जीवन महाकाव्य: राय आनंद कृष्ण और व्योमेश शुक्ल
महान कलावंत रायकृष्णदास के जीवन और कृतित्व पर उनके पुत्र और जाने माने कलाइतिहासकार राय आनंद कृष्ण के साथ की गयी यह बातचीत दरअसल रायकृष्णदास की जीवनी की तरह पढ़े जाने के लिये शुरू हुई थी. लेकिन यह अपनी आरंभिक प्रतिश्रुतियों से भटकते हुए – कभी दूर और कभी पास का सफर करते हुए चरितार्थ हो रही है. यह इसी तरह संभव था क्योंकि रायकृष्णदास रायकृष्णदास-जैसी शख़्सियतों को उनकी सभ्यता के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है. इसलिये यहाँ सभ्यता का जीवन व्यक्ति की ज़िंदगी की तरह उपस्थित है. इसलिये यहाँ विविध और विस्तृत आवागमन है. जन्म से मृत्यु तक की एकरेखीयता को न मानने की जिद भी यहाँ अपना काम कर रही है तो इतिहास और घटनाओं के क्रमानुक्रम का अनुकरण इस मनमानेपन के साथ बेमेल लगता इसलिये उसे रहने दिया गया है. स्मृति यहाँ केन्द्रीय है और स्मृति के आह्वान की भिन्न भिन्न पद्धतियाँ. युगानुकूल पॉलिटिकल करेक्टनेस के तंग सुविधाजनक दायरे इस बातचीत में दूर तक भुला दिये गये हैं और जो याद करने योग्य है – उसी को याद करने में, उसी को शब्द देने में यह संवाद व्यस्त है.
– व्योमेश शुक्ल
1.
पिता का जीवन महाकाव्य सरीख़ा है. भगवान ने उन्हें लम्बी आयु दी और अंतिम दिन तक वह लेखन में सक्रिय थे. उनकी स्मृति अद्भुत थी. यदि हम उनके पहले की दुनिया को भी, उन तत्वों को भी जानते हुए चलें जिनमें से वे उभरे तो क़रीब सौ-सवा सौ बरस का इतिहास सामने खड़ा हो जाता है. काशी की संस्कृति का, काशी के वैभव का, उदात्तता का और साथ-साथ साहित्यिक अभियान का इतिहास – जिसके प्रणेता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र थे. किसी हद तक हम राज शिवप्रसाद ‘सितारेहिन्द’ को भी ले सकते हैं, लेकिन भारतेन्दु के व्यक्तित्व के सामने कोई नहीं टिकता. इस अवसर का उपयोग यह जानने में हो सकता है कि काशी भारतेन्दु युग में, उसके पहले के युगों में क्या थी और किस प्रकार के सांस्कृतिक स्पन्दन हो रहे थे. उसकी कुछ झलकियाँ अब तक दिखाई-सुनाई देती रही हैं.
2.
काशी के इस नवजागरण में कुछ समाजों ने बहुत योगदान किये जिनको हम नहीं भूल सकते और निश्चित रूप से उनके भी श्रेष्ठ पुरुष भारतेन्दु थे. लेकिन पहले भी यहाँ कई अद्भुत लोग आये. उनमें से एक हमारे पूर्वज राजा पटनीमल थे. काशी समुद्र था और तमाम धाराएँ उसमें आकर मिलती जाती थीं. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपनी इतिहास वाली पुस्तक की भूमिका में, करीब पाँच सौ शब्दों में उनका बहुत सुन्दर चित्रण किया है. जो उनकी (राजा पटनीमल की) सामग्री बच रही थी – उनमें से कुछ हमारे पास अब भी है, कुछ कला भवन में गयी. कुछ नष्ट हो गयी, कुछ चोरी हो गयी. नमूने के तौर पर कहता हूँ कि बहुत उदात्त व्यक्ति थे. अंग्रेज़ी नहीं पढ़े-लिखे थे. यह बात क़रीब-क़रीब 1800 ई. की है, जब वह काशी आये होंगे. उनके पास अच्छे मुंशी थे – अंग्रेजी जानने वाले. गवर्नर जनरल के साथ हुए उनके पत्र-व्यवहारों की प्रतिलिपियाँ हमारे पास आज भी हैं. लेकिन भारतेन्दु से मालूम पड़ता है कि वह (राज पाटनीमल) संस्कृत और फ़ारसी दोनों के अच्छे-सुयोग्य संपादक थे. भारतेन्दु लिखते हैं कि उन्होंने काशी खण्ड का फ़ारसी में अनुवाद भी किया था. उनके द्वारा छोड़ी गई सामिग्रयों में – जो भारत कला भवन में हैं – एक से एक अद्भुत चीज़ें हैं. मैं उनका उल्लेख इसलिए कर रहा हूँ कि वही संग्रह-प्रवृत्ति पिता जी में आई. उस संग्रह में (राजा पटनीमल के संग्रह में) एक जहांगीर का प्याला था, जो कला भवन में है, उसके बारे में ख्याति है कि अगर उसमें विष रखा तो वह टूट जाएगा. वह प्याला जहाँगीर के व्यगिक्तगत उपयोग में था … . शेख फूल का चित्र है जिस पर जहाँगीर ने अपने हाथ से लिखा है. वह अपने आप में एक बहुत ज़रूरी दस्तावेज़ हैं. शेख फूल सूफ़ी थे आगरे के. … एक-एक वस्तु की व्याख्या हो सकती है. कुमारस्वामी जैसे कला-आलोचक ने इनको अपनी पुस्तकों में सचित्र छापा है. लेकिन ऐसा दुर्विपाक हुआ कि उनके पौत्र (और हमारे प्रतिमाह) ने इन सब चीज़ों पर ध्यान नहीं दिया. भारतेन्दु ने लिखा है कि मैं आज कई वर्षों बाद राजा पटनीमल के संग्रहालय के अवलोकनार्थ गया अब ये दशमांश भी नहीं बचा है, कीड़े खा गये हैं. सिकन्दरिया के सुप्रसिद्ध पुस्तकालय को जलते नहीं देखा लेकिन आज कह सकता हूँ कि मैं देख रहा हूँ’ और उस समय उसके बचे हुए अंश की क़ीमत उन्होंने पौने तीन लाख लगाई थी. कितनी अद्भुत चीज़ें रहीं होंगी. हमारे पिताजी बताते थे कि उन वस्तुओं को गंगालाभ करा दिया गया. ये सब इसलिए बता रहा हूँ कि ये प्रवृत्तियाँ हमारे पिता जी में रक्तगत आईं।
3.
