आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

मेरे नॉवेल और पंजाब का दलित साहित्य: देसराज काली

पंजाब के दलित साहित्य या अपने नॉवेलों पर बात करने से पहले मैं कुछ उन पहलुओं पर बात करना चाहता हूँ, जो पंजाब के दलित साहित्य को अलग दर्शाते हैं। मेरा मानना यह भी है कि किसी इलाके के इतिहास को जाने बगैर आप वहाँ के साहित्य की किसी भी धारा को समझ नहीं सकते। पंजाब के बारे कुछ बातें ऐसी थीं जो मुझे हैरान करती थीं और उनके कारण एक मिथ की तरह फैले हुए थे, जिन पर मुझे सदैव संदेह होता था। जैसे पंजाब में दलित जाति के लोगों की फीसदी इतनी ज्यादा क्यों है? यहाँ देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले जाति भेद-भाव का स्वरूप अलग और कम क्यों है? या यह स्वरूप कैसा है? अब समाज में भी और बाकी पंजाबी साहित्य में भी इनके जो कारण बताए जाते थे, मैं उनसे संतुष्ट नहीं होता था। मन में बराबर एक जंग चलती थी कि आखिर क्या कारण हैं? अब जो लोग कारण बता रहे थे, उनमें सिख परंपरा को मुख्य रूप से देखा जा रहा था और प्रचार भी यही हो रहा था कि इसके पीछे सिख लहर काम कर रही है। मुझे यह बात हमेशा ही मिथ लगती थी। मैं अपने इर्द-गिर्द निगाह डालता, तो कहीं भी सिख परंपरा का प्रभाव मुझे दलितों पर नज़र ना आता। अगर कहीं गुरुद्वारे भी हैं, तो दलितों के अलग हैं। उनसे भेद-भाव इस स्तर पर होता है कि उन्हें रविदास के नाम पर गुरुद्वारे बनाने पड़ रहे हैं। सिख लहर का इतिहास पढ़ता हूँ या गुरुओं का इतिहास खंगालता हूँ, मुझे ऐसी कोई भी बात नज़र नहीं आती, ऐसा कोई भी एक्शन नज़र नहीं आता, जिससे यह माना जा सके कि सिख लहर का कोई इतना बड़ा योगदान है।

दूसरा मैं खुद अपने परिवार में या गाँव में भी और पूरे पंजाब के दलित परिवारों पर सूफियों के प्रभाव को देख रहा था। यह प्रभाव बहुत गहरा था। पंजाब की लगभग 80 फीसदी दलित आबादी सूफियों के प्रभाव में नज़र आ रही थी। यह प्रभाव बहुत गहरा है। मेरे पिता के जो गुरु हैं, सूफियों के चिश्ती खानदान के हैं, संत प्रीतम दास चिश्ती। उनके आगे गुरु हैं सरवर सरकार संत ब्रहम दास चिश्ती, फिलौर वाले। उनका वहाँ बहुत बड़ा डेरा है। वह सूफी संत दलित जाति के थे। जब डा. अंबेडकर लुधियाना आए थे, उन्हें वहाँ लाने के लिए संत ब्रहम दास की बहुत बड़ी भूमिका थी। वह संत खुद दलित थे। अब मेरे सामने यह सवाल भी आ गया कि सूफियों और दलितों का क्या रिश्ता है? एक बड़ा कारण यह भी बना कि वहाँ डेरे के बाहर एक पत्थर लगा हुआ है, जिस पर लिखा है डेरा आदि धर्मी, जो मेरे लिए बहुत महत्व रखता था। मैं इसकी खोज करने लगा और दलितों के इतिहास को सांस्कृतिक नज़रिए से देखने समझने लगा। अब वहाँ आदि-धर्मी लिखा हुआ है, तो मैं उस लहर (आदि धर्म मंडल लहर) के बारे में सोचने लगा। यह लहर 192भ् में पंजाब में शुरु होती है और दुनिया भर में फैल जाती है। दलितों की इस लहर को शुरू करते हैं पंजाब के दोआबा क्षेत्र के मंगू राम मुगोवालिया। लहर दलितों के धर्म को आदि मानती है और वे कहते हैं कि हमारा धर्म हिंदू नहीं है। यह लहर पंजाब में जोर पकड़ती है। इसका लंबा इतिहास है। 1931 की जनगणना में भ् लाख के करीब दलित इसी के प्रभाव के कारण अपना धर्म आदि धर्म लिखवाते हैं। इस लहर पर गेल ओमवेट और मार्क जर्गनकामायर ने काफी काम किया है। अब सूफी डेरों का इस लहर से संबंध होना मेरे मन में और उत्सुकता पैदा कर देता है। मैं इसकी छानबीन करता हूँ और कई नये मामले और सवाल मेरे सामने आते हैं और पंजाब का सभ्याचारक इतिहास नये तरीके से मेरे ज़ेहन में खुलने लगता है, जिसे किसी ने पहले ना तो देखा और ना ही महसूस किया था।

