आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

अनोखी सती कथाएँ और एक ‘अवध्य’ पुस्तक: गिरिराज किराड़ू

एक किताब पर लिखने के बारे में लिखने की कोशिशें

झूमा सती

मिथराऊ नाम का एक गाँव था. आजकल पाकिस्तान में है. वहाँ के निवासी बलूची लोगों के हमलों से इतना डर गये कि उन्होंने सोचा यदि हमारे गाँव के लिये कोई सती हो जाये तो शायद उसी के तेज से बलूच डर जायें. पर पूरे गाँव के लिए सती बने कौन? पास के गाँव हाड़वा की कई स्त्रियाँ सती हुईं थीं. मिथराऊ के लोगों ने सोचा वहाँ की माटी अपने यहाँ ला के बिखेर दें तो शायद उस पर चल कर किसी में सती हो सकने की शक्ति क्या पता आ ही जाय. यह बात फैलने पर गाँव की एक स्त्री झूमा ने कहा मैं हाड़वे की हूँ और बहुत चली हूँ उस माटी पर, मैं होऊंगी सती.

जब सती होने की तैयारियाँ हो रही थीं तब उसके सबसे बड़े लड़के को संदेह हुआ कि झूमा मिथराऊ से ज्यादा हाड़वा के हालात से अधिक परेशान है और उसने सती होने का फैसला किसी भावात्मक दबाव में लिया है; उसे लगा कि उसकी माँ डर कर चिता से भाग जायेगी इसलिये उसने चिता के चारों ओर बाड़बंदी कर दी. झूमा को अपने बेटे पर इतना गुस्सा आया कि सती हो जाने से पहले उसने उसे शाप दे दिया कि उसके परिवार में हर पीढ़ी में सिर्फ एक बेटा होगा और वो बेटा 16 बरस का होते ही पागल हो जायेगा.

मैं

रुस्तम भरूचा की पुस्तक राजस्थानः एन ओरल हिस्ट्री (पेंग्विन 2003) को पढ़ने में मैंने तीन महीने लगाये (2006 में) पर इस पुस्तक पर लिखने की लम्बे समय से बनी हुई (लगभग अमूर्त) ख़्वाहिश को लिखने के इरादे में बदलने में ही इतना समय लग गया. और तब भी यह किताब पर लिखना नहीं किताब पर लिखने के बारे में लिखना ही हो पायेगा.

पुस्तक का ‘फील्ड’ राजस्थान है जहाँ मेरा लगभग सारा जीवन अब तक गुजरा है लेकिन इस पुस्तक को पढ़ने की प्रक्रिया में यह मुझ पर बहुत साफ़ जाहिर हो गया कि मैं ‘राजस्थान’ के बारे में ‘कुछ नहीं’ जानता. यह पुस्तक न सिर्फ मुझे बार बार मेरे ‘मूल निवास’ में किसी अजनबी जैसा अनुभव करने की ओर धकेल रही थी बल्कि लगातार खुद एक ऐसे पाठ की तरह पेश आ रही थी जो अवध्य हो.

आकर्षण का एक और, शायद सबसे गहरा कारण, यह रहा है कि यह पुस्तक मौखिक और लिखित के, पूर्व-आधुनिक और आधुनिक के, वक्ता और श्रोता के एक दुसाध्य सहकार से निर्मित होती है और अथॉरिटी की इसकी उलझी हुई कड़ियों में से एक कड़ी कोमलदा हैं जिनके साथ कुछ समय बिताने का  मेरा मौका कभी नहीं बना.

गोमा सती

किसी  गाँव से गायें चुराकर कुछ डाकू जा रहे थे. रास्ते में उन्हे गोमा नाम की एक चारण औरत मिली. उसने डाकुओं से पूछा कि वे गायों को कहाँ लेकर जा रहे हैं? डाकुओं ने बेशर्मी से कहा चोरी करके लाये हैं. गोमा ने कहा इनको छोड़ दो वर्ना मैं अपनी जान ले लूंगी. डाकुओं पे इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ा. गोमा ने खुद की जान ले ली.

