आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

उधर के लोगों की यात्राएँ: अजय नावरिया

अपने बीते हुए दिनों के किन्हीं अहम अनुभवों को याद करना बिलकुल इस तरह है कि कोई किसी ऐसी रेलगाड़ी में बैठ जाए जो वक्त की दिशा से विपरीत चलती जाए. यह रेलगाड़ी एक्सप्रेस या सुपरफास्ट तो बिलकुल नहीं होनी चाहिए; यह पैसेंजर होनी चाहिए या फिर सबसे सुधीर ब्रांच लाईन की गाडी.मुझे याद आती है जैसलमेर से जोधपुर जाने वाली वह ट्रेन जिसे ऐसा लगता था इसे कोई इंजिन नहीं दो ‘मरुयान’ (ऊँट) खींच रहे हैं. वहाँ से देखा हर दृश्य साथ रहता, हर खुशबू ज़ेहन में देर तक रहती, ‘कोलाहल’ कलरव’ से ज्यादा कुछ नहीं हो पता, किसी से धक्कामुक्की हो भी गयी (जो नामुमकिन थी) तो अपनत्व-भरे स्पर्श का ही अहसास कराती. किसी ने बाजरे की रोटी का एक टुकड़ा कुतरा तो खुद अपना मुंह अन्न के स्वाद से भर गया..जैसे कोई ताल भरा हो मध्य प्रदेश का या कोई बावडी.

यह ट्रेन ऐसी ही हो जिसमें ज़िंदगी जम-जम छलकती हो. यह बुद्ध के जाति स्मरण की तरह निष्क्रिय भाव या साक्षी भाव की हो तो भी कोई नुकसान नहीं. बेहद ईमानदारी से सब कुछ बताना..कुछ भी गोपनीय नहीं..कुछ कुछ कन्फेशन-की-सी स्थिति. पुण्य क्या है और अ-पुण्य क्या है?  सब मन है और अपनों और दूसरों के मन से खींची लकीरें हैं, लकीरों के छोटे-बड़े दायरे हैं. कौनसा ऐसा इंसान है जिसने निषिद्ध या प्रतिबंधित दायरों में चोरी-छिपे, आडम्बर तान कर, भोला भला बनकर प्रवेश नहीं किया हो? इंसान आखिर कब तक भला बनकर जी सकता है?

पर आज मुझे अपनी ज़िंदगी के सिर्फ उस हिस्से पर ही ‘सर्चलाईट’ प्रकाश डालना है जिसमें हंस के विशेषांकों से जुड़ने का सिलसिला शुरू हुआ. मुझे वह दिन साफ़-साफ़ याद है जैसे मन में किसिस ने फोटो खींच लिया हो या छिपा कर फिल्म शूट की हो… यह जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की सेन्ट्रल लाईब्रेरी के पीछे की कैंटीन हैं….शाम के तीन बज रहे हैं…मैं अकेला बैठा डोसा-सांभर खा रहा हूँ कि अचानक मोबाईल पर अनजान नंबर उभरा..  मैंने खाते खाते ही फोन उठाया. उधर फोन पर कुछ लरजती सी आवाज़ सुनाई दी. ‘अजय नावरिया जी, कहाँ हैं अभी?’ कैंटीन में खाना खा रहा हूँ, मैंने स्वभाव के विपरीत बताया. शायद यह आवाज़ के जादू या ‘सम्मोहिनी शक्ति’ का ही असर रहा होगा वर्ना कोई भी एक अनजान के ऐसे सवाल का जवाब देने की बजाय हजरात के खुद के बारे में पहले पूछता है. उधर उन्होंने खुद ही कहा, ‘मैं राजेन्द्र यादव बोल रहा हूँ, कल हंस आ कर मिलिये.’ नाम सुनकर मैं गहरे आश्चर्य में था. यह वाकई मेरे लिये खुशी के और कहना चाहिये गौरव के क्षण थे. सब कुछ बहुत अनपेक्षित और अकस्मात था. यह एक दृश्य था. फिर अगले ही दिन दूसरा दृश्य था.

इस दृश्य में, मैं राजेन्द्र जी के सामने उनके दफ्तर में बैठा हूँ. सन् 2004 के जनवरी महीने की 6 तारीख़ 7 तारीख को मैं उनसे मिलने उनके हंस के दफ्तर पहुँचा-2/36 अंसारी रोड, दरियागंज. ऐसा नहीं है कि इससे पहले मैं अभी उनसे मिला नहीं था या बातचीत नहीं हुई थी, पर फोन उन्होंने इससे पहले कभी किया था. मैं जाता था, कभी-कभार, पर आत्मीय सम्बन्ध नहीं थे, सब कुछ औपचारिक और ऊपरी था.

