आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

आकी काउरिसमाकी – अबोलेपन का व्‍याकरण: गीत चतुर्वेदी

लगातार शून्‍य में देखते घबराए हुए-से चेहरे, देर तक की चुप्‍पी के बाद अप्रत्‍याशित रूप से आया कोई संवाद, निम्‍न मध्‍यवर्ग के जीवन की छोटी-छोटी आकांक्षाएं और उन्‍हें पूरा करने की राह में आने वाली बाधाएं, चीज़ों को न कर पाने, न कह पाने का बेचैन रोज़नामचा, लगातार टूटते और उसी रफ़्तार से नए बनते भ्रम और स्‍वप्‍न, तमाम उम्‍मीदों के बेमानी होने के अहसास के बाद भी वन लास्‍ट चांस जैसी फ़ौलादी उम्‍मीद—यानी फिनलैंड के फिल्‍मकार आकी काउरिसमाकी की फिल्‍में. उसके किरदार आँख तरेरते हुए, आँख घुमाते हुए या त्‍योरियां सिकोड़े हुए किसी अदा या शौकिया चुप्‍पी में नहीं रहते, बल्कि ये एक डेस्‍टाइंड और अभिशप्‍त चुप्‍पी है, उन लोगों की, जिन्‍होंने दरअसल बहुत सारे शब्‍द उच्‍चारने के स्‍वप्‍न देखे हैं, और उनकी निरर्थकता के खंडित आभास में अचकचाए हुए हैं. ऐसा बिल्‍कुल नहीं कि उनके पास बोलने के लिए कुछ हो ही नहीं, जिस समय स्‍क्रीन पर वे उपस्थित होते हैं, स्‍क्रीन विचारों और आइडियाज़ से भरी रहती है, उनकी हरकतें हज़ार जुमलों पर भारी पड़ती है और अगर कहीं जुमला आता है, तो वह इतना घनीभूत कि वह डेढ़ घंटे के सिनेमा में जो कुछ दिखाया जा सकता है, उसे डेढ़ पंक्ति में सुना दे. मसलन द मैन विदाउट अ पास्‍ट में जिस समय अतीत खो चुका नायक कार्गो-कंटेनर में बने अपने घर में स्‍टोव पर कुछ पका रहा होता है और उस व्‍यंजन के जल जाने की आशंका से नायिका उससे पूछती है- ‘मैं मदद के लिए आऊं?’ तो नायक का जवाब होता है- ‘नहीं, यह पहले ही बर्बाद हो चुका है.’  दृश्‍य, संवाद और इस तरह पूरी फि़ल्‍म का ही बहुअर्थी हो जाना काउरिसमाकी-ख़ास सिनेमा गढ़ना है और मद्धिम उजालों में दीखने से छूट गए जीवन को पढ़ना है बतर्ज़–

‘क्‍या मैं तुम्‍हारे जीवन में आऊं?

नहीं, यह पहले ही बर्बाद हो चुका है.’