अब दलित साहित्य की बात करते समय मैं हमेशा यह बात कहता हूँ कि हमारे पास जो ज्ञान के स्रोत हैं, वे क्या हैं? यह बात बहुत ही महत्वपूर्ण है। जो लोग हाशिए पर हैं, उनका इतिहास जो है, वह कहाँ है? इन लोगों के बारे में जो सूचनाएं हैं, जो हमारे पास आती हैं, वे तो उन लोगों द्वारा दी जा रही हैं, जो हैजमोनिक कल्चर से हैं। सूचनाएँ वे दे रहे हैं। जो लिखा जा रहा है, इनकी तरफ से ही लिखा जा रहा है। दलितों का क्या है। इसलिए मैं कहता हूँ कि अगर दलित साहित्य में आत्म-कथाएँ ज्यादा लिखी जा रही हैं, तो ये एक अहम बात है कि हम अपनी सूचनाएँ खुद दे रहे हैं। क्योंकि हमें जो मिला है, उस पर हमें संदेह है, इसलिए हम अपनी बात करते हैं, जो बहुत ही अहम है। हमारे दर्शन को , चारवाक के दर्शन को जला दिया गया, हमारे कवियों की ज़बान काट दी गई, अब जो सूचना हमारे पास आई है, मिथ है। हम अपनी बात करेंगे और अपने नज़रिये से करेंगे। इसीलिए मैं देख रहा हूँ कि दलित साहित्य में जो कुछ भी लिखा जा रहा है, वह आत्म-कथन ही है। मैं अपने नॉवेलों परणेश्वरी, शांति-पर्व और प्रथम पौराणं की ही बात करूं, तो यह मेरे परिवार और मेरे गाँव के दलितों की वह कहानियाँ हैं, जो मौखिक रूप से मेरे पूर्वजों से मेरे पास आईं या फिर जिन्हें उन्होंने जिया है, महसूस किया है, देखा है। यह भी आत्म-कथा ही है।

