्य लाभ के लिए शिवपालगंज आया था, वह स्वस्थ तो हुआ लेकिन यह स्वास्थ्य वर्धन शारीरिक कम था, मानसिक ज्यादा. पहले ही दृश्य में जहाँ रंगनाथ ‘रेलवे के शिकायती कथा साहित्य में अपना योगदान देके और रेलवे अधिकारियों की निगाह में हास्यास्पद बनकर’ स्टेशन से निकला था, श्रीलाल शुक्ल ने इस बात का आभास दे दिया था कि रंगनाथ का ज्ञान सैद्धांतिक ज्यादा है, व्यावहारिक कम.

रंगनाथ शहर से गाँव आया है. गाँव का गंजहापन उसके सामने धीरे धीरे प्रकट होता है. छोटे पहलवान द्वारा अपने बाप कुसहरप्रसाद की दुर्दशा देखकर उसका ‘खून उबलने’ लगता है. लंगड़ के नक़ल पाने का इतिहास सुनकर वह ‘भावुक हो जाता है.’ ‘कुछ करना चाहिए’ की भावना उसके मन को मथने लगती है. रंगनाथ के लिए अचम्भे का विषय यह है कि जब “अमरीका ने एक नया उपग्रह छोड़ा था, पाकिस्तान-भारत सीमा पर गोलियाँ चल रही थीं, गेंहू की कमी के कारण राज्यों का कोटा कम किया जाने वाला था, सुरक्षा समिति में दक्षिण अफ्रीका के कुछ मसलों पर बहस हो रही ठी, इन सब अबाबीलों को अपने पंजे में किसी दैत्याकार बाज की तरह दबाकर वह काला-सफ़ेद विज्ञापन अपने तिरछे हरूफ में चीख रहा था : बवासीर ! बवासीर !”[28]

रंगनाथ के शोध के विषय में कथावाचकीय टिप्पणी है, “हिन्दुस्तानियों ने अपनी पुरानी ज़िंदगी के बारे में अंग्रेजों की मदद से एक विषय की ईजाद की है जिसका नाम इंडोलॉजी है.”[29] ध्यान दें कि श्रीलाल शुक्ल का यह उपन्यास एडवर्ड सईद के पौर्वात्यवाद की अवधारणा दिए जाने के एक दशक पूर्व आया था. उसके अध्ययन की एक बानगी प्रस्तुत करते हुए श्रीलाल शुक्ल ने इस ज्ञान के ‘भंडारण’ का चित्र यों दिखाया है, “उसके दायें मार्शल और बाईं ओर कनिंघम विराजमान थे. विंटरनित्ज़ बिलकुल नाक के नीचे थे. कीथ पीछे की ओर पायजामे से सटे थे. स्मिथ पैताने की ओर धकेल दिए गए थे और वहीं उल्टी-पुल्टी हालत में राइस डेविस की झलक दिखाई दे रही थी. परसी ब्राउन को तकिये ने ढक लिया था. ऐसी भीड़-भाड में काशीप्रसाद जायसवाल बिस्तर की एक सिकुडन के बीच औंधे मुंह पड़े थे. भंडारकर चादर के नीचे से कुछ सहमे हुए झाँक रहे थे. इंडोलॉजी की रिसर्च का समां बंध गया था.”[30]

