परिवार पुराण: मिथिलेश मुकर्जी
24/7/98
अब एक बार फिर पीछे मुड़ें? जब मैं एल.टी. की परीक्षा दे चुकी थी। शायद परीक्षा परिणाम उस समय तक निकला भी नहीं था (या निकल गया था, याद नहीं) कि यू.पी. में सर्विस करने का अवसर मिला। हमारे प्रिन्सिपल डॉ. इबादुर रहमान खान जो वहाँ इन्सपेक्टर ऑव स्कूल्स भी थे, के हस्ताक्षर से एक फरमान आया कि वे मुझे मेरठ में डिप्टी इन्स्पैक्ट्रैस की पोस्ट पर लाना चाहते हैं। पर शर्त यह कि मैं उर्दू की कोई प्रारम्भिक परीक्षा उर्त्तीण कर लूँ । उर्दू का अलिफ़बे भी मैं नहीं सीख पाई थी। दादा ने अपनी मृत्यु से पूर्व एक बार मुझ उर्दू की वर्णमाला सिखाने का प्रयास भी किया, किन्तु मेरे पल्ले वह पड़ा ही नहीं। उन दिनों उत्तरप्रदेश में राजकीय कार्य की वर्नाक्यूलर भाषा उर्दू ही हुआ करती थी। अतः डॉ. खान को विनम्र शब्दों में उनकी ऑफर के लिए आभार तो व्यक्त किया ही साथ में उर्दू न सीख पाने की असमर्थता भी बता दी थी। दीदी को ही मैंने लिखा कि जयपुर में मेरे लिए कोई उचित नौकरी की कोशिश करें। उनका जो उत्तर आया बड़ा निराशाजनक था। कुछ ही दिनों पश्चात् अचानक उन्होंने फौरन जयपुर पहुँचने का बुलावा भेजा। उस निराशाजनक उत्तर के पीछे अनुमान मात्र था कि एक ही विभाग में दो बहिनें कार्यरत हों, यह शायद उनके डाइरेक्टर ऑव एज्यूकेशन को मान्य नहीं होगा।
यह १९४० का वर्ष था। जयपुर में कन्या विद्यालय के नाम पर ही संस्था थी- महाराज गर्ल्स हाई स्कूल। उसमें हिन्दी अध्यापिका के पद के लिए मैं इन्टरव्यू देने गई। इन्टरव्यू लेने वालों में मुख्य थे जोबनेर के ठाकुर साहब श्री नरेन्द्र सिंह जी। उनका पहला प्रश्न था- राष्ट्रकवि कौन हैं? उनकी किसी कविता की पंक्तियाँ सुनाने को कहा। फिर सुभद्रा कुमारी चौहान की किसी प्रसिद्ध कविता की पंक्तियाँ सुनानी पड़ीं-
‘बुन्देले हर बोलों के मुख,
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो,
झाँसी वाली रानी थी॥
उस समय की उनकी मुख-मुद्रा से मुझे आभास हुआ की मेरा चयन हो जाएगा। यह घटना जुलाई मध्य की है। फिर नियुक्ति पत्र मिला और मैंने १ अगस्त १९४० को महाराजा गर्ल्स हाई स्कूल में हिन्दी अध्यापिका का पद सम्हाल लिया।
एक बात और याद आ गई। जब मैं बी.ए. पढ़ रही थी, जीजाजी का आग्रह हुआ कि हिन्दी साहित्यि सम्मेलन, प्रयाग द्वारा आयोजित ‘विशारद’ की परीक्षा मैं दूँ । उस समय ‘विशारद’ हिन्दी को बी.ए. के समकक्ष मान्यता प्राप्त थी। वह परीक्षा भी मैंने सहजता से उत्तीर्ण कर ली थी। जोबनेर ठाकुर साहब- शिक्षामन्त्री, इस तथ्य से विशेष प्रभावित हुए थे।
अब तक जो कुछ लिखा, टीटू, तुम निस्सन्देह बोर हो रही होगी। आवश्यक-अनावश्यक सब कुछ ही तो लिख मारा। अब आज इतना ही। अध्यापनकाल का प्रारम्भ कैसे हुआ इसका उल्लेख, कल तक के लिए स्थगित । ठीक?