काशी का एक सम्भ्रान्त समाज था, जिसे रईस वर्ग कहते थे – इसके भीतर बड़ा ही तंग वातावरण था, उसके अन्दर कोई नया व्यक्ति घुस नहीं पाता था. लोग कहते थे कि सात पीढ़ी में रईसी आती है, सात पीढ़ी में जाती है, उसमें एकाएक कोई धनाढ्य शामिल हो जाए, यह सम्भव नहीं था. ऐसे सिर्फ दस-पन्द्रह घर थे – कुछ खत्रियों के, कुछ कुसवालों के, कुछ बंगालियों के और कई घर अगरवालों के. उसमें से एक हमारा भी परिवार माना जाता था. बनारस के रईसों में विद्याप्रेम बहुत था. वे रईस स्वयं अत्यन्त बहुपठित थे, जिसके अंतिम श्रेष्ठ उदाहरण श्रद्धेय डॉ. भगवानदासजी थे. उस समय तरह-तरह के शास्त्रों के ज्ञाता, विद्याओं के विशेषज्ञ, वैद्यक, हिकमतों के जानकार, ज्योतिश के विद्वान और संगीताचार्य रईसों में होते थे. एक से बढ़कर एक. यह उस प्रकार की रईसी नहीं थी जिसे आमतौर पर चित्रित किया जाता है. यह केवल विलासिता नहीं थी. स्वयं भारतेन्दु अद्भुत शक्तियों में सम्पूर्ण थे. एक बार उन्होंने एक नर्तकी से कहा कि इसको जैसे तुम नाच रही हो, वैसे नहीं – बदलकर नाचो, तो उसने कहा कि हुज़ूर कहना बहुत आसान है, करना बहुत कठिन. भारतेन्दु ने कभी नृत्य नहीं किया था, लेकिन बोले, लाओ, पाजेब हमको बाँधो और नाच के दिखला दिया. ऐसे-ऐसे प्रतिभापूर्ण व्यक्ति थे उस समाज में, जिसमें राधाकृष्णदास उत्पन्न हुए और अगर सूची बनाई जाए तो एक दर्जन ऐसे नाम लिये जा सकते हैं जिनका जोड़ भारतवर्ष में नहीं है. शिवप्रसाद गुप्त जैसे दानी, देवकीनंदन खत्री जैसे लेखक, स्वतन्त्रता संग्राम में कूदने वाले लोग – ऐसे ही हर विधा में. हमारे कुल में एक ऐसे सज्जन थे जो संयोग से अर्थहीन हो गए थे. उन्हें हकीमी के बड़े-बड़े नुस्ख़े मालूम थे और उन्होंने एक पैसा कभी किसी से नहीं लिया. मुफ़्त में दवा बांटते थे और अन्त में, जब उसकी भी स्थिति नहीं रही तो केवल दवा का खर्च लेते थे और असाध्य रोगों को ठीक कर देते थे. लेकिन वह विद्या उन्हीं के साथ चली गयी. काशी की रईसी के ऐसे अनेक-अनेक उदाहरण आपको मैं दे सकता हूँ. वह वातावरण था जिसमें पिता पैदा हुए. दान की परंपराएँ थीं. बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि प्रसिद्ध बेनियाबाग़ हमारे ही कुल द्वारा दान में दिया गया था. कर्मनाशा पर पुल बनवाया गया, हरिद्वार में पहली धर्मशाला और घाट बनवाया गया. ऐसे काशी के लोगों ने बहुत बड़े-बड़े काम किये हैं – हम काशी के आजकल के नागरिकों को पता ही नहीं है जबकि दिग्-दिगन्त में उनकी कीर्ति है.
4.
इस समूची सक्रियता का प्राण था एक छोटा-सा, स्पंदन करता हुआ मुहल्ला-चौखम्भा. इसका फैलाव ठठेरी बाज़ार, रानी कुआँ, रामघाट और पंचगंगा का घाट तक था. यहीं प्राणशक्ति थी. उस छोटे-से दायरे में रोज़ लोगों का मिलना-जुलना, आदान-प्रदान…, पुष्टिमार्गीय मुकुन्दलाल और गोपाललालजी का मंदिर – जिसका पूरे समाज पर इतना बड़ा अधिकार था कि मंदिर की कटौती कटती थी, मुसलमान भाई तक देते थे. मंदिर के कारण बाज़ार एकादशी को बन्द होता था. बड़े-बड़े विद्वान और कलाप्रेमी इन मंदिरों के प्रतिपालक होते थे. कहीं विश्वनाथजी के महंत, कहीं संकटमोचन मंदिर के महंत, शीतलाजी के महंत. वह काशी का एक अद्भुत संगमित वातावरण था. इसी बिंदु पर उसमें अंग्रेजी शिक्षा का प्रवेश होता है.
5.
स्वयं भारतेन्दु ने शिक्षा के लिए बहुत कुछ किया, विशेष रूप से स्त्री शिक्षा के लिए. डॉ. भगवानदास जी कहते थे (यद्यपि भारतेन्दु का लोहा मानते थे) कि हम लोग छोटे-छोटे थे, उस (भारतेन्दु की) ओर से निकलते थे तो हमारे पिता कहते थे, ये बड़े खराब आदमी हैं, इनके पास मत जाना. … तो दोनों पक्ष थे – एक ओर तो इतना कृतित्वपूर्ण जीवन और दूसरी तरफ सामाजिक दृष्टि से इतना निकृष्ट. बहरहाल, जो कुछ इस समाज ने किया वह कितना उत्कृष्ट है.
