आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

वो कई दूसरे जो मैं हुआ करते थे और यह एक मैं: गिरिराज किराड़ू

An album of contexts and texts: Self as Translation(s)

The original is not faithful to the translation. (Borges?)

1. मैं एक बढ़ई हूँ, 1982-1983/ I am a Carpenter, 1982-83

मैं यह सब लिखते हुए वहाँ जा कर उसे नाप नहीं सकता ना फोन करके किसी से ठीक ठीक जान लेना चाहता हूँ पर वो शायद 18×30 के प्लाट पर बना हुआ घर है जिसमें तीन परिवार और कुल 18 लोग रहते थे. चार भाईयों के तीन परिवार और उनके साथ तीन छोटे, अविवाहित भाई. यह मेरा पहला घर था. और वह कोई 6×7 का एक कमरा था जिसमें चार लोग रहते थे, एक परिवार. मेरे माता,पिता, मेरा छोटा भाई, मैं.

तब मैं लगभग पूरे समय अकेला हूँ घर में. मेरा चार बरस का छोटा भाई एक हादसे में बुरी तरह जल गया है, माँ पूरे समय हस्पताल में पिता सुबह नौ से शाम आठ बैंक में या हस्पताल में. मैं सुबह पाँच घंटे स्कूल फिर घर में – कमरा साफ़ करता हुआ, पापा का इंतज़ार करता हुआ. 6×7 के कमरे में अकेला – पापा एक एयरोप्लेन उसके लिये खरीद रहे हैं, एक मेरे लिये. दो महीने तक खबर बार बार आती है (स्कूल से छूटने के वक्त की तरह प्रिय) भाई को छुट्टी मिलने वाली है.गली के आखिरी मकान के बाहर सुथार काम कर रहे हैं, मैं उनसे माँग माँग के लकड़ी के टुकड़े इकठ्ठा करता हूँ. जिस दिन वो घर आयेगा मैं उसे उन टुकड़ों से बने कई खिलौने दूंगा.

यूं तो वे अठारह लोग अब चार शहरों में नौ घरों में रहते हैं पर वह घर अब भी है – उसमें दो परिवार अब भी रहते हैं, तब का एक परिवारशुदा भाई अपने बेटे के परिवार के साथ.

मेरे पास फोटोग्राफ्स नहीं हैं 1982-83 के, फोटो शादी जैसे मौकों के अलावा खिंचते देखे जाने की यादें भी बहुत नहीं हैं.

कविताः देखना

पिता उस पुश्तैनी घर के छोटे से आँगन के एक हिस्से में इस तरह नहाते हैं कि वह एक ऐसा निजी स्नानघर हो जाता है जैसे वह बरसों बाद इस घर में होगा माँ उसी आँगन के एक दूसरे हिस्से में इस तरह चूल्हा जलाती है कि वह एक ऐसी निजी रसोई हो जाती है जैसी वह बरसों बाद इस घर में होगी

जंगले के उधर से जब चाची उस तरफ झाँकती है जहाँ पिता एक अदृश्य निजीपन के पीछे नहा रहे हैं उसे वह वैसा बंद स्नानघर दिखाई देता है जैसा वह बरसों बाद ही होगा ऊपर से ही जब चाचा उस तरफ देखते हैं जहाँ माँ एक झीने-से परदे जितने निजीपन के पीछे चूल्हा जला रही है उन्हें वहाँ वैसी बंद रसोई दिखाई देती है जैसी वह बरसों बाद ही होगी

दूर कलकत्ते में बैठे दादा सोचते हैं उनके बेटे खुशहाली से हैं

(प्रथम प्रकाशनः साहित्य, संपादकः सूर्य प्रकाश बिस्सा)

2. मैं मौहम्मद अजहरूद्दीन हूँ, 1984- / I am Mohammed Azharuddin, 1984-

g1
(January 31, 1985/ Source: www.cricinfo.com)

मैं क्रिकेट सम्राट से आठ भारतीय शतक सितारे वाली सूची उतार रहा हूँ जो लाला अमरनाथ से शुरू होती है, अजहर पर खत्म.

मेरी कलाई अजब हरकतें करने लगी है, मेरा कॉलर खेलते वक्त मुड़ा रहने लगा है, गेंद का सामना करता हुए मेरा स्टांस बदल गया है, मैं हर गेंद पे पैडल स्वीप मार रहा हूँ.