25/7/98
इलाहाबाद छोड़ने के पूर्व की कुछ घटनाएँ याद आ रही हैं। जब मैं इन्टरमीडियेट में पढ़ रही थी, दादा को मेरे विवाह की चिन्ता हुई। कानपुर के एक क्रान्तिकारी, स्वतंत्रता सेनानी विख्यात पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी हुआ करते थे। हरिशंकर विद्यार्थी नामक उनके पुत्र के साथ दादा ने मेरे विवाह की चर्चा अपने कानपुरी मित्रों के मार्फत की। दादा ने उन्हें मेरे लिए अति योग्य वर के रूप में पसन्द कर लिया। अपने एक पत्र द्वारा दादा ने मुझे इतनी सूचना दी और मेरी सहमति माँगी। संयोग से वह पत्र भी अभी मिल गया। मेरे सहमत-असहमत होने से पूर्व ही जीजाजी ने दादा को लिखा कि वे स्वयँ कानपुर जा कर उस विद्यार्थी परिवार से मिलेंगे, लड़के को स्वयं देखकर निर्णय लेना चाहेंगे। जीजाजी कानपुर गए हरिशंकर जी की जाँच-परख करके लौट कर मेरी उपस्थिति में दीदी को बताया की परिवार यद्यपि बहुत अच्छा है पर लड़के की टाँग में कुछ खोट है। वह झुक कर के चलता है। दीदी ने आँख से कनखी मार कर मेरी ओर देखा और स्वयँ झुक कर चलना शुरू किया। फिर जीजीजी से पूछा ऐसे चलता है? ‘हाँ’ जीजाजी का संक्षिप्त उत्तर था। उस समय ठहाका मार कर हम सब हँस पड़े थे। आखिर जीजाजी ने दादा को लिख दिया कि मित्थल के लिए यह रिश्ता उपयुक्त नहीं है। कुछ समय बाद शायद मौसी के द्वारा सुना गया कि उनकी कोई रिश्ते में लगने वाली लड़की ‘मुक्ता’ (जो मेरे साथ पढ़ती थी) का विवाह हरिशंकरजी से सम्पन्न हुआ।
अपने गिरते स्वास्थ्य को देखते दादा अपने जीवनकाल में ही मेरे विवाह के लिए चिन्तित रहते थे। इसी कारण वह अपने भाइयों को भी मेरे लिए उपयुक्त वर खोजने के लिए लिखते होंगे। उन दिनों हमारे सबसुख चाचा (जो मुझे बहुत प्यार करते थे) जावरा स्टेशन पर बुकिंग क्लर्क थे। जावरा छोटी सी मुस्लिम रियासत थी। इन्टर की परीक्षा देकर ग्रीष्मकालीन अवकाश में हम सब अजमेर आए थे। उसी बीच सबसुख चाचा का एक पोस्टकार्ड दादा के नाम आया। उन्होंने दादा को सूचित किया कि नूरचश्मी मित्थल (चाचा मेरे लिए सदा यही सम्बोधन प्रयुक्त करते थे) को देखने दो सज्जन हैदराबाद से आ रहे हैं। बहुत ऊँचा खानदान है, मित्थल के लिए इससे बढ़िया घर-वर नहीं मिलेगा। दादा ने वह खत, जो उर्दू में लिखा था (हमारे सभी चाचा ईवन दादा की वर्नेक्यूलर उर्दू ही हुआ करती थी) पढ़ कर हमें सुना दिया। उस समय लजा कर मैं दादा के कमरे से बाहर निकल आई थी। यथासमय हैदराबाद के दोनों महानुभाव हमारे यहाँ पधारे। कुछ देर तक दादा से गुफ्तगू चलती रही। वे लोग मुझे एक बार देखना तो चाह ही रहे थे। उनके लिए नाश्ता और शर्बत आदि की व्यवस्था दादा ने करा रखी थी। उनके सामने नाश्ता प्रस्तुत करने के नाम पर मुझे दादा ने बुलाया। बड़े संकोच से मैंने ड्रॉईंग रूम में प्रवेश किया प्लेट्स मेज़ पर रख सिर झुकाए उल्टे कदम लौट आई। एक झलक पर ही उन लोगों ने मुझे देखा और पसन्द कर लिया। कुछ ही समय पश्चात् दादा तथाकथित भावी वर की फोटो ले कर अन्दर आए। दीदी को थमाते हुए कहा कि लड़के की यह तस्वीर है। मित्थल को भी दिखा दो। उस भलेमानस का नाम ‘दीपक’ था। फोटो में एक नयनसुख चेहरा देखा। आकर्षक व्यक्तित्व। दादा फोटो लेने वापिस अन्दर आए। दीदी ने सहमति व्यक्त कर दी। उस समय मेरे असहमत होने का प्रश्न ही कहाँ था। बात फाइनल स्टेज पर पहुँची और वे जाने को खड़े हुए। इतने में उन में से एक व्यक्ति ने दादा को और अधिक इम्प्रेस करने को कह दिया कि आपकी बेटी हमारे यहाँ जब बहूरानी बन कर आएँगी, इनके लिए भी पर्देवाली एक शानदार कार का प्रबन्ध कर दिया जाएगा। कार पर पर्दे चढ़े हों और उसमें दादा की बेटी कैदी जैसी बैठेगी, यह दादा को केैसे मान्य होता। उन्होंने तत्काल ही कह दिया कि उन्हें पर्दे से परहेज है। लिहाजा उन्हें अब यह रिश्ता मंजूर नहीं। दादा ने उन्हें निराश कर दिया था। असल में ये लोग उस खानदान के गुमाश्ता और दीवान थे। अजमेर से लौटते समय वे दोनों जावरा रुक कर चाचा से फिर मिले और उन्हें सारा किस्सा सुना कर कह दिया कि हम लोग आपके भाई साहब के यहाँ से कितनी निराशा लेकर लौट रहे हैं। चाचा अवाक्! दूसरे दिन ही चाचा स्वयँ दादा से मिलने अजमेर आ गए। दादा को बहुत मनाने की कोशिश की। पर अपने दादा निश्चय पर अडिग रहे। ऐसा अच्छा मौका दादा चूक रहे हैं, यह कह कर चाचा लौट गए।
