आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

दिसम्बर २००९ / December 2009

भारत के ‘नये साम्यवाद’ के बारे में एक अनुमानवादी सम्पादकीय

1.

स्लोवाक दार्शनिक स्लावोज ज़िज़ेक को भारत में लगातार जिस एक विचारधारात्मक ‘एन्टेगनिज़्म’ का सामना करना पड़ेगा वह दलित विचारधारा और साम्यवादी पोजिशन के बीच है. दलित विचारधारा कहती है कि वामपंथी और उनके विरोधी दोनों ‘ब्राह्मणवादी’ हैं इसलिए दोनों के प्रति उसका आचरण एक जैसा होना चाहिए.  लेफ्ट की दो स्वाभाविक, लोकप्रिय प्रतिक्रियाएँ रही हैं, समावेशी (‘जाति’ चूंकि ‘वर्ग’ का एक उप-समूह है, दलितों को वामपंथी आंदोलन में शामिल हो जाना चाहिये क्यूंकि ‘वर्गहीन’ समाज ‘जातिहीन’ समाज भी होगा ही) और समावेशी (दलित विमर्श क्योंकि  ‘वर्ग’ की जगह जाति को ‘केन्द्रीय’ बनाता है, वह संभावित रणनीतिक शत्रु है). लेकिन जिस चीज़ को साम्यवाद ,जानबूझकर,  नज़रअंदाज कर रहा है वह यह है कि दलित विमर्श साम्यवाद के लिये कोई ‘एक समस्या’ या ‘एक चुनौती’ भर नहीं है बल्कि वह साम्यवाद की जगह ले रहा है. दलित आंदोलन/विचारधारा तेजी से भारत का नया साम्यवाद बनती जा रही है!  लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई संसार की सबसे लम्बे समय तक कायम वामपंथी सरकार (पश्चिम बंगाल) के समाजवादी-पूंजीवाद के प्रयोगों और नंदीग्राम व सिंगुर में दिखाई गई असंवेदनशीलता को लेकर भीतर-बाहर से हो रहे प्रबल विरोध, घातक ‘अंदरूनी टकराव’ (एक तरह के वामपंथी दूसरी तरह के वामपंथियों को सरे आम मार रहे हैं! ), ‘सेलेब्रिटी एक्टिविज़्म’ पर बढ़ती हुई चिंताजनक निर्भरता, एक तरह के धार्मिक फंडामेंटलिज़्म से लड़ते हुए दूसरी तरह के धार्मिक फंडामेंटलिज़्म के बारे में नरम रवैया रखने की तथाकथित गंभीर रणनीतिक चूक के आरोप, और संसद में किसी भी तरह की प्रभावी उपस्थिति खो देने के सामने मंडरा रहे ख़तरे जैसी विकट समस्याओं से जूझ रहा लेफ्ट अपने सबसे खराब दौर में है.

‘1990 की त्रासदी’ के बाद से बहुतों के रास्ता/पाला बदल लेने और कई दूसरों के सिनिकल हो जाने के बाद जो कुछ लेफ्ट के पास अब भी है वह हैः लेखकों, एक्टिविस्टों, कलाकारों, यूनियनवालों का एक अच्छा खासा बेस – बात बात में नाराज़ हो जाने वाला, उदास, बिखरा हुआ ‘ब्रदरहुड’ जिनमें से कई बीसवीं शताब्दी के ‘सचमुच के समाजवाद’ को ले कर नॉस्टेल्जिक हैं और जिनकी निराशा व पराजय-बोध अचानक किसी ‘प्रतीकात्मक प्रतिरोध’ में फूट पड़ते हैं. दूसरी तरफ दलित आंदोलन का फैला हुआ ग्रासरूट नेटवर्क है, तीव्र राजनैतिक मोबिलाईजेशन है, समर्पित और मुख्यतः युवा कार्यकर्ताओं की ब्रिगेड है जो सपने देखने और लड़ने के लिये तैयार है, और समतावादी राजनीति का अपना संस्करण भी. लेफ्ट को ‘अपने’ अतीत से निपटना है, दलितों को सिर्फ भविष्य की चिंता करनी है. लेफ्ट को ‘महान क्षति’ की भरपाई करनी है, दलितों के पास ‘खोने को कुछ नहीं है’. दलितों को पता है ‘इतिहास उनके साथ है’, जबकि ‘द बिग अदर’ पूरी तरह लेफ्ट के विरूद्ध है.