6.
ज़मींदारी के कारण धीरे-धीरे निष्क्रियता और उससे जुड़े प्रपंच, जैसे मुक़द्दमेंबाज़ी – जो एक बहुत बड़ा व्यसन था – जीवन में शामिल होते गए. मुक़द्दमें प्रीवी काउंसिल तक जाते थे, लोग हारते थे-जीतते थे, लेकिन यह एक आश्चर्य है कि आपस में कटुता नहीं होती थी. वहाँ (कचहरी में) चाहे जितना विवाद हो जाए, सामाजिक स्तर पर कोई अप्रेम नहीं होता था.
इन सब स्थितियों में हलचल पैदा हुई जब श्रीमती एनी बेसेंट बनारस आयीं.
सही तारीख तो अब याद नहीं, लेकिन यह क़रीब 1885 की बात है. उनके पहले भी एक-दो लोग आये थे. इन लोगों के मन में पक्का विश्वास था कि हिमालय के किसी गुप्त स्थल पर एक नीली ज्योति जलती है, वहीं ज्ञान का स्रोत है और वहाँ तक पहुँचने के लिए काशी में आना-स्थिर होना अनिवार्य है. आपको यह जानकर हैरत होगी कि ऐनी बेसेन्ट की मान्यताएँ हिन्दू धर्म और शास्त्रों के प्रति मालवीयजी से भी ज़्यादा थीं . कोई भी प्रश्न आने पर वह तुरन्त पंडितों से पूछती थीं – ‘शास्त्रों मे इस बारे में क्या लिखा है?’ वह निर्णय शास्त्रों के अनुसार ही करती थीं. यों, काशी और किसी भी समाज को नापने का कोई एक पैमाना नहीं बनाया जा सकता – यानी अगर काले से सफ़ेद तक आपको आना है तो कितने प्रकार के भूरे रंग बीच में आयेंगे. उन सभी शेड्स को स्वीकार करना होगा.
7.
अब आपको उसके पहले की घटना बतायें, जिस समय दयानन्द सरस्वती यहाँ आये, शास्त्रार्थ के लिए. बड़ा भारी विरोध था पंडितों का, उनको आने भी नहीं दे रहे थे. तब डा. भगवानदास के पिता ने कहा कि हम उनकी (दयानन्द की) मान्यताओं से बिल्कुल नहीं सहमत हैं लेकिन हम उनका स्वागत करेंगे. विद्वान हैं वह, और उस दौर में, वैसे समाज में, उन्हें अपने घर पर टिकाया. उनका स्वागत करने रेलवे स्टेशन भी गये थे. यह आज कुछ साधारण बात लग रही है, उस समय हिम्मत की बात थी, बहुत ज़्यादा हिम्मत की.
8.
प्रभाव समरस नहीं हुआ करते. वे छन-छनकर जाते हैं और निहित हो जाते हैं. ऐनी बेसेंट के बड़े-बड़े विरोधी थे यहाँ – पण्डित मंडली में. यहाँ भी, प्रयाग में भी. लेकिन जो शिक्षित और प्रबुद्ध वर्ग था, उसमें से कुछ लोग उनके साथ भी हुए, जैसे उनके सबसे बड़े सहयोगी तो डा. भगवानदास के ताऊ थे – गोविंद दास. फिर कुछ बांग्लाभाषी सज्जन थे. अब सवाल यह उठता है कि श्रीमती बेसेंट ने कालेजों के नाम में ‘हिन्द’ शब्द क्यों रखा (सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज; सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल) इस पर अलग से एक वक्तव्य की जरूरत है. बहुत व्यापक अर्थ में इस शब्द का प्रयोग यहाँ हुआ है. भारतीय अस्मिता की समष्टि को व्यक्त करने के लिए यह शब्द आता है. इसे किसी संकीर्ण जातीय भावना के तहत वहाँ नहीं लाया गया था.
जैसे उसे अब लाया जाता है.
उस दौर में श्रीमती एनी बेसेंट बहुत दुविधा में थीं. एक ओर वे हिन्दू शब्द को उसकी जातीयता से छुटकारा दिलाना चाहती थीं और दूसरी तरफ़ वे परम्परा के सवालों पर बिल्कुल हिन्दू शास्त्रों पर निर्भर थीं. यह अजीब संश्लेशण और दुविधा है. इसे समझना बहुत कठिन है, लेकिन वास्तविकता है. अक़बर के समय में यों ही अब्दुल फज़ल ने अपने धर्मग्रन्थों के लिये कहा था कि ये अवास्तविक हैं और हिन्दूशास्त्र वास्तविक हैं और इतनी ज़्यादा उनकी पैठ थी कि मान लीजिए वह उज्जैन पहुँचे तो वह यहाँ तक बताते थे कि यहाँ विक्रमादित्य हुए थे और आज से (तब से) इतने वर्ष, इतने महीने, इतने दिन, इतने घंटे पहले सिंहासनस्थ हुये थे. ऐसे कम से कम पचास दृष्टांत आइने अक़बरी में है. तृतीय भाग में – अब शायद छप गया है – पहले दुष्प्राप्य था. प्रमाण सभी एक से बढ़कर एक हैं. यह मौखिक-पौराणिक परम्परा थी. उन्होंने स्वीकार किया. उज्जैन के बारे में लिखा है कि बड़ा अफसोस है कि दस दिन बाद पहुँचा, लोग बताते हैं कि जब शिप्रा नदी में बाढ़ आई थी तो वह दूध की नदी हो गयी थी. लोग दूध भर-भर कर अपने घरों में लाए. मैनें उसको नदी में तो नहीं देखा लेकिन घरों और बाल्टियों में ज़रूर देखा है. इसलिए मुझे इतिहासकारों से थोड़ी शिकायत भी है कि वे व्यापक दृष्टि नहीं अपना पाते.
