आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

मीरा की कविता का पुनर्पाठ: माधव हाड़ा

पहले धार्मिक सांप्रदायिक चरित्र-आख्यानों और बाद में उपनिवेशकालीन इतिहासकारों ने मीरा की, जो संत-भक्त और रहस्यवादी कवयित्री छवि निर्मित की, उससे उसकी कविता का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया। मीरा पारंपरिक अर्थ में संत-भक्त नहीं थी, उसने राजसत्ता और पितृसत्ता के विरुद्ध अपने विद्रोह को भक्ति के आवरण में व्यक्त किया, जिसके पर्याप्त साक्ष्य उसकी कविता में है, लेकिन इस निर्मित छवि के वर्चस्व के कारण इस ओर समालोचकों का ध्यान ही नहीं गया। बीसवीं सदी और बाद में मीरा की अधिकांश आलोचना और मूल्यांकन उसको संत-भक्त मानकर ही हुए। उसकी कविता के संस्कार, सरोकर, वस्तु और भाषा उसके समकालीन संत-भक्तों से बहुत अलग और खास किस्म हैं, लेकिन इस ओर बहुत कम ध्यान दिया गया। मीरा एक संसारी स्त्री थी और उसके जागतिक सरोकार बहुत व्यापक, मूर्त और सघन थे। संसार विरत संत-भक्तों से अलग मीरा की कविता1 में इसीलिए मूर्त का आग्रह बहुत है। वैयक्तिक पहचान का आग्रह और सांसारिक संबंधों का द्वन्द्व और तनाव भी संत-भक्तों की कविता में प्रायः नहीं मिलता, लेकिन मीरा की कविता में यह ध्यानकर्षक ढंग से मौजूद है। संत-भक्त जन्मांतर व्यवस्था और कर्मफलवाद में विश्वास के कारण जागतिक व्यवस्था को सामंजस्यपूर्ण मानकर इससे असहमत नहीं होते, लेकिन मीरा की कविता में व्यवस्था का विरोध और उससे असंतोष चरम पर है। मीरा की अभिव्यक्ति और भाषा भी जैसी लोकसंपृक्त और स्त्री लैंगिक है, वैसी लोक विरत संत-भक्तों के यहां नहीं मिलती। यहां पुनर्पाठ के द्वारा मीरा की कविता की उन विशेषताओं को रेखांकित करने का प्रयत्न किया गया है, जो उसकी संत-भक्त की निर्मित और प्रचारित छवि के कारण अब तक अनदेखी रह गई हैं।

कुछ विदेशी लेखकों की यह धारणा कि भारतीय चिंतन की मूल विषय वस्तु जगत और जीवन का निषेध है2, कुछ हद तक अतिशयोक्तिपूर्ण है, लेकिन सर्वथा असत्य नहीं है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि जगत और जीवन को मिथ्या मानकर उसकी सजग अनदेखी की प्रवृत्ति भारतीय चिंतन में बहुत आरंभ से ही मौजूद रही है। इस प्रवृत्ति ने शास्त्र और धर्म में कई रूप- संहिता, कथा-आख्यान, मिथक आदि अख्तियार किए और इसने भारतीय जनसाधारण के जीवन और जगत के प्रति नजरिए को बहुत दूर तक प्रभावित किया। खास तौर पर संत-भक्तों में यथार्थ जगत और जीवन के प्रति कोई उत्साहपूर्ण लगाव इसी दृष्टिकोण की व्यापक और सहज स्वीकार्यता के कारण नहीं मिलता। इस कारण ही भक्ति आंदोलन से जुड़े संत-भक्तों के समतावादी और मानवतावादी विचारों में भी निराशावादी रहस्यवाद और वैराग्य के तत्व मिलते हैं। मीरा की कविता में भी मध्यकालीन अन्य संत-भक्तों की तरह निराशावाद और वैराग्य का आग्रह है, वह भी यो संसार चहर की बाजी, सांझ पड़यां उड़ जासी और इस देह का गरब न करणा, माटी में मिल जासी जैसी लोकप्रिय ओर लगभग स्वीकार्य धार्मिक-दार्शनिक धारणाओं से बंधी हुई है, लेकिन जगत और जीवन का निषेध उसकी कविता में उस तरह से नहीं है जैसा अन्य मध्यकालीन संत-भक्तों के यहां है। उसकी कविता में दृश्य और मूर्त का उत्साहपूर्ण आग्रह है और वह अपनी ऐन्द्रिक संवेदनाओं और कामनाओं को खुलकर खेलने की छूट देती है। वह न तो जीवन और जगत का निषेध करती है और न अपनी ऐंद्रिक संवेदनाओं- कामनाओं का दमन करती है।