हॉलीवुड ने पूरी दुनिया के सिनेमा को एक ख़ास किस्‍म की शैली,‍ शिल्‍प और अभिव्‍यक्ति दी है. किसी भी तरह की कला पर सबसे अधिक दबाव अपनी समकालीन अभिव्‍यक्तियों और शैली का होता है. काउरिसमाकी इस मायने में बहुत ही सजग फिल्‍मकार हैं कि उन्‍होंने लगातार इस दबाव को नकारा है, प्रचलित व्‍याकरण के उलट जाकर, समकालीनता से आत्‍महंता क़दमताल को खंडित करते हुए और ऐसा करने के लिए वह कोई अवांगार्द प्रयोग नहीं करते, सिर्फ़ बेसिक्‍स की ओर लौटते हैं. उन्‍होंने अभी भी अपने सिनेमा में 1950 का ऑपेरा-पन बचा रखा है, किसी-किसी दृश्‍य में वह अब भी बिल्‍कुल एमेच्‍योर जैसे लगते हैं, लेकिन यह उनकी कमज़ोरी नहीं, क्राफ़्ट्समैनशिप है. उनके सिनेमा की नवीनता किसी एक फ्रेम या तकनीक या नैरेशन से नहीं मापी जा सकती, वह पुराने औज़ारों के साथ ही बिल्‍कुल एक नया ग्रामर रचने वाले आला दरजे के कलाकार हैं. बहुत ही कम फिल्‍मकार या कलाकार क्‍लीशे के साथ ऐसा इनोवेशन कर पाते हैं. वह कैमरे को आश्‍चर्यजनक ऊंचाई पर ले जाकर विहंगमता का आश्‍चर्यलोक नहीं फैलाते, बल्कि साधारण-से फ्रेम में एक साथ बाहरी दुनिया की हलचलों और भीतरी दुनिया का मर्मलोक उकेरते चलते हैं. उदासी उनकी अंतर्धारा है, जो डार्क ह्यूमर की तरह आती है, वह जीवन की एकरसता को पकड़ते हैं और उससे उबरने की जद्दोजहद को एक नई एकरसता में स्‍थानांतरित कर देते हैं. एलियनेशन, अवसाद, असंवाद, असुरक्षा और अपरिभाषित आतंक से शुरू होकर अमूमन एक रॉ किस्‍म की, लगभग जुवेनाइल, स्‍वप्निल, उम्‍मीद की दुनिया में पहुंचाते हैं. उनकी‍ फिल्‍मों की बुनावट को देखते हुए उनका जो व्‍यक्तित्‍व उभरता है, वह फिल्‍मों के बाहर उनके इस बयान से साफ़ ज़ाहिर हो जाता है कि वह अपने निज में भी हॉलीवुड का भरसक विरोध करते हैं. वह सही मायनों में नए मिनिमलिस्‍ट हैं, जहां हर चीज़ छोटी और सादी है. जब भव्‍यता एक अनिवार्य अभिशाप की तरह आपके कंधों पर चढ़ी बैठी हो, काउरिसमाकी जैसे फिल्‍मकार का, अपनी फिल्‍मों के साथ मौजूद होना, सुखद अहसास कराता है और सिनेमा जैसी विधा के कलात्‍मक फैलाव की संभावना में आपके विश्‍वास को मज़बूत करता है. आकी काउरिसमाकी के साथ-साथ हंगरी के बेला तार, दक्षिण कोरिया के किम की-दुक, तुर्की के नूरी बिल्‍गे जेलान, चीन के जिया झांगके, हांगकांग के वांग कार-वाई आदि अपने-अपने तरीक़े से प्रचलित परिपाटियों और समकालीन दबावों से अलग एक समांतर कला-लोक बना रहे हैं.

उनकी एक सरल, सुंदर फिल्‍म है ड्रिफि़्टंग क्‍लाउड्स. नायक और नायिका की त्रासदी शुरू होती है नायक द्वारा कि़स्‍तों पर ख़रीदे गए टीवी से. नायिका यह चिंता जताती है कि अभी त‍क उन्‍होंने पिछली ख़रीदियों की ही कि़स्‍तें नहीं भरी हैं, इसकी कैसे भर पाएंगे? इसी क्रम में यह संवाद आता है कि अभी तक हमने बुकशेल्‍फ़ की कि़स्‍तें नहीं भरी हैं, उन्‍हें भर लें, तो कुछ पैसे जुटाकर हम बुकशेल्‍फ़ में रखने के लिए कुछ किताबें भी ख़रीद लेंगे. इस संवाद को इस पूरी फिल्‍म के आइडिया की तरह लिया जाना चाहिए. उन्‍होंने कि़स्‍तों पर सपना ख़रीदा है और इंतज़ार कर रहे हैं कि हाथ खुलने पर नई कि़स्‍तों पर उनमें भरने के लिए रंग भी ख़रीद लेंगे. यह मंदी से जूझते फिनलैंड की कहानी है, जहां कुछ घटनाओं के बाद दोनों ही अपनी नौकरी खो बैठते हैं और नई नौकरी पाने, पैसे जुटाकर नया धंधा शुरू करने की कोशिश में वे इतने मासूम, शिशुवत हो जाते हैं कि आग में हाथ झोंकने को बेवक़ूफ़ी नहीं, ज्ञान की जिज्ञासा मानने लगते हैं.