इससे पहले, ठीक एक साल पहले, जनवरी के महीने में ही, मैं पहली बार हंस गया था. मैंने समीक्षा लिखी थी, जो दिसम्बर 2002 में छपी और उसके मानदेय स्वरूप चैक मुझे हंस से भिजवाया गया. इस चैक पर मेरा नाम अजय नवारिया के नाम से था. यह एक अलग कहानी है.

खैर, मैं शुरू से संकोची रहा हूँ. संकोच से अधिक इसे स्वाभिमान कहना ज्यादा ठीक होगा या फिर एकदम सही शब्द तो ‘भय’ ही है. मुझे यह आशंका हमेशा घेरे रहती है कि अगर सामने वाले ने मेरी अनदेखी या उपेक्षा कर दी तो…फिर क्या होगा? यह ‘फिर क्या होगा’ बहुत देर तक सालता रहता है. इसके नतीजे में, किसी भी नए और ‘बड़े’ आदमी से मिलने की पहल मैं आज भी नहीं कर पाता. हालांकि मन ही मन मैं उनसे मिलने की इच्छा-आकांक्षा भी पाले रहता हूँ, परंतु अपमान की आशंका के साँप भी मुझे डंसते रहते हैं. वह चैन नहीं पड़ने देते.

आज समाज में जो जल्द से जल्द बड़ा बनने की होड़ या आपाधापी दिखाई देती है, उसमें मेरे जैसे लोग किनारे खड़े इस ‘दौड़’ को देखते रहते हैं बस. वह हमारे जैसे कमजोर लोगों का अखाड़ा नहीं है है, इसकी मिट्टी हमारी पहचान की नहीं है.. हम क्या करेंगे वहाँ? हम यहीं ठीक हैं. वह तो वाकपटु, अवसरकुशल और सेंधपारंगत लोगों का इलाका है, वह तो उच्चभ्रू और उच्चनासिका वालों की पैतृक जमीन समझ ली गई है.

ऐसा नहीं है कि हम वह सब नहीं चाहते, चाहते हैं परंतु इस कीमत और इस तौर पर नहीं…मुँह में हम भी जुबान रखते हैं, पर लोग कहते और मानते हैं न कि स्वाभिमान ही गरीबों का गहना होता है.

राजेन्द्र जी ने मेरी तरफ हाथ बढ़ाया. मैंने बढ़कर हाथ थाम लिया. ‘बैठो.’ मैं बैठ गया. फिर वे भी बैठ गए. उन्होंने सीधे, बिना किसी भूमिका के कहा- ‘हंस का दलित विशेशांक आ रहा है, आप मुझे जानते हैं, मैं चाहता हूँ कि आप इस काम को देखें.’ उन्होंने बिना लाग-लपेट के कहा. ‘मैं तुम्हारे बारे में पहले ही सोचे हुये था.’ उस दिन वहाँ “श्यौराजसिंह ‘बेचैन’ नहीं थे. बेचैनजी मेरे न मित्र थे, न विरोधी, बस थोड़ी सी पहचान थी, दलित लेखक संघ के कारण और उनके छिटपुट दलित लेखन के कारण. उनके बारे में कई तरह की बातें मैंने सुन रखी थी, अनेक लोगों के मुँह से. सूरजपाल चौहान उन्हें ‘जातिवादी’ अर्थात् सीधे-सीधे ‘चमारवदी’ तक कहते थे. डा. तेजसिंह उन्हें ‘अवसरवादी’ कहकर नवाजते थे. रामजी यादव और हंसराज सुमन उन्हें लेखक ही नहीं मानते थे. बकौल, रामजी यादव- ‘श्यौरामजी एक वाक्य वर्तनी की गलती के बिना नहीं लिख सकते, मुझे पैसा देकर वह ‘री-राईट’ करवाते हैं’ अब इन बयानों और अफवाहों में कोई सच्चाई थी या नहीं – यह तो इनके भोक्ता और वक्ता जानें, परंतु मैंने इन बयानों को हंस के दलित विशेशांक की संपादन-अवधि में अपने संबंधों का आधार नहीं बनने दिया. लोगों का क्या है, वह तो कुछ भी कह देते हैं.

