आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

आत्म और उसके अनुवाद / The Self and Its Translations

इस अंक की शीर्ष कथा आत्म और उसके अनुवाद एक तरह से स्वयं प्रतिलिपि को परिभाषित करती है – जितनी यह एक दार्शनिक या सौन्दर्यशास्त्रीय या विचारधारात्मक समस्या है उतनी ही इस पत्रिका के लिये यह अपने होने की एक नितांत दैनिक और व्यावहारिक समस्या है. इस पत्रिका का जो भी आत्म है वह कई अनूदित और तथाकथित ‘मूल’ पाठों/आत्मों से बना है जिनमें परस्पर कोई एकरूपता या समरसता न है ना काम्य है. उम्मीद है संवाद की कुछ संभावनाएँ जरूर बनी हैं.

जिन छह पाठों से मिलकर यह शीर्ष कथा बनी है उनमें भी समरसता नहीं यद्यपि सहमति और असहमति के कई उपपाठ हैं. सबसे बड़ी सह-मति है इनकी आत्मीयता जिसका एक बहुत संदर उदाहरण है के. सच्चिदानंदन का निबंध जिसमें वे अपनी कविताओं में रह रहे अपने कई आत्मों के बारे में बात करते हैं. केकी दारूवाला का लेख कवि-कर्म और कवि-आत्म के बारे एक उजले विट के साथ उनकी कई कविताओं के लिखे जाने के पीछे की कहानी कहता है.

वाल्मीकि रामायण के अपने अनुवाद और उस पर अपनी कमेंटरी लिखने के बीच सालों में संस्कृत अध्येता अर्शिया सत्तार का संबंध रामकथा व राम के साथ बदल गयाः एक ‘कॉर्ड-कैरिंग’फेमिनिस्ट अब राम और सीता के उत्तर-वनवास संबंध को उनके प्रेम के लोप की तरह पढ़ती है और राम के आचरण को अधिक सहृदयता से परखने की कोशिश करती है. प्रतिपाठकों की मध्यस्थता में यह पाठ और पाठक की पारस्परिकता की एक अनोखी दास्तान है.

प्रिया सरुक्काई छाबरिया जहाँ हमें यह याद दिलाने की कोशिश करती हैं कि लेखन से उभरने वाला लेखकीय आत्म अपनी ही बनाई हुई भूलभुलैया में भटकता हुआ एक बहुरूपिया होता है वहीं किन्नौर के एकांत में रहने वाली नूर ज़हीर इस बात का कि कैसे इस लेखकीय आत्म का विस्तार होता है, कैसे वह अन्यों तक पहुँचने की विधियाँ ढूँढ़ता है. गिरिराज किराड़ू की द्विभाषी मल्टी-मीडिया प्रस्तुति पाठों और परिप्रेक्ष्यों के एलबम की तरह विन्यस्त है और बोर्खेज़ के इस कथन पर एक विनम्र पाद-टिप्पणी है कि कैसे मूल अनुवाद के प्रति वफादार नहीं होता.

ये सब पाठ साहित्य अकादेमी और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग द्वारा आयोजित एक परिसंवाद में प्रस्तुत किये गये थे.

The lead story – The Self and Its Translations – in a way tries to define Pratilipi. For Pratilipi this is as daily and practical a ‘problem’ as it is philosophical, aesthetic or ideological. Whatever the ‘self’ of this magazine is it is made of many translated and ‘so-called’ original selves/texts which neither are in any harmony nor is it intended to be so. However, we do hope that possibilities of some kind of dialogue have surely emerged out of it.

The six texts that constitute this lead story are also not harmonious though there are many subtexts of agreement/disagreement across them. The over-riding agreement is all the six are intimate texts, and a very beautiful example of this intimacy is K.Satchidanandan’s essay in which he maps many selves that have inhabited his poetry. Keki Daruwala, with a bright wit, talks about the poetic self and the act of writing poetry; and takes us to the backdrop of many of his poems and a short story.

Between translating Valmiki’s Ramayana and writing a commentary on it, Sanskrit scholar Arshia Sattar’s relationship with the Rama story and its hero changed: an erstwhile ‘card-carrying’ feminist now reads Ramayana, post-exile, as a story of loss of love and perhaps to her own surprise reads the protagonist with a new-found sympathy. Under the shadow of antireaders, this is a fabulous tale of mutual love between a text and its reader.

If Priya Sarukkai Chabaria attempts at reminding us that a writing self is all but a masquerader caught in its own labyrinth; Noor Zaheer, blessed to be living in the solitude of Kinnaur, seeks to understand how self finds ways of extending to various others. Giriraj Kiradoo’s bilingual multi-media presentation is an album of texts and contexts and submits itself as a foot note to Borges’s wonderful articulation that ‘the original is not faithful to the translation’.

All the texts were presented at a conference organized by the Sahitya Akademi and the Department of English, Benares Hindu University.

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Click to Read

The Self and Its Translations: Keki N. Daruwalla

Self and Beyond: K. Satchidanandan

The Bahuroopiya in a Bhoolbuliya: Priya Sarukkai Chabria

Lost Loves: Arshia Sattar

Muslim Rantings In The Land Of Buddhist Oral Tradition: Noor Zaheer

वो कई दूसरे जो मैं हुआ करते थे और यह एक मैं: गिरिराज किराड़ू

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