आज तुम्हारे सामने अपने मन की बात खोलूँ? दादा का हठ मुझे भी कचोटता रहा, कुछ दिनों तक। दीदी मेरी मित्र जैसी थीं। उनसे मैंने कह भी दिया कि दादा पूछते तो सही कि मुझे पर्दा गाड़ी में बैठते कष्ट होता क्या? जालीदार पर्दे में से मैं बाहर झाँक तो सकती थी। बाहर वाला मुझे क्यों देखें? आदि-आदि…ऐसे नाज़ुक मसले पर मैं दादा के आगे मन खोलने की हिम्मत न जुटा पाई थी। हाँ, दीदी ने अलबत्ता दादा को कह दिया कि मित्थल को पर्दे में रहने से उज्र नहीं था। जानती हो, उस समय दादा ने क्या तर्क दिया था? अम्मा यद्यपि परलोकगामी हो गई थीं पर अम्मा का आदर्श, उनका सिद्धान्त दादा को सदैव सजग रखता था। अम्मा पर्दे को कुप्रथा की संज्ञा दे चुकी थीं। अम्मा की हर इच्छा का मान रखना दादा के जीवन का महान् लक्ष्य था।
इस रिश्ते को नामंजूर कर दादा ने अम्मा की आत्मा को सन्तोष पहुँचाया। ऐसा विश्वास दादा का रहा होगा।
टीटू, ऐसे संवेदनशील प्रसंग और भी आने हैं। आज इतना ही । पुराने पत्रों को पढ़ने की इच्छा है।
29/7/98
आज सुबह-सुबह तुमसे फोन पर बात कर के लौटी अपने भ्रम का बयान स्वाति से करती-करती खूब हँसी। हँसने के ऐसे क्षण अब जीवन में यदा-कदा आते हैं ना? ना जाने किस ख़ुमारी में फोन पकड़ा होगा कि तुम्हारा स्वर भी नहीं पहचान सकी। उत्तर-प्रत्युत्तर में स्थिति स्पष्ट हुई।
तो तुम आज नहीं आ रही हो। कल सन्ध्या समय लिखने की छुट्टी कर अपने खतों का अम्बार खोला। कुछ सॉर्टिंग की। आज वह कार्य बड़े परिश्रम से सम्पन्न कर पाई। दादा, भाईजी, शरण भाई, नाना, मौसी, दीदी, जीजाजी तथा अन्याय अपनी सहेलियों और सहपाठिनों के पत्र अलग-अलग छाँट कर पिन-अप कर दिये हैं। बिर्जन के पत्र तुम्हारे लिए विशेष रुचिकर होंगे। प्रतापभाई का एक पत्र गुजराती में लिखा प्राप्त हुआ। वह तुम्हीं से पढ़वा कर समझँगी। दादा का, न जाने क्यों, केवल एक ही पत्र मिला। निश्चय ही एक बण्डल और कहीं ढूँढने से मिल जाने की आशा है।
हाँ अब बताओ इस नई कॉपी का शुभारम्भ किस प्रसंग से किया जाए?
युनिवर्सिटी के अध्ययन-काल के कुछ दृश्य देखोगी?
इलाहाबाद युनिवर्सिटी की स्थापना सन् १८८७ में हुई थी। अतः १९३७ में बड़ी धूमधाम से इसकी स्वर्ण जयन्ती मनाने की योजना बनी थी। इस शुभावसर पर भारत कोकिला श्रीमती सरोजनी नायडू का दर्शन किया। उनका भाषण भी सुना। उसी अवसर पर जो कॉन्वोकेशन हुआ, उसे उन्होंने ही अर्डेस किया था। इस समारोह के विभिन्न कार्यक्रम एक सप्ताह तक चलते रहे। एक सन्ध्या हिन्दी नाटक के लिए निश्चित की गई थी। श्री रविन्द्रनाथ द्वारा लिखित ‘विसर्जन’ नामक नाटक का मंचन किया गया। उसमें मुझे रानी का अभिनय करना था। इस नाटक का चयन किसने किया था व निर्देशन किसका था, यह सब बिल्कुल याद नहीं। हमारी एक सहपाठिन थी ‘प्रीती मुखर्जी’। बंगाली क्रिश्चियन थी। लखनऊ आई.टी. कॉलेज से इन्टर पास करके इस युनिवर्सिटी में प्रवेश लिया था। आई.