मैं

रुस्तम भरूचा की पुस्तक सुनने की प्रक्रिया में बनती है – कोमलदा, लगातार बोलते हैं, रूस्तम लगातार सुनते हैं; तीस घंटे कोमलदा बोलते हैं, तीस घंटे रूस्तम सुनते हैं.पर जब वो बोला हुआ ध्वन्यांकित होता है तो राजस्थान की धरती, खेती, जल, सिंचाई, पशुओं, ‘प्रथाओं’, लोक महाकाव्यों, संगीतकारों, संगीत उपकरणों के बारे में यह लम्बी वार्ता सामग्री, मौखिक से लिखित में परिवर्तित होते हुए ‘गिबरिश’ () हो जाती है. एक ऐसा लोकविद जो कभी भूलकर भी ‘लोकविदों के जार्गन्स’ में नहीं बोलता, ऐसा व्यक्ति जो निश्चयपूर्वक लिखित से दूर होता गया और जिसकी ख्याति, जिसकी विशेषता उसका बोलना हो– उसका बोला हुआ ‘गिबरिश’ हो गया है. जो पुस्तक अभिलेखन से जन्म लेनी थी, अब उसे (मजबूरन) लेखन होना होगा. रूस्तम ठीक ही इस पुस्तक की अथॉरिटी के जटिल तानेबाने को हमारे सामने रख देते हैं – कोमलदा का बोला हुआ जो रिकॉर्ड हो कर ‘गिबरिश’ हो गया, वह जिस रूप में मुद्रित है, उसके ‘लेखक’ जितने कोमलदा हैं उतने ही रूस्तम लेकिन जो कुछ कोमलदा बोलते हैं, क्या उसके ऑथर वे हैं? जैसा एक जगह रूस्तम विचार करते हैं कोमलदा ने हमेशा अपने को लोक के ‘इन्फार्मेंट’ की तरह प्रस्तावित किया, उसके विशेषज्ञ की तरह नहीं – वे स्वयं को जिस पर्यावरण/परम्परा में लोकेट करते हैं वहाँ अथॉरिटी सदैव सामूहिक ही हो सकती है! यूँ इस पुस्तक के शीर्षक – राजस्थान एन ओरल हिस्ट्री –का औचित्य मेरे सामने कुछ खुलता है.

बाला सती

बाला के पति की जब मृत्यु हुई तो उसने सती होना चाहा. यह आधुनिक जमाने की बात है. उसके घर, समुदाय वालों ने उसे सती होने से रोक लिया क्योंकि उनको कानूनी कार्रवाई का डर था. सबने कहा कि वो अपने जेठ के बेटे को गोद ले ले. कुछ अनमने ढंग से पर बाला ने उनकी बात मान ली. कुछ समय बाद उस लड़के की भी मौत हो गई. बाला ने कहा कि अब वह अपने गोद लिये बेटे के साथ सती हो कर रहेगी. इस बार भी लोगों ने समझाया पर वो जिद पर अड़ी रही. लोगों ने उसे एक कमरे में बंद कर दिया और उसे खिड़की से खाना-पानी दे देते थे. कुछ दिनों बाद वह अपने कमरे में मृत पायी गई. उसने कुछ भी खाया पिया नहीं था.

मैं

यूँ तो इस पुस्तक में बहुत कुछ ऐसा है जो मैं नहीं जानता था पर ‘सती’ ऐसा विषय है जिसके बारे में पढ़ना भी उतना ही ‘डिमांडिंग’ हो सकता है जितना इसके बारे में ‘सुनना’. यह ऐसा विषय है जिस पर किसी भी तरह का आधुनिक प्रवचन, विमर्श मानो सदैव पूर्वप्रदत्त है और वह आधुनिक विमर्श (स्त्रीवादी, मानवतावादी सब बहुरूपों में) अपने ‘सही’ होने को लेकर (जैसा कि आधुनिकता में लगातार होता है) कुछ इस कदर आत्मविश्वस्त है कि उसे समस्याग्रस्त करना, उसके एकवचन को भंग करना एक तरह का ‘अपराध’ है. कोमलदा के लोक के बारे में बोले गये सब कुछ में से जितना विचलित रुस्तम को उनकी सती वार्ता करती है उतना कुछ भी और नहीं.

पुस्तक

I cannot deny that this session didn’t quite ‘work’ for me…..For the first time in listening to Komalda I see a schism between the ‘folk’ and the ‘contemporary’ through his inability to link these stories around sati   with the actual practice of ‘widow-immolation’ in contemporary times…..I cannot deny that it is hard to listen to ‘stories’ that don’t seem to address the dimension of violence…

And yet can I deny the difficulties in assessing this much-mythologized ‘voluntarism’?

…it is also possible to read in Komalda’s sati   stories a value-system that is not easily accommodated within the framework of modernity. Without valorizing this non-modern belief system……… it would be useful to listen to more of these stories if only to complicate the historical evidence surrounding the sati.

(Bharucha, Rustom, Rajasthan: An Oral History, New Delhi: Penguin Books, p.137, 142)

रानी भटियाणी

रानी भटियाणी की शादी कल्याण सिंह से हुई थी. लेकिन ऐसी अफवाह थी कि वह अपने देवर सवाई सिंह के अधिक निकट है. दोनों भाई युद्ध लड़ने गये. सवाई सिंह मारे गये. लेकिन खबर यह पहुँचाई गई कि कल्याण सिंह नहीं रहे. रानी भटियाणी ने कल्याण सिंह की चिता पर सती होने का निश्चय किया. सवाई सिंह की पगड़ी आ जाने से यह निश्चित हो गया कि मृत्यु कल्याण की नहीं सवाई की हुई है. फिर भी रानी भटियाणी सती हो गई. अपने देवर की चिता पर.

