आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

पानी की तरह कम तुमः प्रभात

सफर

दुख में गाफिल उस युवती ने बच्चे को गोद में लिया
और रेल में बैठ गई सुख के स्टेशन पर उतरने के लिए
स्टेशन भी आया वह उतरी भी वहाँ
मगर चाहा गया सुख
उसके लिए घना दुख बना बैठा था
जिससे मिलकर वह यातना से इतना भर गई
कि उसने बच्चे को गोद में लिया
और रेल में बैठ गई
दुख स्टेशन पर उतरने के लिए
जहाँ से वह रेल में चढ़ी थी

अब ऐसे

तुमने जो मुझसे माँगा मेरी प्यार
मिलने की इच्छा की सूखी घास का घर
वह मैं तुम्हारे लिए बना नहीं पाऊँगा
तुम्हारे लिए मेरे प्यार को अब ऐसे रहना होगा
जैसे किसी अनंत सिलसिले की तरह विशाल खण्डहर में
हवाएँ रहतीं हैं

चारा न था

नौ जनवरी की जिस रात
राजस्थान कोहरे की अँदरूनी तहों के फाहों में
कहीं न कहीं छुप जाने की कोशिश में जुटा था
मैंने फोन किया रात के ग्यारह पाँच पर
जब लोग अत्यधिक सिकुड़ और अकड़ कर
सोने में विलीन होने की कोशिश में थे
उस लड़की ने फोन पर ही बहुत देर बाद
पूरी बात जब खत्म हो रही थी मुझे बताया
कि वह कपड़े धो रही थी
और कहा-‘कल आप आओगे न’

यह मुझसे कहते उसने न जाने किससे कहा
क्योंकि मेरा और उसका कोई खास लेना-देना नहीं था
और जब मैंने कहा-‘हाँ’
तो उसने न जाने किसे सुना और गरमाश पायी

मगर मैंने सोचा कि मैं ईसा मसीह होऊँ अगर इस घड़ी
रात के ग्यारह बजकर आठ मिनिट पर
तो उसके लिए क्या कर सकता हूँ ?

क्या उसके कपड़े निचोड़ सकता हूँ ?
क्या सूरज को इतना उगा सकता हूँ कि
उसके दफ्तर पहुंचने से पहले
उसके कपड़े सूख जायें

मैं उसके लिए कुछ करने की इच्छा ही रख सकता था
और इच्छा के इस शव के साथ सो जाने के सिवा
मेरे पास और कोई
चारा न था

तन्हा पेड़

पेड़ यूँ बारिशों में गाता भी है
पेड़ यूँ हवाओं के घर में
अपने दिन बिताता है और रातें भी
पेड़ यूँ सुबह की धूप में
हरा नर्म चमकता है
पेड़ यूं खींचता है इतना अपनी तरफ
कि उससे शादी करने का लालच आए

वही पेड़ किसे प्यार करता है किसे मालूम
उन चिड़ियों को भी क्या मालूम
जो उसकी फुनगियों पर झूल-झूल जातीं हैं
उन चिड़ियों की उन आँखों को भी क्या मालूम
जिन आँखों से वे उसे देखतीं हैं
उन चिड़ियों में से एक
उस चिड़िया को भी क्या मालूम
जो बस यूँ ही कभी-कभार
गाहे-बगाहे चाहे-अनचाहे
तब भी आ बैठती है पेड़ की टहनी पर
जब वह तन्हा होता है

वह बतला नहीं सकता कि वह तन्हा है

अधिक प्रिय वजह

शरीर में दिल है
सो धड़कता है
मगर इन दिनों
वजह दूसरी है

धरती पर कोई है
जिसके होने की आहट से
यह धड़कने लगता है

क्या अब ऐसा होगा
कि शरीर न हो तो भी चलेगा
दिल अब किसी दूसरी
और शरीर से कुछ अधिक प्रिय वजह से धड़केगा

मैं अपने भीतर
और अपने से बाहर
और अपने आप ही
एक घोंसला बुनने लगा हूं
जिसमें यह दूसरी वजह से धड़कने वाला दिल
और इसके धड़कने की वजह
दोनों महफू़ज़ रह सकें

मैं घोंसला बुन रहा हूं यह जानते हुए भी
कि घोंसलों को आंधियां बखेर देती हैं

आज यह पूरे दिन उसी दूसरी वजह से धड़कता रहा है
शरीर का इसने पानी भी नहीं पिया है

डर भी रहा हूँ कि कल को यह दूसरी वजह
रूठ जाए तो क्या होगा इस नाजुक का
शरीर में यह लौट नहीं पाएगा
बाहर यह बच नहीं पाएगा

स्मृतियाँ रह जाएँगी केवल

स्मृतियाँ जो जिन वजहों के लिए बनती हैं
उन वजहों के मिटने पर बनती हैं

यही वजह है शायद
सबसे मीठी स्मृतियों का रंग
सबसे ज्यादा उदास होता है

देखो उदासी के उस रंग ने
कितना अपने में डुबो लिया है उस दिल को
जिसका धड़कना शुरू होना
दो दिन पहले की बात है

पानी की तरह कम तुम

मैं तुम्हें मेरे लिए पानी की तरह कम होते देख रहा हूँ

मेरे गेहूँ की जड़ों के लिए तुम्हारा कम पड़ जाना
मेरी चिड़ियों के नहाने के लिए तुम्हारा कम पड़ जाना
मेरे पानी माँगते राहगीर के लिए तुम्हारा गायब हो जाना
मेरे बैल का तुम्हारे पोखर पर आकर सूनी आँखों से इधर-उधर झाँकना
मेरी आटा गूंदती स्त्री के घड़े में तुम्हारा नीचे सरक जाना

तुम्हारे व्यवहार में मैं यह सब होते देख रहा हूँ

लगातार कम होते पानी की तरह
मैं तुम्हें मेरे लिए कम होते देख रहा हूँ

पानी रहित हो रहे इलाकों की तरह
मैं पूछ भी नहीं पा रहा हूँ
क्यों हो रहा है ऐसा ?
पानी तुम क्यों कर रहे हो ऐसा ?

पानी चला गया तो नदी किसके पास गई कुछ कहने
वैसी नदी की तरह लीन हूँ मैं अपने में

नदी के बहाव की सूखी रेत में सुदूर तक फैले आक की तरह
अभी भी तुम्हारी याद का हरा बचा हुआ मुझमें

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  1. प्रभात की कविताई हमेशा एक साथ प्रसन्नता और अवसाद में ले जाती है,वे अपनी पीढ़ी के सबसे अलग कवि हैं.

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