मध्यकालीन संत-भक्त ‘ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या’ की लोकप्रिय और लगभग मान्य धारणा में सहज विश्वास के कारण लोकोत्तर के आग्रही थे। उनकी कविता में यह लोकोत्तर ही केंद्रीय सरोकार है, लेकिन मीरा की कविता में वस्तु जगत बहुत सघन और व्यापक रूप में मौजूद है। नदी, तालाब, पेड़, पौधे, पशु, पक्षी, हवा, बिजली, धरती, आकाश, बादल, बरसात, जंगल, समुद्र, महल अटारी, वस्त्र, आभूषण आदि मीरा की कविता में जिस आग्रह और उत्साह के साथ आते हैं, वैसे किसी और मध्यकालीन संत-भक्त की कविता में नहीं आते। अपने आसपास के वस्तु जगत के प्रति मीरा उदासीन नहीं है। उसकी कविता उसके अपने आसपास के यथार्थ के गतिशील और दृश्य रूपों से ठसाठस भरी हुई है। ऐसे कई उदाहरणों में से एक यहां दृष्टव्य है:

पिया मोहि दरसणी दीजै हो।
बेर-बेर मैं टेरहूं या किरपा कीजै हो।
जेठ महीने जळ बिना पंछी दुःख होई हो।
मोर असाढ़ां कुरळहे घन चात्रक सोई हो।
सावण में झड़ लागियो सखि तीजां खेले हो।
भादरवै नदियां बहै दूरी जिन मेलै हों
सीप स्वाति ही झेलती आसोजां सोई हो।
देव काती में पूजहे मेरे तुम होई हो।
मंगसर ठण्ड बहोती पड़ै मोहि बेगि सम्हालो हो।
पोस महीं पाला घणा, अबही तुम न्हालो हो।
महा नहीं बसन्त पंचमी फागां सब गावै हो।
फागुण फागां खेल हैं बणराव जरावै हो
चैत चित्त में ऊपजी दरसण तुम दीजै हो।
बैसाख बणराइ फूलवै कोयल कुरळीजै हो।
काग उडावत दिन गया बूझूं पण्डित जोसी हो।
मीरां बिरहण व्याकुली दरसण कद होसी हो।

जीवन और जगत के निषेध के विचार ने भारतीय जनसाधारण के व्यावहारिक जीवन को दूर तक प्रभावित किया। इस निषेध का व्यावहारिक जीवन में अर्थ था इंद्रियों का सजग दमन। धीरे-धीरे भारतीय जन साधारण में यह धारणा लगभग मान्य हो गई कि इंद्रियों की दासता या जीवन का आनंद धर्म विरुद्ध है और इंद्रियों पर स्वामित्व से ही मुक्ति संभव है। मध्यकाल से पहले ही इंद्रियों के दमन को तो संत-भक्त होने की जरूरी अर्हताओं में भी शामिल कर लिया गया। मध्यकालीन संत-भक्तों ने इसीलिए इंद्रियों या मन की दासता की जमकर भर्त्सना की है। कबीर और उनके समानधर्मा संत इस मामले में सबसे अधिक मुखर हैं। कबीर कहते हैं- मैमंता मन मारि रे घट ही माहिं घेरि। एक अन्य स्थान पर उन्होंने इंद्रियों की निंदा करते हुए कहा है कि भगति बिगाड़ी कामियां, इन्द्री केरै स्वाद। इसी तरह दादूदयाल ने पंचेन्द्रियों को अपने अधीन करने की शिक्षा देते हुए कहा कि दादू पंचौं यह परमोधिले, इन्हीं को उपदेस। मध्यकाल के अंतिम चरण में हुए सुंदरदास तो मन की भर्त्सना में सबसे अधिक उग्र और निर्मम हैं। एक जगह उन्होंने कहा कि मन कौं राखत हटकि करि, सटकि चहुं दिसि जाइ/सुंदर लटकि रु लालची गटकी विषैफल खाई। मीरा भी इंद्रिय दमन की इसी लोक धारणा से बंधी हुई है- वह भी मन के मदमाते हाथी पर गुरु ज्ञान के अंकुश रूपी नियंत्रण की आग्रही है, लेकिन उसकी कविता की वस्तु और सरोकार इसकी पुष्टि नहीं करते। उसकी कविता में इंद्रिय संवेदनाओं और कामनाओं की अकुंठ और निर्बाध अभिव्यक्ति है। यह कहीं प्रत्यक्ष है, तो कहीं परोक्ष। खास बात यह है कि इस संबंध में अन्य संत-भक्तों की तरह उसमें किसी तरह की अंतर्बाधा या अपराध बोध नहीं है। कृष्ण से संयोग की उसकी तीव्र और सघन ऐन्द्रिक कामना उसकी कविता में कई तरह से आती है। कभी वह कहती है- दरसण बिन मोहि जक न परत है, चित मेरो डांवाडोल, कभी वह कहती है- आवो मन मोहना जी जोऊं थारी बांट, कभी वह चाहती है- मीरा दासी तुम चरणां की मिलज्यो कंठ लगाई और कभी वह कामना करती है कि सांवरिया के दरसण पाऊं, पहर कुसुंभी सारी। अपने स्वच्छंद मन के संबंध में वह कहती है- यो मन मेरो बड़ो हरामी यूं मदमातो हाथी। बरसात में अपनी उल्लासित देह के संबंध में वह कहती है- रिमझिम बरसै मेहड़ा, भीजै तन सारी हो। वह कृष्ण पर अपना यौवन न्यौछावर करने के लिए तत्पर है- वह कहती है- तेरे कारण सांवरे धन जोबन वारों हो/या सेजिया बहु रंग के बहु फूल बिछाए हो। इसी तरह कृष्ण के रूप सौंदर्य को निरखने का आनंद लेती वह हुई कहती है- पल-पल पिव को रूप निहारूं, निरख-निरख सुख पाती। कृष्ण के लिए उसका प्रेम संवेग बहुत सघन और तीव्र है। वह कहती है- सखि म्हारो कानूड़ो कळेजे की कोर। लोक में पर्व-त्योहार उल्लास और आवेग की अभिव्यक्ति के साधन थे। मीरा संत-भक्तों से अलग संसारी स्त्री थी इसलिए ये पर्व-त्योहार भी उसके जीवन का जरूरी हिस्सा थे। मीरा की कविता में ऐंद्रिक-कामनाओं और संवेदनाओं से सीधे जुड़े इन पर्व-त्योहारों की मौजूदगी भी ध्यान खींचने वाली है। उसकी कविता में संवेगों की स्वच्छंद अभिव्यक्ति के त्योहार होली की मौजूदगी सर्वाधिक है। कभी वह कहती है- किण संग खेलूं होली, कभी वह कहती है- फागुण के चार होली खेल मना रे और कभी वह दुखी होकर कहती है- होली बिन पिय लागै खारी। होली के साथ-साथ उसकी कविता में सधवा स्त्रियों का त्योहार गणगोर भी आता है। वह कहती है- सांवलिया म्हारै रंगीली गणगोर।