राजेन्द्र की एक नीति है कि जब भी वे किसी लेखन को अतिथि संपादक बनाते हैं तो फिर उसके कार्य में दखलन्दाज़ी नहीं करते. अगर उनसे सलाह मांगी जाए तो वह सलाह जरूर देंगे, परंतु सलाह मानी ही जाए, इस पर जोर-जबर्दस्ती नहीं करेंगे. अगर नहीं मानी गई, तो बुरा नहीं मानेंगे. इस नीति का पालन उन्होंने इस विशेषांक के संपादन में भी किया.

धीरे-धीरे काम चलने लगा. बेचैनजी जितना काम मुझे देते, मैं कर देता. रचनाओं को पढ़ने का, खासतौर से कहानियां पढ़ने और चुनने का काम उन्होंने मुझे दिया. मैं इसी काम को बिना शिकवा-शिकायत पूरा कर देता. पहला-दूसरा महीना ठीक-ठाक गुजरा, परंतु तीसरे महीने में दिक्कतें आने लगीं. अब वे मुझे कोई काम ही नहीं देते. सारे कागज घर ले जाने लगे.

हमारे बीच किसी तरह का वैचारिक मतभेद इतना नहीं था कि उसे सुलझाया न जा सके. परंतु बात शायद व्यक्तिगत अहं की हो गई थी धीरे-धीरे. भीतर से अपनी प्रतिभा को बेचैनजी भी जानते थे और यही उन्हें आशंकित कर रहा था. उन्होंने मन में प्रतिद्वंद्धिता पाल ली, जो जाहिर है कि भीतरी ईर्ष्याका परिणाम थी. मैंने इसी काम के दौरान पाया कि वे बहुत सारे हिन्दी के शब्द न तो ठीक से लिख पाते हैं और न उनका अर्थ समझते हैं. इस स्थिति में उनका प्रयोग या तो वह करते नहीं थे या फिर अनुचित रूप से करते. मैं उन्हें बार-बार ‘करेक्ट’ करता, इससे उन्हें ‘करंट’ लगना शुरू हो गया. यह शुरूआत भी, हालांकि मैं बहुत दबी जुबान में, या कहूँ कि शालीन और शिष्ट ढंग से यह ‘शुद्धियाँ’ करता ताकि उनका अहं चोटिल न हो, परंतु फिर भी वह हो ही गया जिनका नतीजा तीसरे महीने में सामने आया. यहाँ से दिक्कतें शुरू हुई. यह बात ऐसी बड़ी नहीं थी कि इसे सुलझाया न जा सके परंतु बेचैन जी के व्यवहार ने इसे और उलझा डाला. बेचैनजी मुझसे कोई आठ-दस साल बड़े हैं, मैं उन्हें बड़े भाई की तरह आदर दे रहा था, परंतु उनके मन में गांठ बढ़ती जा रही थी.

अंत में, एक वक्त तो ऐसा आया कि बेचैनजी रूठ कर घर बैठ गए. वे हंस नहीं आएं और राजेन्द्रजी से उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि मुझे अंक में नहीं रहना. आप जानें और आपका विशेषांक जानें. मतभेद का बड़ा कारण जो मुझे उस वक्त समझ नहीं आया, वह विशेषांक के निकलने के बाद आया.

वस्तुत: हुआ शुरू में यह था कि मैंने बेचैनजी से कहा कि हमें अभी लेखकों की ऐसी रचनाएँ लेनी चाहिए, जिनमें जाति के भेदभावपरक दंशों को प्रचंडता से चित्रित किया गया है. वे इस बात पर कायम थे कि दलित लेखक, जो जन्मना दलित हैं, वही दलित लेखन कर सकते हैं. मैं इस मान्यता का घनघोर समर्थक कभी नहीं रहा हूँ, बेशक यह जरूर लिखता रहा हूँ कि जिसने भोगा है, जिसके पास अपने अनुभव है, वह लिखे तो, उसमें सच्चाई ज़्यदा होगी. ठीक है कला, हो सकता है कुछ कम या ज्यादा रह सकती है. कला को तो हम सभी एक अर्जित कुशलता मानते हैं. किसी सैनिक को जूता बनाने या शेव करने की कुशलता भी आते-आते ही आती है. और रचनात्मक कला, जिन्हें हम गैर दलित लेखक कहते हैं, वहाँ भी एक सी थोड़े ही है. एक तरफ प्रेमचंद हैं तो दूसरी तरफ जैनेंन्द्र, कहीं निर्मल वर्मा हैं तो रेणु, आते-आते एक तरफ संजीव, उदयप्रकाश और अखिलेश हैं तो दूसरी तरफ प्रियंवद हैं. कला कोई नकाब, घूंघट या आवरण भी नहीं होती कि जिसके भीतर वस्तु सिमटी-सकुचाई चुपचाप पड़ी रहे. वस्तु अपने शैल्पिक गठन को खुद चुनती है, बनाती है.