अजहर 199 पर है, रवि रत्नायके नाम का मुझ जैसों की स्मृति के अलावा कहीं रजिस्टर ना होने वाला गेंदबाज गेंद फेंकना शुरू करता है, रुक जाता है, फिर शुरू, फिर फीते ठीक करता है, चार-पाँच मिनट खराब करता है – गेंद डालता है, रेडियो पे अपार शोर है, मैं जानता हूँ अजहर 200 नहीं बना पाया, ना कभी बना पायेगा. वह शारजाह में हारता है मैं शर्मिंदा होता हूँ.

एडीलेड 1991. सवा तीन सौ चौथी पारी का टारगेट, वह 106 बनाता है पर मुझे पता है हार होगी. वह कई बार अमानवीय बल्लेबाजी करता है पर वह विनर नहीं है. वह असफलता का कवि है.

वह मैच फिक्सिंग के आरोपों से घिरा हुआ है, मैं उसके पुराने मैच देख रहा हूँ. अब वह मर चुका है, अब वह काँग्रेस का साँसद है.

Those who saw this supreme batting artist at his peak will never forget him – sinewy wrists transforming a slender piece of willow into a magician’s wand…..a Michelangelo in the midst of housepainters…  his 121 at Lord’s in 1990 was one for the gods.

(Dileeep Premchandran, http://www.cricinfo.com/ci/content/player/26329.html)

3. मैं डिस्को डांसर नहीं हूँ, मैं रमईयावस्तावईया हूँ 1980s / I am not a Disco Dancer, I am Ramaiyavastavaiya 1980s

g2

अचानक मैं किसी दूसरी दुनिया में हूँ जिसमें हर चीज़ डिस्को है, एक भूतपूर्व नक्सलाईट, मृणाल सेन का आदिवासी हर चीज़ को डिस्को बना रहा है. हद तब हो जाती है जब शादी में बारात से एक दिन पहले होने वाली गणेश परिक्रमा जिसे ना जाने क्यूं छोटी काशी वासी छींकी बोलते हैं भी डिस्को हो गई – यानि शॉर्ट और माइनस मोस्ट रिचुअल्स. मेरी खुशकिस्मती से एक दिन  मेरे दादा राजकपूर महोत्सव की फरमाईश करते हैं – तीन दिन के लिये वीसीआर घर पे, यानि जन्नत ज़मीन पर! अब मैं जानता हूँ मैं कौन हूँ – रमईयावस्तावईया.

[flashvideo filename=http://www.youtube.com/watch?v=8Y67ZkA9nf0 /]

3. मैं कॉमरेड श्योपत हूँ, 1989 / I am Comrade Shopat, 1989

1989 में मुझे यह फैसला लेना था कि मैं कॉमरेड श्योपत होना चाहता हूँ कि वी.पी. सिंह. मैंने लोकल को चुना. मेरे शहर की दीवारें ‘बोफोर्स के चोरों’ के कॉर्टूनों से पटी हुई थीं. कॉमरेड श्योपत सीपीएम के उम्मीदवार थे उनका जीतना इतिहास बनना था. हम ये मौका कैसे चूक सकते थे!

कथेत्तरः मेरिटोक्रेसी पर एक विलाप

….यह पता चलना था कि १९८९ के चुनाव में कामरेड श्योपत का कामरेड होना नहीं, जाट और गैर-कांग्रेसी होना ज्यादा महत्त्वपूर्ण था (कांग्रेस सारी २५ सीटों पर हारी थी राजस्थान में पर कामरेडों को चुनाव के बाद बीजेपी के साथ मिलके वी.पी.की सरकार बनवाना था), कि वे कामरेड कहने भर के ही थे……

(प्रथम प्रकाशनः http://anunaad.blogspot.com/2009/07/blog-post_19.html)

4. मैं एस.पी.बालासुब्रमण्यम हूँ, 1989 / I am S.P. Balasubramaniam, 1989

सपना (रति अग्निहोत्री): ओ मॉय गॉड मेरी तो हिन्दी कविता की क्लास है!

वासु (कमल हासन): तो मैं तुमको हिन्दी कविता सिखाता हूँ..

