आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

अगर बच सका तो: गिरिराज किराड़ू

थोड़ा-सा: अशोक वाजपेयी

अगर बच सका
तो वही बचेगा
हम सबमें थोड़ा-सा आदमी –

जो रौब के सामने नहीं गिड़गिड़ाता,
अपने बच्चे के नम्बर बढ़वाने नहीं जाता मास्टर के घर,
जो रास्ते पर पड़े घायल को सब काम छोड़कर
सबसे पहले अस्पताल पहुँचाने का जतन करता है,
जो अपने सामने हुई वारदात की गवाही देने से नहीं हिचकिचाता –

वही थोड़ा-सा आदमी –
जो धोखा खाता है पर प्रेम करने से नहीं चूकता,
जो अपनी बेटी के अच्छे फ्राक के लिये
दूसरे बच्चों को थिगड़े पहनने पर मजबूर नहीं करता,

जो दूध में पानी मिलाने से हिचकता है,
जो अपनी चुपड़ी खाते हुए दूसरे की सूखी के बारे में सोचता है,

वही थोड़ा-सा आदमी –
जो बूढ़ों के पास बैठने से नहीं ऊबता
जो अपने घर को चीज़ों का गोदाम होने से बचाता है,
जो दुख को अर्जी में बदलने की मजबूरी पर दुखी होता है
और दुनिया को नरक बना देने के लिए दूसरों को ही नहीं कोसता.

वही थोड़ा-सा आदमी
जिसे ख़बर है कि
वृक्ष अपनी पत्तियों से गाता है अहरह एक हरा गान,
आकाश लिखता है नक्षत्रों की झिलमिल में एक दीप्त वाक्य,
पक्षी आँगन में बिखेर जाते हैं एक अज्ञात व्याकरण

वही थोड़ा-सा आदमी –
अगर बच सका तो
वही बचेगा.

1

यूँ ‘बचावकर्ता’ (रेस्कुअर) होना हिन्दी कविता की प्रिय आत्म-छवि है  लेकिन बीसवीं सदी के अंतिम डेढ़-दो दशक की कविता तो मानो ‘आपदा प्रबंधन’ की कविता ही है. इतनी कोशिश की है इस डेढ़-दो दशक की कविता ने ‘बचाने’ की कि और चीज़ों के साथ-साथ इसे इसकी माईलेनियल फ्रेंजी के लिये भी पढ़ा जाना चाहिये. हालाँकि यह कविता जिन चीज़ों को बचाना चाहती है उनके नष्ट होने की प्रक्रिया का बयान अक़्सर कुछ इस तरह करती है कि वह ‘पहले से जानी हुई’ आपदा लगती है. जिस आपदा का वह प्रबंधन है वह आपदा कहीं और घटित हो चुकी है, ख़ुद कविता में वह एक तरह से अ-दृश्य है.

अगर आप की दिलचस्पी आपदा की मैपिंग से ज़्यादा फोरकास्टिंग में है तो ‘आने वाले संकट’ को भाँपने वाले रॉडार जैसी रघुवीर सहाय की कविता (आपात्-काल के बाद पहला कविता संग्रह[i] प्रकाशित करते हुए रघुवीर ने भूमिका में यह लिखना अनिवार्य माना था कि ‘कवि ने आपत्-कालीन स्थिति के दौरान कोई कविता नहीं लिखी’  क्योंकि कवि तब, पहले की तरह, ‘आने वाले संकट’ को भाँपने में लगा हुआ था – लगातार इतने ‘समसामयिक’ नज़र आने वाले रघुवीर कहीं ‘फ्यूचरिस्ट’ तो नहीं थे?) के साथ साथ आपको मुक्तिबोध की अंधेरे में पढ़ने की सलाह देना मेरा कर्तव्य है क्योंकि अंधेरे में चल रहा वह जूलूस अपने समय से कहीं ज़्यादा आने वाले समय (फ्यूचर) की एक झाँकी है.

2

अगर हिन्दी का आधुनिक पर्यावरण, खुद आधुनिकता मात्र की तरह, जितना एन्थ्रोपोसेंट्रिक है[ii] उतना नहीं होता तो भी यह अनुमान करना आसान है कि यह आपदा ‘मैन-मेड’ थी.  इस अर्थ में भी कि अगर कविता के भीतर यह आपदा एक कन्सट्रक्ट थी तो वहाँ भी यह एक मनुष्य-निर्मिति (बल्कि पुरुष-निर्मिति) थी.