मीरा की कविता में व्यवस्था के प्रति असंतोष, नाराज़गी और विद्रोह का जो उग्र और मुखर स्वर मिलता है, जो उसे उसके समकालीन संत-भक्तों से अलग सिद्ध करता है। यह ऐसा स्वर है जो आम तौर पर भारतीय मनीषियों और संत-भक्तों की सोच और कविता में कम मिलता है। दरअसल भारतीय सामंतवाद के विकास के बरक्स उसके विभिन्न सामाजिक हित संबंधों का समर्थन और पोषण करने वाले जन्मांतर व्यवस्था और कर्मफलवाद जैसे दार्शनिक-धार्मिक सिद्धांत भी अस्तित्व में आए। इन सिद्धांतों ने सामंतवादी व्यवस्था के विभिन्न सामाजिक हित संबंधों को एक सामंजस्यपूर्ण ईश्वरीय व्यवस्था का अंग मानकर जायज ठहराने में निर्णायक भूमिका निभाई। इस व्यवस्था में वर्ण, वर्ग और जाति का भेदभाव, शोषण, अन्याय, अभाव आदि सब ईश्वरीय प्रावधान थे और इनके प्रति किसी प्रकार असंतोष और विद्रोह धर्मविरुद्ध इसलिए गलत था। ये सिद्धांत मानते थे कि जो कुछ दृष्ट हो रहा है उसका अदृष्ट कारण है। “इस चिंतन की कुछ विशिष्टताएं थीं – जीवन को अस्वीकार करने वाली निष्क्रियता, ध्यान-मग्न में डूबे रहना, निस्संगत्व त्याग का प्रचार करना। बाढ़ और सूखे, बीमारी और कंगाली, शोषण और दमन के सामने मनुष्य असहाय था। प्रकृति और समाज को अपने अनुकूल बदलने की शक्ति से वंचित था। अतः उसने कर्म और आत्मा के शरीरांतरण के सिद्धांत की शरण ली। किसी पर यदि दुःख और विपत्तियां टूट पड़ती थीं, तो यह कर्मों के नियम का अपरिहार्य परिणाम माना जाता था। सामाजिक परिवेश को बदलने का कोई भी प्रयत्न कर्म के नियम और ईश्वर के न्याय को चुनौती देना समझा जाता था। सिर झुकाकर, मौन रहते ईश्वर की इच्छा को स्वीकार कर लेना ही मनुष्य का कर्त्तव्य था।’’3 इन सिद्धांतों में आस्था ने भारतीय मनीषियों और संत-भक्तों के सोच को बहुत गहराई तक प्रभावित किया। नतीजा यह हुआ कि उनमें सामंतवादी व्यवस्था के हित संबंधों के विरुद्ध असंतोष और विद्रोह की चेतना हमेशा अवरुद्ध रही। ईस्वी सन् के आरंभ से भारतीय चिंतन में बहुत गहराई तक जगह बना लेने वाली इस अंतर्बाधा की ओर संकेत करते हुए हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि “जन्मांतर व्यवस्था और कर्मफलवाद के सिद्धांत ने ऐसी गहरी जड़ें जमा ली थीं कि परवर्ती युग के कवियों और मनीषियों के चित्त में इस जागतिक व्यवस्था के प्रति भूल से भी असंतोष का भाव नहीं मिलता। जो कुछ जगत में हो रहा है, उसका एक निश्चित कारण है, उसमें प्रश्न करने और संदेह करने की जगह नहीं है।”