सपना (रति अग्निहोत्री): तुम और हिन्दी कविता?

(एक दूजे के लिये, के.बालाचंदर, 1981)

मुझे नहीं पता विद्वज्जनों की इस सभा में कितने लोगों को लिफ्ट में वासु (कमल हासन) की एक्रोबेटिक उछलकूद के साथ की गई ये ‘हिन्दी कविता’ याद है, या वो उसे यहाँ काबिल-ए-जिक्र भी मानते हैं कि नहीं, इस कुफ्र के लिये माफ़ करें पर मेरा मतलब इसी पोएट्री पफाःमेंस से था.

[flashvideo filename=http://www.youtube.com/watch?v=Rq021lXIz9w /]

नब्बे के मध्य तक मेरे पास तमिल, तेलुगु और मलयालम मे गाये हुए बालू के गानों के करीब पचास कैसेट इकठ्ठे हो गये हैं, मैं इन में से एक भी भाषा नहीं समझता पर जाने कितने गीत याद हो गये हैं – मैं बालू को महान सिद्ध करने वाला हर बयान या टेक्स्ट पढ़ता हूँ पर यह अहसास बढ़ता जा रहा है वह कोई महान गायक नहीं, कि वह कोई कुमार गंधर्व नहीं. मैं बहुत खुश हूँ जब नौशाद एक लम्बे अर्से बाद संगीत देते हैं और बालू से गवाते हैं –यह भी मेरे जैसों के अलावा किसे याद होगा कि गोविंदा ने उस फिल्म में एक उर्दू शायर का किरदार अदा किया था.

5. मैं राजीव गोस्वामी नहीं हूँ, 1990 / I am not Rajeev Goswami 1990

g3

(Source: India Today)

I was 15 when I saw this picture, on the cover page of India Today, and was already a year old, very vocal supporter of reservation – perhaps only because I was in love with the (then) Prime Minister of my country.  I remember I was so relieved when the propaganda reached me – Rajeev wanted to be famous! However, I am very happy I could never believe that in his self-immolation, he had bargained a fortune for his family.

Anyway, he didn’t die.

Rajeev Goswami went on to become DU president and died almost nameless and mostly unlamented in 2004 or 05.

कथेत्तरः मेरिटोक्रेसी पर एक विलाप

मेरे रिश्तेदारों में जिस एक मात्र व्यक्ति ने मेरे साथ कामरेड श्योपत को बीकानेर से सांसद बनाने की  ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल करने के लिए अपना तन मन दांव (धन की अनुपस्थिति पर गौर करें) पर लगाया था वही भैया यह सिद्ध करना चाह रहा था कि वर्णाश्रम जन्म-आधारित  नहीं, कर्म-आधारित होता है जब पाखाने से आते हो तब क्या खुद तुम्हें ही कोई हाथ लगाता है? बात इतनी बढ़ी कि मैंने एक कौर वहीं जाके तोड़ा. अब आप अंदाजा लगा सकते हैं मैं क्या कर रहा था. उधर ब्राह्मणों का गुरुकुल/गढ़ माने जाने वाले एक सरकारी हिन्दी मीडियम स्कूल में वर्षांत का भाषण (अंग्रेजी में) देते हुए मैं दो घटनाओं को सार्वकालिक महत्व की पहले ही बता चुका था – बर्लिन दीवार का ढहना और भारत जैसे हतभागे देश का वी.पी.सिंह जैसे संत प्रधानमंत्री को खो देना. मेरिटोक्रेसी से आस्तित्विक चिढ़ के कारण ही मैं आरक्षण का बहुत वोकल समर्थक हुआ और दो तीन बार पिटते पिटते बचा.

(प्रथम प्रकाशनः http://anunaad.blogspot.com/2009/07/blog-post_19.html)

6. मैं एक ढाँचा नहीं हूँ, 1992 / I am not a Structure, 1992

वैष्णव ददिहाल और शैव ननिहाल के बींच फंसा मेरा गर्वीला नास्तिक, 1992 में भौंचक था, मुझे विश्वास था यह नहीं होगा. मेरा गर्त में जा गिरा हीरो, वीपी, होता तो यह नामुमकिन था. 1989 से हर वक़्त घर से बाहर रहने के बाद मैं दिनों तक घर में बैठा रहता था.