9.
एनी बसेन्ट के आगमन और हिन्दू कॉलेज की स्थापना की इस घटना को इतिहास में ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है. इसी तरह संस्कृत पाठशाला. यह पाठशाला संस्कृत विद्या के प्रचार-प्रसार के लिए खोली गई लेकिन इसके पीछे अंग्रेजों का असली उद्देश्य पूरे भारतवर्ष को ईसाई बनाना था. इसके प्रमाण हैं. ऑक्सफोर्ड में इस मुद्दे पर एक सज्जन ने बड़ा शोध किया है. उसमें तब के दौर में भारत आये अंग्रेजों की अच्छी-खासी मीमांसा की गई है. मौनियर-विलियम्स डिक्शनरी देखिए – कितना बड़ा काम है – अब वैसा परिश्रम असंभव है. लेकिन उसकी भूमिका में यह लिखा है कि यह काम ईसाई बनाने के लिए किया जा रहा है. इस शक्ति के सामने एक प्रतिशक्ति खड़ी कर देना – हिन्दू मान्यताओं को लेकर – यह एनी बेसेंट के ही बस का काम था. सच पूछिये तो मालवीयजी ने उसी बिन्दु को आगे बढ़ाया. उस समय सभी लोग हिन्दू स्कूल भेजे जाते थे, पढ़ने के लिए, हमारे पिताजी भी गये. अभिजात वर्ग के बच्चे दो ही स्कूलों में जाते थे – क्वींस कॉलेज और हिन्दू स्कूल. इन सबका प्रभाव अन्त:मन में पड़ रहा था. एक जिज्ञासा मन में उतर रही थी कि ये सब चीज़े क्या हैं? इन्हें जानना चाहिए. इनके विषय में जागरूकता … . अंग्रेजी के माध्यम से एक बड़े विश्व के सम्पर्क में आना, यह हो रहा था. एनी बेसेन्ट के कुछ चेले बात-बात में कहते थे कि ऐसा तो विदेश में होता है. विदेश में ही ऐसी सादगी संभव है.
10.
ज़रा सोचने की बात है कि कैसी मिश्रित संस्कृति का ताना बाना वहाँ तैयार हो रहा था. बाद की बात है कि हमारी बिरादरी के एक लक्ष्मीचन्द अर्थमेटिक के बहुत अच्छे ज्ञाता थे. 1908 के आस-पास वह बाहर जाकर और ज़्यादा गणित का अध्ययन करना चाहते थे. समस्या थी कि विदेश यात्रा में जाति-बहिष्कृत हो जायेंगे. कुछ जागरूक लोगों के विदेश चले जाने से उत्पन्न समस्या भी थी. ऐसे में गोविन्द दास – जिनका हमारे पिता जी पर बहुत असर पड़ा. वहीं केशव प्रसाद मिश्र की प्रतिभा के भी अविष्कर्ता थे. उन्होंने ही रामचन्द्र शुक्ल को हिन्दी विभाग में नौकरी दिलवायी. भेलपूर में, जहाँ अब गहनों की एक बड़ी-सी दुकान खुल गई है, वहीं उनका बगीचा था. बड़े सुन्दर स्तम्भ थे वहाँ, अब सिर्फ दो लहरियादार खम्भे बचे हैं. बहुत सुन्दर फाटक था वहाँ, गल गया सब. मैं उन पर अलग से लिखना चाहता हूँ. उनके यहाँ पंडितों की मंडली बैठती थी. केशवजी भी वहाँ बैठते थे. सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल में हिन्दी और संस्कृत के हेड पंडित. मालवीयजी पर बहुत ज़्यादा प्रभाव था उनका, यद्यपि वह खुद मालवीय जी के विरोधी थे. वह काशी पीठ वाले खेमे में थे. लेकिन उनकी बात कोई टाल नहीं सकता था. रामचन्द्र शुक्ल को हिन्दी विभाग में रखने की असली कहानी का एक प्रमाण हमारे पास है. हमारे पिताजी ने रखवाया उनको. यह बात यहाँ बाद में फैलायी गई कि मालवीय जी ने उनको बुलाया, ये किया, वो किया (यह सत्य नहीं है. वह पत्र संयोग से कला भवन में सुरक्षित है. शुक्ल जी लिखते हैं कि ‘हमको यहाँ लोग घुसने नहीं देंगे’ – ये उस समय की बात है जब शायद हिन्दी का पाठ्यक्रम भी नहीं बना था. एक भाषा का प्रश्नपत्र होता था- वीमेन्स कॉलेज में और फेकल्टी में भी. उस विभाग में हरिऔधजी थे और भगवानदीन जी. … तो, शुक्ला जी ने कहा कि आप ज़रूर बाबू गोविन्द दास से कहिये. यही हुआ और शुक्लजी नियुक्त हो गये.
11.
एक बाई एक किलोमीटर के चौखम्भा क्षेत्र में – जिसका शुरू में मैनें उल्लेख किया, शाम गोष्ठियाँ होती थीं. हमारी रामघाट वाली कुटिया पर बारह वर्ष तक भाँग छनी है और ये लोग आये हैं. उनमें प्रमुख थे बालकृष्ण भट्ट, जगन्मोहन वर्मा, रामचन्द्र वर्मा, रामचन्द्र शुक्ल. और भी लोग थे. प्रसाद जी का नाम इसलिए नहीं ले रहा हूँ कि वह घर के थे और निद्रा के अलावा लगातार साथ रहते थे. केदारनाथ पाठक – न जाने कितने नाम ऐसे हैं – सबका जमावड़ा वहाँ था. तो ये गोष्ठी वाली परंपरा थी; टूट गई. अमुक स्थान पर जाने पर चार आदमी मिल ही जायेंगे, यह आश्वासन ख़त्म हो गया. संवाद के स्थल गुम हो गये. बहुत नज़दीक होने से तब बहुत आसान था किसी के यहाँ चले आना-चले जाना.