4 मध्यकालीन संत-भक्तों की भी जन्तांतर व्यवस्था और कर्मफलवाद में असंदिग्ध और गहरी आस्था थी इसीलिए उनकी कविता में उनके अपने समय की सामंतवादी व्यवस्था के स्वार्थपूर्ण हित संबंधों के प्रति असंतोष और नाराजगी का भाव लगभग नहीं के बराबर है। कबीर आदि संत कवि अपने समतावादी विचारों से कुछ हद इससे असहमत होते लगते हैं, अन्यथा सगुण भक्ति परंपरा में तो इस तरह की चेतना बहुत कम है। मीरा की कविता इस मामले में बहुत अलग और असाधारण है। यह सामंती व्यवस्था के धर्म, दर्शन और लोक द्वारा मान्य स्वार्थपूर्ण हित संबंधों को सीधे चुनौती देती है। इनको लेकर इसमें गहरा और उग्र असंतोष और मुखर विद्रोह है। मीरा की कविता इस मामले में कुछ हद तक कबीर से भी आगे है। कबीर एक अमूर्त व्यवस्था को चुनौती देते हैं, जबकि मीरा एक मूर्त और जीवित शत्रु से लोहा लेती दिखती है। उसका विद्रोह उस राज, धर्म और लोक सत्ता के विरुद्ध है, जो शत्रु के रूप में उसके सामने, उसके समय में और उसके स्थान पर है। वह अपने शत्रु मेवाड़ के शासक को चुनौती हुई कहती है- तुम जावो राणा घर अपनो, मेरी-तेरी नहीं सरी। सत्ता को ललकारने का उसका स्वर अक्सर बहुत उग्र और चुनौतीपूर्ण है। वह कहती है- राणो म्हारो कांई कर लेसी, मीरा छोड़ दई कुल लाज। इसी तरह वह एक ओर जगह कहती है- सीसीद्यो रूठ्यां तो म्हारो कांई कर लेसी। सत्ता से उसकी नाराजगी और असंतोष उसकी कविता में बार-बार आते हैं। वह कहती है- राणाजी थें क्या ने राखो म्हांसूं बैर/ थें तो राणाजी म्हारे इसड़ा लागो, ज्यों ब्रच्छन में केर। इसी तरह वह एक जगह और कहती है- थारा देस में साध नहीं है, लोग बसे सब कूड़ो। एक जगह तो वह शासक राणा को मूर्ख कहने में भी संकोच नहीं करती- मूरख राजा राज करत हो, पंडित फिरत भिखारी। वह राणा के कानून-कायदे मानने के लिए तैयार नहीं है- इस संबंध में उसका रवैया एकदम दो टूक है। वह कहती है- राणा जी हूं अब न रहूंगी तोरी हटकी/साध संग मोहि प्यारा लागै, लाज गई घूंघट की। वह राणा के देश में रहने के लिए तैयार नहीं है। वह स्पष्ट कहती है- मैं तो नहीं रहूं राणा जी थांरा देश में रे। लोक और धर्म की तयशुदा मर्यादाओं की भी मीरा धज्जियां उड़ाती है। वह कहती है कि लोकलाज कुल की मरजादा या में एक न राखूंगी। वह एक और जगह कहती है- साजि सिंगार बांध पग घुंघरू, लोकलाज तज नाची। उसे अपनी निंदा-भर्त्सना की कोई चिंता नहीं है। वह कहती है- कोई निंदो कोई विन्दो, म्हे तो गोविंद के गुण गास्यां। इस संबंध में वह पूरी तरह निर्भय और निश्चिंत है। उसके मन में अपने आचरण को लेकर कोई दुविधा या संकोच नहीं है। वह स्पष्ट शब्दों में कहती है- अपने घर का परदा करले, मैं विधवा बौरानी। एक और जगह उसका कहना है- मीरा कहै मैं भयी बावरी, कहो तो बजाऊं ढोल।

