आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

बारीक बर्फ़: ऊलाव हाउगे

काले सलीब

श्वेत बर्फ़ में
काले सलीब
बारिश में झुके हुए, टेढ़े।

कँटीले बंजर में से होते हुए
मृतक यहाँ आये।
उनके कन्धों पर सलीब थे
जो उन्होंने यहाँ रख दिये
और वे हरेक बर्फ़ीले
तृणगुच्छ के नीचे
आराम करने लगे।

बारीक बर्फ़

शरद् के तूफान के बाद
फ़्योर्ड शान्त हो चुका था।
अब वह आसमानों और सितारों को
प्रतिबिम्बित करता पड़ा था,
और चाँद उस पर
सोना फैलाता था।

और एक रात
चमकती काली गहराई ने
– शरण के लिए –
फ़ौलाद का कवच ओढ़ लिया।
पक्षियों को वहन किया
और फिंके पत्थरों को
और बर्फ़ को पड़ी रहने दिया।
ज़मीन क्या थी,
पानी क्या था?

जब तक जाड़े के तूफ़ान ने
और गहरी धाराओं ने
फ़ौलाद के तल को
अचानक टुकड़ों में नहीं तोड़ दिया
और कूट-कूटकर गूदे में नहीं बदल दिया।

    ……

मन, कहाँ है तुम्हारी शान्ति,
तुम्हारे उद्देश्य, तुम्हारे सम्बन्ध?
सोये हुए समुद्र पर
बारीक बर्फ़।

समुद्र

वह समुद्र था।
गाम्भीर्य स्वयं,
विस्तृत और धूसर।
लेकिन जैसे मन
एकल क्षणों में
अचानक खोल देता है
रहस्यमयी गहराईयों के
बदलते दर्पण-दृश्य –
समुद्र भी
एक नीली सुबह को
स्वयं को खोल सकता है
आकाश और एकान्त की ओर।
देखो, समुद्र दमक रहा है,
और मुझमें भी सितारे हैं
और गहराइयाँ जो नीली हैं।

सात हवाएँ

सात हवाओं ने, सात हवाओं ने
गुनगुनाया और गाया।
सात हवाओं को, सात हवाओं को
आकाश बहुत छोटा लगा।

सात हवाएँ, सात हवाएँ
टकरायीं झंझावातों में।
एक वहशी हलचल थी वहाँ,
और मृत पत्ते घूम रहे थे भँवरों में।

सात हवाएँ, सात हवाएँ
चलती रहीं अपनी-अपनी राह।
और सभी हवाएँ
आज सोयी हुई हैं।

फ़्योर्ड के दूसरी ओर नदी

वह गिर रही है और गिरती चली जा रही है
आज जैसे कल भी गिर रही थी,
गिर रही है दन्दियों में
जहाँ केवल गरुड़
झपटता है –
निरन्तर गिर रही है,
गिर रही है अपने पूरे वज़न के साथ
चट्टान पर,
बिना किसी आवाज़ के,
बिना किसी गीत के,
जूझ रही है और गिर रही है –
दर्रों और दरारों में से
छलक रही है,
श्वेत दाढ़ी में
बुलबुला रही है,
रुक रही है
और लटक रही है –
गिर रही है
वहाँ जहाँ काल नहीं,
अपने
दुःस्वप्न में फँसी हुई गिर रही है –
एक शब्द भी निकाल नहीं सकती,
एक आवाज़ भी नहीं…

धीरे-धीरे उद्घाटित होता है सत्य

जागना, और महसूस करना
कि तुम्हारा हृदय डूब रहा है
भारी और अँधेरा
और सख़्त होता जा रहा है…

धीरे-धीरे समुद्र अपनी लहर उठाता है,
धीरे-धीरे जंगल लाल होता है दर्रे में,
धीरे-धीरे लपटें नर्क को चाटकर ले आना शुरू करती हैं,
धीरे-धीरे उद्घाटित होता है सत्य।

वसन्त में फ़्योर्ड

उसके उपहार में कुछ कुटिल है,
बोतल जैसे हरे झाड़-झँखाड़ में
कुछ अधम और विचित्र
जिसके बारे में वसन्त का सूर्य जानना नहीं चाहता :
अपुष्प पर्ण, जो किसी दूसरे जगत में पले हैं,
जिनके स्राव में सड़ाँध है, और घृणित
तलछट और पंकिल पत्थर और
काली खोहों में से ऊपर की ओर रेंगती,
आपस में उलझी हुई खर-पतवार।