1992 के बाद से भी मैं नास्तिक हूँ, उतना गर्वीला नहीं. मुझे धार्मिकता का सम्मान करना आ रहा था ठीक उसी समय जब यह हो रहा था. जो टूटा वो एक राष्ट्र का सेक्यूलर संकल्प भर नहीं था (और वह तो पहले भी टूटा था कई बार). यह कुछ लोगो के जीने का ढंग था. अपने पिता को मंदिर के बाहर छोड़कर बाहर ही खड़े रहने वाला काफिर यह सोचने लगा कि अगर इस मंदिर को जहाँ मेरे पिता रोज आते हैं कोई ढहा दे तो? यह धर्म या संस्कृति या राजनीति का प्रश्न होने से पहले उसका प्रश्न है जो वहाँ आता है.

मैंने सोचा मैं भी ढह गया हूँ पर मैं एक ढाँचा नहीं था. मैं जल्दी ही एक कवि हो जाने वाला था.

कथेत्तरः मेरिटोक्रेसी पर एक विलाप

इन यातना और अकेलेपन के दिनों में जो लोग हमारे जैसे टीनएजर थे १९८९ में वे बहुत भौंचक थे – १९९२ तक आते आते वे अजनबी हो गए थे, घर में बाहर सब जगह.

(प्रथम प्रकाशनः http://anunaad.blogspot.com/2009/07/blog-post_19.html)

g4

(Source: www.rupeenews.com)

7. मैं बीकानेर हूँ, 1975/ I am Bikaner, 1975-

g5

(Sources: http://www.holidayiq.com/destinations/photos/Bikaner-Photos.html
http://www.realbikaner.com/joomgallery/viewcategory/19.html)

सिर्फ़ मुझे ही पश्चिमी रेगिस्तान के इस छोटे-से कस्बे में पैदा होना था! जो अपने को छोटी काशी समझ कर धन्य होता है, जहाँ आया करेंगे चौक में करपात्री जी महाराज और मैं उनके साथ नारा लागाऊंगा छह–सात बरस की उम्र में, अधर्म का नाश हो! पापा और भाई का जन्म पुनर्जागृत बंगाल में और माँ का अपने नाना के यहाँ बिलासपुर में. जिस हस्पताल में जन्मा उसके सामने के मैदान में बरसों बाद क्रिकेट खेलूंगा और अपने जीवन का पहला स्कैंडल करूंगा – दूसरी तरफ के कन्या विद्यालय में. 10 बरस की उम्र में पहली बार छूटेगी छोटी काशी और तब से अब तक कई शहरों, गाँवों में.

अब मैं खुद को, इंटैलैक्चुअल्स की तरह, निर्वासित कहना शुरू करूंगा, सीरियस्ली.

Non-fiction: Confessions of a Kapoot

(a) Once a Bikanerwallah went to Calcutta (or, for that matter, to Paris) and, mesmerized by the Howrah Bridge (or, for that matter, by the Eiffel Tower), he exclaimed, “Bravo, Ganga Singh. May you live long, for making such a wonderful thing!”

(b) This Ganga Singh is a truly proverbial figure in Bikaner and all the great things on this earth are performed by him. Sriganganagar, a district in Rajasthan where the Vice President of India, Sh. Bhairon Singh Shekhawat, lost his security deposit in a legislative election once, is named after him.

(c) Karni Singh, an Olympian shooter and a grandson to Ganga Singh was Bikaner’s MP for the first two decades after ‘independence’. He fought all these elections as an ‘independent’ candidate.

(f) It’s around 1947. The then Times of India correspondent in Bikaner Daudayal Acharya, also a ‘nationalist’ and a ‘freedom fighter’ (adjectives he wore retrospectively – he is to be remembered not by what he thought he did but by what we thought he did) had news that he could possibly break to no one. He came to know that Sardul Singh, the then Bikaner Maharaja, was secretly negotiating a merger of the Bikaner riyasat into the Islamic State of Pakistan. He ultimately broke the news to his employers around ‘midnight’. Soon Sardul Singh grabbed the ‘proud opportunity’ of becoming the first Rajasthan Maharaja to declare his riyasat a part of the Republic of India. However, the backstage drama became known only in the 1990s with the publication of Daudayal’s recollections, a book that also reproduced a scan copy of the telegram he sent to his editor, courtesy the State Archives’ Office, Bikaner. By then Daudayal had already seen his advocate son, Om Acharya – an ardent fan and mimic of Atal Bihari Vajpeyi – lose three legislative elections as a Jansangh and BJP candidate.