कुछ ऐसा हुआ कि सब कुछ का अंत हो रहा है. दिलचस्प है कि पश्चिम से आने वाली अंत की बुलेटिनों  (लेखक का अंत, इतिहास का अंत आदि) से परेशान और चिढ़े हुए हिन्दी लोक में निरंतर सब कुछ के अंत के बारे में कहा गया और यह अक्सर नहीं देखा गया कि  इस अंत-विमोहन के सादृश्यों – साम्यवाद और सोवियत रूस का अंत, ईकोलॉजिकल एपोकेलिप्सिज़्म याने पर्यावरण संकट के कारण सब कुछ का अंत, 1992 और राज्य के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे का अंत, उदारीकरण और कल्याणकारी राज्य का अंत, हिन्दी में वामपंथ की कल्चरल हेजेमनी का अंत (‘साहित्य अकादमी और जेएनयू का पतन’ हमें उतना ही उद्वेलित करता रहा है जितना  बूर्ज्वा लोकतंत्र का  या समूचे समाज का पतन) – को एक सदी के आसन्न अंत के समय उत्पन्न माईलेनियल फ्रेंजी ने घेर लिया था. हम यह नहीं कह रहे हैं कि हिन्दी के कवि 2000 ईस्वी में दुनिया के समाप्त हो जाने की आशंका से त्रस्त थे (जाने या अनजाने) बल्कि यह कि जिस सदी में रहने की उनको आदत थी उसके आखिरी कुछ बरसों में उनकी कविता ‘अंत’ के संवेग से विमोहित थी.  ‘अंत’ हर चीज़ का हो रहा था – हर उस चीज़ का भी जो उनकी प्रेरणा और शक्ति का स्रोत थी.  और तब किसी कविता ने कहा – ‘बचाओ! बचाओ!’ हर कविता ने कहा –‘बचाओ! बचाओ!’ अंत का यह संवेग, यह एपोकेलिप्सिज़्म इतना प्रबल था कि अंततः यह खुद ‘कविता के अंत’ में परिवर्तित हो गया और किसी कविता ने कहा – “और मैं कोशिश करता हूँ कि अगर बच सके तो बच जाये हिन्दी में कविता”.

अंत के इस संवेग के फलन, बल्कि औचित्य के रूप में, समय का एक नया आख्यान, समय की एक नयी छवि की कल्पना शुरू होती है – एक सबसे भयानक, सबसे खतरनाक, सबसे क्रूर समय की. और यह छवि पहले की ऐसी छवियों से एक बहुत महत्वपूर्ण ढंग से अलग थी – ये अन्यथा एक्शन-विहीन रोज़मर्रा में और लगभग कन्फर्मिस्ट सामाजिकी/आर्थिकी में रहने वाले कवियों के लिये  एक भयानक, क्रूर संसार में कविता जैसा कोई ‘नैतिक’ कर्म करने की अनिवार्य, सार्वकालिक मनोवैज्ञानिक सांत्वना होने से अधिक कुछ थी. अंत की यह छवि ‘वास्तविक’ होने की संभावनाओं से नहीं, वास्तविक होने के प्रमाणों से भरी हुई थी. एक ‘भयानक’, ‘खतरनाक’, ‘क्रूर’ समय में सब कुछ का अंत हो रहा था तब एक कविता ने कहा – ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’. यह वाक्य अंत-विमोहन के एक चरम ‘खुद कविता का अंत’ का प्रति-चरम था जिसे एक मंत्र की तरह बुदबुदाते हुए विनोद कुमार शुक्ल ने मानो यह भी कहा, ‘इसे सब अंत के सब शव पर डाल दो, कफ़न की तरह’. यह वाक्य उच्चारित हुआ और बीसवीं सदी का प्रेत कहीं अंतर्ध्यान हो गया; हिन्दी कविता इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर गई – उस सदी में जो पहले से बीसवीं में रह रही थी. जिन स्कूली बच्चों ने ‘इक्कीसवीं सदी का भारत’ पर निबंध अस्सी के दशक  में लिखे थे या उससे भी पहले उनमें से कुछ हिन्दी कवि हुए और उन्होंने देखा कि जिस दिन हिन्दी कविता ने इक्कीसवीं सदी में प्रवेश किया, हालाँकि बीसवीं के भारी ‘हैंगओवर’ के साथ, कोई बिग बैंग नहीं हुआ. जितना इक्कीसवीं सदी बीसवीं में रहती थी उससे कम बीसवीं इक्कीसवीं में नहीं रहती.

