मेरा ईश्वर यानि…: मनीषा कुलश्रेष्ठ
ला मोरा डोमिना सेंज़ा रिगोले (लव रूल्स विदाउट रूल्स)
” मैं चाहता हूँ दुनिया, वह चाहता है मुझे
मसला बडा नाज़ुक है, कोई हल लिख दे।”
मैंने उसकी – सी नकियाती आवाज़ बनाते हुए यह शेर पढ़ा और पास की झाड़ी में उसकी दी चॉकलेट और पीले गुलाबों को फेंक दिया. गर्मियाँ जा रही थीं और वह भी. बहुत शुरुआती, बेमतलब, चुप्पे दिनों में वह सफेद फूल देता था, फिर वे सुर्ख हुए …अब पीले – “दोस्त तो हम हैं ही न.रहेंगे.”
“हँह…कम्पल्सिव लायर!”
मैं लौट रही थी उसके पास से, पैदल… ऊपर से धूप और पैरों में जूते काट रहे थे. चलो यह आखिरी बार…शायद, मेरी एक दोस्त कहा करती थी, दूसरों के हाथों टूटने से बचाने के लिए यह ज़रूरी है कि हम अपने रहस्य, प्लास्टर ऑफ पेरिस के मुखौटों में संभाल ले जाएँ, जैसा कि वह खुद बहुत जल्दी ऎसा करना सीख गई हो मगर मुझे हिदायत देती रही थी ‘रहस्य उतार दो तो फिर इन लोगों के लिए क्या बच रहता है, खोजने को? पीछे चलने को?’
अब मेरे पास भी बहुत सी ऎसी बातें हैं जो मैं किसी से नहीं, अपने कमरे की दीवार तक से नहीं कहती.
जब मैं पहली बार इससे मिली थी, रेस्तराँ में गुलाम अली की गाई ग़ज़ल बज रही थी…”कुछ दिन तो बसो मेरी आँखों में.” उसने मेज़ के नीचे से मेरे टखनों को अपने जूते पहने हुए पैरों से छुआ. मुझे नागवार ग़ुज़रा. मगर जब उसने चूमा तो मेरे सीनों में शहद भर गया. उसकी आँखें मेरे सीने पर अटकी जलती – बुझती रहीं. वह ज़माना था जब हम हम एक दूसरे से आकर्षित थे, उसकी लम्बी – दुबली साँवली देह में कुछ खास आकर्षक नहीं था, आवाज़ ज़रूर जादुई थी. हमारे बीच एक गरमाहट पूरे साल बनी रही, एक दूसरे को छूते ही धड़कनें पगला जाती थीं, गर्मी में बसंत लौट आता, सब कुछ रहस्यमय हो जाता. प्रेम की अनुभूति से ही प्रेम था उसे, जिसके लिए वह बार – बार आदमी से थोड़ा लड़का बन जाता था. मैं थोड़ी लड़की से से औरत और बैलेंस बराबर. प्रेम जो पिछली सर्दियों हमने जिया वह शानदार था.
मैं बहुत दूर से चल कर उसके स्टूडियो जाया करती थी. एक बस, एक मेट्रो बदल कर. वह हमेशा से मेरी कंजूसी पर हँसता आया था, “रेडियो टैक्सी नहीं कर सकतीं? मार्च ऑन – मार्च ऑन करती चली आती हो.”
“तीन सौ रुपए में एक किताब न ले लूँ..ज़रा सा चलने के बदले. फिर जिन टाँगों पर तुम मरते आए हो वो पैदल चलने की बदौलत हैं.”