टी. कॉलेज लखनऊ की लड़कियाँ अल्ट्रा फैशनेबल और इंगलिश बोचाल में पटु थीं। हमारे प्रॉक्टर थे मिस्टर रुद्रा। उन्होंने हम लोगों के मेकअप का दायित्व प्रीति को सौंपा। मैं साड़ी व कृत्रिम आभूषण आदि पहन कर जब मेकअप के लिए प्रीति के सामने खड़ी हुई उसने मेरे अधरों पर लिपस्टिक लगाना चाहा। इससे पूर्व मैं देख रही थी कि एक ही लिपिस्टिक अन्य सभी लड़कियों के होठों पर लेपा जा रहा था। मैंने बलवा कर दिया। प्रीति से साफ कह दिया कि मैं लिपिस्टिक नहीं लगवाऊँगी। उसने प्रेम से समझाने की कोशिश की – रानी का पार्ट कर रही हो – लिपिस्टिक लगाए बिना कैसे चलेगा? फिर भी मैं अपने निर्णय पर अड़ी रही। हमारे प्रॉक्टर साहब ग्रीन-रूम के बाहर कुर्सी लगा कर बैठे थे। सारी व्यवस्था उन्हीं को करनी थी। प्रीति गुस्से में तमतमाती रुद्रा साहब के पास पहुंची और मेरी शिकायत उनसे कर आई। हमारे प्रॉक्टर साहब बहुत ही स्नेही, सम्वेदनशील और सबका कष्ट दूर करने के लिए प्रसिद्ध थे। उन्होंने दरवाज़े पर खड़े हो कर मुझे आवाज़ दी। मैं घबराती हुई उनके सामने आ गई। शर्म और घबराहट के कारण मैं उनसे नज़र नहीं मिला सकी। उन्होंने स्नेहपूर्वक मेरे सिर पर हाथ रख कर कहा – ‘‘मेरी ओर देखो…” बोले – ‘‘तुम लिपिस्टिक नहीं लगाना चाहतीं – मैं मान गया पर दूसरा उपाय तुम्हारे पास क्या है?” मैंने कितनी प्रफुल्लता से उन्हें कह दिया – पान खा लूँगी। होठों पर अच्छी लाली जा जाएगी। तत्काल ही उन्होंने चपरासी को भेज ६ पान मँगवा दिये बस क्या था मंच पर जाने से कुछ ही मिनट पहले मैं पान चबा लेती। लिपिस्टिक से बढ़िया लाली अधरों पर रच जाती। प्रीति इस व्यवस्था से बहुत कुढ़ गई क्योंकि उसे विश्वास था कि रुद्रा साहब मुझे तिड़ी पिला कर लिपिस्टिक लगाने को अनिवार्य करवा देंगे।
यह ड्रेस रिहर्सल के दिन का वृत्तान्त है। उस दिन हॉल में स्टूडेन्ट जैन्ट्री ही थी। कुछ शरारती तत्व उनमें होने ही थे। दो चार लड़कों ने एक विचित्र योजना बना डाली। हुआ यों कि उस नाटक के ओपनिंग सीन में देवी का एक छोटा सा मन्दिर दर्शाया गया। जिस रानी का पार्ट करने मैं जा रही थी, वह निःसन्तान थी। अतः वह देवी की पूजा करने आई और देवी से एक पुत्र प्राप्ति की कामना कर रही थी। उसी सन्दर्भ में उन लड़कों ने आपस में तय किया कि कल अपन एक गुड्डा लाकर मंच पर फेंक कर कहेंगे कि लो इस पुत्र को अपनी गोद में बिठा लो। मेरी एक सहपाठिन थी विमला सक्सेना। उसके भाई ने (जो युनिवर्सिटी का ही छात्र था) इस योजना की बात सुन ली। उसने घर पहुँच कर विमला के कान में यह बात डाल कर सावधान रहने की सलाह दी। दूसरी दिन जब मेन शो होना था विमला ने मुझे इस अटपटी योजना की बात बताई। मैं कितनी घबराई, कह नहीं सकती। पर हमारे संरक्षक रुद्रा साहब जो थे। लड़कियों का मामला था, बड़ी महती जिम्मेवारी उन पर थी। मैंने उनसे जा कर यह बात बताई। उन्होंने आश्वासन दिया कि ‘‘तुम घबराती क्यों हो? मैं यहां किसलिए बैठा हूँ” पर्दे के पीछे मन्दिर तैयार, मैं भी सजी-धजी साइड विन्ग में पूजा का थाल लिए खड़ी हो गई। पर्दा ऊँचा होने से क्षण भर पूर्व रुद्रा साहब स्टेज पर आ कर खड़े हो गए। पल भर चुप रह कर उन्होंने हॉल के चारों और दृष्टि डाल कर अपनी उपस्थिति जता दी। पर उनका ऐसा करना आउट ऑव प्लेस न मालूम दे इसलिए उन्होंने एक वाक्य बोल कर घोषणा की कि अब नाटक का मंचन होने वाला है। यद्यपि इस दिन केवल इन्वाइटेड जेन्ट्री ही की अपेक्षा थी, किन्तु कुछ छात्र अपनी दादागिरी से प्रवेश पा ही चुके थे। रुद्रा साहब के व्यक्तित्व का जादू ही था कि उन लड़कों को गुडिया स्टेज पर फेंकने का साहस नहीं हुआ। बड़ी शान्ति से सारा कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। हाँ, इस दिन भी बिना मेरी विनती किए रुद्रा साहब ने पान की पुडिया मुझे थमा दी थी।
उन दिनों प्रॉक्टर का दायित्व और अधिकार क्षेत्र आज के जैसा सीमित नहीं था। वह अपने डिस्क्रीशन पर किसी छात्र को एक्सपैल भी कर सकते थे। उनका व्यक्तित्व कैसा दोहरा रहा होगा। एक ओर आतंक दूसरी ओर संरक्षण। वैसे युनिवर्सिटी में वह सब के संरक्षक के रूप में अधिक जाने जाते थे। छात्र-छात्राओं के हित का वह पूरा ध्यान रखते थे। उनके हाथ का लिखा एक सर्टिफिकेट मेरे पास अभी भी सुरक्षित है।