इन सभी प्राच्य्वादियों के नाम पर ध्यान दें तो रंगनाथ की इतिहास दृष्टि और सके आधार पर निर्मित परिप्रेक्ष्य सहज ही समझ आ जाता है. एडवर्ड सईद की किताब ‘ओरियंटलिज्म’ १९७८ में ( यानी राद के एक दशक बाद में ) आयी थी. इस किताब में पूर्व के बारे में पश्चिमी दृष्टि की चीरफाड़ करते हुए इसे स्थापित किया गया कि पश्चिमी दृष्टि ने पूर्व बनाम पश्चिम को अध्यात्म बनाम भौतिकवाद के जिस रैखिक विभाजन में देखा, उसे जाने-अनजाने पश्चिमी साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ रहे पूर्व के चिंतकों ने भी अपना लिया. ऊपर उद्धृत तमाम पुरातत्त्ववेत्ता और इतिहासविद अपनी कर्मनिष्ठा के लिए आदरणीय हैं लेकिन रंगनाथ के पढ़ने की शैली को लेखक ने जिस रूपक में प्रस्तुत किया है वह जाहिर करता है कि उसने अध्ययन की कोई आलोचनात्मक दृष्टि विकसित नहीं की है. “ किसी भी सामान्य मूर्ख की तरह उसने एम.ए. करने के बाद तत्काल नौकरी न मिलने के कारण रिसर्च शुरू कर दी थी, पर किसी भी सामान्य बुद्धिमान की तरह वह जानता था कि रिसर्च करने के लिए विश्वविद्यालय में रहना और नित्यप्रति पुस्तकालय में बैठना जरूरी नहीं है.”[31] और “वास्तव में यहाँ आ जाने पर रंगनाथ का रवैया उन टूरिस्टों का सा हो गया था जो सड़कें, हवा, इमारतें, पानी, धूप, देशप्रेम, पेड़-पौधे, कमीनापन, शराब, कर्मनिष्ठा, लडकियां और विश्वविद्यालय आदि वस्तुएँ अपने देश में नहीं पहचान पाते और उन्हें विदेशों में जाने पर ही देख पाते हैं. तात्पर्य यह कि रंगनाथ की आँखें धूप की ओर देख रही थीं पर दिमाग हमारी प्राचीन संस्कृति में खोया हुआ था, जिसमें पहले से ही सैंकडों चीज़ें खोयी हुई हैं.”[32] 

स्वर्णिम अतीत के प्राच्यवादी भाष्य के साथ गड्ड-मड्ड यह आधुनिकता मूलतः सुधारवादी तथा भारतीय समाज की असमतल संरचना के विश्लेषण और बदलाव में अक्षम है. इस ‘आधुनिकता’ को गयादीन के  राजनीति को घटिया मानने (अर्थात तटस्थ रहने ) के पीछे की राजनीति नहीं नजर आती,इसे एक विद्यालय की बदहाली के असली कारण समझ नहीं आते पर कुछ मास्टरों की लड़ाई में विद्रोह की गूँज सुनाई दे जाती है, इसे सत्ता के प्रतीक दरोगा जी पर कुछ मामूली पहलवानों के हावी हो जाने से हैरानी होती है और इन पहलवानों की डोर किस राजनीतिक शक्ति के हाथ में है यह इसे नज़र नहीं आता. इसे जोगनाथ,  सनीचर और लंगड़, भिन्न  व्यक्तियों की भिन्न परिस्थितियों में भिन्न प्रतिक्रियाएं तो नज़र आती हैं और इसके आधार पर यह उनके लफंगे-बेवकूफ-दिवास्वप्नवादी होने की राय भी बना लेती है लेकिन यह देख नहीं पाती कि अंततः इनकी वर्गीय स्थितियां कमोबेश एक है और उसने ही इन्हें ऐसा बनाया है. पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा एशियाई समाजों को देखने की जो दृष्टि प्रक्षेपित की गयी थी, भारतीय चिंतकों में उसका आत्मसातीकरण कैसे हुआ, इसका प्रतिनिधि अंकन है रंगनाथ.

हिन्दी का आम पाठक जिस पात्र के साथ सर्वाधिक तादात्म्य महसूस करता है, वह है रंगनाथ. श्रीलाल शुक्ल यदा कदा रंगनाथ की स्थिति की हास्यास्पद विडम्बना को भी रेखांकित करते चलते हैं, जिससे पाठक को यह मानने की सहूलियत मिल जाती है कि वह रंगनाथ नहीं है बल्कि इस उपन्यास के सभी पात्रों से बाहर खडा होकर वृहद परिप्रेक्ष्य में चीज़ों को देख रहा है. लेकिन देखने की बात यह है कि यह खुशफहमी तो रंगनाथ को भी थी ! वैसे देखने की बात ये है कि अपनी विडंबनापूर्ण स्थिति को पहचान सकने की क्षमता – इसी क्षमता के कारण पाठक इस रंगनाथीय दृष्टि के साथ तादात्म्य महसूस करता है. अंततः यह भ्रामक और अधूरा सत्य है , उपन्यास धीरे धीरे इसे उजागर करता है.

