आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

दरख़्त को क्यों इतनी झेंप: लाल्टू

रद उड़ानें

उनकी तरफ उड़ानें बरसों पहले रद हो गई हैं।
युवा कवि जो कापीराइटर बन गया, अर्थशास्त्री जो एम एन सी का सी ई ओ है,
सरकारी गलियारों के वरिष्ठ कवि, समीक्षक, वैज्ञानिक, सबकी ओर
मेरी उड़ानें पटरी से ऊपर उठकर फिर उतर आती हैं।
यमुना पार बसे दोस्तों में एक के पास मेरा दिल है
उधर उड़ने से रोकता हूँ खुद को बार बार

वर्षों पहले रद हो चुकीं जो उड़ानें
उन्हें दुबारा उड़ने पर खुद ही खींच उतारता हूँ
हालाँकि सब के साथ खुद को भी लगता है कि
ज़मीं पर ही खड़ा हूँ हर क्षण।

आज की बारिश में कल की बारिश है

आज की बारिश में कल की बारिश है
कल पुरु छोड़ आया था सिकंदर को सड़क तक छतरी से ढँक कर
मैं तब तक एक छत के नीचे गिन गिन कर चक्कर काट रहा था
पुरु के वापस आने तक मैंने कई सौ साल बिताए
हर चक्कर के बाद देखता कि बारिश रुकी नहीं है
और मुझे फिक्र रही कि खाने में देर होगी
सदियों तक खाने की चिंता में रहा मैं
यह आज नहीं कि मैं सोच रहा हूँ
भोजन के अलावा भी चिंताएँ हैं सोचने के लिए
उन सदियों में हर क्षण रहा मैं ग्रस्त इस बोझ से
बारिश थी कि रुक ही नहीं रही थी
और आखिरकार मुझे लौटना ही पड़ा पुरु की छतरी के नीचे
जहाँ जा रहा था वहाँ भोजन इंतज़ार में था
इंतज़ार में थे कई ऐतिहासिक चरित्र
जिनके साथ बैठ चबाते हुए रोटियाँ
हमने कहनी सुननी थी कहानियाँ
उस दौरान भी बीतीं सदियाँ बड़ी जल्दी
हम धातु युग में थे और बर्त्तन थे जिनको धोना था खाना खाकर
तब मैंने सोचा था कि कल की बारिश में होगी आज की बारिश
जैसे आज देख रहा हूँ आज की बारिश में कल की बारिश।

स्केच

अभी कोई घंटे भर पहले शाम हुई है
हाल के महीनों में धड़ाधड़ व्यस्त हुए
इस इलाके की सड़क पर दौड़ रही हैं गाड़ियाँ
कहीं न कहीं हर किसी को जाना है औरों से पहले
और शाम है कि अपनी ही गति से उतर रही है

एक काला शरीर सड़क के किनारे
पड़ा है इस बेतुकी लय में बेतुके छंद जैसा
ठीक इस वक्त पास से गुजर रहे हैं दो विदेशी
महिला ने माथे पर पट्टी पहनी है
अंग्रेज़ी की खबर रखने वाले इसे बंधाना कहते हैं
दो चार की जुटी भीड़ से बचते जैसे निकले हैं वे
इसे नीगोशिएट करना कहते हैं
हालांकि इस शब्द का सही मतलब संधि सुलह जैसा कुछ है

दो चार लोग जो जुटे हैं आँखें फाड़ देख रहे हैं
आम तौर पर होता कोई पियक्कड़ यूँ सड़क किनारे गिरा
थोड़ा बहुत बीच बीच में हिलता हुआ
पर यह मरा हुआ शरीर है बिल्कुल स्थिर
दो चार में एक दो कुछ कह रहे हैं जैसे
कि कौन हो सकता है या है
यह शरीर किसी गरीब का
उतना ही कुरुप जितनी सुंदर वह विदेशी महिला
क्या कहें इसे यथार्थ या अतियथार्थ
यह भी सही सही अंग्रेज़ी में ही कहा जाता है
वैसे भी इन बातों पर विशद् चर्चा करने वाले लोग
कहाँ कोई भारतीय भाषा पढ़ते हैं
इस स्केच में अभी पुलिस नहीं है
बाद में भी कोई ज्यादा देर पुलिस की
इसमें होने की संभावना नहीं है