जब मैं बी.ए. फर्स्ट इयर में थी हिन्दी विभाग के अध्यक्ष श्री धीरेन्द्र वर्मा ने कहानी लेखन की प्रतियोगिता का कार्यक्रम बनाया। छात्र-छात्राओं को कहानी मात्र लिख कर ही प्रेषित नहीं करनी थी, अपितु स्वयं पढ़कर सुनानी भी थी। प्रो. रामकुमार वर्मा इस कार्यक्रम के आयोजक थे। मैं उस दिन बिर्जन को अपने साथ ले कर गई थी। वह स्टेज शाय बिल्कुल नहीं थी। कई अर्थों में वाचाल भी थी। जब मेरी कहानी का नम्बर आया मैं श्री रामकुमार वर्मा के पास गई और बता दिया कि नर्वसनेस की वजह से अपनी कहानी स्वयं नहीं पढ़ सकँगी। इसके आगे जो कहना चाह रही थी, उससे पूर्व ही उन्होंने कहा- ‘‘कोई बात नहीं, मैं पढ़ दूँगा।” मैंने बड़ी घृष्टता की और कहा- ‘‘आप नहीं पढ़ेंगे, मेरी छोटी बहिन पढ़ेगी।” उन्होंने हमारी बलकट्टी बहन को देखा और सहमति दे दी। पर मेरा दुर्भाग्य देखो। उस दिन, उस समय, बिर्जन को जाने क्या हुआ वह कहीं-कहीं ही नहीं, कई जगह अटकी। गला उसका रुँधने लगा पर पूरा पढ़ ही डाला। मेरी कहानी का शीर्षक बड़ा अजीब लगेगा तुम्हें। पर बता ही दूँ। ‘‘जुन्हैया, मैं उई कै बिसै जा” यानी ज्योत्सना (चाँदनी) तू उदित हुई और अस्त भी हो गई? कहानी का सार अब तनिक भी याद नहीं रहा। मेरी कहानी फेल हो गई। हिन्दी विभाग में मेरा जो वर्चस्व था, उस दिन बिखर गया। बाद में रामकुमार जी ने मुझे मौखिक सान्त्वना अवश्य दी कि आपकी कहानी सुन्दर थी। आपने मुझे पढ़ने से मना कर गलती की। निर्णायक गण भी धुरन्धर लोग थे। विभागाध्यक्ष श्री धीरेन्द्र वर्मा, श्री भगवती चरण वर्मा और शायद रमाशंकर शुक्ल ‘रिसाल’। मैंने उस दिन कसम ख ली – कहानी कभी न लिखने की। बी.ए. में हिन्दी साहित्य, अंग्रेजी साहित्य के साथ मेरा तीसरा विषय दर्शनशास्त्र था। दर्शनशास्त्र पर एक एसे कॉम्पिटिशन हुआ। मेरी एक अच्छी सखी थी कमल कार। उसको प्रथम पुरस्कार मिला और मुझे सांत्वना। एक कप मिला था जो वर्षों हमारे ड्राइंग रूम में सजा रहता था। जर्मन सिल्वर का था। काला-पीला होकर अभी भी कहीं कबाड़े में पड़ा होगा।
मैं सम्भवतः पूर्व में वर्णन कर चुकी हूँ मेरी दो घनिष्ठ मित्र थीं – सावित्री गुप्ता और कला मालवीय। हम तीनों यूनिवर्सिटी मैदान में सदा साथ ही चलते- विचरते दीखते इसलिए हमारा नाम त्रिमूर्ति पड़ गया था। हमारे तीन पीरियड एक साथ खाली रहते थे। मैं उन दोनों को अपने साथ घसीटती और युनिवर्सिटी लाइब्रेरी में बड़े चाव से आल्मारी की पुस्तकों का अवलोकन किया करती। पुस्तकालयाध्यक्ष थे बाबू सरयू प्रसाद सक्सेना (नाटक के सन्दर्भ में उल्लिखित विमला सक्सेना के पिता जी)। पुस्तकों के प्रति मेरा जैसा झुकाव था उसे देख श्री सरयू प्रसाद जी मुझ पर बहुत मेहरबान थे। घर जा कर मेरी तारीफ करते और विमला-तारा से कहते कि तुम लोगों को कोर्स के अलावा कुछ भी पढ़ने का शौक नहीं है। हाँ, उल्लेखनीय यह भी है कि मैं केवल हिन्दी की पुस्तकों पर रीझी रहती। धार्मिक ग्रन्थों को छोड़ मैंने उस लाइब्रेरी की लगभग सभी पुस्तकों को छान लिया था। मैं जितनी पुस्तकें घर पर ले जाने को कहती- लाइब्रेरियन साहब बहुत उत्साह से मुझे इश्यू करवा दिया करते थे। मेरे छात्र-जीवन की यह स्मरणीय उपलब्धि है।
दादा के देहावसान के छह मास पश्चात् सन् १९३८ की बी.ए. की परीक्षा में जीजा जी के हठ से मैंने परीक्षा दी अवश्य, पर दादा के स्वर्गारोहण के फलस्वरूप जो रिक्तता मेरे जीवन में आई – मैंने रो-रो कर परीक्षा दी। कुछ पेपर खाली ही छोड़ आई थी। अनुत्तीर्ण घोषित हुई। तब मुझे इतना पश्चाताप नहीं था जितना दीदी-जीजा और अनन्य सखी सावित्री को हुआ था। उनके पत्र इस तथ्य के साक्षी स्वरूप मेरे पास मौजूद हैं। अभी आज इतना ही!
30-31/7/98
हम लोगों के प्रति जीजाजी सदैव ही सशंक रहते थे। उनके इस स्वभाव की एक और बानगी देखोगी?
