इस अशीर्षक समय में: कुमार अनुपम
बंगालः चार कवितायें
समुद्र
1.
दुख…
समुद्र
सम उ द र
तुम्हारा पास पाना चाहता हूँ
2.
समुद्र
तुम्हारा साथ पाकर
दिशाएँ अपनी पहचान खो बैठी हैं
यूँ कहता तो नहीं
किंतु फैली इस धुंध में
कहता हूँ कि व्यस्त विस्तार तुम्हारा
असीम है फ़िलवक़्त…
एक कुतूहल
तुम्हारे पार से समुद्र
उगता हुआ देखना चाहता है कुछ….
बंगाल
1.
बंगाल देखा
समुद्र देखा
पहली बार
बंगाल और समुद्र देखा
बंगाल और समुद्र को
एक दूसरे में डूबा हुआ देखा…
2.
मैं सूर्यास्त शब्द को काट
कविता को ठीक करना चाहता हूँ – विनोद कुमार शुक्ल
मेरे क़स्बे मे जब उतरा था दल मूर्तिकारों का
मैंने बंगाल को सुना था
दीघा के तट पर
देखा मैंने बंगाल
को उगते हुए देखा
हावड़ा के झूले पर
झुले पर हावड़ा को झूलते हुए
भरते हुए पेंग की साँस
शांतिनिकेतन नन्दनपैलेस
मालदह वर्धमान
रोमांचित व्यस्त बंगाल
बंगाल मस्त बंगाल
देखा
नावों के नारंगी मस्तूल-सा
ज़ोर पर हवा के मुड़ता हुआ बंगाल
दिल्ली गुजरात मुम्बई
और जाने कहाँ की रेलों में
लुकता हुआ भागता हुआ
अस्त होता हुआ डायमंडहार्बर पर
सोनागाछी पर नष्ट होता हुआ बंगाल
देर रात
सुना न जाता था
समुद्र का छाती पीट पीट कर चीखना –
बं गा ल….. बं गा ल
बं गा ल….. बं गा ल
एक अशीर्षक समय में
अँखुवे झड़ रहे हैं जबकि पतझर का मौसम दूर है सड़को पर सर पटक रही है रंगों में उफनाती राप्ती बाढ़ के नियमित आषाढ़ को धकियाती साँय साँय की चीख सायरनों में प्रखर कई गुना जबकि बिजलियों आँधियों की ऋतु दूर है बहुत जो उपस्थित है साक्षात में अनुपस्थित भी दिख जाता है सरापा नग्न इस अशीर्षक समय में आत्मा की खुरचन है साँस साँस जिन पर धमाकों की कतार मार्च कर रही है अनागत नींद तलक अतृप्ति का पहरा है आश्वस्ति की घोषणा प्रसारित हो रही है – ‘स्थिति तनावपूर्ण किंतु नियंत्रण में’ – खुला है ‘बलरामपुर मॉडर्न स्कूल, बलरामपुर’ की गणित की कक्षा में श्री टी.एन.मिश्र की बेंत सुनने वाली है उन्नीस का पहाड़ा और कुछ ढीठ छात्र बीस के पहाड़े की सरलता से बढ़ गये हैं कापी के पिछले पन्नों के लोकतांत्रिक मैदान में कट्टम बट्टम खेलने की चुपचाप ज़िद में मशगूल हैं आतंक से निस्पृह जैसे एक स्कूल ही बना देता है इतना कुंद इतना बेशर्म इतना पत्थर इतना बाइज़्ज़त कि फिर ज़ोर आजमाइश किसी भी दर्द की उनके लिए कट्टम बट्टम को सीधी चपल रेखा से मिलाने जीत जाने की मोहताज भर है कि समाप्ति इस खेल की घंटा ख़त्म होने के बाद भी नहीं है सुनिश्चित इन्हीं शोहदों के जीवट के प्रति उस्ताद ग़ालिब ने समर्पित किया होगा ग़ज़ल का एक पूरा मिसरा, ‘दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना’, लाजिम है जनाब सोचना ही यह कि कर्फ़्यू में समय है समय में शहर है शहर में खुला है स्कूल स्कूल में गणित की कक्षा कक्षा में गणित अध्यापक श्री टी.एन. मिश्र हैं और बच्चे भी कितना असंगत है यह सब मगर इंद्रियों के बिना भी जो देखा जा रहा सुना जा रहा भोगा जा रहा सहा जा रहा अथाह जघन्य और असह्य (निढ़ाल नाख़ूनों से खुरचते हुए हृदय सपने प्रतिभा जन्म और मनुष्यता का पश्चाताप…) उस बहुत कुछ से भरे जा सकते हैं इतिहास के पोथन्ने अनगिन से तो कमतर ही है इस ढीठ कवि का यह अक्षम्य अपराध अन्यथा महापंडितों नृतत्त्वशास्त्रियों वैज्ञानिकों राजनीतिज्ञों दंड दें कि आप मूर्तमति के समक्ष मैं अमूर्तमति नहीं कर सका समय का संकीर्तन पाठ कि इसे पिछले पन्ने पर लिखीं कुछ सतरें ही मानें महज कि आप पारित कर सकते हैं अध्यादेश ऐसे कि अब बची है अधिक संवेदना सिर्फ़ संवेदी सूचकांक में ही
सायलेंट अल्फाबेट्स
उनके पास
अपनी ध्वनि थी
अपनी बोली थी
फिर भी
गूंगे थे वे
स्वीकार था उन्हें
अपने स्वर का तिरस्कार
इसलिए वे
अंग्रेज़ी के अरण्य में रहते थे