मैं अपने और लोगों के अनुभव से जान गई थी कि कितना ही गाढ़ा क्यों न हो प्रेम, खुद में कभी भी अदृश्य भँवर डाल लेता है, झीनी असहमतियाँ, अनजाने गतिरोध. मुझे इस तरफ ध्यान देना चाहिए था, कि कभी भी ये दरिया उतर सकता था. सर्दियों के खत्म होने तक जब नीम की पत्तियाँ सब झर गईं, गुलमोहर नंगे हो गए तब मुझे पहली बार रोने की इच्छा हुई, उसके पास से लौटते हुए. ज़्यादातर जो बातें दिखाई नहीं देतीं वे ही कारण बन जाती हैं….किसी रिश्ते के दरकने का. उसने साफ और धीमी, तटस्थ आवाज़ में कहा था….”तुम प्यारी हो मगर ‘फ्रीक’ हो…कुछ सनकी. “. उसने क्या कहा था ये बेमानी है. मैंने जो कहना चाहा वह गले में ही क्यों फँस कर रह गया?
“हँह…होगे तुम कैसेनोवा, आए होंगे बहुत जलवे – वलवे मगर तुम भी कोई महान – वहान नहीं हो मेरे पिकासो !
तुम एक घना जंगल थे, काले कोनों वाला, ‘ब्लैक फॉरेस्ट’ जिसे पार करना मेरे लिए क्या किसी के लिए भी उलझन भरा है. मेरे बीहड़, नहीं लौटना है मुझे तुम्हारी बीहड़ता में. मुझे नहीं कूदना आग में एक के पीछे एक कूदती, झतिंगा की उन आत्मघाती चिड़ियों की तरह अलविदा.क्या हुआ जो..अब मैं फिर अकेली खड़ी हूँ .” आखिरी शब्द मन में आते – आते गला भर आया. मैं चुपचाप फूल और चॉकलेट उठा कर यूँ बाहर आ गई जैसे हमेशा आती थी. मैंने उसके शब्दों में समझाया खुद को. “कुछ भी तो नहीं बदला है!” सिवाय इसके कि स्टूडियो में जो नई, दब्बू सी लड़की चुपचाप पेंट करने / सीखने आया करती ती थी, जिसे उसने एक ‘स्टूपिड बिगनर’ की तरह मिलवाया था, वह अब गुनगुनाने लगी थी.
उसके स्टूडियो के आस – पास ऑटो रिक्शा कभी भी नहीं मिलता था दूर – दूर तक. आज भी नहीं था लगभग दो किलोमीटर चलकर, पचासेक सीढियाँ चढ़ – उतर कर, मेट्रो में घुसते ही, आँसुओं का ‘फ्लडगेट’ खुल गया, मुझे चश्मा लगाना पड़ा भीतर आकर भी. भीड़ बहुत थी, पसीने से लथपथ जिस्म टकरा रहे थे. एक बूढ़ी औरत बुदबुदाई “हे ईश्वर!”
मेरा तो मेरे ईश्वर से ‘कनफ्रंटेशन’ चल रहा है और वह मुझसे लगभग रूठ चुका है, मैं कभी मना भी पाऊँगी उसे कि नहीं, क्योंकि मैं अकसर उसे अपनी हर बिन पूरी हुई, छोटी – मोटी प्रार्थना के बाद ‘पूजा के आले’ से उठा कर पैक करके बक्से में रख देने की धमकी देती रही हूँ. अगर वह असल का ईश्वर है तो माफ कर देगा मेरी गुस्ताखियों को….और अगर नहीं है तो बहुत याद आएगा. जाने दो, मैंने तो उससे बात करने की कोशिश की थी, लेकिन मुझे पता है कि वह नहीं चाहता था कि मैं कुछ कहूँ. इसलिए नहीं कहा न कह सकी लेकिन मेरे भीतर शब्द हैं जो बाहर आना चाहते हैं, मेरे शब्द क्या वहाँ कैद ही रहेंगे?