बिर्जन जब शान्तिनिकेतन में पढ़ रही थी – सोमा जोशी नाम की एक कन्या से उसकी प्रगाढ़ मैत्री हो गई थी। सोमा जोशी श्री सुमित्रानन्दन पन्त की भांजी थी। बिर्जन ने उसे बता दिया कि मैं पन्त जी की रचनाओं से कितनी प्रभावित हूँ तथा उनकी बड़ी प्रशंसक भी हूँ । एक दिन तीसरे प्रहर सोमा जोशी अचानक पन्तजी को लेकर हमारे घर उपस्थित हो गई। (कोई अवकाश रहा होगा) – बिर्जन भी तब इलाहाबाद में ही थी। बिर्जन ने गर्मजोशी से सोमा का स्वागत किया था। पन्तजी से हम लोगों का परिचय कराया गया। मैं तो शर्मीली थी ही पर पन्तजी कम लजीले नहीं थे। उनकी कुछ कविताओं पर संकोच के साथ चर्चा हुई। फिर कुछ खुली मैं। मैंने अत्यन्त विनय के साथ उनसे अनुरोध किया कि वे अपने मुखारविन्द से कोई कविता सुना दें। मेरी यह प्रार्थना उन्हें स्वीकार न हुई। जाते-जाते उन्होंने इतना आश्वासन अवश्य दिया कि अगली बार वे अपने साथ नरेन्द्र शर्मा को लाएंगे। श्री नरेन्द्र शर्मा सस्वर जो काव्य पाठ करते हैं, वही सुनने योग्य है। ‘‘मेरी जो कविता आप सुनना चाहें उनके मुख से सुनवा दूँगा।” पन्त जी के ऐसे दर्शन पा मैं धन्य हो गई थी। यह सुअवसर बिर्जन की देन थी। कुछ महीने तक पन्तजी से पत्र व्यवहार हुआ। मैंने उन्हें एक बार लिखा था कि उनसे भेंट करना मेरे लिए तीर्थ-तुल्य था। पत्रों द्वारा मैं उनके सम्पर्क में रहूँ यह जीजाजी को सहन नहीं हुआ। अतः उनसे सम्पर्क की इति श्री। हाँ उनसे प्राप्त पत्रों का मुझ पर जो प्रभाव पड़ा, वह मेरी हैन्ड राइटिंग है। यह प्रभाव अमिट ही रहा।
जैसा बता चुकी हूँ हिन्दी साहित्य समिति में मैं छात्राओं का प्रतिनिधित्व करती थी। प्रतिमास जाने-माने साहित्यकारों और मनीषियों से मिलने और उनकी बात सुनने का अवसर मिलता था। मैं श्री राहुल साँकृत्यायन से बहुत प्रभावित हुई – विशेषतः उनके उस वाक्य और विचार से जो उन्होंने मेरी ऑटोग्राफ बुक में लिखा थाः
भूत मर गया, सड गया।
भविष्य के निर्माण में लगो॥
अर्थ बड़ा सरल है किन्तु उत्सुकतावश मैंने इसी वाक्य को लेकर उनको पत्र लिखा। उन्होंने उत्तर दिया। इस प्रकार उनके साथ कुछ भी पत्रों का आदान-प्रदान हुआ। किसी लिफाफे पर नाम और पता जब किसी अजनबी का होता, वह खेला जाता। सैन्सर किया जाता। फलतः इस मनीषी से भी सम्पर्क टूट गया था।
मेरी कायरता ही थी कि ऐसे पत्रों को मैं सहेजूँ। पर सहेजने से भी भयातुर थी। काश, आज भी वे मेरे संग्रह में होते।
अभी एक बात ऐसी याद आ गई जो तुम्हें सम्भवतः अप्रासंगिक लगे। किन्तु लिख ही दूँ ।
जब मैं ट्रेनिंग कॉलेज में पढ़ रही थी विभिन्न विषयों के शिक्षक लैक्चर पद्धति से अध्यापन करते थे। सभी छात्र-छात्राएं नोट्स् उतारते किन्तु अक्षरशः नोट्स् केवल मैं ही लिखने में सक्षम थी। आशुलिपिक तो न तब थी न अभी हूँ किन्तु लेखनी बड़ी त्वरित गति से चला करती थी – चला करती है। हमारा एक सहपाठी था – शम्भूनाथ झा। उसके पिता, जीजाजी के मित्र या परिचित जो भी कह लो, थे। शम्भुनाथ ने एक दिन मेरी नोटस् की कॉपी देख ली। फिर क्या था वह प्रति सप्ताह घर पर आता जीजाजी यदि पहले मिल जाते उन्हीं से कहता- ‘मिथिलेश जी को बुला दीजिए उनके नोटस् लेने हैं।’ मैंने बड़े अनमनेपन से उसे दे दिया करती, पर इसी शर्त पर कि तीसरे दिन वह मुझे लौटा देगा। पर वह तीसरा दिन काहे को आता? उसके खास दोस्तों के बीच वह कॉपी घूमने लगती थी। परिणाम स्वरूप मुझे हर विषय की दो-तीन कॉपियां लेनी पड़ी थीं। इस भावी शिक्षक के आगमन के लिए जीजा का द्वार खुला था।
टीटू यह प्रकरण दो किश्तों में पूरा किया गया है। दो दिन लगे। अन्यायन्य निरर्थक कार्यों में दिन गुज़ारे इसीलिए।
1/8/98
अब मैं कौनसी दिशा पकडूँ? पूरब या पश्चिम? चलो, पूरब का अन्तिम पड़ाव। उस पर संक्षिप्त सा दृष्टिपात।