यदि हम तुलना करें तो पायेंगे कि जितनी जगह रंगनाथ की अवस्थिति की विडंबना आयी है, उससे कहीं ज्यादा जगह रंगनाथ की आँखों से देखा गया ग्रामीण गंजहापन आया है. रंगनाथ की दृष्टि और कथावाचक की दृष्टि एक दूसरे को छूती हुई ऐसा वेन आरेख बनाती हैं जिसमें दोनों वृत्त कभी एक दूसरे के दूर-पास आते जाते हैं तो कभी घुलमिलकर एकाकार हो जाते हैं.कभी हम इस वृत्त से बाहर निकलकर कथावाचक को शहरी आधुनिकों के मन में बसी उजड्ड ग्रामीण की छवि पर व्यंग्य करता देखते हैं, “किसी भी गाँव में इक्का दुक्का बंदूकों को छोड़कर हथियार नहीं दिए गए थे. हथियार देने से दर था कि गाँव में रहने वाले असभ्य और बर्बर आदमी बंदूकों का इस्तेमाल सीख जायेंगे, जिससे वे एक दूसरे की ह्त्या करने लगेंगे, खून की नदियाँ बहने लगेंगी.”[33] ( बर्बरता – पूरब के बारे में पहला मिथक बकौल सईद ) कभी इस वृत्त का हिस्सा बनकर रंगनाथ के मन में भी और कथावाचक उवाच में भी बेला के मांसल सौंदर्य और उसकी कामेच्छा की रंगनाथीय इच्छित छवि का वर्णन पढते हैं. ( कामुकता – पूरब के बारे में दूसरा मिथक बकौल सईद ) कभी रंगनाथ को गाँठ लगाकर नया सम्प्रदाय चलाने के तोष में इतराता देखते हैं , जो पूरब की आध्यात्मिकता की छवि – जो तर्कनिषेध और अंधविश्वास की पूरबीय छवि और इसलिए अंततः तार्किक पश्चिम की श्रेष्ठता तक पहुँचती है – को पुष्ट करती है. दूसरी ओर (शिवपालगंज में अफसरों द्वारा आकर लेक्चर दिए जाने के प्रसंग में) यह भी दिखाती है कि इस तार्किकता के अहम में डूबे आधुनिक दरअसल ग्रामीण यथार्थ से कितने अपरिचित और इस लिए कितने मूर्ख हैं, “वास्तव में पिछ्ले कई सालों से गांववालों को फुसलाकर बताया जा रहा था कि भारतवर्ष एक खेतीहर देश है. गांववाले इस बात का विरोध नहीं करते थे, पर प्रत्येक वक्ता शुरू से ही यह मानकर चलता था कि गांववाले इस बात का विरोध करेंगे. इसीलिए वे एक के बाद दूसरा तर्क ढूंढकर लाते थे और यह साबित करने में लगे रहते थे कि भारतवर्ष एक खेतीहर देश है.”[34] और जिन्हें यह ज्ञान दिया जाता था उनकी प्रतिक्रया यह थी, “ वे लेक्चर गंजहों के लिए विशेष रूप से दिलचस्प थे, क्योकि इनमे प्रायः शुरू से ही वक्ता श्रोता को और श्रोता वक्ता को बेवकूफ मानकर चलता था जो कि बातचीत के उद्देश्य से गंजहों के लिए आदर्श परिस्थिति है.”[35] 