मध्यकालीन संत-भक्त अपनी कविता में अपनी वैयक्तिक पहचान और अपने सांसारिक संबंधों के संबंध में मौन हैं, जबकि मीरा का कविता में यह सब आग्रहपूर्वक मौजूद हैं। मध्यकालीन संत-भक्त जीवन और जगत के निषेध की मान्य धार्मिक और लौकिक धारणा के कारण अपने जन्म, परिवार, कुटुम्ब, स्थान और सांसारिक संबंधों के द्वंद्व और तनाव को अपनी कविता का सरोकार नहीं बनाते। यह सब उनकी प्राथमिकताओं में नहीं है। पारंपरिक धर्म-दर्शन के अनुसार एक तो यह सब मिथ्या है, इसलिए असार है और दूसरे कर्मफल के सिद्धांत के अनुसार यह पूर्व जन्म के कर्मों का फल है। मध्यकालीन संत-भक्तों में से कबीर, रैदास आदि ने अपनी जाति का प्रासंगिक उल्लेख जरूर किया है, अन्यथा उनके वैयक्तिक जीवन का कोई साक्ष्य उनकी कविता में नहीं मिलता। मीरा की कविता में उसकी वैयक्तिक पहचान, सांसारिक संबंध और सुख-दुख बहुत मुखर और पारदर्शी ढंग से मौजूद हैं। मीरा संत-भक्तों की तरह न तो इनके प्रति उदासीन है और न इनको अनदेखा करती है। संत-भक्त अपनी स्थानिक पहचान को लेकर सजग नहीं हैं, लेकिन मीरा इसको याद रखती है। वह अपने पीहर मेड़ता को छोड़ते हुए कहती है– साध संग मोहि प्यारा लागे, लाज गई घूंघट की/पीहर मेड़ता छोड़ा अपना, सुरत निरत दोइ चटकी। एक अन्य स्थान पर वह अपनी कविता में अपने पीहर मेड़ता और ससुराल चित्तौड़, दोनों का उनके कुल-वंशों के साथ स्मरण करती है। वह कहती है- इक कुल राणा त्यारूं, आपणौं, दूजो राइ राठौड़/तीजो त्यारूं राणा मेड़तो, चौथो गढ़ चित्तौड़। मीरा की कविता में सांसारिक संबंधों का द्वंद्व और त्रास भी है, जो आम तौर पर संत-भक्तों की कविता में नहीं मिलता। मीरा के मेवाड़ के शासक राणा से संबंध तनावपूर्ण है। मीरा कहती है– सीसोद्यो राणा, प्यालो म्हाने क्यूं रे पठायो/ भली-बुरी तो मैं नहिं किन्हीं, राणो क्यों है रिसायो। राणा से हो नहीं, सास और ननद से मीरा के रिश्ते सौहार्दपूर्ण नहीं है। वह कहती है- सासूजी बरजी ननद भी बरजी, राणोजी दावादार। एक और स्थान वह कहती है- सास लड़ै मेरी ननद खिजावै, राणा रह्या रिसाय। मीरा का जाति और लोक समाज के साथ रिश्ता भी कटुता और तनाव का है। मीरा यहां भी निंदित और प्रताड़ित है। वह कहती है- मीरा गिरिधर हाथ बिकानी लोग कहै बिगड़ी। इसी तरह एक और स्थान पर वह कहती है- लोग कहै मीरा भई बावरी, न्यात कहै कुल नासी। वह एक सामान्य स्त्री की तरह अपने जीवन के सभी चरणों की दु:ख-तकलीफों और कटुताओं को बार-बार याद करती है। उसके यहां संत-भक्तों की तरह तकलीफों का उदात्तीकरण भी नहीं है। मीरा तकलीफ को तकलीफ की तरह ही महसूस करती है और कहती है। मीरा का वैवाहिक जीवन मुश्किलों से भरा हुआ था। वह एक निहायत सामान्य स्त्री की तरह इन मुश्किलों का ब्यौरा पेश करती हुई कहती है-