काउरिसमाकी के किरदार जीवन के सबसे निचले तबक़े से आते हैं, वे रोज़ एक जैसा काम कर रहे हैं, एक जैसा संघर्ष कर रहे हैं, एक जैसे सपने देख रहे हैं, एक जैसे तरीक़ों से उन्‍हें पूरा करना चाहते हैं, वे सब ग़रीब हैं और अपनी ग़रीबी से इतना बेज़ार हैं कि उसमें निहायत बेख़बरी में धंस चुके हैं और अपनी मनुष्‍यता में इतने ‘ढीठ’ हैं कि हर तरफ़ से मार खाने, हार जाने के बाद भी अपने एकमात्र सपने को छोड़ नहीं पाते. जीते रहने की यह ढिठाई उन्‍हें मर जाने से बचा लेती है. दुनिया में करोड़ों लोग सिर्फ़ उम्‍मीद का दामन पकड़कर जी रहे हैं, यह वे भी जानते हैं और स्‍वप्‍न पूरा करने में समर्थ-संपन्‍न लोग भी कि वे ताउम्र सिर्फ़ उम्‍मीदशुदा ही रहेंगे, फिर भी वे जिए जा रहे हैं. काउरिसमाकी के किरदार दुनिया के उन्‍हीं मार खाते, हर तरफ़ से हारते, फिर भी उम्‍मीद नाम की सोलह साला हसीना के साथ डेट पर जाते करोड़ों लोगों के मिनिएचर हैं. नाइट इन द डस्‍क का नायक अपनी सिक्‍योरिटी एजेंसी खोलना चाहता है और झूठे आरोप में जेल काट आने और लगभग बदनाम होकर अपनी विश्‍वसनीयता खो चुकने के बाद भी वह उसी सपने को दोहराता है. और जितनी बार जिन परिसिथतियों के बीच वह अपना सपना दोहराता है, काउरिसमाकी दर्शकों को इंटरप्रेट करने के लिए एक नया आ‍इडिया देते हैं. एक जगह वह नेशनल सिक्‍योरिटी पर कटाक्ष होता है, दूसरी जगह इं‍डीविज़ुअल सिक्‍योरिटी पर. शैडोज इन पैराडाइस में बाहर की दुनिया जितनी चमकदार है, घर के भीतर रोशनी उतनी ही डिम है. नायक बाहर कचरा उठाने का काम करता है, लेकिन घर के भीतर सब कुछ अस्‍त-व्‍यस्‍त है. टेक केयर ऑफ योर स्‍कार्फ तातियाना तो कई जगहों पर सोवियत रूस और फिनलैंड के राजनीतिक संबंधों पर बहुत बारीक व्‍यंग्‍य की तरह जान पड़ती है, सोवियत लड़कियों की उम्‍मीद सोवियत देशों की उम्‍मीद की तरह दिखती है. काउरिसमाकी की फिल्‍में किसी स्‍ट्रीमलाइन पैराबल की तरह होती हैं, जहां व्‍यक्ति की आकांक्षा कब एक समाज और राष्‍ट्र की आकांक्षा बन जाए, कहना कठिन है.

विचारों के इसी संपुंजन के कारण वह कहानी को कहानी की लंबाई तक जाने ही नहीं देते, बल्कि आइडियाज़ की कन्‍फ़ाइनमेंट में पैराडॉक्सिकल विस्‍तार देते चलते हैं. पहली नज़र में रूढि़वादी से लगने वाले दृश्‍यक्रम में. ड्रिफ्टिंग क्‍लाउड्स का एक दृश्‍य है- नायिका जिस होटल में हेड वेट्रेस है, उसका रसोइया शराबी है, वह खाना बनाते हुए शराब पीने लगता है और दंगल करता है. पहलवान दरबान उसे कंट्रोल करने के लिए आगे बढ़ता है. अगला क्रम कैमरे की फ्रेम में नहीं है. दरबान लौटकर फ्रेम में आता है, रसोइये ने उसकी हथेली पर चाक़ू से वार कर दिया है. इसके बाद उसे कंट्रोल करने के लिए नायिका बढ़ती है. क्रम फिर फ्रेम से बाहर है. एक थप्‍पड़ की आवाज़ आती है. नायिका फ्रेम में लौटती है और चाक़ू और बोतल टेबल पर रख देती है. पीछे से सिर झुकाए रसोइया फ्रेम में आता है. लगभग फिल्‍म की शुरुआत में आया यह दृश्‍य दुलार भरे दंड को परिभाषित करता है.

अतीत खो चुका आदमी कंटेनर के किनारे चार या पांच आलुओं को बोकर खेती करता है और अपने सवा मीटर के खेत में फ़सल आ जाने पर उतना ही ख़ुश दिखता है जितना बीघों फैले खेत से कोई किसान. यह स्‍वप्‍नों की लघुता और पूरा हो जाने पर महान ख़ुशी की परिभाषा है.