रंगनाथ- यह नाम अपने आप में बड़ा प्रतीकवान है. रंगमंच का नाथ अर्थात निर्देशक. रंगनाथ जो अपनी तर्क बुद्धि के साथ शिवपालगंज में ‘न्याय की लड़ाई’ में ‘सही’ को ताकत देने गया था, परास्त होता है और उसे यह समझ आता है कि वह रंगमंच का नियंता नहीं बल्कि एक पात्र भर है. “पांच महीने पहले उस गाँव में एक लड़का आया था. जिसका नाम रंगनाथ था. लोग उसके बड़प्पन को पहचानते थे, क्योंकि उसके मामा क नाम वैद्यजी था और इसके अलावा उसमें अपना भी एक बड़प्पन था. उसने इतिहास में एम. ए. किया था. वह देखने में भला और सीधा था पर चाहने पर टेढ़ी बात भी कर लेता था. लगभग प्रत्येक पढे-लिखे भारतीय की तरह वह अपने से असंबद्ध प्रत्येक घटना को घटना ही की तरह देखता और उसे भूल जाता और बाद में उसके बारे में परेशान न होता था. इतिहास पढ़ चुकने के कारण उसे राजनीतिक और सामाजिक शोषण और उत्पीडन की बहुत सी कहानियां आती थी, पर उसके दिमाग में कभी यह न आया कि वह भी इतिहास का एक हिस्सा है और अगर चाहे तो इतिहास को बना-बिगाड़ सकता है. वह देश के पच्चानवे प्रतिशत बुद्धिजीवियों में था जिनकी बुद्धि उनको आत्मतोष देती है उन्हें बहस करने की तमीज सीखाती है, दूसरों का क्या करना चाहिए और क्या न करना चाहिए, इस पर उनसे भाषण कराती है और न करने के मामले में कुछ उनकी भी जिम्मेदारी है- इस बेहूदा विचार जो उनसे कोसों दूर रखती है.”[36] 

इस तरह रंगनाथीय दृष्टि मटियामेट होती है. भारतीय गाँवों में जातिवादी –सामंती गठजोड की गहरी पैठ को न समझकर प्रतिरोध को संगठित करने की आकांक्षा रखने वाली यह दृष्टि मूलतः रूमानी है. इस रूमानी नज़र में प्रतिरोध के लिए संगठित न हो पा रही जनता दरअसल अबोध है, उसे नहीं पता कि जिसे वह अबोध समझ रही है, उसे बखूबी पता है कि इस नज़र में उसकी कैसी छवि है. राद दिखाता है कि यथार्थ रैखिक नहीं बहुआयामी होता है और इस बहुआयामी तंत्र के शिकार उसे हमसे – यानी हम सब रंगनाथों से बेहतर समझते हैं.

लंगड़ ने जब मिसिल पाने का अपना संकल्प छोड़कर अपनी हार स्वीकार कर ली ( और जब रंगनाथ-रुप्पन को भी समझ आ गया कि वे यथास्थिति को नहीं बदल सकते ) उस समय हम रंगनाथ को पूरे उपन्यास में पहली बार तटस्थता का लबादा छोड़कर गुर्राते देखते हैं. यह रंगनाथ की नहीं दरअसल ग्रामीण जीवन को रैखिक दृष्टि से देख रहे बुद्धिजीवी पाठक की खीझ/हार है. यह तैंतीसवें अध्याय का अंत है, उपन्यास अपनी परिणति की ओर अग्रसर है. रंगनाथ अपने आप को हैरत से बता रहा है कि वह गुर्रा रहा है, क्यों ? क्या रंगनाथ को यह परिणति समझ आ गयी है और उसने इसके साथ तादात्म्य बिठाकर शिवपालगंज की भावी तस्वीर के बारे में सोचना शुरू कर दिया है ? पहले सवाल का जवाब- हाँ, दूसरे का नहीं क्योंकि अगले अध्याय में हम उसे रुप्पन से यह कहते पाते हैं, “धरती पर सिर्फ एक ही शिवपालगंज नहीं है. हमारे-तुम्हारे लिए सारा मुल्क पड़ा है.” इसके जवाब में रुप्पन का जवाब अब पाठक के समक्ष रंगनाथीय दृष्टि की रूमानी अबोधता स्पष्ट कर देता है, “ मुझे तो लगता है दादा, सारे मुल्क में यह शिवपालगंज ही फैला हुआ है.”[37]

रुप्पन आगे क्या करेगा इस पर उपन्यास मौन है पर रंगनाथीय आधुनिकता इस कीचड में कभी पाँव नहीं डालेगी. उपन्यास के अंत में काव्यात्मकता को छूता ‘पलायन संगीत’ रंगनाथों की दुनिया हमारे सामने रखता है. अध्यात्म, अतीत, विदेश और (अफ़सोस !)शराबखाने- कहवाघर- सेमीनार- शोध संस्थान- विश्वविद्यालय की हवाई दुनिया .