पुस्तक

At one point in their analysis, Vaid and Sangari (1991) describe a ‘jhanki’ (sequential tableaux) celebrating the life and death of Narayani Devi, where in one particular scene, (t)he figure of a woman holding her husband’s head in her lap, bobs up and down burning in red crepe paper flames – worked by a hidden mechanical device and a fan. As the figure subsides into the flames, a goddess arises behind her with a trishul (trident) in one hand and a chakra (halo) around her head. It is at this point, the authors document a peasant woman exclaiming ‘(D)ekho, sat kaise hota hai’ (See, this is how sat happens).’

(Ibid. 310-11)

मैं

सती अध्याय इस पुस्तक को परिभाषित करने वाला अध्याय है – लोकवार्ताकार की सुनाई हर सती कथा आधुनिक लेखक के लिये ‘असमान्य’ है. ये सती की ‘आधुनिक, इंटेलैक्चुअल मॉयथोलॉजी’ को लगातार विचलित करती हुई कथाएँ हैं. ये पुस्तक में सर्वाधिक तनाव के क्षण हैं. रूस्तम ना तो स्त्रीवादी पठन की तरह इन कथाओं को एक पहले से बने हुए ढंग से पढ़ने की कोशिश करते हैं ना आशीष नंदी की तरह इन कथाओं को आधुनिकता बनाम पूर्व-आधुनिक के फ्रेमवर्क में इस तरह देखते हैं कि सती का पूरा ‘फिनामिना’ एक पूर्व-आधुनिक समाज पर ‘पश्चिमी’ आधुनिकता द्वारा अपनी मूल्य-व्यवस्था सौंपे जाने की एक प्रतिक्रिया है.

पुस्तक

Instead of pushing the obvious theoretical issues…..I realize that it is best to address Komalda more directly on these matters. So, finally, in our last discussion of the subject, I asked him: ‘How do you see the manifestations of sati  today, as represented by the figures like Roop Kanwar?’ He responded with these exact words: ‘It is a hysteria created by the society.’ ‘Who or what is creating the hysteria?’I asked. And promptly, he said: ‘The Hindu social system.’ At this point, I dared to insert a key word, ‘Patriarchal?’ ‘Definitely patriarchal,’Komalda emphasized. But at the same time, it is clear that Komalda does not see sati  as an exclusively patriarchal phenomenon….

(p.149)

सुराणा सती

नागौर की एक सुंदर सुराणा (जैन) लड़की पर एक मुगल सूबेदार की नज़र पड़ गई, लड़की का ब्याह किसी और से तय हो चुका था. सूबेदार ने जब दबाव डाला तो खुद लड़की ने एक शर्त रखीः यदि तुम मुझे पकड़ लोगे तो मैं तुम्हारी बात मान लूंगी. और ठीक उस क्षण जब सूबेदार उसे पकड़ लेने ही वाला है, वह पेड़ में प्रवेश कर जाती है और सती हो जाती है. सुराणा उपजाति के लोग अपनी उत्पति को इस कथा से जोड़ते हैं और इस सती की पूजा करते हैं.

पुस्तक

But…sati…. has to manifest herself in the lives of the people after her death either thorough dreams or miracles attributed to her. Without these signs there can be no sati in worship.

.. The fact is that there was no public worship for these satis because they were not deified. ..This would apply to the most legendary of all satis from the royal family, Rani Padmini herself, around whom many stories have proliferated, but is she worshipped? The answer is no.

At this point in the discussion, Komalda made a tangential comment in relation to ‘the Mother Theresa phenomenon.’ ‘For Mother Theresa to be declared a saint, as Komalda emphasized, ‘it is essential that her life and work should subscribe to the laws of beatification. This means that after her death she must be able to perform certain miracles, or else, she has to mediate people’s problems, in order for the Pope to have sufficient evidence of her sainthood.’

(p.147, 148, 311)

मैं

अपने जीवन का अधिकांश कलकत्ते में बिता चुकी मेरी नानी ने एक बार किसी बात में मदर टेरेसा को ‘गोरी सती’ कहा था. नानी जो कभी शानदार तैराक हुआ करती थीं, जिसे घुड़सवार स्त्रियाँ बहुत सम्मोहित करती थीं, जो ‘अपनी सुस्त और निकम्मी’ पोतियों पर नाराज होती रहती है, जिसे अफसोस है उसे मोटर चलाना नहीं आया, साल भर पहले नाना के चल बसने पर जिसके मन में एक बार भी सती होने का खयाल नहीं आया, उसी नानी ने मदर टेरेसा को ‘गोरी सती’ क्यूँ कहा था?

यह ठीक वही मुकाम है जब मुझे लिखना बंद कर देना चाहिये और उस भविष्य का इंतज़ार करना चाहिये जब मैं इस पुस्तक पर लिखने के बारे में नहीं, खुद इस पुस्तक पर लिख पाउंगा.

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