“मेरे पिकासो, क्या तुम्हारे अन्दर भी कोई शब्द कैद रह गए हैं? जिन्हें मैं कभी न जान सकूँगी अब? न सही तुम मैं तो जानती हूँ ना कि मैं, मैं हूँ. इस पूरे जगत में कोई भी पूरी तरह मेरे जैसा नहीं है. जो भी चीज़ मुझसे बाहर आती है वह मौलिक तौर पर मेरी है, क्योंकि इसे मैंने अकेले चुना. मैं अपनी बारे में, अपनी हर चीज़ की हक़दार हूँ. मेरा शरीर, मेरे अहसास, मेरा मुँह, मेरी आवाज़, मेरी हरकतें, (चाहे वो मेरे अपने साथ होने की हों या दूसरों के साथ.मेरे पास मेरे अपने सपने और फंतासियाँ हैं. मेरी उम्मीदें हैं, मेरे डर हैं.“
मैं ने खिड़की के काँच पर टिका, चश्मे और दुपट्टे से घिरा चेहरा खोला, मेट्रो के लेडीज़ कूपे के भीतर, अपनी गीली और सीली हुई आँखों को जायज़ा लेने दिया. वहाँ और भी आँखे थीं..छोटी – बड़ी, शांत – चंचल, काजल लदी, फीकी. कोई अपने काले घेरों में उदास, कोई अपनी सजगता और चमकीलेपन से आकर्षित करती खुशगवार आँखें, थकी – ताज़ा, उत्सुक, प्रेम से मोहिली, विरक्त, प्रतीक्षारत – विरह की मारी…ऊब चुकी या उदासीन हो चुकी, तरह तरह की आँखें. मैंने फुसफुसा कर दो – चार आँखों से पूछ ही लिया.
“कभी तुम लोग ऎसे प्रेम में पड़े हो? भयावह होता है न यह. इतना कमज़ोर बना देता है यह. यह आपका निज व्यक्तित्व खोल देता है, फिर आपका दिल ‘एक्सपोज़’ खतरों से…कि कोई भी आए और अन्दर सब कुछ बिगाड़ कर, बिखेर कर चला जाए. बामुश्किल तुम अपने चारों तरफ एक जिरहबख्तर बनाते हो…खुद को मजबूत बनाते हुए, ताकि तुम्हें कुछ आहत न कर सके. तब एक बुद्धू जो दूसरे बुद्धुओं से कतई, कतई अलग नहीं होता, भटकता हुआ चला आता है और आपकी ज़िन्दगी में घुस जाता है. तुम उसे अपना एक टुकड़ा देते हो. जबकि उसने माँगा तक नहीं होता. बस कोई मूर्खतापूर्ण बात कही होती है, या ‘जेस्चर’ दिखाया होता है. जैसे कि महज एक मोहक मुस्कान, एक फोन, एक कमेंट…? फिर तुम्हारा जीवन तुम्हारा नहीं रहता. प्रेम होस्टेज बना लेता है. यह तुम्हारे भीतर कब्जा जमाता है. यह तुम्हें खाता चला जाता है, और तुम्हें अँधेरे में रोता हुआ छोड़ जाता है. “हम दोस्त तो रहेंगे ना!” जैसा जुमला काँच की तीखी किर्च सा दिल में जा धँसता है, इस तरह कि साँस भी लो तो दर्द हो. केवल कल्पनाओं में नहीं, न केवल दिमाग़ को..दिल को बल्कि आत्मा को चोट दे जाता है. यह दर्द सच में भीतर बसता है, तुम्हें चाटता है साँप की तरह. अब मुझे प्रेम से घृणा है. जो लोग खुद से इस क़दर डरे होते हैं, खुद की सच्चाई से भागते हैं बल्कि उन सच्चाइयों की अनुभूति मात्र से भागते हैं वही लोग बात करते हैं कि — प्रेम महान होता है.
“बुलशिट ! इट हर्टस.”
भावनाएँ!
यही भावनाएँ और बेजा भावुकताएँ हिला जाती हैं, मगर जीवन भर लोगों को सिखाया जाता है – माना प्रेम में मिला दर्द भयानक ज़रूर होता है, वे प्रेम से कैसे रू ब रू होंगे अगर भावनाओं से डरेंगे तो? यही दर्द तो इंसान को नींद से जगाता है! दर्द अपने आप में ताकत होता है. दर्द अनुभूति है और अनुभूतियाँ आपके अस्तित्व का हिस्सा. आपकी अपनी सच्चाई.अगर तुम शर्मिन्दा हो इससे और छिपाते हो तो तुम समाज को अपनी सच्चाई नष्ट करने की इजाज़त देते हो, दर्द महसूसना तुम्हारा अधिकार है, तुम्हें इसके लिए खड़ा होना चाहिए.