और यह सच है, वह हरी मख़मली किनार
जो वह पीले तटों को देने का प्रयत्न करता है
हिम के नीचे बुनी गयी थी; उन्हें लम्बे समय से
घास और नवनीत-पुष्प ही मिलते रहे हैं,
उसने सोचा।

लेकिन सांध्य-प्रकाश में उसका औदार्य चमक उठता है,
बर्फ़ानी प्रदेशों के चहुँ ओर
नर्म मख़मल की एक हरी झालर। और सजगता से
बुनकर हट गया है
और उसने आँख मूँद ली है।

पुनर्गान

मेरे मन में गहरे जो नदी है वह फिर गा रही है,
और हवा खड़ी हुई है, उसमें गुँथी हुई प्रशान्ति रात के शीतल देश से
  मुझ तक पहुँच रही है,
वहाँ सपनों जैसे नीले कलश दूसरे समुद्रों में
अपने बिम्ब फेंक रहे हैं।

लेकिन क्या हैं मेरे शब्द?
उत्तर के आगे डटे हुए
तूफ़ानों द्वारा मोड़े-तोडे़ वन,
दिन की
मर्मभेदी आग के विरुद्ध
ऊबड़-खाबड़, खुरदुरे, नुकीले
शैल-पत्थर।

बड़े घर ठण्डे होते हैं

बड़े घर ठण्डे होते हैं।
मैं इसे शरद् में महसूस करता हूँ
पहली बर्फ़ के फाहे जब गिरने लगते हैं
और पृथ्वी सख़्त हो जाती है
पाले के नीचे।
तब उमड़ता है मेरा वीरान अकेलापन,
और छत टूट-फूट जाती है,
और प्रहार कुल्हाड़ी का कुत्ते की तरह चीखता है जमे हुए, बर्फ़ीले, कड़े
  जंगल में।
मेरा जंगल एक जंगल है
इसके जंगल में,
मेरा पर्वत एक पर्वत
इसके पर्वत में,
और दिन एक चमक है
इसकी रात में।
थोड़े से जो लोग और पशु मुझे टकरते हैं,
धुँधल्के में चीड़ की डगारों और तीखी पत्तियों के साथ
झख मारते हुए
और तुषार पर छोड़ जाते हुए अपने पैरों के निशान,
इसके स्वप्न में छायाई टिमटिमाहटें हैं।

जाड़े का दिन

यह अजनबी प्रकाश यहाँ क्या चाहता है?
दिन श्वेत सितारों के नीचे है।
और स्वप्न चाँद के नीचे फूटते हैं।

पर्वत अपने बहुत अन्दर शब्द लिए हुए है,
पर उसका सीना कड़ा है और दाढ़ी जमी हुई है।
नदी-मुख संक्षिप्त कौंधों में उत्तर देता है, एक संक्षिप्त क्षण के लिए
  खुलता है,
और देवदारु थोड़ी सी यक्षधूप त्याग देते हैं।
बुलबुल अपने स्वर्णिम-शिखर से बर्फ़ झाड़ती है,
और घोड़े की सर्द थूथन काँपती है।
जलाने की लकड़ी में से घूमता हुआ ठण्डा सख़्त गूदा निकलता है,
और पाला हज़्म कर जाता है कुल्हाड़ी के प्रहार को।

लेकिन अब चोटी सूर्य की चकती को हज़ार टुकड़ों में तोड़ देती है,
  उसकी
भेंगी नज़र को फेंक देती है दूर एक नभ की ओर।
शैल-शिलाओं पर बुझ जाती हैं ऊँची स्नोबर-बत्तियाँ
और पेड़ झुण्डों में टिक जाते हैं रात के लिए।
नदी दर्रे में उछ्वास छोड़ती है, समुद्र के लिए अपनी इच्छा को बर्फ़
  में बदल देती है,
और पत्थर हिम के नीचे सोते हैं अपने हृदयों में हरे स्वप्न लेकर।