(g) My nani whose birth date is unknown, who hails from an industrial family in Bilaspur, who used to be a very good swimmer, who has spent almost all of her adult life in Calcutta visiting Victoria Memorial and Dharamtallah, Metro Cinema and Ganesh Talkies, who remembers Azadi ki ladai as Hindu-Muslim ki ladai, who remembers seeing those carriages full of corpses, has access to just one language: the Bikaneri species of Rajasthani.

(j) It is 1545. An heir to Jodhpur riyasat, Rao Bika, hurt by a minor courtly remark, set forth on an adventure towards west to establish a new settlement, a new shahar of his own and found himself in the deserts of Jangal Pradesh where, to his sheer disbelief, goats and wolves were grazing together. A wise shepherd Nera advised him to take Karni Mata’s blessings and to settle in Jangal Pradesh. Karni Mata, the goddess associated with rats, promised him to be the patron of his new riyasat and thus Jangal Pradesh became Bika-Ner. Karni Mata, often classified as a folk goddess, was herself a ‘historical’ character who fought with Dharmaraj to get her drowned son back. When denied by Dharmaraj, she challenged him and took control of the afterlives of all the Depavats (her clan). The rats you see in her temple at Deshnok, 30 kms from Bikaner are all believed to be dead Depavats reincarnate.

(k) It is 2002. I visit Deshnok, on the insistence of my friendpoet and cultural anthropologist Badri Narain. In the narratives, they sing at her temple, you have the history of Bikaner punctuated by calamities and calamitous situations. Karni Mata who saved us from Pakistani bombs in 1971, and from the Surat plague, again came to our rescue when the Ammunition Depot caught fire recently and missiles were flying all over the city, sings the chorus. If only New York had a patron goddess like her, Huttington would have been a forgettable proper noun. Pray, my American brothers and sisters, pray, ask Him to appoint a patron goddess or invent one yourself, sorry, man, but survival is more important than your monotheism. Be pagan, be blasphemous.

(Excerpted from a paper read at Sahitya Akademi’s International Seminar on Myth, Magic and Reality: Indian and Latin American Fiction, 2005)

कविताः सारी दुनिया रंगा

जूते न हुई यात्राओं की कामना में चंचल हो उठते थे
हमने उन पर बरसों से पालिश नहीं की थी
धरती न हुई बारिशों की प्रतीक्षा में झुलसती थी
हमने उस पर सदियों से रिहाईश नहीं की थी
आग न बनी रोटियों की भावना में राख नहीं होती थी
हमने उसमें जन्मों से शव नहीं जलाये थे

और यह सब बखान है उस शहर का जिसमें एक गायिका का नाम
सारी दुनिया रंगा हो सकता था

(प्रथम प्रकाशनः इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी, 2001)

Post script

How come Borges knew about this town, famous exclusively and only for Haldriram Bhujia? बोर्खेज़ ने मुझे चौंकाने का लम्बा सिलसिला उसी पल शुरु किया था जब The Book of Sand में बीकानेर शब्द आया था.

A Random list of Chapters / Pictures Not Included

I am not the ones who killed Sikhs, 1984.

I am a porn star, 1994.

I am a poet 1995.

I am a fat man, 1996.

Everybody knows I am a poet, 2000.

I am the same person ever since then, 2009.

I am Sandhya, 2005.

I am Pratilipi, 2009.

*

बेफिक्र रहिये, मैं आपको पूरी रामकथा नहीं सुनाऊंगा.

इस सेमिनार में आने का सबसे बड़ा आकर्षण था (बनारस आने और एक साथ कई मित्रों – वास्तविक, वर्चुअल और संभावित – ­ से मिलने का मौका पाने के अलावा) आमंत्रण में ही लिखी यह अपेक्षा कि हम इसमें अनौपचारिक ढंग से कुछ कहें. कुछ कहा कि नहीं इसका कोई भरोसा नहीं अनौपचारिक होने की कोशिश पूरी की है.