दलित विमर्श को लेकर जैसी असुविधा और बेचैनी भारतीय वामपंथी बुद्धिजीवियों में, ख़ासकर गैर-अंग्रेजी हल्कों में, दिखाई देती है क्या वह भी इस बात का ईशारा नहीं करती कि इस समय भारत में जिस ‘ऑईडियोलॉजिकल स्कैन्डल’ को छुपाने की कोशिश की जा रही है वह कहीं यही तो नहीं कि दलित आंदोलन तेजी से भारत का नया साम्यवाद बनता जा रहा है. यह कतई संयोग नहीं कि ज़िज़ेक को भारत लेफ्ट ने नहीं, एक स्वतंत्र, ऊर्जावान, जाति-विरोधी दलित, आम्बेड़करवादी प्रकाशक ने बुलाया है.

ज़िज़ेक को बहुत से लोग साम्यवाद के नये मसीहा की तरह देख रहे हैं, और कभी कभी वे बोलते भी उसी तरह हैः

अगर क्रेवशेंको जैसा महान साम्यवाद विरोधी भी अंततः अपने धर्म को लौट सकता है तो आज हमारा संदेश यही होना चाहियेः डरो मत, लौट आओ, फिर से हमारे साथ. तुमने साम्यवादविरोधी मज़े खूब किये, और उसके लिये तुम्हें क्षमादान दिया जाता हैफिर से गंभीर होने का वक़्त आ गया है.

(स्लावोज ज़िज़ेक, फर्स्ट एज ट्रेजेडी, दैन एज फार्स, वेर्सो/नवयाना, 2009, जोर मेरा)

ज़िज़ेक जो न तो हर समय बीसवीं सदी की साम्यवादी रेजीमों का बचाव करते हैं ना अपने ‘साम्यवादी धर्म’ को लेकर जिनके मन में कोई अपराध-बोध है क्या वे भारत के सबसे बड़े विचारधारात्मक गतिरोध – लेफ्ट v/s दलित – को सुलझाने के लिये कोई नयी ‘हायपोथिसिस’ प्रस्तावित कर पायेंगे?

2

एशिया के सबसे बड़े लिटरेरी फेस्टिवल – जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल – को बहुत सारे लोग एक ‘सच्चा लोकतांत्रिक आयोजन’ कहना चाहेंगे. पश्चिमी और पूरबी, धार्मिक और काफ़िर, वामपंथी और दक्षिणपंथी, राजनयिक और क्रांतिकारी, दार्शनिक और लोकप्रियतावादी सब यहाँ एक साथ पढ़ते हैं, बहस करते हैं, खाते हैं, पीते हैं और कभी कभी साथ साथ नाचते भी हैं. इस बार दलित लेखन पर फोकस इस लेखन की बढ़ती हुई लोकप्रियता और शक्ति का सबूत होने के साथ साथ खुद इस आयोजन की अपनी आत्म-क्षवि का भी प्रतिबिम्बन है. हमारी शीर्ष कथा में फेस्टिवल में हिस्सा ले रहे छह लेखक शामिल हैं.

दो लेखकों, नमिता गोखले और विलियम डेलरिम्पल, द्वारा निर्देशित यह पाँच बरस पुराना फेस्टिवल अपने उच्चस्तरीय सत्रों और सुप्रबंधन के लिये उचित ही प्रसिद्ध है और बहुधा अपने आलोचकों को न सिर्फ चकित करने बल्कि उन्हें अपने साथ शामिल कर लेने में भी सफल हुआ है. प्रदीर्घ सार्वजनिक रचना पाठों और समांतर पुस्तक मेले की कमी जरूर खलती है.