मैंने अपने नॉवेल परणेश्वरी में एक दलित परिवार की कहानी ली है और पंजाब के दोआबा क्षेत्र का गाँव लिया है। इन परिवारों पर सूफियों के प्रभाव को, उदासी संतों (जो दलित संतों की एक और समृद्ध परंपरा है और जिसका प्रभाव पंजाब के दलितों पर बहुत गहरा है। पिछले महीनों गोहाना में कत्ल कर दिए गए संत रामानंद इसी परंपरा से जुड़े हुए थे)और नाथों के दलितों पर प्रभाव को केंद्र में रखा है। अब इन सभी परंपराओं से सिख धर्म का आलोचनात्मक संवाद रहा है। गुरु नानक देव से लेकर अंत तक गुरु नाथों-सिद्धों पर वैचारिक प्रहार करते हैं। इन परंपराओं की दलितों में मान्यता है। इसलिए सिख लहर के नाम पर जो मिथ थी, मैंने अपने इस नॉवेल में उसे उड़ा दिया। मैं दलितों के वैचारिक और सभ्याचारक आधार ढूँढ़ रहा था और इन पर लिख रहा था। मुझे उनका मुक्ति का रास्ता सूफी, नाथ, सिद्ध परंपराओं में दिख रहा था। मुझे लग रहा था कि ये परंपराएं हैं, जो उन्हें सम्मान दे रही हैं, स्थान दे रही हैं, वह उन पर गर्व कर रहा है, उन्हें अपना कह रहा है। यह अपने का अहसास बहुत गहरा है। यह अस्तित्व का सवाल है। मानवीय मन से बहुत गहरे जुड़ा हुआ है। मैंने इन सवालों को लेकर यह नॉवेल लिखा। इसलिए इसमें मिथ भी कहीं गहराई में आ गई। बहुत सारे सवाल पैदा हो गए। इतिहास पर सवाल पैदा हो गए। इसी इतिहास को खंगालते और हमारे पास जो था उसे आलोचनात्मक  निगाह से देखते हुए मैंने दो और नॉवेल लिखे, शांति-पर्व और प्रथम पौराणं। इनमें से मैंने प्रथम पौराणं में यह दर्शाने की कोशिश की कि पंजाब में जाति-भेद इतना गहरा ना होने का एक कारण यहाँ किसी भी पौराण की रचना ना होना है। इसके ऐतिहासिक कारण भी जानने की कोशिश की और यह भी देखा कि किस तरह पुराण जो हैं, जातीय विभाजन में क्या काम कर रहे हैं, कितना प्रभाव डाल रहे हैं। इस नॉवेल में मैंने कथा-जुगत के तौर पर कुछ मिथिहासक पात्रों का सहारा लिया है। इसी में मैंने दलित और औरत के मसले को समझने की कोशिश भी की है, क्योंकि जो पुराण है, वह दलित और औरत दोनों को ही पाप योनि कहता है। मैंने इसमें पुराणों को उलटा कर देखने की कोशिश की है।

एक और नॉवेल शांति-पर्व में मैंने पंजाब के दलित की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हालत को महाराजा रणजीत सिंह के काल से लेकर आज़ादी के बाद के समय तक दर्शाया है। इस के कारणों की निशानदेही भी की है। इन पर लहरों के प्रभाव को भी देखा है, अंग्रेजों की नीतियों को भी दिखाया है, डा. अंबेडकर के प्रभाव को भी दिखाया है,अंबेडकर के बुद्ध धर्म में जाने के ऐलान का पंजाब के दलितों पर प्रभाव भी दिखाया है। इस ऐलान से दलित संत परंपरा का प्रतिकर्म भी दिखाया है। हरी-क्रांती से खेती का मशीनीकरन और दलित खेत मजदूर का बेरोज़गार हो जाना, शहरों की तरफ जाना और वहाँ भी रोज़गार ना मिलना इत्यादि सभी सवालों को समझने की कोशिश की है। इस नॉवेल में सिर्फ यही सवाल नहीं हैं, मगर इसका एक भाग जो है भाग मल पागल की बुड़बुड़, वह भाग सिर्फ इन्हीं सवालों पर ही केंद्रित है। दूसरा कामरेड की बुड़बुड़ वाला भाग दुनिया में आतंकवाद को समझने की कोशिश करता है और स्टेट टैरेरिज़्म की भी बात करता है। इतका तीसरा भाग जो है रिटायर्ड प्रो. जौहल की बुड़बुड़ उसमें भारत की अफसरशाही को समझने की कोशिश की है। यह भी बहुत अहम सवाल है। इस पर लंबी बात कहीं और की जा सकती है। यहाँ सिर्फ दलित सवाल पर ही बात करते हैं।