12.
उस समाज की पहचान और प्रतिष्ठा के प्रसंग में ये बिन्दु एक साथ बहुत जटिल और आकर्षक हैं. भारतेन्दु को ही देखिये, कहाँ तो वह ‘चिर जीवो अमी की कटोरिया सी विक्टोरिया रानी’ और ड्यूक के आगमन पर जैसी प्रशस्ति उन्होंने लिखी जैसी कोई भक्त अपने भगवान के लिये भी नहीं लिखेगा और दूसरी ओर इतना विद्रोही स्वर. तो अब उसको कैसे व्याख्यायित किया जाय, हम नहीं समझ पाते. शाहे-वक़्त की तारीफ़ करना तो खै़र एक परंपरा-अर्जित गुण है. और वास्तविक स्वर विद्रोह का है. आपके चरण रज़ हमारी ज़मीन पर पड़े तो हम धन्य हो गये, और अगर उसकी धूलि अगर उड़कर हमारी आँखों में पड़ेगी तो हमारा जीवन अकारथ नहीं जायेगा. इस स्तर की अभिव्यक्तियाँ कीं उन्होंने. कोई आवश्यकता नहीं थी यह सब लिखने की, लेकिन उन्होंने लिखा.
13.
कैसे-कैसे परिवार बनते थे – बिगड़ते थे – नष्ट होते थे – तनातनी में. यहीं पर डा. भगवानदास के पूर्वजों ने कश्मीरीमल को नष्ट कर दिया. कश्मीरीमल बहुत बड़े सेठ होकर यहाँ आये थे. कश्मीरीमल की कोठी के रेखांकन प्रिंसेस की रचनावली में देखे जा सकते हैं. विश्वनाथ मंदिर के रास्ते में थी वह कोठी. नीलकंठ महादेव के पास. यह कोठी बिल्कुल अभी ही ढही है. कहा जाता है कि कश्मीरीमल खत्री थे. अच्छे कपड़े लत्ते – गहने पहनने वाले साहू. गोपालदास के पास पहुँचे. कितना रुपया और कितना व्यापार था इनके पास आप इसका अंदाजा नहीं कर सकते. आजकल के बड़े बैंकों जितना. सावजी मामूली चमरौधा पहने गाय को सानी दे रहे थे. भाँग पिये थे और कुछ ये लोग झक्कड़ साव कहलाते भी हैं. हँसी में कश्मीरीमल ने कहा कि साव जी, ज़रा अपना जूता तो देखिये. सावजी ने सिर झुकाये-झुकाये जवाब दिया: ‘मैं अपना जूता देख लूंगा, आप अपना खाता देखिये.’ बस हुण्डी इकट्ठी कर करके पटक दी, उसी में दिवाला निकल गया. ऐसे बहुत से लोग थे जिनका अब कोई नामलेवा भी नहीं रहा. उस समय और समाज में विद्याप्रेम था, आश्रय-वत्सलता थी, किसी की संगीत में रुचि थी, किसी की साहित्य में; धार्मिक रुचियाँ थीं. मंदिरों के महंथ अत्यन्त बहुपठित थे. एक गोस्वामी जी थे – षट् शास्त्री. षट् शास्त्री वैसे कई थे.
एक गोस्वामी थे दम्पित्त किशोर जी. सबकी हँसी उड़ाते थे. भारतेन्दु से उनकी चलती थी. कहा जाता है कि भारतेन्दु के फाटक के अन्दर के अन्दर वह कभी नहीं घुसे. सामने चबूतरे पर बैठे रहते थे. दोहे लिख-लिखकर ऊपर, भारतेन्दु के पास भेजते थे. भारतेन्दुजी तो बराबर खड़े रहते थे अपनी खिड़की पर. बड़ी खिड़की – जो अब नष्ट हो गई है. वहीं खड़े होकर भारतेन्दु तमाशा देखा करते थे और गोस्वामी जी के दोहों के जवाबी दोहे लिखकर भेजा करते थे. गोस्वामी जी ऊपर कभी नहीं आये.
14.
खत्रियों का हिन्दी साहित्य की प्रगति में बहुत योगदान है. रामकृष्ण वर्मा थे. देवकी नंदन खत्री थे. रामचन्द्र वर्मा थे. श्याम सुन्दर दास जी थे. एक सज्जन वाही जी थे. उनकी दुकान थी चौक में, दीपक सिनेमा के करीब-करीब सामने, ‘वाही रेडियो’ नाम था दुकान का. छोटी सी दुकान थी. ऊपर छत पर कुछ गमले वगै़रह रखे रहते थे. कहा जाता है कि सभा की स्थापना का ख़याल सबसे पहले उन्हीं के मन में एक छोटी-सी बात की तरह आया. उन्होंने इसके बाद अपने प्रिय लोगों से कहा जिनमें श्यामसुन्दर दास सबसे सीनियर थे. ये लोग कुछ और विचार-विमर्श आपस में करने के बाद बाबू राधाकृष्णनदास के पास गये. बाबू राधाकृष्ण दास को लोग छोटे भारतेन्दु कहते थे. जितने भी सूत्र भारतेन्दु अधूरे छोड़ गये थे, उन सबका संचालन वह कर रहे थे. उन्होंने इस संस्था की रूपरेखा तैयार की. बड़े कर्मठ व्यक्ति थे. अल्पायु में गये. मेरा ख़याल है कि 38 बरस की उम्र में. ठेकेदारी करते थे. सभा की बिल्डिंग, कोतवाली की बिल्डिंग, चौक थाने की बिल्डिंग, हरिश्चन्द्र स्कूल की बिल्डिंग, संस्कृत विश्वविद्यालय की ऐतिहासिक ग्रन्थागार इमारत – ये सभी भवन उन्हीं के बनवाये हुए हैं. ये आँकड़े मेरी जानकारी में हैं; जो कुछ मुझे नहीं मालूम है वह भी अपार है. उनकी बड़ी धाक थी. अंग्रेज कलक्टर, कमिश्नर उनसे सलाह लेते थे. उनका वंश भी लगभग समाप्त हो गया. सिर्फ पौत्री बची हैं. प्रतिभा अग्रवाल. भारतेन्दु की एक बुआ की वंशधर प्रतिभा अग्रवाल हैं. दूसरी बुआ का वंशधर मैं.