“बुलशिट! सारे लोग दर्द छिपाने का प्रयास करते हैं. क्या वे ग़लत हैं? क्या बकवास है कि ‘दर्द तो साथ लेकर चलना होता है जैसे कि दर्द न हो मोबाईल फोन हो.
सच तो यह है कि खुद मैं थक गई हूँ अपनी सच्ची भावनाएँ छिपाते – छिपाते. मुझे अपने चेहरे पर झूठी मुस्कान क्यों चस्पाँ रखनी होती है? जबकि मैं जानती हूँ कि सामने वाला लगातार बहला रहा है, बेजा अधिकार जता रहा है. मैं क्यों नहीं दिखा सकती कि मैं नाराज़ – वाराज़ हूँ या बहुत अच्छी तरह समझ रही हूँ, उनकी छिपी – खुली मंशा. मुझे नहीं पता, मैं जिसे आकाशगंगा समझ कर चलती आई वह जलती चिता थी मेरी, मुझे आग महसूस क्यों नहीं हुई थी? ये कैसा पुरज़ोर जोश था? मैं लौट जाना चाहती हूँ, मगर कहाँ? जहाँ से भाग कर आई थी, वहाँ तो लौटने के सारे निशान मिटा आई हूँ. बस इतना याद रहा कि जाते – जाते उसने मेरी आत्मा खरोंच डाली थी, और मैं उसी सौजन्यता से मुस्कुराती रही थी क्योंकि मैं एक विनम्र स्त्री थी. आखिरकार मैं उसके प्लेज़र काऊच से उठी और धीरे से बाहर और दूर चली आई. अलविदा कहने के लिए भी पलटी नहीं. मैंने अपने मन को उतनी ही जल्दी मना लिया इस सर्जिकल अलगाव के लिए जिस तीव्रता से खुदको उसकी बिन भूमिका की जंगली दैहिक अभिव्यक्तियों के लिए मनाया था. मैं शुरु से जानती थी कि उसके लिये यह खेल था जिससे वह जल्दी उकताने वाला था. और मैं बुरी तरह हारने वाली थी. मगर अब बात घात – प्रतिघात की थी, मैं सर्जिकल होकर भी उसके भीतर कैंसर की कोशिकाओं की तरह छूट जाना चाहती थी. चाहती थी कि वह मेरे प्रेम में अंतहीन पीड़ा से भर जाए. यह सोचना खासी अजब तरीके की और औरताना किस्म की क्रूरता और मूर्खता थी, जबकि वे प्रेम में गहरे होती हैं. वह पहले ऎसी ईर्ष्या भरी क्रूरताओं पर या बहुत जहरीले जुमलों पर कहा करता था कि “खुदा करे कि ये दीवानगी रहे बाकि…”
बाद में वह इसी दीवानगी से भाग खड़ा हुआ. जैसे किसी दीवार / मकान/ रिश्ते के भरभरा कर गिरने पर लोग भाग खड़े होते हैं, कहने को दरकती दीवारें देख मैं भी बाहर आ जाती हूँ और उसे पूरा ढहते देखती हूँ, मलबे को टटोलती हूँ कि कमी कहाँ रह गई थी. मैंने मेशा मैंने पाया कि submission, पूर्ण समर्पण के सीमेंट और उसकी पुख़्तगी की तारीफ सब करते हैं, अंतत: यही उस रिश्ते के ढहने की वजह बन जाता है. खालिस सोने, खालिस सीमेंट की तरह यह खालिस समर्पण बहुत कमज़ोर साबित होता है. कुछ तो मिलावट, कुछ तो त्रुटि छोड़नी होती है. कुछ रख लेना होता है बचा कर अपने लिए.