क्या यही वजह नहीं है कि जो कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, चित्रा मुद्गल, मैत्रेयी पुष्पा आदि स्त्रीवादी लेखिकाओं का लेखन है, वह कला और रचनात्मकता के दूसरे नियम गढ़ता है, जो पहले पुरूषों द्वारा लिखे स्त्री संबंधी साहित्य में बहुत मेल नहीं खाते हैं.

शायद यही वजह है कि दलित लेखकों का शुरूआती लेखन जिस रूप् में आया, इससे अलग रूप में आ ही नहीं सकता था. यह वस्तु थी जो अपना शिल्प खुद चन रही थी. यह परिस्थितियां थीं, जहाँ की भाषा और मुहावरे यही थी. अब ये पारंपरिक और अभ्यस्त पाठकों के लिए नये थे, इसीलिए उनकी दृष्टि में ये अनपढ़, अश्लील और औसत थे. परंतु वाकई वे ऐसे नहीं थे, उनके साहित्य ने सच्चे, अर्थों में साहित्य को ‘समाज का दर्पण’ बनाया. उनके साहित्य ने समाज के आगे चलने वाली मशाल की भूमिका निभाई. यह साहित्य खाए, पिए अघाये लोगों के बीच से आगे बढ़कर गंदी कही जाने वाली बस्तियों और झुग्गी झोंपड़ियों में उतर गया. इस लेखन के अधिकांश लेखक यहीं से आए हैं.

यह अम्बेडकर दर्शन की परंपरा है जो गाँधी दर्शन और प्रेमचंदीय साहित्य की कलाई कसकर पकड़कर उन्हें आगे तक लाया और दुनिया के रंगों की अनेक सच्चाईयां सामने आई. बात फिर वहीं लिए चलता हूँ, कुछ दूर चले आए. क्या कहूँ कि ‘बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी, लोग बेवजह उदासी का सबब पूछेंगे.’ बहरहाल, बेचैनजी ने इस बात पर अपना कोई समर्थन नहीं दिया. काम उन्हीं के हिसाब से आगे बढ़ने लगा. अब कठिनाई यह हुई कि कहानियों के लेखकों की जाति का कैसे पता लगाया जाए कि कौन दलित है, कौन गैर दलित. ‘सरनेम’ से यह तय कर पाना मुश्किल था और कई लेखक तो ‘सरनेम’ भी नहीं लगाते और कुछ लगाते हैं तो ऐसे कि उससे कुछ भी निष्कर्ष निकालना, अंधेरे कमरे में काली बिल्ली ढूँढने जैसा था. अब कोई सुमन है, कोई निर्मल, कोई कश्यप है तो कोई चौधरी. मैंने समस्या फिर सामने रख दी. इस पर कोई जवाब नहीं, सिर्फ मौन. इसका अर्थ यह कि जाने-पहचाने आठ-दस नाम रखें जाएं या जाने-पहचाने लोगों की जैसी रचना हो, वैसी ली जाए. शुरू में यह भी किया गया.

अब बात आई साक्षात्कारों की. सूची बनी तो मैं नाम देखकर दंग रह गया. नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, कमलेश्वर, मनोहर श्यामजोशी, मैनेजर पाण्डेय, सुधीश पचौरी, अर्चना वर्मा, निर्मला जैन, उदयप्रकाश, आदि आदि. अब इनमें से कितने आलोचक-लेखक दलित लेखन का समर्थन करते हैं, इस पर मेरी टिप्पणी की जरूरत नहीं है. बेचैनजी ने अपने संपादकीय में जिन लेखकों-संपादकों से बात न कर पाने का मलाल जताया, वह हैं – सुश्री मृणाल पाण्डे, मधुसूधन आनंद और पायनियर के चंदन मित्रा. तो ये हुई हमारे बेचैनजी के दलित प्रेम की ‘अंदरूनी असलियत’.

