खुली हवा के गलियारे में – ‘अ’: अनिरुद्ध उमट
ज्योत्स्ना मिलन
चिट्ठी यानी हाथ की लिखी, असली वाली चिट्ठी, ई-मेल वाली बिना किसी पहचान की वर्च्युअल चिट्ठी नहीं . हाथ की लिखी हर चिट्ठी की अपनी एक अलग पहचान होती है . उसी ककहरे और बाराखड़ी से बनी होती है हर लिखावट, तब भी होती है कितनी अलग एक दूसरी से. हर लिखावट एक अलग हाथ का अलग विस्तार, जो हाथ से अलग हो जाती है फिर भी बची रहती है हाथ की पहचान, उसमें .
निर्मल जी के पत्रों जैसे पत्र किसी भी समय में कम ही लिखे जा सकते हैं, पढ़े मगर ऐसे पत्र कई-कई बार जाते हैं अलग-अलग स्थल और काल में . उसे पढ़ने की पहली स्मृति को चकमा देते हुए वह एक अलग पत्र निकल आता. इस तरह उनका एक पत्र अनेक पत्रों में बदल जाता. इन पत्रों में लिखने वाले का अपना जीवन और भीतर की आँच बची रहती है,अपनी समूची आभा के साथ…….
मैं
स्पन्दन, गति, लय.
नब्ज में उफनती, धधकती स्पर्श करने वाली अंगुलियाँ किस तरह शिफ्ट कर जाती है कि स्पर्श करने वाले को लगता है जैसे कोई उसकी नब्ज टटोल, छू रहा है – यह ‘अ’ की दुनिया है – ‘अ’ का पसारा .
निर्मल वर्मा को ‘ई’ से नहीं ‘अ’ से याद किया जाएगा, जाता है . उनके अक्षर,शब्द किसी की-बोर्ड के धक्के से उपजे नहीं होते थे वे हिचकती, सहमती अंगुलियों की कंपकंपाती मगर ठोस-स्थिर पकड़ से जन्म लेते थे – बिन्दु दर बिन्दु. निब, स्याही, कागज, धूप-छांह, ठंड, तपन, उदासी, मौन की लंबी यात्रा में से गुजरते. धीमे से जैसे पक्षी पंख छोड़ता है या उड़ान में खुद को जरा ऊपर या नीचे करता है.
उपन्यास
रमेशचन्द्र शाह, ज्योत्स्ना मिलन, शंपा शाह, राजुला शाह चिट्ठियों के दिन पुस्तक में कौन है? और देहरी पर खड़ी हमें प्रवेश कराती ‘निर्मल लोक’में गगन गिल कौन है? स्वयं निर्मल वर्मा कौन है? किसी का चले जाना जन्म-मृत्यु से पार स्मरण लोक की तरलता में और किसी का बचे रह जाना हड़कम्प खुरदुरे विरोधाभासी समय की ‘वेटिंग लिस्ट’ में और इस मध्य एक दुनिया का निर्मित होते जाना . यह दूसरी दुनिया नहीं, यह दुनिया शब्द से परे का लोक है – जिसे उपन्यास मान भी पढ़ा जा सकता है/ चाहिए .
यहाँ सभी अकेले हैं और एक दूजे से अविच्छिन्न भाव से सम्पृक्त भी. इनमें विरोधाभास नहीं है इनमें सहज निरन्तरता का बोध है. जिस लेखक को जीवन भर ‘अकेलेपन’ के महिमामंडन का अभियुक्त पाया, ठहराया गया वही इस कृति में सबके अकेलेपन के साथ है – साथ होने को लालायित है – वह इस कदर सबके होने में गड़ा है कि आज मृत्यु पश्चात भी सबके अकेलेपन का – उनके अरण्य का असल सगा है, अपना है, अपना- ‘अ’
क्यों न इसे उपन्यास समझ-मान लिया जाए ?क्यों न समझा जाए?
पाँच लोग
यह पुस्तक पाँच लोंगों की दुनिया का स्मरण कराती उस यात्रा में तब्दील होती जाती है जिसमें यात्रा के सभी मोड़, खतरे, संकेत, भय, उल्लास, उदासी साथ-साथ चलते हैं. पाँचों लोग इस कदर एक दूजे में अवस्थित हें कि हर बार दूजा पहले को संबोधित करता और पहला दूजे को सुनता लगता है . पहला- दूजे से इस कदर जुड़ा है कि कभी-कभी पहला स्वयं पहला न लग कर दूजा लगने लगता है – यह निर्मल लोक में ही संभव है.
अ-ज्ञेय
बरसों लिखने के बाद भी दुनिया देखने की दृष्टि कितनी बदल जाती है . जो लोग अस्पताल में या जेल में, लड़ाई में दिन गुजारते होंगे वह जब नॉर्मल जीवन में लौटते होंगे वह निगाह लेकर नहीं लौटते होंगे जिसे लेकर गए थे .