मेट्रो से उतरते – उतरते मैं जान गई हूँ कि मैं इस शहर में, इस भीड़ में अकेली छूट गई हूँ. कोई एक शख्स भी कहने को मेरा नहीं. सब अजनबी हैं और मैं भी अब सबसे अजनबी हूँ , मुझे अपने सारे संदर्भ कटे – कटे नज़र आ रहे हैं. कितनी बेवकूफ थी मैं कि सोचती थी, रहस्य का मुखौटा ओढ़ कर गुम होकर मैं अपने अतीत को छका लूँगी, अगर यह छकाना है तो औरों के लिए होगा, खुद को कोई कैसे छका सकता है? हमारी अंतश्चेतना मूर्ख नहीं बन सकती. मैं थक गई हूँ वह दिखाते हुए जो कि मैं हूँ नहीं. मैं संसार को अपना सही आकलन करने के लिए अपना सही कोण दिखाना चाहती हूँ. मगर मैं डरती हूँ कि पता नहीं सब क्या सोचेंगे…वास्तविक मैं ऎसी हूँ, मैं खुद नहीं जानती कि कैसी? मैं भूल ही गई हूँ कि मैं वास्तव में कैसी हूँ….मुखौटा पहनने की आदत जो हो गई है. काश मुझे पता होता कि दरअसल मैं हूँ कैसी? मेरी मौलिकता क्या है? मैं कैसी दिखूँगी जब मैं , नितांत मैं होऊँगी. मैं थक गई हिदायतों से …ऎसे चलो, यह मत करो वह करो, यह मत पहनो…वह पहनो. यह मत कहो. कहना भी है तो ऎसे नहीं ज़रा बदल कर, डिप्लोमेटिक बनो. लड़ख़ड़ाओ मत, लड़खड़ा ही गई हो तो गिरो मत, गिर गई मूर्ख…तो अब उठ जा,चोट लग गई तो लगने दो…गलती की है तो दर्द से चीखो मत… सभ्रांत हो. गुस्सा पी जाओ. गाली मत दो पलट कर. अरे! जो कहा गया उसकी चीर – फाड़ मत करो. छिपे अर्थ मत निकालो द्विअर्थी बात के. बात मत पकड़ो, मर्द तो होते ही हैं ऎसे. चुप रहो…ज़बानदराज़ी मत करो.
“हे ईश्वर, रोक ले मुझे मैं किसी को चाँटा न मार दूँ प्रतिक्रिया में.” मैं रिक्शे में बैठ कर घर लौटने लगती हूँ. रास्तों में कुछ चेहरे मिलते हैं. मौलिक – अमौलिक. मुझे अपना चेहरा याद नहीं आता, रिक्शे में लगे मिरर में मुझे जो दिखता है वह कुछ जाना – कुछ अनजाना – सा है. काश मुझे याद होता कि दरअसल मैं दिखती कैसी थी? मैं क्या महसूस किया करती थी, मैं क्या सोचा करती थी? मैं कैसा व्यवहार किया करती थी…या मुखौटा न लगा होता तो आज मैं कैसी दिखती, महसूस करती, सोचती और व्यवहार करती? अपनों से ही खुद को छिपाते हुए बीमार हो गई हूँ. बल्कि खुद को धोखा देते हुए.
“काश मैं दुबारा शुरु कर पाती…और अपनी नितांत अपनी तरह हो कर …जो मैं हूँ रह पाती. मैं अपनी ही बनाई कैद में हूँ.”
“माफ करना! तुम जानती थी तुम कौन हो….और फिर भी तुम कभी देख – बूझ नहीं पाई.”
ये कौन बोला? दिखा नहीं कोई…मगर मैं उस अँधेरे नेपथ्य को सफाई देने लगी हूँ.