इसके बाद यह पूछना शेष नहीं रह जाता कि दुकानदारों के लुटने और तमाशबीनों के दुकानें लगा लेने वाली इस दुनिया में जो बेवकूफ दिख रहे थे उनके तो कारण और आधार मौजूद थे पर जो ‘समझदार’ थे उनका हश्र पलायन में क्यों हुआ ?  आखिरकार राद की व्यंग्य की धार ने किसे हलाल किया ? प्रिंसिपल साहब के बारे में अचानक रंगनाथ को समझ आया था कि वे जितने बेवकूफ नज़र आते हैं उतने हैं नहीं और बकौल प्रिंसिपल साहब, “जैसे बुद्धिमत्ता एक वैल्यू है, वैसे ही बेवकूफी भी अपने आप में एक वैल्यू है.”[38] इन्हीं प्रिंसिपल साहब द्वारा उपन्यास के अंत में भरत वाक्य कहा गया जो रंगनाथीय दृष्टि की कपाल क्रिया कर देता है, “बाबू रंगनाथ, तुम्हारे विचार बहुत ऊंचे हैं. पर कुल मिलाकर उससे यही साबित होता है कि तुम गधे हो.”[39] रंगनाथ की ज्ञानोदयी आकांक्षाएं खेत रहती हैं और उसे अहसास होता है कि, “शोषण और उत्पीडन की कहानियां रट लेना ही काफी नहीं है और जिस गधे की पीठ पर सारे वेदों, उपनिषदों और पुराणों का बोझ लदा होता है, वह अंतर्राष्ट्रीय विद्वत परिषद का अध्यक्ष बन जाने के बावजूद मनुष्य नहीं हो जाता – वह होने के लिए विद्वता का बोझा ढोने के सिवाय कुछ और भी करना होता है.”[40]

अंत में कहना यह है कि राद का अंशों में पाठ करने से भ्रामक निष्कर्ष पैदा होते हैं और यह वैसे भी किसी रचना का पाठ करने का सही तरीका नहीं है. राद के अंशों का स्वतन्त्र पाठ संभव था , यह बात उसकी अपार लोकप्रियता का एक कारण भी बनी और अंततः यही बात उसके आलोचकीय मूल्यांकन में बाधा भी बनी. यही दुर्घटना धूमिल के साथ हुई और यही श्रीलाल शुक्ल के साथ. राग दरबारी समग्र विश्लेषण मांगता है और हिन्दी आलोचना से अपना दाय भी. राग दरबारी का समग्र पाठ हिदी समाज को भारतीय गाँव का वो चेहरा दिखाता है जिसे आधुनिक समाज ने अपने ज्ञान/समझ से विश्लेषित करने और बदलने का दावा किया था पर समझा कभी नहीं था. यह प्रेमचंदोत्तर गाँव है. ‘मैला आँचल’ और ‘आधा गाँव’ के साथ इसे मिलाकर पढ़ने से इस गाँव की मुकम्मल तस्वीर बनती है.


[1] श्रीलाल शुक्ल, राग दरबारी,राजकमल प्रकाशन,१९९२ (ग्यारहवां संस्करण ),पृष्ठ ४९

[2] कुंवर नारायण, आज और आज से पहले, राजकमल प्रकाशन, १९९८, पृष्ठ २७२

[3] श्रीलाल शुक्ल, वही पृष्ठ ३२८

[4] श्यामाचरण दुबे; परम्परा, इतिहास बोध और संस्कृति, राजकमल प्रकाशन, २००८, पृष्ठ १४६

[5] नेमिचन्द्र जैन,जनान्तिक, संभावना प्रकाशन,१९८१,पृष्ठ ५३,उद्धृत, मुद्राराक्षस, नेमिचन्द्र जैन, राजकमल प्रकाशन,२००८, पृष्ठ १०१

[6] वीरेंद्र यादव, ‘ छुद्रताओं के महावृत्तांत से महानताओं की छुद्रता तक’,सं. अखिलेश, ‘श्रीलाल शुक्ल की दुनिया’,राजकमल प्रकाशन,२०००, पृष्ठ ४७