दलदल के पार

इन सब पेड़ों के स्थूणों पर पैर रखते हुए जो यहाँ गिरे पड़े हैं
तुम दलदल को
सुरक्षित लाँघ सकते हो।
इस तरह की जड़ें देर तक रहती हैं, सम्भव है
ये सदियों से यहाँ पड़ी हों,
और तब भी शैवाल के नीचे
उनके गलते हुए निशान हैं,
वे अब भी यहाँ हैं और तुम्हारा वज़न सह लेती हैं
और बिना चोट खाए तुम्हें पार करने देती हैं।
और जब तुम पहाड़ी झील तक वहाँ दूर आगे निकल जाते हो
तुम महसूसते हो कि कैसे वहाँ स्मृति भी उपस्थित है
उस ठण्डे व्यक्ति की
जिसने डुबो लिया था यहाँ अपने आप को
और वह एक क्षीण कश्ती लिए हुए है,
दीवाना आदमी जिसने अपनी ज़िन्दगी
पानी और अनन्त काल के भरोसे छोड़ दी थी।

जब मैं जागता हूँ

जब मैं जागता हूँ, एक काला
कऊआ मेरे हृदय को नोचता है।
क्या मैं फिर कभी नहीं जागूँगा और देखँूगा
समुद्र और सितारे, जंगल और रात,
और सुबह जिसमें पक्षी गाते हैं?

फ़र्श

अपना एक फ़र्श हो
तो अच्छा रहता है।
तुम्हारे नीचे
क्या वह काँपता था
या कष्ट उठाता था?
नाचता
तो मैं नहीं,
पर मैं
इधर-उधर आता-जाता हूँ
अपने
इस या उस में व्यस्त।
कभी-कभार
मैं गुस्सा खाता हूँ,
गुस्सा,
भारी कदम पटकता हूँ,
मुझ में अभी भी
ज़रूर कुछ
जवान होगा,
जवान,
एक वहशी घोड़ा
जो लगाम में
हिनहिनाता है।
और कभी-कभी
फ़र्श गूँजता है,
और अलमारी और स्टोव में
कुछ खनकता है।

यह वो स्वप्न है

यह वो स्वप्न है जिसे हम छिपाकर रखते हैं
कि कुछ चमत्कारिक घट जायेगा,
कि वह अवश्य घटेगा –
कि समय खुल जायेगा
कि हृदय खुल जायेगा
कि द्वार खुल जायेंगे
कि चट्टान का चेहरा
खुल जायेगा
कि झरने फूट पड़ेंगे –
कि स्वप्न खुल जायेगा,
कि एक सुबह हम तैरते हुए
जा निकलेंगे किसी नन्ही, अनजान बन्दरगाह में।

पत्तों की झोंपड़ियाँ और बर्फ़ के घर

ये कविताएँ
कुछ ख़ास नहीं हैं, सिर्फ़
कुछ शब्दों का यों ही लगाया
एक ढेर।
फिर भी
मेरा ख़याल है
इन्हें बनाना
कोई बुरी बात नहीं है, तब
मेरे पास
थोड़ी देर के लिए
एक घर जैसा कुछ होता है।
मुझे याद हैं पत्तों की वे झोंपड़ियाँ
जो बचपन में
हम बनाते थे:
हम रेंगते हुए उनमें घुस जाते थे और बैठकर
बारिश को सुनते थे,
जंगल में एकान्त को महसूस करते थे,
नाक और बालों पर
पानी की बूँदें –
या क्रिसमस पर बर्फ़ के घर,
जिनमें घुसकर हम बोरी से सुराख़ को बन्द कर देते थे
और मोमबत्ती जलाकर, ठण्डी शामों को
वहाँ बैठे रहते थे।

कुछ पूर्वचिन्ह होते हैं

कुछ पूर्वचिन्ह होते हैं:
हवा, रूहें और पक्षी।
और घूमने वाले दरवाजे़।

वह
कौन था जिसे मैंने
काँच में देखा
जब तुम अन्दर आये?