15.
प्रेमचन्द घर से भोजन करके आते थे ‘सभा’ के पीछे वाली सड़क पर, क़रीब-क़रीब मृत्युंजय महादेव के पास, हमारे एक भवन में उनके प्रकाशनों का कार्यालय था. वह उसमें किरायेदार थे. कालान्तर में वह भवन कुछ कारणों से बिक गया. हमारे पिताजी और उनमें मुक़द्दमेंबाज़ी की वजह से प्रेमचन्द जी के एक कार्यकर्ता थे – उनके लिए सब कुछ वही थे. प्रवासी लाल वर्मा – कर्ताधर्ता थे वही और यह भी है कि सरस्वती प्रेस को उन्होंने ख़ूब चमकाया था. नये मानदण्ड प्रकाशन के क्षेत्र में उन्होंने बनाये. स्वयं भी लेखक थे. हमारे पास हर संस्मरण के साथ एक लतीफ़ा भी है. वर्माजी बड़े चतुर आदमी थे. यानी एक तरह से दुलारे लाल भार्गव की टक्कर के आदमी थे वह. तो प्रसाद को वर्माजी की जाति के संबंध में जिज्ञासा हुई. ‘वर्मा’ से कुछ पता नहीं लगता था. वह अपना नाम लिखते थे – प्रवासी लाल वर्मा ‘मालवीय’. मालवीय का ब्राह्मणत्व तो खै़र वर्मा शब्द की उपस्थिति से ख़ारिज हो जाता था. प्रसादजी ने मित्र-मण्डल में इस विशय के अनुसंधान का आह्वान किया. फि़र ख़ुद ही निष्कर्ष निकाला कि वर्माजी जात के सुनार हैं; सुनारों में ही ऐसी बुद्धि होती है जैसी वर्मा जी में है. प्रवासीजी एक तरह से मालिक थे. प्रेमचन्द बेचारे धीरे-धीरे बीमारी से ग्रस्त होते जा रहे थे. बाद में प्रेमचन्द के पुत्रों – विशेषकर श्रीपत राय ने – उनको धीरे-धीरे खिसकाया. … तो प्रवासीजी ने हमारा मकान तुड़वा डाला, बगै़र पिता जी की अनुमति के, उन्होंने नई-नई मशीनों के लिए जगह बनाने की ख़ातिर ऐसा किया. फिर ‘केस’ दाखिल हो गया. लेकिन पिता के साथ मैत्री अपनी जगह पर थी, केस अपनी जगह पर. कोई अन्तर नहीं आया. प्रतिदिन प्रेस में दोपहर खाने की छुट्टी होने पर वह (प्रेमचन्द) सभा में आ जाते थे. पिताजी वहीं थे. कला भवन भी वहीं था. वहीं बैठते थे. वहीं पिताजी को उन्होंने दिखलाया कि उनकी पासबुक में आठ हजार रुपये थे. तब के आठ हज़ार रुपये आज के बारह लाख रुपयों के बराबर थे. अपने लड़कों को उन्होंने मंसूरी भेजा था. यह सब बड़ा खर्चीला था. खाने-पीने की कभी कोई दिक़्क़त नहीं थी. घर से पूरा राशन आता था. जैसा प्रचार है वैसी हालत कभी नहीं थी. इतना बड़ा प्रेस था. पुस्तकों का स्टॉक था. प्रेमचन्द के प्रसंग में भुखमरी और ग़रीबी का जिक्र एक लोकापवाद है. वह तो श्रीपत और अमृत राय जब कम्युनिस्टों की संगत में आये तब इसे बहुत उछाला गया. यही सब लालबहादुर शास्त्री के साथ हुआ. एक झूठी ग़रीबी का महिमामण्डल. कोई भला गंगा उस पार से इस पार तैरकर पढ़ने आयेगा. मैं घाट किनारे रहा हूँ. मल्लाह और नाविक इतने उदार होते हैं कि ऐसे छात्रों को खुद ही मुफ़्त में नाव पर बिठाकर गंगा पार करा देते हैं. यह बात सम्पूर्णानन्दजी ने भी कही है कि शास्त्री जी इतने ग़रीब नहीं थे.
16.
भारतेन्दु ने अपने अधूरे नाटक प्रेमयोगिनी में ‘चौखम्भा’ (मुहल्ले की) संस्कृति और अपने समाज का बहुत सुन्दर चित्रण किया है. खेद है कि वह कृति अधूरी रह गई. एक और इसी विषयवस्तु पर एकाग्र चीज़ अधूरी रह गई. बड़ा विचित्र समाज था वह. काशी आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध हो चली थी. बड़े-बड़े घाट और विशालकाय मंदिरों का निर्माण हुआ. यह क़रीब 1825 तक चलता रहा था. बड़े-बड़े संस्थान खोले जा रहे थे. बड़े-बड़े दान हो रहे थे. व्यापार बहुत बड़ा हो गया था, ख़ासकर महाजनी (बैंकिंग) का व्यापार. उसकी कल्पना कठिन है. जैसे, एक बार डा. भगवानदास के पूर्वजों ने – ज़िन्हें शाह परिवार के नाम से जाना-माना जाता है – ईस्ट इंडिया कम्पनी को 55 लाख रुपये दिये थे. आज का हिसाब लगाने के लिए इस राशि को पाँच सौ गुना करना होगा. और जगहों पर भी ऐसी समृद्धि सम्भव है रही हो, लेकिन परिष्कार, उत्कृष्टता, अभिरुचिपरकता और विद्याप्रेम के साथ जैसा सामंजस्य यहाँ घटित हुआ उसकी तुलना में शायद बंगाल के इक्का-दुक्का शहर ठहरें. उत्तर भारत में तो ऐसी कोई सभ्यता नहीं थी. यह कहा जा सकता है कि उत्तर मुगल काल में लखनऊ मुस्लिमपरक भारतीय संस्कृति का केन्द्र था और काशी हिन्दूपरक भारतीय संस्कृति का प्रतीक!