ज्योत्स्ना मिलन के उपन्यास अ अस्तु का पर लिखते निर्मल वर्मा जो बात यहाँ कहते हैं वह बरसों बाद आज इस पत्र-पुस्तक के बारे में कही जान पड़ती है, जैसे पता हो कि जो कहा जा रहा है वह एक समय बाद कहने-सुनने वाले के सम्बन्ध के एक अलग समय में अभी एक जीवन और जीएगा – जो मृत्यु से पार का होगा – एक उपन्यास जिसे पढ़ते हुए लेखक को जो लिखा गया वह स्वयं ‘लिखा हुआ’ एक पत्र-पुस्तक को ‘उपन्यास’की देह में पगते देखता है –यानी जो मैं लिख रहा हूँ उसकी एक नियति और भी है जो मुझे नहीं पता . वह अज्ञात है, उसका समय, उसका स्थान सब कुछ अ-ज्ञेय है.
निर्मल वर्मा
कुछ पुस्तके अजीब ढंग से ‘खुली हवा का गलियारा’ होती हैं – उनसे गुजरते हुए -हम आकाश में विचरते हैं, पेड़ों को सहलाते हैं, चौके की गन्धों को सूंघते हैं, हिंडोले पर झूलते हैं….बराबर एक गतिमयता का नशा-सा छाया रहता है . एक छुई-मुई-सा नशा जो देह के भीतर एक बयार सा बहता है ………..खुले आकाश को देख कर हम आलोचना-विवेचना की बात शायद ही कभी सोचते हों…….न घटनाओं की , न दुख क्लेश की – ये सब है –किन्तु ये सब एक हवा में तनी तार में स्पिन्दत होते हैं जो हवा चलते ही गूंजने लगती है…….
परिवार
एक परिवार के चार सदस्यों के, जीवन समय में प्रवेश करते निर्मल वर्मा को देख पाठक जान लेता है कि ये स्वयं निर्मलजी के प्रवेश करने से अधिक एक अन्य पत्र की आकांक्षा का भी रूप है . इस आकांक्षा-रूप को यदि एक बार इंगित कर लिया जाए तब लिखने और पढ़ने वाले का भेद खत्म हो जाता है .
शाह परिवार के साथ निर्मलजी का ‘भेदखत्म’ वाला रिश्ता था. ‘भेदखत्म’ में वह आकुल भारतीय मानसिकता नहीं है जो किसी भी प्राईवेसी को हेय मानती हो, और उसे ध्वस्त करने को अपना पराक्रम. यहाँ प्राईवेसी अपनी देह खोलती है-पसारती है, धूप में बहती ठंडी हवा में . तब इसे सिर्फ शाह परिवार कहना ज्यादती लगता है – यह नाम-संज्ञा से परे का, शब्दाकुलता का परिवार है, जिसमें निर्मल वर्मा, रमेशचन्द्र शाह, ज्योत्स्ना मिलन, शंपा शाह, राजुला शाह का भेद मिट जाता है . ये एक इकाई बनती है – खुद से कहती खुद को सुनती जीती है .
शंपा शाह
खुले आसमान के नीचे, रात का न जाने कौन-सा प्रहर था, किसी दूर से आती बेआवाज़ सी आवाज़ से अचानक नींद खुली थी. ऊपर आसमान की गहरी नीली स्लेट पर कोई महीन इबारत टिमटिमा रही थी. असंख्य बगुलों की लयबद्ध पाँत . उनके उठते-गिरते परों की चिलक में किसी दूर देश की गंध . इस इबारत में लिखी कोई पूरी की पूरी कहानी . पर मैं यह लिपी चीन्ह न सकी ……..आज निर्मलजी नहीं है किन्तु जीवन की महीन इबारत दर्ज करती उनकी उतनी ही महीन इबारतें रात के आकाश में फहरा रही हैं, उनमें छिपी पूरी की पूरी कहानियाँ…क्या मैं उन्हें अब चीन्ह पाऊँगी?
यह चीन्ह पाने या न पाने की विकलता जीवन की गहरी सघन समग्रता की अनुभूति से उपजी है जहाँ एक व्यक्ति (शंपा) जो मिट्टी से गढ़ता है, दूजा (निर्मलजी) जो शब्दों से गढ़ता है, के मध्य का वितान है . उसका असमंजस है, संशय है , उसका अकेलापन है तो साथ ही स्मृतियों का भरापूरा खजाना भी है, मगर बुनियादी बात है चीन्ह पाने की विकलता.
कृति
यह पुस्तक एक क्रूर नियति के समक्ष खड़ी है – उस लेखक की यह एक अन्य नवीन कृति है पाठको के लिए जिसके लिए कहा जा रहा था कि अंतिम अरण्य अंतिम कृति है . खुद लेखक भी संभवत: इससे परिचित न था कि नियति के खेल में जिन पात्रों के साथ वह बतिया रहा है वह समय स्वयं एक समय में एक कृति के रूप में, एक स्वायत कृति के रूप में उपस्थित हो जाएगा जिस लोग निर्मल वर्मा की नयी कृति कहेंगे .