मैंने समझने की कोशिश की है कि इस सब आत्मों का उससे क्या संबंध है जिसने आजकल ऐसे मज़मून लिखने शुरू कर दिये हैं-

छवि-कथा

यह एक तथ्य है कि हिन्दी आलोचना का अधिकांश देशज नहीं है. वैसे ही जैसे मार्क्सवाद, आधुनिकतावाद, रूपवाद, राष्ट्रवाद, उत्तरआधुनिकतावाद, यहाँ तक कि उपन्यास और सिनेमा आदि और उनके साथ साथ, कोका कोला, रेल, पैंट, शर्ट, राष्ट्र राज्य, धर्मनिरपेक्षता (सेक्यूलरिज्म), वियाग्रा आदि भी देशज नहीं है. और अच्छा है कि नहीं है. औपनिवेशीकरण एक तथ्य है उसे मिटाया नहीं जा सकता; उसने भारत के अतीत और वर्तमान के मध्य एक अलगाव उत्पन्न किया; देशज ज्ञान प्रणालियों को नष्ट किया, भारत को एक डिस्टॉर्ट, वाँछित अन्य की तरह निर्मित किया किंतु उसे अन-डू नहीं किया जा सकता. भारतीय आधुनिकता, बहुत हद तक उसका राजनैतिक स्वराज और यह हिन्दी भाषा और इसकी साहित्यिक आलोचना सब औपनिवेशिक स्थिति के ही फलित हैं. आधुनिक हिन्दी राष्ट्र और राष्ट्रीयता के निर्माण की प्रक्रिया में जन्मीं और विकसित हुई भाषा है; इसमें एक तरह की बहुलता है– कई भाषाओं से मिलकर बनी है यह; एक तरह की हाईब्रिडिटी है – यह जितनी किसी ‘मूल’ से प्रतिश्रुत है उतनी ही ‘अन्य’ से; इसे किसी शुद्ध ऑरिजिन में वापिस नहीं लौटाया जा सकता, और उसी तरह हिन्दी आलोचना और हिन्दी संस्कृति को भी नहीं

(Excerpted from an essay recently read at a conference in Bharat Bhavan, Bhopal)

पूरी बेशर्मी से यह प्रेजेन्टेशन करने के बाद, मैं अब औपचारिक होकर किये कराये का कबाड़ा नहीं करना चाहता.लेकिन दो-तीन बातें हैं –

1. How many selves have I been and the one that I am – how do they relate? Is the one that I am, the one making this presentation, a translation or many translations of the selves briefly portrayed here in this album?

2. In love with and surrounded by popular art, cricket and some hardcore, heart-burning, typically north Indian, politics – of caste, of religion – what converted (= translated?) me into the one I think I am.  My teen age friends, who knew me till 1992, will find it very difficult to believe that I have become some kind of writer or editor or even a teacher.

3. So very easily, this album can be read as a ‘fabricated past’ of a liberal-secular. You do not need to be a deconstruction expert to do that. The moment you write something, that ‘thing’ is translated. The original is, if I am allowed the adverbial finality of the damned deconstructionists, “always”, “already” translated.  Translation, in its “afterlife”, “ultimately”, not just replaces but “erases” the original “absolutely.”

2 comments
Leave a comment »

  1. aapko parhte huye ek lekhak ke roop men mujhe seekhne ko kafi kuchh milta hai. ek bilkul naye tarah ka form aur itni gahri baat. parhte huye aapke text ko dekha bhi jaa sakta hai. bhasha aur form se khelna aapse seekha jata hai. mere guru manohar shyam jishi aksar kahte the ki prose aisa likho jismen borges ki tarah vidwatta aur kisaagoi ek sath ho. bahut achha laga.

  2. इस पाठ का सामना करने का तरीक़ा मेरे पास प्रायः नहीं है. यह मेरी बाधा है और कितनी अच्छी बाधा है. यह रचना निमंत्रण देती है या चैलेन्ज. इसे अच्छा या बुरा या ऐसा कुछ नहीं कह पाता. रचना आसानियों को दुश्वार कर देती है. ( कई बार चाहता हूँ कि ऐसा लगे कि इसे मैंने लिखा था – या तो आत्म हूँ इसका, या अनुवाद ). और बनारस में इसकी प्रस्तुति. यह कितने असाधारण ढंग से संप्रेषित हुई थी.

Leave Comment