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ये उन्होंने अपने प्रेमयोगिनी नाटक में रामचन्द्र नामक पात्र के ज़रिये दिखलाया है. रामचन्द्र स्वयं हरिश्चन्द्र हैं. पता नहीं उसमें क्या-क्या और जोड़ते वह? लेकिन जो ठेठ अभिजात समाज के भीतर कई जगहों पर वह विद्रोही थे. घोर विद्रोही. इसका एक उदाहरण यह है कि यौन संबंधों की उपेक्षा की जाती थी. हरेक पैसे वाले का अवैद्य संबंध किसी महिला या अनेक महिलाओं से होता था. लेकिन हरिश्चन्द्र ने फ़र्क पैदा किया. उन्होंने जिसका हाथ पकड़ा, जीवन-भर निर्वाह किया. इसके लिये वह कोपभाजन भी बने. अगर वह उस स्त्री को सीठी की तरह फेंक देते तो कोई आफत नहीं थी. उनके वंश के प्रोफेसर गिरीशचन्द्र ने उन पर पर्याप्त काम किया है. उन्होंने वह सब बातें उठाई जो उनके दस वर्ष बाद नेशनल कांग्रेस को उठानी थीं. इसलिए उन्हें कांग्रेस पार्टी के पूर्वघोष की तरह पढ़ा जा सकता है. विधवा-विवाह के लिए उन्होंने पुकारा. इसमें उनके आदर्श ईश्वरचन्द्र विद्यासागर थे. यह आवाज़ समाज में स्वीकृत नहीं हुई. लेकिन, सन् 1875 के आसपास विधवा-विवाह के पक्ष में खड़े होना कोई साधारण बात नहीं थीं. सर्वोपरि उन्होंने एक तदीय समाज की स्थापना की. इस समाज में जाति-धर्म का कोई भेद नहीं था. कम से कम काग़ज़ पर. केवल उसकी एक शर्त थी कि आपको कृष्ण-भक्त होना चाहिए. वह कृष्णभक्त सम्प्रदाय के अन्तर्गत एक नया समाज था जिसमें प्रत्येक वर्ण, जाति, धर्म के लोग सम्मिलित होंगे. तदीय समाज का अर्थ है उनका समाज, यानी ईश्वर का समाज. उसके काग़ज़ अब भी हैं गिरीश के पास. उसका सारा फार्मेट धार्मिक संस्था का नहीं क्लब का था. नियम थे. वह कहाँ चलता? लेकिन एक आन्दोलन तो वह था. भारतेन्दु अपने परिवार या बाहर इसीलिए मिसफिट हुए कि वह अपनी इस सक्रियताओं की आर्थिक दृष्टि से कोई सीमा नहीं बना सके. वह निर्बाध थे. अगर ऐसे न होते तो इतनी आपित्तयाँ भी न होतीं. एक सीमा के बाद वह आग्रह्य हो गये. अल्पायु में ही गत हो गये.
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इन सब चीज़ों का असर अपने ढंग से वक़्त पर पड़ रहा था. लेकिन ‘इंटवेक्चुअल लेविल’ पर आधुनिकता का पहला असर शायद बंगाल से ही आया. एक और बहुत विलक्षण आदमी थे यहाँ. उनका नाम था जयनारायण घोषाल. वह बंगाल के थे, लेकिन काशी के बहुत निकट थे. उन्हीं ने जयनारायण स्कूल की स्थापना की. ये क़रीब भारतेन्दु से दो पीढ़ी पहले की बात है. उन्होंने बनारस से एक पत्र भी निकाला था. शायद उसका कुछ अंश हिन्दी में था. रामकृष्ण मिशन के दसानन्द जी ने बनारस पर बंगाल के असर को लेकर काफ़ी अच्छा काम किया है. काशी के नवजागरण में बंगाल का बहुत अंशदान है. गुरुधाम मंदिर उसी युग की देन है. इस मंदिर में एकेश्वरवाद और तन्त्र और न जाने क्या-क्या मिला हुआ है. अब तो बहुत नष्ट हो गया लेकिन पर्याप्त बाक़ी है. वह तिमंजिला मंदिर है. पहले में गुरु, दूसरे में भगवान, तीसरे में शिव.
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ऐसे बहुत से आन्दोलन हो रहे थे जिनका ठीक-ठाक पता होना नामुमकिन है. ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का प्रभाव भारतेन्दु पर था ही. भारतेन्दु बराबर उनसे पत्र- व्यवहार में मार्गदर्शन लेते थे. इतिहास को देखने की नई दृष्टि बन रही थी. उसमें भारतेन्दु ने भी किया. इस मोर्चे पर उनके गुरु कविराज श्यामलाल थे जो उदयपुर राज्य के विद्वान थे. हलचलें बहुत मच रही थीं . इसका समवेत प्रभाव उस युग में प्रकट होता है जब एनी बसेंट यहाँ आकर नई शिक्षा प्रणाली का आह्वान करती हैं. अंग्रेज़ियत की ओर उन्मुख शिक्षा प्रणाली का मुँह उन्होंने आत्मगौरव, देशोत्थान और उन्मुक्त चिन्तन की ओर मोड़ दिया. सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज और सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल उसी अभियान की परिणति हैं.
इस उल्लेख का विशेष महत्त्व है क्योंकि रायकृष्णदास की आरंभिक शिक्षा यहीं हुई. अब रायकृष्णदास की प्रारंभिक शिक्षा का हाल सुनिये.