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1987 में, सोवियत संघ गिरने से तीन, उदारीकरण से चार, बाबरी ध्वंस से पाँच वर्ष पहले और 84 में दिल्ली में राज्य के पतन के तीन और स्वाधीन भारत में स्वराज पर अब तक के सबसे सांघातक हमले आपात्-काल के दस साल बाद लिखी गई अशोक वाजपेयी की कविता थोड़ासा माईलेनियल फ्रेंजी के इस विमर्श में हिस्सेदारी करती है और बचने-बचाने को ‘कन्डीशनल’ बनाती है. वह ‘सब कुछ’ के बचे रहने का आश्वासन नहीं देती (जो उम्मीद या आश्वासन की बजाय विशफुल थिंकिंग ज़्यादा लगता है) बल्कि पहले खुद बच सकने को कन्डीशनल बनाती है (‘अगर’ बच सका तो) फिर बचने वाले के चरित्र को (अगर बच सका तो ‘वही’ बचेगा). यह ‘हम सबमें थोड़ा-सा आदमी’ वह है

जो रौब के सामने नहीं गिड़गिड़ाता,
अपने बच्चे के नम्बर बढ़वाने नहीं जाता मास्टर के घर,
जो रास्ते पर पड़े घायल को सब काम छोड़कर
सबसे पहले अस्पताल पहुँचाने का जतन करता है,
जो अपने सामने हुई वारदात की गवाही देने से नहीं हिचकिचाता –
जो धोखा खाता है पर प्रेम करने से नहीं चूकता,
जो अपनी बेटी के अच्छे फ्राक के लिये
दूसरे बच्चों को थिगड़े पहनने पर मजबूर नहीं करता,
जो दूध में पानी मिलाने से हिचकता है,
जो अपनी चुपड़ी खाते हुए दूसरे की सूखी के बारे में सोचता है,
जो बूढ़ों के पास बैठने से नहीं ऊबता
जो अपने घर को चीज़ों का गोदाम होने से बचाता है,
जो दुख को अर्जी में बदलने की मजबूरी पर दुखी होता है
और दुनिया को नरक बना देने के लिए दूसरों को ही नहीं कोसता .

कई सारे, कई तरह के आदमियों से मिलकर बना यह ‘हम सबमें थोड़ा-सा आदमी’ लेकिन वह भी है जिसे ख़बर है कि

वृक्ष अपनी पत्तियों से गाता है अहरह एक हरा गान,
आकाश लिखता है नक्षत्रों की झिलमिल में एक दीप्त वाक्य,
पक्षी आँगन में बिखेर जाते हैं एक अज्ञात व्याकरण

निजी, सामाजिक/सार्वजनिक जीवन में बेईमानी न करने वाला और आत्म-साक्षात्कार कर सकने वाला, अपने को बरी न करने वाला आदमी ही बचा रहेगा यह ‘उम्मीद’ का कॉमन सेंस है . जो कॉमन सेंस नहीं है वह है इस थोड़े-से आदमी के बचे रहने की दूसरी शर्त. इस आदमी का इस बात से बाख़बर होना कि वृक्ष गाते हैं, आकाश लिखता है और पक्षी गंदगी  और पंख नहीं ‘एक अज्ञात व्याकरण’ बिखेर जाते हैं. क्या सचमुच बचने के लिये यह सब भी जरूरी है?

अशोक वाजपेयी की कविता ऐसी ही मनुष्य(ता) का प्रस्ताव करती रही है, अस्तित्व की ऐसी ही समझ का.

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बाद में अपनी बहुस्वरीय कविताओं से एक बिलकुल भिन्न कवि हो गए देवी प्रसाद मिश्र के 1989 में प्रकाशित पहले कविता संग्रह प्रार्थना के शिल्प में नहीं में एक कविता दिलचस्पी इस प्रकार हैः

भूमिहीन किसान जब
मक़बरे में घुसा तो
अंदाज़ने लगा यह
कितने रक़बे में है

यह कविता कहती है कि कविता का विषय – किसान – चूंकि भूमिहीन है इसलिये मक़बरे में घुसने पर उसकी ‘दिलचस्पी’ इसके अलावा क्या हो सकती है कि यह मक़बरा कितनी जमीन पर बना हुआ है? काव्य-विषय की यह ‘दिलचस्पी’ कितनी निश्चित (डेफिनिट) और पूर्व-प्रदत्त जान पड़ती है इस कविता में. मानो इसके अतिरिक्त इस विषय की कोई और दिलचस्पी संभव ही नहीं है[iii].  वह भूमिहीन किसान अपने एक यथार्थ – भूमिहीनता – में पूरी तरह निशेष कर दिया गया है. वह कुछ और, पूरा मनुष्य भी, नहीं हो सकता क्योंकि वह भूमिहीन किसान है.