हैदराबाद के ‘दीपक’, कानुपर के ‘हरिशंकर विद्यार्थी’ के बाद एक नाम और जोड़ा जाए। वे हैं ‘हरिवंश राय बच्चन’। वे युनिवर्सिटी के एक होनहार और प्रतिभाशाली छात्र माने जाते थे। जब मैं बी.ए. फर्स्ट ईयर में थी, वह एम.ए. अंग्रेज़ी के फाइनल ईयर में पढ़ रहे थे। किसी छोटे कस्बे के मध्यवर्गीय परिवार के पुत्र थे। उनकी पत्नी का देहान्त टी.बी. से उन दिनों हुआ ही होगा। हमारे पुद्दे मामा उनसे अति प्रभावित थे। उनके विधुर होने की सूचना मामा को मिली। उन्होंने पहले जीजा से इस सम्बन्ध में बात की क्योंकि मामा की दृष्टि में बच्चनजी जैसा वर मित्थल के लिए ढूँढे न मिलेगा। जीजाजी की उदासीनता देख मामा ने दादा को लिखा, दादा ने मामा को उत्तर दिया कि मित्थल की राय ले लो। वह अगर सहमत है तो दादा को आपत्ति नहीं। एक विधुर पति की पत्नी होना कैसा होगा, मुझे बड़ा अटपटा सा लगा। अतः बात यों ही आई-गई हो कर रह गई। दूसरे वर्ष बच्चनजी का विवाह तेजी से हो गया। इसके बाद पुद्दे मामा बच्चनजी से मिलने उनके घर गए। उस समय मामा ने उस घर का जो हर्षोल्लास देखा, उस वातावरण की मधुरिमा देखी, उनको कुछ झटका सा लगा। सीधे हमारे यहां आए और बच्चनजी को जिस रूप में देखा उसका वर्णन कर डाला। बच्चन जी उस समय अपने घर के बरामदे में सपत्नीक बैठे थे। सामने टी-टेबल पर चाय की ट्रे लगी थी। बच्चनजी मस्ती में अपने गीत गाते झूम रहे थे आदि…..। दीदी से ही मामा ने कहा- ‘‘हमने एक स्वर्णिम अवसर खो दिया।”
संयोग इसे कहते हैं।
10/8/98
….. यह गाथा लम्बी से और लम्बी होती जा रही है।
यदि इस प्रयास में कुछ श्रेय बन पड़ा, वह श्रेय तुम्हारा ही कहा जाएगा। तुम्हारे मस्तिष्क की उपज का यह फल है। तुम्हारा सतत् आग्रह – मैं कैसे भूलूँ?
तुमने इन सफ़ों में ऐसा क्या पाया कि उसे सोश्यो-इकोनॉमिक-कल्चरल सूचनाओं का खज़ाना कह डाला। ख़ैर, जैसा तुमने लिखा, तुम्हारा अपना नज़रिया है। अब अपने इस पुराण को आगे बढ़ाया जाए?
सात दिनों का व्यवधान। पहली किताब तुम्हारे पास रह गई। मन में एक शंका उठी कि अब जो प्रसंग लिखना है वह इसमें लिखूँ कि वो पहले लिख चुकी हूँ?
परसों वह किताब स्वाति तुमसे ले आई इसके बावजूद कल मैंने कलम हाथ में नहीं ली। तुम्हारी दी ‘बॉर्डर म्यूजि़क’ पढ़ने में व्यस्त रही। मैं बच्चों जैसी सफाई दे रही हूँ – तुम यही सोच रही हो ना? सच तो यह है कि कभी-कभी ऐसा मूड कुछ हल्का कर देता है मन को।
अब अपने सेवाकाल के प्रथम सोपान पर कदम रखूँ? १ अगस्त १९४०। मैंने जिन अध्यापिका से उच्च कक्षाओं को हिन्दी पढ़ाने का भार ग्रहण किया वह थीं श्रीमती लीलावती। वह किसी उच्च परिवार की भद्र महिला थीं – आकर्षक व्यक्तित्व, वाणी में मिठास और कद-काठी में पंजाब की महिलाओं सरीखी थीं। विधवा थीं – एक पुत्र की माता। उनके पुत्र का नाम याद आ रहा है – जयकिशन। कालान्तर में उनके इस पुत्र की चर्चा डॉ. ताराचन्द गंगवाल और सुलोचना दीदी के मुख से अनेक बार सुनी गई थी। उनका पेट नेम था ‘जैकी’। अजमेर रोड़ पर उनकी एक विशाल कोठी थी। पर जाने किन परिस्थितियोंवश ‘लीला बहिनजी’ चाँदपोल बाज़ार स्थित नाहरगढ़ रोड पर रहती थीं। वह भी शायद उनका निजी मकान रहा होगा। निश्चित नहीं। मैं उनके घर जब-जब गई, बड़े दुलार से वह अपने हाथ का बनाया भोजन करातीं। उन्होंने हिन्दी की कोई परीक्षा पास की थी – उसी आधार पर वह हिन्दी अध्यापिका पद पर कार्यरत थीं।
जिस दिन उन्होंने मुझे अपनी कक्षाएं सौंपी उनके चेहरे पर किसी प्रकार का क्षेभ नहीं – न कोई मलाल, न कोई वैमनस्य। बड़े स्नेह और उत्साह से उन्होंने अपनी शिष्याओं से मेरा परिचय कराया था। मेरे प्रति उनका व्यवहार सदैव मातृतुल्य रहा था। मेरे विवाह पर उन्होंने कटक का फिलिग्री काम का चाँदी का ब्रेसलेट और एक लकड़ी का इत्रदान भेंट किया था। वह ब्रेसलेट मेरी कलाई के लिए बहुत बड़ा था, अतः किसी अवसर पर मैंने उसे मुन्नी को दे दिया। इत्रदान अभी है, जिसे देख कर उनकी याद ताज़ा हो जाती है।