वे लोग, जो जीवन से बहुत निराश हैं, कुछ कहना चाहते हैं, लेकिन कह नहीं पाते, वे इतने अकेले हैं कि किसी किस्‍म की प्राकृतिक सुंदरता को भी अपने नज़दीक नहीं पाते, प्रेम नौकरियों की तरह जीवन में आता-जाता है और उस प्रेम के शोषण को वे महसूस करके भी उससे दूर नहीं हो पाते, वे हमारे समय की पहली क़तार के लोग नहीं हैं. वे चकाचौंध से भरी दुनिया में अकेली परछाइयां हैं. वे इतने सिनिकल हैं कि मुस्‍करा तक नहीं पाते. किसी भी घटना को मुस्‍कान का कारक मान ही नहीं पाते. अ-प्रत्‍याशा से इतने घबराए हैं कि सुकून के लम्‍हों में भी सहज बैठे नहीं दिखते. उनका चुंबन घबराया हुआ निम्‍नमध्‍यवर्गीय चुंबन है, जिसके छिन जाने का डर उनकी आंखों और होंठों पर बना रहता है, उनका स्‍पर्श अपनी इच्‍छा में मृत होता जाता स्‍पर्श है, जो अकेलेपन की खाई को पाटने के बजाय और बढ़ा देगा. यहाँ जब दो लोग साथ-साथ चलते हैं, तो दरअसल वे साथ नहीं होते, दूर होने की रिवायत का विलोम बना रहे होते हैं. एक-दूसरे से निराश होते हुए भी वे लिबरेट हो जाने की किसी क्रांतिधर्मिता की प्रतीक्षा नहीं कर रहे होते, बल्कि निराशा के बाद भी वे साथ ही रहते हैं और साथ रहना चाहते हैं. यह मंज़ूर करते हुए कि साथ ऐसा ही होगा. हम जीवन से बहुत ज़्यादा सुखों की उम्‍मीद नहीं करते, पर सुख कम से कम इतने तो हों कि हम दुखों का सामना कर सकें. यह अद्भुत-अपूर्व उम्‍मीद है.

एक इंटरव्‍यू में काउरिसमाकी से पूछा गया कि लगातार निराशा के बाद भी उनकी फिल्‍मों का अंत इतना आशावादी क्‍यों होता है, तो उनका जवाब था- ‘मैं ख़ुद जीवन से जितना ज़्यादा निराश होता जा रहा हूँ, अपनी फि़ल्‍मों को उतना आशावादी बना देना चाहता हूँ.’ जीवन से की जाने वाली उम्‍मीदों को कलाकार किस साफ़गोई से अपनी कृति और किरदारों में टांसफ़र कर देता है, इस बयान की रोशनी में काउरिसमाकी का सिनेमा इसका उदाहरण है. उन्‍होंने अपनी युवावस्‍था का एक लंबा हिस्‍सा तंगहाली और अभाव में, सड़कों पर सोकर, भूखे पेट रातों में टहलकर बिताया है. शायद इसीलिए उनके यहाँ ये दृश्‍य सहज तरीक़े से, बिना किसी ग्‍लैमर के आते हैं.

2 comments
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  1. निम्‍नमध्‍यवर्गीय चुंबन……लगातार टूटते और उसी रफ़्तार से नए बनते भ्रम और स्‍वप्‍न………………डेस्‍टाइंड और अभिशप्‍त चुप्‍पी…………भीतरी दुनिया का मर्मलोक………………अपरिभाषित आतंक………….अनिवार्य अभिशाप………ज्ञान की जिज्ञासा………..स्‍वप्‍नों की लघुता………..इन शब्दों को कैमरे पर कैसे फिल्माया जाए ?? शायद यही शब्दों की ताकत है और सल्लुलोइड की कमजोरी…इसीलिए शायद अमिताभ बच्चन ने एक बार कहा था की उनको लोग शायद १०० या २०० साल याद रख ले लेकिन हरिवंशराय बच्चन को ५००-६०० साल तक भी भूल पाना आसान नहीं होगा..!!

  2. ‘यहाँ जब दो लोग साथ-साथ चलते हैं, तो दरअसल वे साथ नहीं होते, दूर होने की रवायत का विलोम बना रहे होते हैं.’
    बढ़िया कहा है.

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