मेट्रो / Metro
मेट्रोपोलिटन स्पेस में जीवन को पिछले कुछ वर्षों में बहुत तरह से पढ़ा गया है. इस बार की हमारी शीर्ष कथा उस जीवन की लय को, उसकी कविता को पकड़ने की कोशिश करती है. तीन माध्यमों – कविता, गद्य और फोटोग्राफी में कुल सात पाठ और चार मेट्रो शहर इसमें शामिल हैं. कोलकाता जहाँ एक ओर अभिनेता और लेखक ट्रिना बनर्जी की कविताओं में इस तरह आत्मसात हो जाता है कि ये कवितायें कोलकाता का नहीं लिखने वाले के आत्म का बखान हो जाती हैं वहीं कथाकार सुमना राय के बहुस्वरीय संस्मरण में वह एक परिवार की तीन पीढ़ियों और उस परिवार के आश्रितों के स्वप्न और यथार्थ, सम्मोहन और निराशा, मौन और आवाज़ के मध्य डोलता हुआ ‘एकमात्र’ शहर है. कौशिक सेन गुप्ता के विजुअल निबंध में वही कोलकाता एक बिल्कुल भिन्न शहर है – अपनी सबआल्टर्न पृष्ठभूमि से अधिक चमकते देवी देवता मानो तत्क्षण उसी तरह उससे एलियनेटेड और उसी में समाहित हैं जैसे परंपरा और आधुनिकता भारत के इस सबसे अनोखे महानगर में। इन छायाचित्रों पर ट्रिना बनर्जी का गद्य भी कोलकाता-पाठों में शामिल है।
दिल्ली के पुराने रेड लाईट एरिया जी.बी. रोड़ की रिक्शे से सवारी कराता हुआ प्रभात रंजन का गद्य औपनिवेशिक नज़रिये और एक्टिविस्ट आवेग के बिना इस ‘बदनाम बस्ती’ में प्रवेश करता है और वहाँ ‘लज्जा’ के अनूठे दृष्टांत ढूँढ़ लेता है; जे. संजना की गद्य कविताओं का ‘बॉम्बे’ कभी अलसुबह की शांति में और कभी लोकल ट्रेन, रेल्वे स्टेशनों और सड़कों के अतिपरिचित में प्रकट होता है और धीरे धीरे इसे देखने वाली को ‘घरों के प्रति उन्मादी’ बना देता है; और तेजी से मेट्रो होता गया जयपुर इस अंक के फीचर्ड आर्टिस्ट हिमांशु व्यास के छायाचित्रों में कभी कभी वह शहर है जो शायद जल्दी ही वह नहीं रहेगा – हिमांशु के सब चित्र मिलकर कोई महानगर नहीं बनाते, वे महानगर की अवधारणा को विसर्जित करते हुए चित्र हैं. |
Life in the metropolitan space has been studied variously in recent years. Our lead feature consisting of seven texts in three media – poetry, prose and photography – tries to frame the rhythm and the poetry of this life. Kolkata which, in actor-writer Trina Banerjee’s poems, is internalized in such a way that they appear more as an expression of the writer’s self (and not of the city as such), is also the ‘only’ city around, oscillating between dream and reality, fascination and despair, silence and voice of three generations of a family and its dependants in Sumana Roy’s memoir. The same (?) Kolkata is very different in Kaushik Sengupta’s visual essay – strikingly bright images of gods and goddesses emerging out of a subaltern background, at once alienated from and dissolved into it, just as modernity and tradition have always been in this strangest of Indian cities. Trina Banerjee’s text on Kaushik’s work is the last of the four Kolkata-texts.
Taking us on a rickshaw ride of GB Road, the old red light area of Delhi, Prabhat Ranjan’s piece enters the ‘badnaam bastee’ without the usual colonial attitude and activist passion and, perhaps because of that, is able to witness some very surprising moments of ‘shyness’. In J. Sanjana’s prose poems, ‘Bombay’ that is visible either in the calm of the early mornings or in the very familiar space of roads, local trains and railway stations, gradually finds the poet ‘obsessing with the houses’. In Himanshu Vyas’s photographs, Jaipur (fast becoming a metro) is sometimes the city it will soon cease to be. Put together, Himanshu’s visuals do not construct Jaipur as a Metro, instead they try to deconstruct the very notion of ‘big cities’. Click to ReadThe Stone Leaves For The Street: Trina Nileena Banerjee From a City of Gods: Kaushik Sengupta अंग्रेज चले गए रोड छोड़ गए उर्फ रिक्शे पर सवार जी. बी. रोड: प्रभात रंजन |