(यह अटकल कम दिलचस्प नहीं होगी कि कवि जब इस विषय को देखता है तो उसकी दिलचस्पी क्या होती है? क्या यही नहीं कि इस पर कविता कैसे लिखी जायेगी? और यह अटकल क्या कम दिलचस्प होगी कि उस किसान को क्या कोई फर्क़ पड़ेगा कि कवि ने उसकी दिलचस्पी के बारे में लिखते हुए मक़बरे और रक़बे में नुक़्ता लगाया या नहीं?)

मनुष्य(ता) और मानवीय अस्तित्व के बारे में इस तरह की रिडक्टिव और एकांगी प्रस्तावना के बरक्स थोड़ासा के थोड़े-से आदमी की मनुष्यता साधारण मनुष्य के जीवन में कल्पना के अवकाश की प्रस्तावना है. हो सकता है यह ‘थोड़ा-सा’ आदमी ‘बुर्जुआ जेंटलमैन’ का पोयटिक वर्ज़न कह कर ख़ारिज कर दिया जाय लेकिन अगर कोई परिवर्तन संभव होगा तो बिना उसकी छोटी-छोटी नैतिक चेष्टाओं और बिना उसके कल्पनामय अस्तित्व के नहीं होगा, मनुष्य(ता) के रिडक्टिव ‘रेप्रेजेंटेशन’ से ऐसा हो सकेगा इस पर गहरा संदेह है.


[i] भूमिका, हँसो हँसो जल्दी हँसो, नेशनल पेपरबैक्स, दूसरा संस्करण, 1987 (पहला 1975)

[ii] देखें, अशोक वाजपेयी की कविता के बहाने एक विषयांतर, विषयांतर, वाणी प्रकाशन, 1990

हालाँकि मदन सोनी ने नीचे उद्धृत कविता के आधार पर  अशोक वाजपेयी की कविता को समकालीन कविता और सभ्यता की नृकेन्द्रीयता के बरक़्स एक विषयांतर कहा है लेकिन यह ‘अतिरंजित’ पठन अशोक वाजपेयी की कविता की पारिस्थितिकी के एक अभिलक्षण को उस पारिस्थतिकी के पर्याय/प्रतिस्थापन की तरह पढ़ता है, ऐसा हमारा पठन है.

इस खरगोश अँधेरे में
धीरे-धीरे कुतर रहे हैं पृथ्वी

पृथ्वी को ढोकर
धीरे-धीरे ले जा रही हैं चींटियाँ

अपने डंक पर साधे हुए पृथ्वी को
आगे बढ़ते जा रहे हैं बिच्छू

एक अधपके अमरूद की तरह
तोड़कर पृथ्वी को
हाथ में लिये है
मेरी बेटी

अँधेरे और उजाले में
सदियों से
अपना ठौर खोज रही है पृथ्वी

[iii] भारतीय समाज में और कला में वह चरित्र  अभी खो नहीं गया है जो कभी भिखारी होता है कभी नाविक कभी मृदंगिया और जो जीवन और मृत्यु के बारे में, अपने दुख और सब लोगों के दुख के बारे में, जीवन की बुनियादी एब्सर्डिटी के बारे में किसी बड़े फलसफाना अंदाज में इकतारा या मृदंग बजाता हुआ गा रहा होता है. वह जब कोई ढाबा या घर देखता है तो उसकी क्या ‘दिलचस्पी’ होती है?

क्या वह सिर्फ यही देखता है कि घर कितने गज में फैला है या ढाबे में खाना कितना बन रहा है या वो ऊपर आसमान में उड़ते हुए पक्षियों की उड़ान और आकाश के रिश्ते को भी, अपने चारों ओर चल रहे जीवन के खेले को भी देखता है?

मुझे गुलज़ार की फिल्म किताब का बच्चा याद आ रहा है जो पढ़ाई के आतंक से डरकर घर से भाग जाता है और उसे एक ऐसा रेल ड्राईवर मिलता है जो इंजन की छत पर चढ़कर धन्नों की आँखों में चाँद का सुर्मा गाता है और प्लेटफॉर्म पर एक ऐसा अंधा भिखारी जो जनम जनम बंजारा गाता है. कोई हैरानी की बात नहीं कि बच्चे की असल शिक्षा ऐसे ही चरित्रों की संगत में होती है. हैरत यह है कि रोमानी समझे जाने वाले गुलज़ार के यहाँ मनुष्यता की अधिक संश्लिष्ट समझ सक्रिय नज़र आती है जबकि सयाने अवाँगार्द कवियों के यहाँ एक बड़ा-सा सूना मक़बरा.

3 comments
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  1. aakhiri men gulzar ke bahane aapne thik hi lakshit kiya hai!

  2. wonderful and inspiring post.
    thanks for sharing it.

  3. Thanks for sharing such a great poems . I never ever thought such a deep meaning inside these simple word

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