सासरियो दुख घणा रे सासू नणद सतावै।
देवर जेठ कुटुम कबीलो, नित उठ राड़ चलावै।
राजा बरजै, राणी बरजै, बरजै सब परिवारी।
कुंवर पाटवी सो भी बरजै और सहैल्यां सारी।

जब ससुराल में मुश्किलें बहुत बढ़ीं तो मीरा एक सामान्य स्त्री की तरह अपने पीहर पक्ष को भी याद करती है। वह कहती है- म्हारे बाबो सा ने कहियो म्हाने बेगा लेबा आवे। मीरा चित्तौड़ से मेड़ता गई, लेकिन वहां पहुंचने के एक वर्ष बाद ही मालदेव के आक्रमण से मेड़ता छिन्न-भिन्न हो गया। ससुराल से प्रताड़ित अनाथ और निराश्रय भटकती मीरा की मार्मिक अंतर्व्यथा भी एक सामान्य स्त्री की अंतर्व्यथा ही ज्यादा है। वह कहती है-सगो सनेही मेरो न कोई, बैरी सकल जहान। एक जगह वह और कहती है-या भव में मैं बहु दुख पायो, संसा रोग निवार। मीरा अंतत: परेशान होकर द्वारिका चली गई। वह कहती है- सादां रे संग जाय द्वारका, मैं तो भज्या श्री रणछोड़। द्वारिका पहुंचकर श्रीकृष्ण में डूबने के बाद भी राणा के लिए उसके मन की कटुता कम नहीं हुई। अपना घर और देश छोड़ने की तकलीफ उसको वहां भी सालती रही। इसके लिए वह राणा को वहां भी कोसती रही। लोक में प्रचलित एक पद में मीरा अपने देश को एक सामान्य स्त्री की तरह राणा को कोसती हुई इस तरह याद करती है। वह कहती है- आंबा पाक्या, कलहर कैरी, निंबूडा म्हारे देस। उदपुर रा राणा किण विध छोड्यो देस, मेवाड़ी राणा कण पर छोड्यो देस।5 मतलब यह है कि आम पक गए होंगे, केरियां आ गईं होंगी। मेरे देश में तो केवल नींबू हैं। हे राणा! तू नहीं जानता क्या कि मैंने देश क्यों छोड़ा।

मीरा संत-भक्तों की तरह संसार विरत स्त्री नहीं थी इसलिए उसकी अभिव्यक्ति और भाषा में लोक बहुत सघन और व्यापक है। मध्यकाल में देशाटन और पारस्परिक संपर्क-सान्निध्य से संत-भक्तों की अभिव्यक्ति और भाषा के कुछ रूप रूढ हो गए थे। ये रूप स्थान भेद के बावजूद कमोबेश सभी-सभी संत-भक्तों की कविता में मिलते हैं। खास बात यह है कि मीरा की कविता में इन रूढ़ अभिव्यक्ति और भाषा रूपों का प्रयोग बहुत कम है। संत-भक्तों से अलग मीरा एक संसारी स्त्री थी और उसका उठना-बैठना और संवाद अपने कुटुंब- कबीले और लोक समाज के साथ था। वह लोक विमुख और वीतराग स्त्री नहीं थी- उसका जीवन राजा-प्रजा, माता-पिता, सास-ससुर, देवर-जेठ ननद-भाभी, सखि-सहेली आदि रिश्तों के दायरे के भीतर था। इनके साथ उसके सुख-दुख और राग-द्वेष के रिश्ते थे। उसकी कविता में इसीलिए संत-भक्तों से अलग इस पारिवारिक और सामाजिक जीवन के रूढ़ दैनंदिन अभिव्यक्ति और भाषा रूपों की भरमार है। मीरा नश्वर सांसारिक जीवन के लिए कहती है-जीवणो दिन चार, आकुल-व्याकुल होने पर उसके मुंह से निकलता है- हियो फाटत मेरी छाती, अन्यमनस्क होने पर वह कहती है- दिन नहीं भूख रैण नहीं निदरा, भोजन भावन गयी, अपने दुर्भाग्य पर दुखी होकर वह कहती है- मैं मंदभागण करम अभागण, सत्ता और समाज को चुनौती देना हो तो उसका कथन है- मीरा कहै मैं भयी रावरी, कहो तो बजाऊं ढोल और अभ्यर्थना लंबी हो रही हो तो उसके मुंह से निकलता है कि ऊभी-ठाढी अरज करत हूं, अरज करत भयी भोर। मेरा नैणा बाण पड़ी, खाय न खूटे चोर न लूटे, अबके जिन टालो दे जावो, पंडर हो गए केस, रहूंगी बैरागण होइ री, अधरबिच भत छिटकाज्यो, तुम बिनि नींद न आवै हो, घायल की गति घायल जाणै, और करम गति टारे नहीं टरे जैसी लोक सुलभ कथन भंगिमाओं की मीरा की कविता में भरमार है।

