आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

मैं देवदास मुकर्जी बनना चाहता हूँ: गिरिराज किराड़ू

1

बहुत कम ‘आधुनिक’ किताबों की नियति वैसी रही है जैसी कि देवदास की – एक अप्रत्याशित मिथकीयता से घिर जाने की नियति. इसके प्रकाशन के पूर्व शायद ही कोई यह कल्पना कर सकता था कि यह कृति एक पुस्तक से अधिक एक मिथक हो जायेगी. और इसमें शायद ही किसी को कोई संदेह हो कि पुस्तक की यह मिथकीय अवस्था उसके मुख्य पात्र देवदास के एक मिथक, एक कल्ट में बदल जाने से है.

2

देवदास को शायद हम उस तरह कभी नहीं जान सकते जैसा वह शरतचंद्र की कल्पना में था – वह अपने सर्जक की कल्पना से विस्थापित एक पात्र है. इस  अर्थ में वह ओथेलो या लियर जैसे पात्रों से बहुत भिन्न है जिन्हें हम तमाम नये-नये पठनों के बावज़ूद लेखक की मूल कल्पना में ही लोकेट करते हैं – वे एक ‘ट्रैजिक पुरुष/नायक’ की तरह कल्पित किये गये हैं और हमारे पठन/कल्पना में वे बहुत दूर तक वैसे बने रहते हैं. देवदास की कल्पना शरत ने कैसे की है? क्या वे देवदास को एक ट्रैजिक नायक की तरह कल्पित कर रहे थे? उपन्यास के अंत में वे लिखते हैं:

लेकिन मरते वक्त कोई अपना पास हो और उसका स्पर्श मिले तो मृत्यु भी उतनी दुखदायी नहीं होती. भगवान इस सुख से किसी को भी वंचित न रखे, भले ही वह व्यक्ति अपने होने में देवदास मुकर्जी ही क्यों न हो.

इससे हमें कुछ अनुमान होता है शरत के लिये देवदास कैसा ‘व्यक्ति’ है? अब ज़रा यह देखें कि वह हमसे – देवदास के पाठकों से, जो ‘उसकी परिणति से हिल गये होंगे’, क्या अपेक्षा करते हैं?

इस उपन्यास को पढ़ने वाला हर पाठक देवदास की परिणति से हिल गया होगा. मैं यहाँ अपने पाठकों से यही कहना चाहूँगा कि आप लोगों में से किसी का कभी देवदास जैसे किसी व्यक्ति से परिचय हो तो उसके लिए ईश्वर से यही प्रार्थना कीजिए कि अपनी जिन्दगी में, चाहे वह जितने भी कष्ट उठा ले, लेकिन उसकी लावारिसों जैसी मौत न हो.

मुझे संदेह है बस इतनी भर करूणा की अपेक्षा थी शरत को हमसे, देवदास के पाठकों से, कि हम ‘देवदास जैसे व्यक्तियों’ के लिये भी ऐसे अंत की कल्पना न करें, कि हम ऐसे व्यक्तियों के लिये प्रार्थना करें कि उनकी ‘लावारिसों जैसी मौत न हो’ ‘अपनी जिन्दग़ी में’, चाहे वे ‘जितने भी कष्ट उठा’ लें.

करूणा की इस पेचीदा पहेली को थोड़ा करीब से देखने के लिये हम कथा में वहाँ चलते हैं जहाँ देवदास का मरना लिखा हैः

एक आदमी ने देवदास के मुँह में थोड़ा पानी डाला. देवदास ने उसे एक बार कृतज्ञता भरी नज़रों से देखा, फिर आँखे मूंद ली. कुछ देर उसकी धौंकनी चलती रही, फिर एक हिचकी आई और अन्ततः देवदास मर गया.

अन्तिम संस्कार की बाबत लोगों में चर्चा होने लगी.

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जाति का पता अब तक नहीं चल पाया था. अन्ततः इस काम के लिए चांडालों को बुलाया गया. वे देवदास की लाश को खींचकर ले गए और जैसे तैसे जला दिया. जलाने का समुचित प्रबन्ध न होने के कारण लाश ठीक से जल नहीं पायी थी, अधजली लाश को ले जाकर भगाड़ में फेंक दिया गया. चील कौवों की दावत हो गयी. वे अधजली लाश पर टूट पड़े.