लब्बोलुबाब यह कि हंस के विशेषांक के माध्यम से अपनी गोटियां कैसे फिट की जाएँ. इसी बीच, तनाव बढ़ता गया और बेचैनजी ने हंस आना-जाना छोड़ दिया. मैं विशेषांक पूरा तैयार कर चुका था. विशेशांक के लेखकों/रचनाकारों की घोषणा भी हंस में छप गई. राजेन्द्रजी ने दबाव देकर कहा- ‘जाओ बेचैनजी के घर जाओ, उन्हें मनाकर लाओ’

‘नहीं माने तो.’ मैंने आशंका व्यक्त की. ‘मनाओ, बड़े भाई की तरह मनाओ, मान जाएंगे.’ उन्होंने समझाया था.

मैं जून की तपती दुपहरी में मोटरसाईकिल से उनके घर वसुंधरा पहुँचा. घर भी मुझे पता नहीं था, ढूँढने में काफी परेशानी हुई. घर पहुँचा तो बेचैनजी मिल गए. रजतजी भी घर पर थीं. भोजन का वक्त था. उन्होंने बहुत प्रेम से, आग्रह करके खाना खिलाया. फिर इधर-उधर की बात करते रहे. मान-मनौवल के बाद वे मान गए. अब मैंने खुद को एकदम चुप कर लिया. उन्होंने विशेषांक के बहुत से लेखक रखे, बहुत से निकाल दिए. उनमें भारी फेर-बदल किया गया. आज भी इसे आसानी से खोजा जा सकता है. दोनों घोषणाएँ हंस में शाया हुई हैं.

इस बीच एक बात बताना रह गई. उन दिनों डा. धर्मवीर जी से भी मेरा अच्छा मिलना था. वे केरल में थे. उनके अक्सर फोन आते थे. उनकी कई पुस्तकें उनकी ज्ञान राशि का स्वयंसिद्ध परिचय हैं. उनकी अपनी एक यात्रा है, इसमें जो उनके साथ हैं, वह उनका अपना है. आप इसे पूर्वाग्रह कह सकते हैं. परंतु किसकी अपनी यात्रा या पूर्वाग्रह नहीं है. बेचैनजी ने उनसे मेरी शिकायत की थी, उन्होंने फोन पर मुझे समझाया कि आपस में बैर मत पालिए. यह एक बड़ा काम है, इसे अच्छे से करिए. आप युवा हैं, आपको तो अभी ऐसे कई महत्त्वपूर्ण सम्पादन और काम करने हैं. आपकी प्रतिभा छिप नहीं सकती. ऐसी अनेक बातें और भी.

इसी बीच, मैंने बेचैनजी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में भी खंड-खंड जाना. उनका बचपन इतना कष्टकारी और भयावह था कि अच्छे से अच्छे हौंसले वाले आदमी के हौसलें पस्त हो जाएं. शिक्षा तो वहाँ आकाश कुसुम की तरह थी. जहाँ जीने का संकट सामने हो, वहाँ पढ़ने-लिखने की किसे सुध रहती है. हर तरफ भूख-भूख और भूख का तांडव. बेचैनजी इस आग के दरिया से आए हैं. इस सबने मिलकर मेरे मन में उनके प्रति आदर उत्पन्न किया, जो आज भी है. यह सब जो मैं ऊपर कह चुका हूँ, उसमें राई-रत्ती झूठ नहीं है, और जो मैंने कहा, वह भी सोलह आने पूरा सच है.

प्रत्येक मनुष्य के अपने ब्लैक-स्पॉटस होते ही हैं. हमारे राजेन्द्र जी की तो एक पुस्तक का ही नाम है- वे देवता नहीं है.  सच में हम में से कोई देवता नहीं है. हम एक इन्सान हैं और शायद बहुत ही मामूली. परंतु हमारे भीतर बेहतर मनुष्यता के निर्माण का एक स्वप्न है और हम उसमें जुटे हुए हैं.

इस कहने में भी बहुत कुछ छूट गया है, जो फिर कभी कहूँगा. धर्मवीर जी से इधर पिछले चार-पाँच सालों से कोई संवाद नहीं है परंतु उनकी बात सच हुई. हंस के युवा विशेषांक के संपादन का कार्य राजेन्द्रजी ने मुझे सौंपा. इसी वर्ष 2009 में अगस्त-सितम्बर के दो खंड मेरे संपादन में निकले. दलित विशेशांक के बाद युवा विशेषांक अगला पड़ाव है.

2 comments
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  1. sahitya me ye sab kya hai

  2. aapko pahale nahi padha tha. badhiya bahut badhiya likhate hy aap.dil bag bag ho gya.

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