इतिहास को लेकर जो सवाल इन नॉवेलों में मैंने पैदा किए हैं, उन पर एक नज़र जरूर डालना चाहता हूँ, जो पंजाब में जाति के सवाल को समझने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण कारण हैं। तुर्कों की आमद यहाँ बहुत ही महत्वपूर्ण है। इससे भारत की उस समय की जो सामाजिक संरचना है, वो टूटती है। समाज से बाहर कर दी गई शिल्पी श्रेणियाँ हैं, वे भीतर आ जाती हैं। पंजाब में चमार जाति  के बहुत सारे ऐसे परिवार हैं, जो साउथ से इधर आए हैं।

इसके साथ ही सूफियों का इधर आना और लोगों का उनके साथ जुड़ना भी बहुत महत्वपूर्ण है। नाथ परंपरा को भी जानना होगा। नाथों का सूफियों को और सूफियों का नाथों,जोगियों को विशेष तौर पर महत्व देना भी विचार की मांग करता है। अंग्रेजी शासन काल भी विचार किए जाने की मांग करता है। इस समय में जो आदि धर्मं लहर चलती है, कबीर पंथं बनता है, जो वाल्मीकि सभा अस्तित्व में आती है, रामगिड़या फैडेरेशन जो है, उनके बनने के कारणों और समाज में प्रभावों को देखना भी बहुत कारूरी है।

दलित साहित्य के शिल्प के बारे में भी एक बात करना चाहता हूँ। आमतौर पर दलित साहित्य को कला के आधार पर आलोचना का सामना करना पड़ता है। मेरी नज़र में आज दलित साहित्यकार पोस्टमॉर्डन सैंसीबिलिटी से दूसरे लेखकों की तरह ही जुड़ा हुआ है। मेरे तीनों नॉवेल अलग-अलग तकनीक में लिखे गए हैं।  परणेश्वरी चलते-चलते बीच-बीच में इस तरह के दृश्य पैदा करता है, जो संवाद छेड़ने वाले होते हैं। ये दृश्य नॉवेल को गहराई देते हैं। प्रथम पौराणं में मिथ के पात्र नॉवेल के पात्रों से बातें करते हैं। नॉवेल शांति-पर्व को मैंने कंप्यूटर की हाइपर लिंक टैक्नीक में लिखा है। यह दो धाराओं में चलता है। ऊपर टैक्स्ट अलग है, जिससे लिंक लेकर आप नीचे चल रही बुड़-बुड़ को पढ़ सकते हैं। दूसरे पंजाबी साहित्यकारों ने भी कहानी और कविता में शैली के तौर पर बहुत प्रयोग किए हैं।

अभी कुछेक बातें ही कर पाया हूँ, दिल में तो बहुत कुछ है, मगर जब लिखता हूँ तो दर्द से कराहने लगता हूँ। ये वो किस्से हैं, जिनकों लिखते समय कलेजा मुँह को आता है।