“अब तक तो मैंने जो चाहा वही पाया है, शायद इन्हीं मुखोटों की बदौलत. जानती हूँ मैं आदर्श व्यक्ति नहीं, जानती हूँ लोग मुझसे कैसे व्यवहार की उम्मीद करते हैं. मैं यह भी जानती हूँ कि वे सब हँसते हैं सच पर. लोगों के खिसके हुए मुखौटों पर…और अपना कस कर थामे रहते हैं. ”
सच तो यह है कि अब नहीं सह सकती, अब जब मुझे अपने सामने सड़क उदासीन लेटी दिखती है और अतीत परछाँईयों के पीछे दुबका हुआ मिलता है. क्यों नहीं मैं बाहर निकल कर अपने डर से लड़ती हूँ? क्यों मैं इन जिन्नों को अपने भीतर की बोतलों में बन्द रखे हूँ? सच यह भी है कि मैंने उसे प्रेम किया था, हालांकि उस पागलपंती के साथ नहीं जैसा कि वो सोचता था. वह सोचता था कि वह ईश्वर बनेगा और मैं उसकी भक्त. भावुकता में नहीं , उसने पूरे दिलो – दिमाग़ के साथ यह चाहा था कि वह मेरा ईश्वर बने और फरमान दे. मैंने भी तो उसे, उसकी देह को अपनी देह की वासनात्मक सजगता के साथ यूँ चाहा था कि मानो उसकी साँवली लम्बी काया ही संसार की एकमात्र जीवित बची देह हो, और बाकि सारी देहों की मृत्यु बहुत पहले, बहुत खामोशी से हो चुकी हो….. और इस तरह मैंने खुश्बू से बहक कर मुलायम पंखुरी वाले, सफेद गुलाब निगल लिए थे, काँटों ने गला काट दिया था. लाल रंग प्रेम, आवेग पीड़ा का रंग है…वे गुलाब सुर्ख हो गए थे. वे रक्त सने सफेद गुलाब कभी नहीं जान पाएँगे इस लाल रँग की क्रूरता. मुझे अब कुछ आहत नहीं कर सकता सिवाय मेरे नाखूनों के, मुझे अब कोई चोट नहीं पहुँचा सकता सिवाय मेरे अपने.
रिक्शा से उतर कर घर की तरफ बढ़ते हुए लँगड़ाती हूँ, जूतों ने आज बहुत काटा है….कराहते हुए बड़बड़ाती हूँ –
“जाओ ! जाओ ! तुम मैं नहीं..हो भी नहीं सकते. मैं गहरी रातों का सन्नाटा हूँ. मैं तुम्हारी त्वचा को सिहराता भय हूँ. मैं वो बाज़ हूँ जो तुम्हारे निशान पकड़ता हुआ पीछा करता है. मैं एक खुली, खाली कब्र हूँ तुम्हारी प्रतीक्षा में. मैं तुम्हारा अंत हूँ…मैं वह हूँ जहाँ तक तुम्हें तुम्हारा हर कदम ले आऎगा. मैं तुम्हारे लिए मृत हूँ , फिर भी मैं बँधी हूँ अभिमंत्रित तुम्हारी खुशी के लिए. अगर मैं कोई नहीं, कुछ भी नहीं तो समय आऎगा जब तुम मेरे जैसे कुछ नहीं होगे…कोई नहीं किसी के. मैं तुम्हारे लिए नाची हूँ, बेहद कसे हुए धागों में, तुमने मुझे नंगा घुटनों के बल चलाया, यहाँ तक कि धागे गहरे मज्जा में धँस गए मगर टूटे नहीं. मैं बार- बार लटका दी गई. मैं तुम्हारी मुस्कान की शिकार थी और सोचती रही सब ठीक है, कनपटी पर रखी रिवॉल्वर के डर से मैं चलती रही भरी सड़क पर और किसी का ध्यान कैसे नहीं गया? कैसे? मगर आवाजों को क्या हुआ है? भ्रम में लिपट कर लौट – लौट कर आ रही हैं. जो एक साल पहले निकली थीं गलों से. वे फीकी और हल्की क्यों नहीं हुईं…शब्दश: पिघलती हैं शीशे सी….कानों में. टूटे पंख, टूटे मन और आत्मा..