अब छात्राओं से पूर्व अपनी सहकर्मियों का परिचय दे दूँ। मिस नैन्सी मार्टिन, हमारी प्रधानाध्यापिका थीं। मिसेज राव गणित की अध्यापिका, मिस रूबेन्स चित्रकला की, सुश्री अनुसूया करकरे इतिहास की, मिसेज़ पॉल आठवीं तक अंग्रेज़ी पढ़ाने की, श्रीमती बादामी बहिन जी सिलाई की, मिस सिंह शायद भूगोल की अध्यापिका थीं। एक मिसेज़ माथुर थीं जो छोटी कक्षाओं को पढ़ातीं तथा पुस्तकालय भी चलाती थीं। वह डॉक्टर प्रेमप्यारी माथुर की भावज थीं। हाँ, शिशु कक्षा की इन्जार्च थीं मिस लीला हैनरी। उन्होंने बिर्जन के साथ ही अड्यार में मॉन्टेसरी का प्रशिक्षण प्राप्त किया था।
मेरी पहली मित्र बनीं मिस रूबेन्स, वह बम्बई निवासिनी यहूदी महिला थीं। ड्रॉइंग की वह कुशल अध्यापिका थीं। ड्रॉइंग वैकल्पिक विषय हुआ करता था। कक्षा में वह कुछ कड़ा रूख रखती थीं फिर भी छात्राएँ उनसे प्रसन्न रहती थीं। वह कलात्मक तरीके से सजी-सँवरी आती थीं। वह इकलौती अध्यापिका थीं, जिन्होंने दोस्ती का हाथ बढ़ा कर मुझे अपना बना लिया था। मिस मार्टिन को वह फूटी आँखों न सुहाती थीं। कारण दो थे। पहला और मुख्य कारण था, उनका यहूदी होना। दूसरा यह कि वह अपनी शिष्याओं के बीच काफी लोकप्रिय थीं। शनैः-शनैः उनके साथ मेरी घनिष्टता बढ़ती देख मिस मार्टिन मुझसे भी बिदक गईं। कोई न कोई निमित्त ढँूढ लड़कियों के सामने मुझे टोकते रहना उनका स्वभाव बन गया।
अपने ट्रेनिंग काल में हम लोगों को सिखाया गया था कि कक्षा की छात्र-संख्या के अनुरूप ही अपने स्वर को नियन्त्रित रखना चाहिए। नवीं और दसवीं कक्षा में क्रमशः ६ और ५ छात्राएँ थीं। अतः इतनी नगण्य संख्या के बीच मेरा कण्ठस्वर कक्षालय के बाहर नहीं पहुंचता। मिस मार्टिन अपने राउण्ड पर मेरी कक्षा के बाहर खड़ी हो मेरी आवाज को कान लगा कर सुनने की कोशिश करतीं, अन्त में उन्होंने यही निष्कर्ष निकाला कि मैं अपनी छात्राओं को पढ़ाती नहीं हूँ – केवल बातचीत ही करती हूँ, उनसे। एक बार कार्यवश वह विभागीय कार्यालय पहुँची तब दीदी उनसे पूछ बैठीं ‘‘मिस श्रीवास्तव कैसा काम कर रही हैं?” मेरी शिकायत दीदी (इन्स्पैक्ट्रेस) से करने का इससे उपयुक्त अवसर और कब आता? दीदी ने घर पर मुझे यह जानकारी दी थी। फिर क्या था। मैं मिस मार्टिन से जा भिड़ी। उनसे नम्र स्वर में निवेदन किया कि वे मेरी कक्षा के अन्दर आ कर बैठें और सुनें कि मैं लड़कियों को किस तरह पढ़ाती हूँ और कितनी बातें करती हूँ। मेरे इस अनुरोध को तत्काल मान लेना उनकी शान के खिलाफ था। नाक का सवाल जो था। लगभग एक सप्ताह बाद वह मेरी कक्षा में लगभग दस मिनट बैठीं, बिना कुछ टिप्पणी किए उठ कर चलती बनीं।
कुछ ही समय में मैं अपनी छात्राओं से ऐसी घुल-मिल गई कि हमारी वरिष्ठ सहकर्मी मिस पॉल, मिस करकरे आदि ने एक अभियान सा छेड दिया कि यह लड़कियों के बीच लड़की ही जैसी रहती है, चोटी करती है, रंग-बिरंगी चूड़ी पहनती है – उनसे हँस-मिल बातें करती हैं, आदि। रिसेस में ये छात्राएँ कभी-कभी मुझे खींच कर अपने बीच अपना खाना खिलाने ले जाने लगीं। विशेष रूप से किसी पर्व-त्यौहार पर अपने व्यंजन मुझे खाने को बाध्य करती थीं। कक्षा के बाहर यदि अध्यापक-छात्र के सम्बन्ध में कुछ निकटता आ जाए, यह मुझे आपत्तिजनक मुद्दा कभी नहीं लगा। ‘’डिस्टेन्स ऑव डिग्निटी बिटवीन टीचर एण्ड टॉट।”
यह मेरे लिए ऐसा गुरु-मन्त्र था जिसे मैंने सदा-सदा के लिए आत्मसात कर रखा था। हाँ, इतना अवश्य कह दूँ कि यह मन्त्र केवल कक्षालय तक ही सीमित था।
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