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एक तो बात यह थी कि हमारे बाबा राय प्रह्लाददास जी एक बहुत बड़े मुक़द्दमें में फंस गये थे. मिल्कियत के मुक़द्दमें में. सरासर बेईमानी से हम हार भी गये. लेकिन इस मुक़द्दमें के चलते राय प्रह्लाददास की घनिष्ठता पंडित मोतीलाल नेहरू से हो गयी. बहुत घनिष्ठता. यह चर्चा इसलिए कि उनके व्यक्तित्त्व का भी बहुत प्रभाव रायकृष्णदास पर पड़ा. मालवीयजी भी उस समय वक़ील थे. पिता के ननिहाल से उनका अत्यन्त घनिष्ठ, रोज़ का संबंध था. ये सभी व्यक्तित्व उन्हें प्रकारान्तर से प्रभावित कर रहे थे. मुक़द्दमें के कारण इलाहाबाद में बहुत रहना था. वहीं बाबा को देहान्त भी हुआ. और भी बहुत से लोग थे. उनमें से मैं दो नाम लेना चाहता हूँ. पहले थे रामानन्द चटर्जी – एक बंगाली सज्जन – जो कायस्थ पाठशाला के हैडमास्टर थे – वह बहुत प्रबल व्यक्ति थे – रवीनद्रनाथ की टक्कर का व्यक्तित्व. वह एक शक्ति थे. इलाहाबाद का एक छोटा-सा अभिजात समाज था. उसमें परस्पर संबंध थे. इसका लाभ पिता को मिला. रामानन्द चटर्जी ने इलाहाबाद में ‘प्रदीप’ नामक एक साहित्यिक पत्र निकाला था. उसके प्रेरणास्रोत थे उन्हीं की पाठशाला के बालकृष्ण भट्ट. उन्होंने ‘हिन्दी प्रदीप’ निकाला था. ‘हिन्दी प्रदीप’ में जो बालकृष्ण भट्ट ने लिखा है., उस ओज का लेखन दुबारा कभी हुआ ही नहीं. वह पत्रकारिता में मालवीयजी महाराज के भी गुरु थे. रामानन्द बाबू के ही द्वारा पिताजी का परिचय अवनीनद्रनाथ टैगोर से हुआ. वह अलग गाथा है. जब बार-बार पितामह दो-दो, चार-चार, छह-छह महीने के लिए इलाहबाद चले जाते थे तो यहाँ पिताजी की पढ़ाई का क्रम टूट जाता था. इलाहाबाद में कौन पढ़ाता था, यह तो नहीं पता, लेकिन गुणीजनों के सानिध्य से उनके चरित्र का अद्भुत विकास हुआ. जबकि ख़ुद आठ से दस साल के रहे होंगे. यहाँ की पढ़ाई बार-बार छूट जाती थी. उसी बीच एक विलक्षण घटना हुई. हमारे परिवार की एक शाखा पटना में रहती है. असल में हम लोग हरियाणा से पटना आये और मुग़ल दरबार में पाँच हज़ारी मनसबदार हुये. उसका ख़लीता कला भवन में है. बड़े भाई बनारस चले आये और छोटे भाई का परिवार वहीं चला आ रहा है. बड़ा एका था तब. वहाँ के बाबा जी यहाँ आया करते थे. यहीं टिकते थे. उन्होंने कहा कि ‘बच्चा (रायकृष्णदास) बड़ा कमज़ोर है, इसकी पढ़ाई बन्द कर दो, इससे और क्षीण होता है.’ यह हमारे बाबा के देहान्त के बाद की बात है. हमारी दीदी ने बन्द कर दिया. शायद छह या सात में थे. इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के नतीजे निकले. पढ़ाई बन्द होने के बाद स्वयं इन्होंने जो उपार्जित किया वह बहुत ज्यादा था.
इन्हीं कठिनायों से सब आगे-पीछे. कभी इलाहबाद. कभी बनारस.
is baatcheet men aaye kuch namon se main parichit tha, kuch-kuch unke kiye se bhi…aacharya shukl ke nibandh ”premghan ki chhaya-smriti” ki bhi yad mujhe turant aa rahi hai…par yahan jis shraddha se rai aanand krishn ji ne apne poorvajon ka smaran kiya hai, jitne vinay aur sankoch se tathyon ko rakha hai, unke krititva ko aalokit kiya hai wah mere mn men us yug aur parivesh kii apprwa kalpana jagata hai…bhartendu,prasad,premchand ya raikrishndas hi kashi men yon nahin ug aaye…bahut gahri jaden hain…jadon kii traf ab dekhne ko log pata nahin kin-kin namon se pukarte hain…kaion ko to dhool-mitti me lithad jane ka bhay lagta hai aur kai bandhu apne positions ki wajah se udhar jana nahin chahte…par is khule men aawas kaun nahin chahega…kitni peeda se kahi hogi yah pankti rai aanand krishn ji ne vyomesh…”तो ये गोष्ठी वाली परंपरा थी; टूट गई. अमुक स्थान पर जाने पर चार आदमी मिल ही जायेंगे, यह आश्वासन ख़त्म हो गया. संवाद के स्थल गुम हो गये. ..”…aapne bahut achha kam kiya…is baatcheet ko aur aage badhaiye…aur meri maniye to khoob bahakiye…jaise raikrishndas se chale the aur kahan-kahan ho aaye…to isi trah bahkiye khoob…aapki aap dono vartakaron ki bahak se samvad men samriddhi hi aayegi…haan itna khyal rakhiyega ki punah jahaj par hi lautna hai, so raikrishndas ka yug to prakashit hua hai…aage unke vyaktitva par bhi roshni pade…utsukta hai aur aakanksha bhi ki aap yah maang poori karenge…
samvad adbhut hai .
dhanyawad.
एक पूरा इतिहास खुलता है जैसे…प्रेमचंद और शास्त्री जी के बारे में जो है, वह सच के अधिक करीब लगता है. हिन्दी में गरीबी के महिमामंडन की यह मूर्खतापूर्ण कोशिश आज भी ज़ारी है…