A Speculative Editorial about India’s “New Communism”

1

As the Slovenian philosopher Slavoj Žižek comes to India, one of the major ideological antagonisms he will frequently confront is between the Dalit ideology and the Communist position. The Dalit ideology insists that both the ‘democrats’ and the leftists are ‘brahmanical’ and, therefore, it should treat both in the same way. On the other hand, the Left has two obvious, popular approaches – the Inclusive one (since ‘caste’ is a subset of ‘class’, the Dalits should join us; the classless world will de facto be casteless) and the Exclusive one (since the Dalits replace class with caste, they are potential strategic enemies). What the Left, willingly and desperately, tries to hide is that the Dalit ideology/movement is not just ‘a problem’ or ‘a challenge’ to Communism, it is replacing Communism. The Dalit movement is fast becoming the New Communism of India. Faced with innumerable grave problems – extreme criticism, from both inside and outside, for the socialist-capitalist adventures of the longest surviving, democratically elected, Leftist government (in West Bengal), and its insensitive handling of the Singur and Nandigram tragedies; fatal ‘internal divisions’ (one kind of leftists openly killing other kinds of leftists!); an increasing dependence on ‘celebrity activism’; the (alleged) crucial strategic mistake of underplaying one kind of religious fundamentalism while fighting another; and, a realistic possibility of losing any kind of effective presence in the parliament, to name a few – the Left is going through its toughest phase ever.

With many switching loyalties since the ‘disaster of 1990’ and many others becoming cynical, what the Left has, is a still substantial base of writers, activists, artists and unionists, many of them nostalgic about the “Really Existing Socialism” of the twentieth century – a temperamental, sad and shattered ‘brotherhood’ that tries to overcome its sense of despair and defeat by sudden bursts of symbolic protest. On the other hand, the Dalit movement has a widespread grassroots network, charged political mobilization, a vast dedicated brigade of mostly young activists who are ready to dream and to fight, and has its own version of egalitarian politics. The Left has a past to grapple with; the Dalits, only a future to plan about. The Left has to repair ‘The Loss’; the Dalits have ‘nothing to lose’. The Dalits have ‘history on their side’, whereas the left finds ‘the Big Other’ completely against itself.

Doesn’t the kind of desperation and unease that the Dalit movement has generated among the Indian leftist intellectuals, particularly in the non-English-speaking spheres, also indicate that the biggest ‘ideological scandal’ (one that is being hushed) in India at the moment is precisely this: that the Dalit movement is becoming the New Communism of India. It is no coincidence that Žižek has been invited to India not by the Left, but by a dynamic, independent, anti-caste Dalit and Ambedkar-ite publisher, Navayana.

Žižek, one should have no doubt, is seen by many as Communism’s new Messiah. And at times, he chooses to speak like one:

So, when even a great anti-communist like Kravechenko can return to his faith, our message today should be: do not be afraid, join us, come back! You’ve had your anti-communist fun, and you are pardoned for it – time to get serious once again!

(First as Tragedy, Then as Farce, Verso/Navayana 2009/Emphasis added)

Neither totally defensive of the twentieth century communist regimes, nor apologetic for his communist faith, and constantly looking for ‘new unexpected allies’, will he be able to offer a hypothesis for resolving the most crucial ideological stalemate in the Indian scene: Left vs. Dalit?

2

The biggest literary festival in Asia, the Jaipur Literature Festival, is what many would call a ‘truly democratic event’. Westerners and Easterners, believers and blasphemers, leftists and rightists, diplomats and revolutionaries, philosophers and populists – all read, debate, dine, drink and, sometimes, dance together. A focus on Dalit writing this time is not only a sign of the growing popularity and strength of Dalit writing, but also an affirmation of the event’s self-image. Our lead story features six Dalit writers participating in the event.

Directed by two writers, Namita Gokhale and William Dalrymple, the five-year-old festival has opened up new possibilities for all kinds for writers, agents, translators and publishers. Deservedly famous for the quality of its sessions and efficient organization, the festival has managed to surprise and, often, win over its critics. The only things missing are dedicated and extended public readings, and a concurrent book fair that’s bigger than the few pandals they usually have.

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