पंजाब का दलित साहित्य

पंजाब में अब तक दलित साहित्य में बहुत काम हुआ है, सृजनात्मक भी और वैचारक भी। इन लेखकों में लाल सिंह दिल ऐसे कवि हैं, जो इतिहास को तिरछी नज़र से देखते हैं। उनका साहित्य बहुत गहराई वाला है। वह दलित की पीड़ा को लिखते हैं, तो भावुकता से दूर चले जाते हैं। वह सामंती सरोकारों को समझते हैं और उन पर चोट करते हैं। वे अपनी रचनाओं में बार-बार चारवाक को याद करते हैं। अपनी उन प्राचीन काव्य परंपराओं को याद करते हैं, जिनके शायरों की ज़बान काट ली जाती थी या जिन्हें जिंदा जला दिया जाता था। इनके साथ ही संतराम उदासी की कविता में दलित का जो दर्द बयां हुआ है, बहुत ही मार्मिक है। उदासी पंजाब के मालवा क्षेत्र के थे। इस क्षेत्र में दलित सिख परंपरा से जुड़ा हुआ मिलता है। मगर वहाँ भी वह मजबी सिख रहता है और पंजाब के दूसरे इलाकों के मुकाबले बहुत ज्यादा पछड़ा हुआ है। उदासी की शायरी उसी दलित की शायरी है। उसका अपना अलग सौंदर्य शास्त्र है। इसी परंपरा के एक और बड़े शायर गुरदास राम आलम हैं। उनकी शायरी वैचारिक रूप से प्रगतिशीलों के साथ खड़ी है, लेकिन केंद्र में दलित ही हैं। उनकी शायरी से पहली बार दलित को भ्रम और मिथियां से बाहर आने का आहवान है। दलित के जाति अपमान को कोई पहली बार महसूस करता है और उन मूक पात्रों को ज़बान देता है। इसी तरह हमारे शायर हैं बलबीर माधोपुरी, मदन वीरा, गुरमीत कलरमाजरी, जिन्होंने दलित को आवाज़ दी है।

पंजाबी साहित्य में लाल सिंह दिल की आत्म-कथा दास्तान, प्रेम गोर्खी की इक गैर हाजर आदमी, बलबीर माधोपुरी की छांगिया रुंख और अतरजीत की अक दे बीज पर बहुत चर्चा हुई है। इन रचनाओं ने पंजाबी में दलित साहित्य को गंभीरता से लेने के लिए मजबूर कर दिया था। मजे की बात है कि इन सभी रचनाओं में से सिर्फ बलबीर माधोपुरी की आत्म-कथा को छोड़ बाकी सभी किसी तरह भी दलित लहर का सीधा प्रभाव ग्रहण कर नहीं लिखी गईं। इनमें भी दिल एक ऐसे साहित्यकार हैं, जो इस मुद्दे पर नक्सली लहर के वक्त से ही निष्ठा से बात करते आ रहे हैं। मेरा तो मानना है कि पंजाब की दलित लेखन परंपरा को लाल सिंह दिल, गुरदास राम आलम और संत राम उदासी की परंपरा से ही जोड़ कर देखना और समझना चाहिए।

पंजाबी में दलित नॉवेल या कहानी की बात करें, तो अब नॉवेल में तो नहीं, लेकिन कहानी में बहुत काम हुआ है। नॉवेल में गुरदयाल सिंह का मड़ी का दीवां, गुरचरन सिंह राव का मशालची, करमजीत कुस्सा का अग्ग दा गीत सीधे दलित की जिंदगी से जुड़े हुए हैं। इनके अलावा भी बहुत सारे नॉवलों में दलित पात्र बहुत ही सशक्त रूप से आए हैं। कहानीकारों में गुरमीत किड़यालवी, सरूप स्यालवी, मनमोहन बावा, किरपाल काक,भगवंत रसूलपुरी, प्रेम गोर्खी, अतरजीत, मोहन लाल फिलौरिया, नछतर,जिंदर, बिंदर बसरा आदि कहानीकारों ने बहुत सशक्त कहानियां लिखी हैं, जो पंजाबी साहित्य में भी और अनुवाद के रूप में भारतीय स्तर पर भी चर्चा का केंद्र रही हैं। और भी बहुत सारी बातें हैं, जो एक लेख में नहीं की जा सकतीं। यह मेरी सीमा है।

One comment
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  1. Kali Ji ap ne bahut kuch kehna ki kosish ki, lekin ap muddea tak nahi pahuch pa reha. Jaisa dalito per sufion ka parbhav hai vesa hi oro ka bhi, es ka arth yeh nahi ki dalit har bar dharm badlta rehga. Dalito ka apna dharm reha hea. Abhi too ap Dr. Dharmvir ki kitab `Meri Patni aur Bhedia` padh lea, kafi bato ka khulasa ho jayaga. Kailash Dahiya, 09868214938

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