मीरा के संबंध में सर्वाधिक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि वह गूढ़ आध्यात्मिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए भी संत-भक्तों के रूढ़ अभिव्यक्ति और भाषा रूपों का सहारा नहीं लेती। यहां भी वह अपने स्त्री लैंगिक दैनन्दिन जीवन की सामान्य वस्तुओं को ही सादृश्य और बिंब- प्रतीकों के रूप में चुनती है। कांकण (कंगन) मूंदरो (अंगूठी), घाघरो (लहंगा), दुलड़ी (दो लड़ी माला), दोवड़ो (आभूषण विशेष), अखोटा (कान का आभूषण), झूटणो (झुमका), बेसरि (नथ), चूड़ो (हाथी दांत की चूड़ियां), राखड़ी (सिर का आभूषण) आदि उसके द्वारा रोज बरते जाने वाले आभूषण और वस्त्र ही उसकी गूढ़ आध्यात्मिक अनुभूति के सादृश्य और बिंब-प्रतीक बनते हैं। यह संपूर्ण पद इस तरह से है:

चालो अगम के देस
काळ देखत डरे
वहां भरा प्रेम को हौज, हंस केला करै
ओढण लज्जा चीरर, धीरज को घाघरो
छिमता कांकण हाथ, सुमत का मूंदसो
दिल दुलड़ी दरियाव सांच को दोवड़ो
उबटण गुरु को ग्यान, ध्यान को धोवणो
कान अखोटा ग्यान, जुगत को झूटणो
बेसरि हरि को नाम, चूड़ो चित ऊजळो
जीहरि सील-संतोष, निरत को घूंघरो
बिंदली गज और हार, तिलक गुरुज्ञान को
सजि सोळह सिणगार, पहरि सोनै राखड़ी
सांवळिया सूं प्रीत, औरां सूं आखड़ी

ऐसा ही एक और पद है बड़े घर ताळी लागी रे। इस पद में मीरा  ईश्वर से अपने संबंध को अपने लोक समाज के छीलरियै (छिछला छोटा तालाब), दरियाव (समुद्र) हाळियां-मोळ्यां (जमीदार के खेत पर वृत्ति पर काम करने वाले), सिरदार (सामंत जमीदार), कामदार (जागीर का प्रबंधक), काम-कथीर (कम मूल्य की धातुएं), सोना-रूपा (सोना-चांदी) हजूर (भगवान) आदि प्रतीकों में समझती-समझाती है। खास बात यह है कि आध्यात्मिक संबंध के लिए इस तरह के केवल मेवाड़-मारवाड़ में प्रचलित प्रतीकों-सादृश्यों का उपयोग किसी संत-भक्त ने नहीं किया। यह शब्दावली और भाषा मध्यकालीन संत-भक्तों में चलन में ही नहीं थी। यह पद इस प्रकार है:

बड़ै घर ताळी लागी रे ।
म्हारा मन री उणारथ भागी रे
छीलरियै म्हांरो चित नहीं रहे, डावरियै कुण जाव ?
गंगा-जमना सूं काम नहीं रे, मैं तो जाई मिलूं दरियाव
हाळयां-मोळयां सूं काम नहीं रे, सीख नहीं सिरदार
कामदारां सूं काम नहीं रे, मैं तो जाय करूं दरबार
काथ-कथीर सूं काम नहीं रे, लोहा चढ़े सिरभार
सोना-रूपा सूं काम नहीं रे, म्हारे हीरां रो बोपार
भाग हमारे जागियो रे, भयो समन्द सूं सीर
अमरत-प्याला छांड़ि कै, कुण पीवै कड़वो नीर
पीपा कूं प्रभु परचो दीन्हो, दिया रे खजीना पूर
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, धणी मिल्या छै हजूर