“मैं शरद की चमकीली रातों में आया हूँ, प्रेम की शफ्फाक़ चाँदनी लिए, तुमसे मिलना तो कलैण्डर की एक तारीख का फूल बन जाना है. मेरे जिन्दा रहने की लालसा तुम्हारे ओठों पर चहचहाती ललमुनियों के निरन्तर उडते रहने से ही संभव है।“
“अगर तुम बरसात में आने का कहते, मैं एक गृहणी की तरह ग्रीष्म को जल्दी जल्दी बुहार देती, एक छिपी मुस्कान के साथ. अगर पता होता आने का महीना तो मैं समेट कर रख देती ड्राअर में बाकि साल के अन्य महीने.”
वो डुएट गाने के दिन थे. देह अब बर्फीला सफेद सन्नाटा है, जो कभी सुना नहीं गया. प्रेम खून से रँगे सफेद गुलाब हैं जो कभी देखे नहीं गए. पीड़ा तुम्हारे सपनों का लिया गया बदला है…जो कभी पूरा नहीं होता..न होगा. मन करता है मैं अपने हाथ तुम्हारे खून से भर कर दीवारें चित्रित करूँ, अपनी ग्लानि, आत्मसम्मान और सम्मान दिखाती हुई कोई तसवीर. भले ही मेरी आत्मा नर्क की भट्टियों में जलती रहे निरंतर. तुम्हारा क्या है, तुम तो यही चाहोगे न कि एक और मौत मैं अपने कन्धे पर लिए चलूँ. “
“तुमने मुझे फ्रीक— सनकी कहा. क्योंकि मैं बिन्दास नाचती हूँ. क्योंकि आग से खेलती हूँ, क्योंकि कसे और फैशनेबल कपड़े पहनती हूँ. क्योंकि मेकअप करती हूँ. क्योंकि अकेले दुनिया घूमती हूँ. सच तो यह है कि मैं डरपोक हूँ. बहुत पहले जंगल में खो गए एक बच्चे की तरह, जो रोने से डरता है, प्रेम से डरता है, किसी पर विश्वास करते हुए डरता है. मैं पका हुआ घाव हूँ, भरना नहीं चाहता..दर्द मुझे राहत देता है, अहसास देता है कि मैं अभी ज़िन्दा हूँ. अपने भीतर तालाबन्द, अपने उस मुखौटे में फिट जो सदा मुस्कुराता है. भीतर मेरा चेहरा टेढा है, आईने में देख मैं इसे ठीक कर देना चाहती हूँ. मैं तुम्हें सपनों में देखना बन्द कर देना चाहती हूँ. तुम होना बन्द कर देना चाहती हूँ. मगर बातों में तुम्हारा नाम है कि गीली, ज़िन्दा मछली सा मुट्ठी से फिसल जाता है.स्मृतियों के चीरे बड़े गहरे लगे होते हैं त्वचा में, यहाँ आप उससे कहीं ज़्यादा सज़ा पाकर भी बरी नहीं होते जितना कि जुर्म आपने किया होता है. खून टपकता है और कालीन पर दाग़ बना जाता है. ”
“क्यों उतरी थी बियावाँ में माज़ी के…?” मुखौटा चीख़ता हुआ, मेरा हाथ थाम के पट्टी करता है. मैं हाथ छुड़ा लेना चाहती हूँ…मगर ऎसा नहीं करती. क्या मैं डरती हूँ यह जानने से कि मुझे किस – किस से घृणा है? या मुझे मीठी पीड़ा मिलती है डर कर. जैसा भी हो पर एक बात तो तय है कि डर और आँसू का भी एक समय होता है.
घर आकर जब भी इसे उतारती हूँ…बस थका पाती हूँ. हँसती या रोती चली जाती हूँ राहत से. ये हँसी और रोना कोई नहीं देखता सिवाय भगवान के या उसके खुद के. मास्क मुस्कुराता हुआ रात भर जगता है मैं वेलियम लेकर सो जाती हूँ. बचपन का खेल याद आता है आई स्पाईस …बढिया थी मैं उस खेल में..कोई नहीं ढूँढ पाता था. कभी कभी तो सब भूल कर मुझे घर चले जाते और फिर मैं खुद को भी नहीं ढूँढ पाती थी.