गगन गिल / मैं
मेरे परिचय में जो कुछेक विलक्षण सृजनधर्मी परिवार आये हैं, जिनका हर सदस्य अपनी तरह की अनूठी मेधा रखता है, उनमें शाह परिवार सबसे अलग है….शाह परिवार के सब सदस्य एक ही स्पेस मे रहते हुए कैसे अपनी अपनी सर्जनात्मक परिधि अक्षुण्ण रखते रहे हैं, साथ रहते हुए भी अलग, निस्संग, यह मेरे लिए अभी तक विस्मय और सीख का विषय है …..दूसरों से संवाद में ही जीवन का यह अति यथार्थ संभव हो पाता है, सहनीय हो पाता है – ये पत्र इसका दस्तावेज हैं .
चारों सदस्यों की पीठिकाएँ अपनी-अपनी चोटियाँ हैं जो एक तार के जरिए एक दूजे से जुड़ी हैं – जिस तार पर निर्मलजी किसी कुशल संवेदनशील नट की तरह इधर-उधर गुजरते एक दूजे को सम्हालते रहते हैं कि राशन-पानी-तेल-रोशनी सब पर्याप्त है कि नहीं. इन चारों के आलोक उमंग में तार पर बैठे निर्मलजी किसी पक्षी की तरह लगते हैं – जो अपनी निश्चितता में आकाश को देखता रहता है .
राजुला शाह / निर्मल वर्मा
वे हर एक के हमउम्र हो जाने का जादू जानते थे . आज भी अपने कुछ बरस छोटे या बड़े समानधर्माओं के और अपने बीच सहसा एक अपाट्य खाई खुलने के क्षण में उनकी अनुपस्थिति की टीस महसूस होती है .
राजुला के इस कथन के बाद निर्मलजी का यह कथन अविस्मरणीय है जो उन्होंने राजुला को अस्पताल में आईसीयू में कहा,
कल रात सोच रहा था कि यह कठिन वक्त, यह सफरिंग जो हमारे हिस्से में आई है, उसका अगर हम कुछ नहीं बना पाते हैं, तो उसका आना तो बिल्कुल व्यर्थ कहा जाएगा – शीयर वेस्ट
इसके बाद पुन: राजुला के कथन को देखना और भी जरूरी है
कैसी उत्कटता है यह ? जीवन को जीने की कैसी ललक कि कुछ भी को अपने ऊपर से यूँ ही गुजरने नहीं दिया जा सकता. ‘एक भी बारिश को दर्ज किए बिना कैसे गुजरने जाने दिया जा सकता है.’ विन्सेंट वान गॉग अपने भाई थियों को लिखता है. शायद इस उत्कटता से जीवन में ही उम्र से दो गुना चौगुना जीना संभव होता है, जिसकी आंच मे फिर कई दूसरे क्षीणकाय और दुबले लोग अपना पहाड़ सा सर्द जीवन काट सकें.
शाह साहब
स्वयं निर्मल वर्मा शाह साहब को अपने एक पत्र में जो कहते हैं उसे राजुला के कथन के बाद देखना इस पुस्तक को पाठक के और भीतर घर कर जाता है जब वे कहते हैं,
कितना अजीब है हम जितने उम्र में बड़े-बूढ़े होते जाते हैं उतना ही हमारेी बचकानी हरकतें उन्हें अखरने लगती है जिन्होंने ‘बचपना’ अभी अभी पार किया है . हम जितना अपने बचपन के पास आना चाहते हैं वे उससे दूर जाना चाहते हैं . बरसों बाद शायद कभी उन्हें हमारी बेवकूफियों की उदासी समझ में आयेगी
बरसों- बाद…….जब चिट्ठियों के दिन धूप में रखे जायेंगे….अपनी ठंडी….नम देह के साथ .
बरसों- बाद……..यह वाक्य कहने के लिए ……
मैं
यहाँ निर्मल वर्मा वे हैं जो दरअसल निर्मल वर्मा थे.
उनका विरोध करके भी कई लेखक बने, आलोचक माने गए, सेकुलर माने गए. मगर हुआ सारा कारोबार निर्मल वर्मा के होने पर ही. बहुत कम लोग ऐसे हुए – रमेशचन्द्र शाह, ज्योत्स्ना मिलन, शंपा शाह, राजुला शाह की तरह – जिनमें खुद निर्मल वर्मा भी कुछ कुछ निर्मल बनते गए.
ये उन चिट्ठियों के दिनों की बात है. बातें हैं.
पढ़ते पढ़ते ठहरता हूं, इस ठहराव में एक गलियारा खुलता है जिसमें निर्मल वर्मा के पढ़े जाने की स्मृतियां गूंजती रहती हैं….