मीरा की कविता की भाषा संत-भक्तों से अलग, स्त्रियों की खास भाषा है। अधिकांश मध्यकालीन संत-भक्त कुछ स्थानिक विशेषताओं के साथ एक रूढ़ साधु भाषा का इस्तेमाल करते हैं। यहां तक कि स्त्रियां भी जब संत-भक्त हो जाती हैं, तो उनकी भाषा भी साधु भाषा हो जाती है। मध्यकालीन स्त्री संत दयावाई और सहजोवाई की भाषा यही साधु भाषा है। इनकी कविता में आया मुहावरा और बिम्ब-प्रतीक कबीर और उनकी परंपरा से लिए गए हैं। खास बात यह है कि इन स्त्री संतों की भाषा में इनके संत होने के तमाम साक्ष्य और लक्षण मौजूद हैं, लेकिन इसमें उनके स्त्री होने की कोई छाप नहीं मिलती। मीरा अपने इन समकालीन पुरुष और महिला संत-भक्तों से अलग है। उसकी भाषा उसके स्त्री होने के सभी लक्षणों से संयुक्त है। मीरा पितृसत्ता के दायरे के भीतर है, जहां पुरुष वक्ता और स्त्रियां केवल श्रोता की हैसियत में है, लेकिन मीरा बोलती है, वह अपनी सखि-सहेलियों से संवाद करती है,  इसलिए उसकी भाषा बोलने वाली स्त्रियों की भाषा की तरह ‘चटक, पुष्ट, जीवंत और धारदार’6 है। इस भाषा में उसके स्त्री होने का दैन्य, असहायता,शिकायतें, उलाहने, ईर्ष्या, सुख-दुख, द्वन्द्व और चिन्ता सब आते हैं। उसका आग्रह और निवेदन आद्यंत स्त्रियोचित है। वह लगभग हर दूसरे-तीसरे पद में यह जरूर कहती है- अरज करूं अबला कर जोरे, स्याम तुम्हारी दासी। उसकी शिकायतें स्त्रियोचित ईर्ष्यामय है- म्है बुरी छां, थांके भली है घणेरी, तुम है एक रसराज। उसका रोना-कलपना और विचलित होना भी स्त्रियों जैसा है- फारूंगी चीर करूं गल कथा, रहूंगी वैरागण होई री। उसे आम स्त्रियों की तरह प्रिय वियोग में दिन में भूख नहीं लगती और रात में नींद नहीं आती (दिन नहीं भूख रैण नहिं निन्दरा, यूं तन पल-पल छीजै हो)। वह स्त्रियों की तरह ही ऊंचे चढ़-चढ़ कर प्रियतम की प्रतीक्षा करती है (ऊंची चढ़-चढ़ पंथ निहारूं, रोय रोय अंखियां राती), आंचल से अपने आंसू पोंछती है (लेकिर अंचरो अंसुवन पूंछै, ऊघरि गात गयी) और शकुन के लिए सोनचिड़ि से उड़ जाने का आग्रह करती है (उड़ जावो म्हारी सोन चड़ी)। वह स्त्रियों की तरह ही प्रिय आगमन पर आह्लादित होती है (जोसीड़ा ने लाख बधाई रे, अब घर आए श्याम/आज आनंद उमंगि भयो है, जीव लहै सुख धाम), सखियों के साथ मंगल गीत गाती है (पांच सखि इकट्ठी भई मिलि मंगल गावै हो) और रत्न न्यौछावर कर आरती सजाती है (रतन करूं नेछावरी ले आरति साजूं हो)।

सही बात तो यह है कि मध्यकालीन सामंती व्यवस्था और पितृसत्तात्मक विधि-निषेधों के अधीन अपने लैंगिक नियमन और दमन के विरुद्ध मीरा के आजीवन संघर्ष में भक्ति की भूमिका एक युक्ति या हथियार से ज्यादा नहीं है। विडंबना यह है कि उसकी निर्मित और प्रचारित पहचान में स्त्री मनुष्य के रूप किया गया उसका यह संघर्ष तो हमेशा हाशिए पर रहा है और इसमें बतौर हथियार के रूप में काम में ली गई भक्ति सर्वोपरि हो गई है। मीरा की कविता में उसके स्त्री अस्तित्व के अनुभव और संघर्ष के सभी रूप और लक्षण मौजूद हैं, जो उसकी अब तक निर्मित और प्रचारित संत-भक्त पहचान  पर भारी पड़ते हैं।


संदर्भ और टिप्पणियां:

1.आलेख में मीरा के कवितांश, अन्यथा उल्लेख न हो तो, नंद चतुर्वेदी द्वारा महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के लिए संपादित मीरां संचयन (वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2006) से  उद्धृत हैं।
2.के. दामोदरन: भारतीय चिंतन की परंपरा, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1997, पृ. 513
3.के. दामोदरन: भारतीय चिंतन की परंपरा, पृ.514
4.हिंदी साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1997, पृ.118
5.यह भजनांश मीरा के उपलब्ध पाठों में सम्मिलित नहीं है। यह पश्चिमी राजस्थान के लोक गायकों द्वारा गाया जाता है। यहां यह पश्चिमी राजस्थान के मेघवाल जाति के भजनीक पद्माराम महेशाराम के ऑडियो कैसेट मिस्टिक लव (कोमल कोठारी द्वारा कल्पित और निर्देशित) से उद्धृत किया गया है। मीरा के लोक प्रचलित भजनों का यह कैसेट 1998 में निनाद, मुंबई ने जारी किया था।
6.अनामिका: स्त्रीत्व का मानचित्र, सारांश प्रकाशन प्रा. लि., दिल्ली, पेपरबैक संस्करण, 2001, पृ.164

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  1. मीरा पर ऐसा आलेख प्रकाशित करने के लिए बधाई.सर्वथा नयी दृष्टि.

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