भारत के तमाम और मामलों की तरह पुलिस कहाँ होती है
और किसके पक्ष या किसके खिलाफ होती है
यह भाषाई मामला है
बहरहाल फिलहाल इस स्केच को छोड़ दें
जो मर गया है उसको मरा ही छोड़ना होगा
अगर थोड़ी देर रोना है तो रो लो
जो ज़िंदा हैं उनके लिए रोने की अवधि लंबी है
इसलिए आँसुओं को बचाओ और आगे बढ़ो।

चारों ओर दीवारें

चारों ओर दीवारें। दीवारों के बीच मैं और वह।
मैं हिलता हूँ वह हिलती है। कभी एक दूसरे की ओर देखते हुए कभी नज़रें
छिपाकर हम चलने को होते हैं, पर जल्दी ही किसी दीवार से टकरा जाते हैं।
दीवारों पर किसी ने नाम चिपका रखे हैं। हम दोनों के सिवा यहाँ पर और कोई
नहीं है, इसलिए ये नाम हममें से किसी ने चिपकाए हैं। एक दीवार से दूसरी
दीवार तक नज़र हटाने से लगता है उस पर चिपका नाम बदल चुका है।
मेरे दिल में लहर उमड़ती है। मुझे घबराते देख वह मेरे पास आती है। उसका
चेहरा अचानक बहुत सुंदर लगता है। जल्दी ही तंग आकर मैं उसे हाथ से यूँ
धकेलता हूँ जैसे मेज पर पड़े फालतू कागज़ों को हटा रहा हूँ। उसके चेहरे
पर कोई भाव नहीं उभरता। वह एक कोने की ओर चली जाती है। वह मेरी ओर देखती
है। वह मुझे नहीं कुछ और देख रही है।

दरख़्त को क्यों इतनी झेंप

दरख़्त को क्यों इतनी झेंप
जब भी देखूँ
लाज से काँप जाता

पूछा भी कितनी बार
छुआ भी सँभल-सँभल
फिर भी आँखें फिसलतीं
पत्ते सरसराकर इधर उधर
झेंप झेंप बुरा हाल।

समुद्र-२

आँकड़े हैं मलेरिया प्रभावित जनसंख्या के
आँकड़े हैं लहरों में खो गए सपनों के
आँकड़ों की स्लाइडें ढूँढकर चमक उठी हैं उसकी आँखें
बेटा चर्च के कंगूरे पर चढ़कर बच गया है
गायब हैं बीबी ओर बेटी नामक दो प्राण
तकरीबन विध्वस्त धरती पर चलता है वह
नया साल है, नए आँकड़ों में छिप गए हैं दुःख और प्रेम
साथ चल रहे कदमों को लहरों के पास जाने से
रोकते हुए सोचता है
उनको रोकने की जो कहीं नहीं हैं
साथी की आँखों में आँसू हैं
जिन्हें उँगलियाँ बनाती हैं डिजिटल आलेख
दूर दूर तक लोग रोते हैं उसके लिए
ढूँढ रहा है जो कुछ और स्लाइडें।

ट्रिप-१९९४

सड़क पर औरत धो रही थी पत्थर
गतिमान, गतिशून्य।
कहाँ से आते हैं पत्थर?

भीगे कपड़े
भीगे कपड़ों में भीगी लिपटी।

मैंने देखा पीछे से
पीठ नीचे जाकर दोफाड़।
कल चंडीगढ़ श्मशान।

सुबह दिल्ली प्लैटफार्म पर देखा आदमी पाछों पर
पाजामा खींचता। नाड़ा बाँधता।
लड़कियाँ सामान पर बैठी छिप के हँस रहीं।

सुबह इतनी सुबह कि उबकाई।
मुगलसराय से आगे बढ़ते हुए
अँधेरे में ढूँढता हूँ पत्थर धोती औरत।
लड़के सुन रहे हैं फूहड़ गीत।

ट्रिप जारी है।
छुक छुक छुक छुक।

2 comments
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  1. बहुत खूब, लाल्टू। पुरू की छतरी–यह जुमला और बिंब कमाल करता है।

  2. “सदियों तक खाने की चिंता में रहा मैं”

    Bahut umda! Badhiya kavitaen.

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