मैं खिडकी के बाहर झाँकती हूँ…एक लड़कीनुमा युवा स्त्री मुँह धोए चले जा रही है, दूसरी तरफ…बॉलकनी में खड़ी स्त्री पति से बात करते हुए लगातार मुस्कुराए चली जा रही है,…लगातार… मुझे आश्चर्य हुआ, “ क्या मैं अकेली ही हूँ क्या जो मास्क पहनती है? क्या और भी हैं जो बिना खुद को जाने एक ही तरह से मुस्कुराए हुए जीते चले जाते हैं? हमेशा बढिया, बिना बीमार हुए…मजबूत दिखते हुए.
सुबह जागते ही मैं खुद के चेहरे को आईने में देखती हूँ. इसे ताज़ा और दिन भर के लिए सजग होना चाहिए. ताकि कोई दर्द और संघर्ष के चिन्ह न देख ले. कोई भी राह चलता, बस में मिलता…शॉवर, साबुन और झाग…और हाथ से मलती हूँ इसे ताकि दुख की जर्दी मिट जाए. कभी इतना रगड़ देती हूँ कि खून निकल आता है. दुबारा देखती हूँ तो रोने का मन हो आता है. कोई खटखटा रहा है जल्दी से बगल में रखा ठहाका ओढ लेती हूँ. या फिर लम्बी सहज मुस्कान. जो बस ‘टेलरमेड’ हैं और मेरे लिए ही बने हैं. काम पर जाती हूँ….कॉलेज में क्लास लेती हूँ. रेडियो स्टेशन में जो जो मिलता है उसके हिसाब से मुखौटा कसती – ढीला करती हूँ. बहुत अपने, अपने, पुराने परिचित, नए परिचित, अपरिचित और विरोधी, उदासीन लोग या फिर काम के लोग. कोई नहीं जान पाता कि हर मुखौटा फिसल जाता है कभी – कभी तो…ऎसे में जल्दी से वॉशरूम में आकर जूतों, ऊपर चढ़ गई ब्रा या खिसकती जींस से और बालों में बँधे स्कार्फ से पहले मुखौटा ठीक करती हूँ.
अब भी हर रोज़ मैं एक नया दिन देखती हूँ, बरसाती, धूप भरा, ठण्डा कोहरीला…सुनहरा, सफेद, गुलाबी, पीला, सलेटी..मगर आईने में चेहरा वही…अब फर्क नहीं कर पाती, यह चेहरा है कि मास्क…क्योंकि अब आलस में इसे अकसर रात में उतारना भूल जाती हूँ.
एक monologue में चलती ये कहानी अच्छा असर छोड़ती है ..
excellent expressions…….with creative honesty..
excellent expressions with creative honesty!
Stri hone ki sazayen aur Purush hone ke dambh kaise kaise. stri man ki gahari marmantak peedayen ki vah purn samarpan kyon kar deti hai kyo nahin kuch purusho ki tarh bacahkar rakh leti hai. par stri ka yahi to asali saundary hai jise purush upekshit to kar sakta hai kintu nakar nahi sakta hai. Ant mein kahani bhautik dharatal par aa thaharti hai, jabki use iski zarurat nahin thi. Khud se baat karna khud ko pana hai aur stri prem aur nafrat dono mein khud ko gahre paa leti hai kyonki us samay vah apne charam par hoti hai.
mera eshver yanee…ek ek shabd sateek, yatharth …ateet se vartaman kee niranter shashvat yatra …premteerth yatra her koi apane boote iss raah se kamobesh gujarata hai …kavyamay katha kee peer se aaj sarabor hoon ! stri dwara striman kee essi sashakta abhivyakti !!! maneesha kul(milakar) shreshth …
achchha lga , halanki pahli bar aapko pdha , pr such aatmeeyata badha , kul milakar bahut hi achchha lga aapko padhkar . fir isi prakar kee rachna ke sath aapko dekhane kee tamanna hai .