[7] श्रीलाल शुक्ल, वही, पृष्ठ ५

[8] वही, पृष्ठ ६६

[9] वही, पृष्ठ १८५

[10] नित्यानंद तिवारी, ‘राग दरबारी’ : व्यंग्य दृष्टि या व्यंग्य लीला(?),सं.भीष्म साहनी आदि,आधुनिक हिन्दी उपन्यास,राजकमल प्रकाशन,१९८०,पृष्ठ २४७

[11] वही, पृष्ठ २४८

[12] सुधीश पचौरी,तद्भव( सं.अखिलेश),अंक १,पृष्ठ १६०

[13] श्रीलाल शुक्ल, राग दरबारी : संस्मरण,सं.भीष्म साहनी एवं अन्य,आधुनिक हिन्दी उपन्यास,राजकमल प्रकाशन,१९८०, पृष्ठ २४२

[14] श्रीलाल शुक्ल, राग दरबारी, पृष्ठ ६८

[15] वही, पृष्ठ २२

[16] वही, पृष्ठ २९१

[17] श्रीलाल शुक्ल, राग दरबारी: संस्मरण, पृष्ठ २४३

[18] श्रीलाल शुक्ल, राग दरबारी, पृष्ठ २६२

[19] प्रेमचंद, गोदान, राजकमल पेपरबैक्स , १९९९, पृष्ठ १९

[20] श्रीलाल शुक्ल, वही, पृष्ठ २६०

[21] वही, पृष्ठ २०५

[22] वही, पृष्ठ २९७

[23] वही, पृष्ठ ३०६

[24] शम्भुनाथ, संस्कृति की उत्तरकथा, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ ६७

[25] वीरेंद्र यादव, वही , पृष्ठ ४०

[26] श्रीलाल शुक्ल, राग दरबारी: संस्मरण , पृष्ठ २४४

[27] विश्वनाथ त्रिपाठी, कुछ कहानियां: कुछ विचार ,

[28] श्रीलाल शुक्ल, राग दरबारी, पृष्ठ ६०

[29] वही, पृष्ठ ८६

[30] वही, पृष्ठ ८६

[31] वही , पृष्ठ ४७-४८

[32] वही, पृष्ठ ८६

[33] वही, पृष्ठ १२

[34] वही, पृष्ठ ५७

[35] वही, पृष्ठ ५७

[36] वही, पृष्ठ २३८

[37] वही, पृष्ठ ३१३

[38] वही, पृष्ठ  १८६

[39] वही, पृष्ठ ३२९-३३०

[40] वही, पृष्ठ २३९

6 comments
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  1. Dear Himanshuji,

    First of all, thank you very much for this essay. It is a concrete defence of a great work of Indian literature. Your essay makes several very important points, not the least of which is the observation that Shrilal Shukla anticipates the outlines of Said’s arguments.

    Not being well read in critical writing on Hindi literature, I was completely unaware of the kind of attacks made on Raag Darbari by the critical establishment. I was surprised to read some of the comments you have cited, surprised and deeply hurt at the level of misunderstanding that this true classic of 20th century literature, and consequently its writer, has had to endure. So, at a personal level, I want to thank you for setting the record straight on several scores, and educating some of these people on the notion of “aprakat karuna”. It must be a particularly unsympathetic mindset, perhaps induced by the deep discomfort that people feel when confronted by unpleasant realities, that made them not see that Shrilal Shukla’s entire body of work springs from a deep sympathy for the less fortunate, a deep sympathy that often boils over into a coruscating anger. These critics have done a disservice by not realizing the importance of tearing away the rosy glasses through which village life has been viewed in India (and continues to be viewed if you take into account the recent statement by Mohan Bhagwat).