दरवाज़ा बन्द हो गया।
हम में से कोई भी
कुछ नहीं बोला।

तुम अब भी सवारी कर रहे हो

तुम अब भी मेरी बगल में
सवारी कर रहे हो,
डूबता हुआ सूरज
आल में,
चिनगारियाँ और खुरों की आवाज़ें
बज रही हैं
एकान्त पर्वत के भीतर से –
तुम अब भी मेरी बगल में
सवारी कर रहे हो,
बारिश में से होते हुए
जो बरस रही है हवा में
जो सख़्त पड़ती जा रही है
नीचे जाती हुई
इस ढलुवाँ राह पर
जो तेज़ी से गिर रही है –
वह नीचे जा रही है, सीधा नीचे तल की ओर जा रही है,
मैं बस यही जानता हूँ, और शरद् की रात उतर आयी है।

पर्वत अब मुझे लुभाते नहीं

पर्वत अब मुझे लुभाते नहीं।
मैंने ठण्डी हिमराशियों के बीच अब काफ़ी देर रह लिया है।
मैं अब भी वनों में से गुज़रता हूँ, शरद् की
हवा को सुनता हूँ, गिरितालों के पास रुकता हूँ,
नदियों के पीछे जाता हूँ। वर्ष के आख़िरी दिनों तक भी
तुम्हें वहाँ बेर मिल जायेंगे।
यदि तुम्हें और आगे जाना है तुम्हें पर्वतों को पार करना होगा।
चोटियों को दिशाकोणों की तरह वहीं खड़ा रहने दो जहाँ पर वे हैं।

एक बर्फ़ीली शाम
मैं एक लैम्प-पोस्ट के नीचे रुकता हूँ

अन्ततः मुझे नज़र आता है
  वह अकेला लैम्प-पोस्ट
    वहाँ जहाँ सड़क बँटती है,

बर्फ़ीली शाम में
  रोशनी का अपना छाता
    सतत ऊपर किए हुए।

मैं रुकता हूँ, हालाँकि मेरे पास
  कोई प्रेम-पत्र नहीं है
    जो मुझे शर्माते हुए

पढ़ लेना चाहिए था, बस
  यह विचित्र लगता है
    यहाँ रुकना,

इस छाते के नीचे, जब
  बर्फ़ इतनी घनी है,
    और यह देखना

कि कैसे उसके फाहे
  रोशनी के छल्ले में
    थोड़ी देर तैरते हैं

फिर घूम जाते हैं
  वापिस अन्धेरे में
    या धीमे-धीमे बैठ जाते हैं।

और मेरे चहुँ ओर अन्धेरे में
  – बर्फ़, बर्फ़।

पर्वत इतने भारी हैं
कि उन्हें हिलाना मुश्किल है

पर्वत इतने भारी हैं कि उन्हें हिलाना मुश्किल है,
बलूत की जड़ टस से मस नहीं होती,
किसकी हिम्मत है कि वह दुनिया की
बड़ी वस्तुओं से पंगा ले?
बैल और हाथी लम्बे सफ़र में
उन्हें पीठ पर ढोते हैं, गरुड़ फेंक देते हैं
रक्तरंजित टुकड़े और
चट्टानों की दीवारों पर और खोहों में
झपटते हैं,
भेड़िए उन पर कुत्तों की तरह लड़ते हैं,
लोमड़ियाँ शिकार के चहुँ ओर घूमती हैं,
मक्खियाँ उन्हें गन्दा करती हैं,
मैगपाइ चाँदी को चुराती है,
साँप किरीट पहनता है।

एक बारिश वाले दिन
मैं पुराने बलूत के नीचे रुकता हूँ

यह सिर्फ़ बारिश नहीं है
जिसकी वजह से मैं सड़क के किनारे
पुराने बलूत के नीचे
रुकता हूँ, चौड़े शिखर के नीचे
सुरक्षित महसूस
होता है, यह ज़रूर
पुरानी मित्रता होगी जो बलूत को और मुझे
वहाँ चुपचाप
खड़ा होने देती है, पत्तों में से बारिश के
टपकने की आवाज़ को सुनते हुए, धूसर दिन में
बाहर देखते हुए,
प्रतीक्षा करते हुए, समझते हुए।
दुनिया पुरानी है, हम सोचते हैं,
और हम दोनों बूढ़े हो रहे हैं।
आज मैं सूखा नहीं खड़ा हुआ,
पत्तों ने गिरने की आदत डाल ली है,
कच्ची हवा में
खट्टी बू है, मैं अपनी खोपड़ी पर
बूँदें महसूस कर रहा हूँ ।

Leave Comment