    As you point out, the charge that Shukla writes from the position of an urban highborn is completely unfounded. Anyone who has read Sooni Ghati ka Sooraj will implicitly understand that the writer comes from the space that lies between city and village. You have very aptly cited Shukla’s statement about being a “padha likha ganvaar” who has spent time with people like those pictured in Raag Darbari. Who knows better than the writer himself the state of being of a world but not off it? The senior civil servant who grew up in a small village–which is what Shrilal Shukla was–belongs to neither that village nor to the high-powered world of flashing red lights. Especially if he has the sensibility of a novelist. Novelists thrive on this inside-outside position. The confusion it sets off within them is very productive. You have captured this very effectively in your discussion of the relationship between the narrative voice and Rangnath’s voice. It is no surprise that the protagonists of several of Shrilal Shukla’s major novels–Satte in Pehla Padav, Narayan Banerji in Makaan, Ramdas in Sooni Ghati ka Sooraj–are caught between worlds, neither of here nor of there. Even Kunwar Jayanti Prasad of Bishrampur Ka Sant, a man who has been as part of the world he has lived in, is presented to us when he is in that in between place between life and death, politically spent and retired. Perhaps some of the critics you have cited wrote before reading all the works or seeing the career develop, but the sense of being displaced, at a loss, is so strong in Shrilal Shukla’s works that to attack him for writing from a distance is ridiculous. He is at a distance and at close quarters to everything he writes about, much like the protagonists he writes about are to the worlds he places them in.

    Similarly, the charge of being unsympathetic to the dispossessed would not stick if someone had read Sooni Ghati ka Sooraj with its long diversions into a subplot about migrant labour, and then connected the dots to Pehla Padav which revisits the theme of migrant labour at novel length several years later. But this is a general sense of his work. Your close textual readings of Raag Darbari providing compelling arguments establishing the deep sympathy, and great sensitivity, that Shukla has shown in handling his dispossessed characters. You have pointed out his ability to dodge sentimentality and his deep dislike for ignorant idealization. These qualities mark him as a truth teller, a follower of no camp. These are rare qualities, rare and immeasurably valuable.

    Finally, thank you again for this excellent essay.

    Amitabha

  2. किन्तु-परन्तु के स्वर में राग दरबारी के बारे में आलोचकीय दृष्टी में गाँव के प्रति सुनहरा ,हरा भरा ,सुकूनदायी होने संबंधी अवचेतन /चेतन में घंसी मानसिकता है .गाँव को उघाड़ता हुआ राद कई अहा ग्राम्य को तार तार करता है .आपने व्यापक रूप से इस बात को अच्छी तरह पकड़ा .

  3. Awesome piece on Raagdarbari. I had a a question from the women perspective. For some reason, Dhoomil, Rajkamal Chaudhary and Shreelaal Shukla share a common ground and its their attitude and treatment of women in their works. Raagdarbari, being sarcastic somehow delineates from the unveiling part and engage in the assaults, giving it an approval.

  4. राग दरबारी पढने के बाद इस प्रतिक्रया को पढना अच्छा लगा |हलाकि इसके शुरू के कुछ हिस्सों में आलोचनात्मक ‘कमियां’ ही गिनवाई गई हैं और सम्बंधित आलेखांश भी जैसे तिवारी जी ,शम्भुनाथ जी या वीरेन्द्र जी की प्रतिक्रियाएं | ये सच भी है कि ये उपन्यास जितना हाथों हाथ लिया गया उतनी ही तीव्र आलोचनाओं का भी उसे सामना करना पड़ा था उसकी वजहें और कमियां तलाशने का ही उपक्रम ये लेख है कदाचित |उसी प्रष्ठभूमि का होने के बावजूद प्रेमचन्द रेनू से अलग है |हलाकि प्रेमचन्द के पहले उपन्यासों में आदर्श का जो ‘भराव’’ रहा है उनके बाद के उपन्यासों में उसके तेवर बदले हैं लेकिन तो भी राग दरबारी की शैली और प्रेमचन्द की शैली में बहुत फर्क है |राग दरबारी में वंचित निरीह नहीं लेकिन कहीं कहीं एक तीखे (चुभने वाले )कु-हास्य में उसे प्रस्तुत करना इन्हें आलोचना के ‘’अतिवादी शब्द’’तक घसीट ले जाता है …बहरहाल एक अच्छी प्रतिक्रया ..

  5. मैं भी इस उपन्यास के टुकडपाठ का दोषी हूँ ……एक बार फिर से पढूंगा वरना ट्रेलर को फिल्म समझने की भूल फिर से कर बैठूंगा ….शानदार पुनर्पाठ , फिर से पढ़ने के लिए मजबूर कर पाना ये क्या कम उपलब्धि है हिमांशु भाई आपकी कलम की

  6. sundar ati sundar ghatnaaon ko ekatrit karke uska punarmoolyankan karna aasan bat nhi hai . achchha lga aapko padhkar

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