शरत का अनुमान ठीक है; यह विवरण पढ़ कर, यह परिणति देखकर – गाँव के बाहर जानवरों की लाशों और कूड़े के बीच, भगाड़ में,  देवदास की अधजली लाश फिंकता हुआ देखकर, चील कौवों द्वारा उसे नुचता हुआ देखकर – हम हिल जायेंगे.  वे हमारी करूणा को ठीक निशाने से भेदते हैं, लेकिन कहीं शरत के साथ वैसा तो नहीं हो रहा जैसा, मिलान कुंदेरा के अनुसार, आन्ना कॉरेनिना लिखते हुए तोलस्तोय के साथ हुआ था? तोलस्तोय, एक पक्के कैथॅलिक, को उपन्यास की कथा एक समाचार में मिली – एक स्त्री के रेल से कट कर आत्म-हत्या करने का समाचार था यह. तोलस्तोय उपन्यास लिख कर स्त्रियों को यह ‘शिक्षा’ देना चाहते थे कि वे आन्ना की तरह ‘अनैतिक’ एवं ‘पापपूर्ण’ रास्ते पर ना चलें पर जैसा हम जानते हैं उपन्यास यह ‘शिक्षा’ देने में विफल रहा – वह ऐसी कृति बन कर उभरा जो कृतिकार की अंतश्चेतना या प्रयोजन से दूर या विपरीत चली जाती है (दिलचस्प है कि तोलस्तोय के साथ यह तब भी हुआ जब वे कृति की ऐसी ‘बदचलनी’ के अन्यतम उदाहरण – वैसे ही पक्के धार्मिक जॉन मिल्टन और उनका महाकाव्य पैराडाइज़ लॉस्ट जिसका घोषित उद्देश्य था साधारण, भ्रम में फंसे (आस्तिक) मनुष्यों के सम्मुख ‘ईश्वर के तौर-तरीकों का औचित्य सिद्ध करना’ लेकिन जो अपने प्रभाव में ईश्वर की बज़ाय शैतान के तौर-तरीकों का औचित्य प्रतिपादन करने वाली कृति बन गया – से बहुत गहराई से परिचित थे) क्या शरत की अपेक्षा यह थी कि हम ‘देवदास जैसे व्यक्ति’ ना बनें? क्या वे यह चाहते थे कि यह उपन्यास हमें यह ‘शिक्षा’ देने वाली कृति बन जाये? अगर ऐसा था तो तोलस्तोय की तरह शरत भी अपनी कृति के हाथों ‘छले’ गये.

देवदास ने हमें यही सिखाया कि हम देवदास जैसे बनें. और यह ऐसी शिक्षा है जो कोई नहीं देना चाहता – ना अभिभावक ना परिवार, ना समाज, ना राज्य, ना धर्म, ना कानून. यह ‘शिक्षा’ (या कुफ़्र का शैतानी उकसावा?) सिर्फ़ एक कलाकृति दे सकती है क्योंकि देवदास ने यह सिखाया कि अस्तित्व की एक बिल्कुल भिन्न कल्पना संभव है (देवदास घर, परिवार, समाज, देश किसी के भी ‘काम’ का नहीं फिर हम उसके प्रति करूणा क्यूँ महसूस करते हैं?) वह प्रेमकथाओं के नायक की तरह ना तो एक आकर्षक ‘उन्मादी क्षण’ में प्रेम के लिये स्वयं को नष्ट करता है, ना वह प्रेम के लिये कोई ‘संघर्ष’ करता है – वह अत्यंत साधारण है और अपने अंत के लिये ‘ग़फ़्लत’ का एक धीमा मार्ग चुनता है. पर देवदास की इस ‘ग़फ़्लत’ पर हम फिर लौटेंगे, फिलहाल हमें एक नहीं दो विषयांतर करने होंगे.

विषयांतर एक

उपन्यास के अंत में शरत हमसे जिस करूणा की अपेक्षा करते हैं (जो इस सीख के बाद का चरण है कि हम उसके जैसे न बनें) उसका देवदास की मृत देह के साथ क्या होता है से शायद एक गहरा संबंध है. शरत के समकालीन पाठकों के लिये (जो कि हम नहीं हैं, ना हो सकते हैं) शायद देवदास जीवन में ‘जितने कष्ट उठाता’ है उससे ज़्यादा मार्मिक वह कष्ट है जो उसकी मृत्यु की विधि (‘लावारिसों’ की तरह मरना) में और उसकी मृत देह के साथ होने वाले व्यवहार में निहित है. देवदास जो एक जीवित मनुष्य के रूप में अपने समकालीन (पाठक) समाज में सहानूभूति का नहीं, अपयश और निंदा का विषय है मरते ही सहानूभूति का विषय हो जाता है क्योंकि उस समकालीन समाज के लिये प्रत्येक मनुष्य (फिर चाहे वह ‘देवदास मुकर्जी’ जैसा व्यक्ति ही क्यों न हो!) की मृत देह का कोई उचित संस्कार होना आवश्यक है. उसके अभाव में वह ‘मर कर भी’ पीडित रहेगा. शरत देव के प्रति इतने निष्ठुर हैं कि वे उसे इस मरणोत्तर पीड़ा से भी नहीं बचाते; वे अपने (समकालीन) पाठकों को उसके जैसा न बनने की ‘शिक्षा’ देने के लिये इस कदर दृढ़ हैं,  इस कदर ‘वस्तुनिष्ठता’ से देवदास के मरने, उसकी लाश के ठीक से न जलने और अधजली लाश के कूड़े के बीच फिंकने को लिखते हैं  कि हमसे (पाठकों) से करूणा की उनकी पेचीदा प्रत्याशा भी अजीब लगती है – इस करूणा का लक्ष्य देवदास नहीं शायद हम स्वयं हैं. देवदास का मंतव्य विरेचन है और यही उसके मुख्य पात्र को, मानो उसके लेखक के मंतव्य के विपरीत, एक ‘अप्रत्याशित ट्रैजिक नायक’ बनाता है – मरणोत्तर?

विषयांतर दो

देवदास की कथा सदैव ही जीवन से कुछ इस हद तक प्रतिसंकेतित रही है कि देव की मृत्यु भी उसके ग़फ़्लत से/में अपना धीमा अंत करते हुए जीने / बेखुद, असांसारिक होते जाने का एक अंग लगती है; वह अलग से पठनीय नहीं जान पड़ती (रही) है. उसकी मरणोत्तर त्रासदी का प्रत्यक्ष कारण है उसकी ‘जाति’ का पता न चल पाना – संकेत यह है कि उसे एक ‘अस्पृश्य’ देह समझ लिया गया और उसे जलाने के लिये ‘चांडालों’ को सौंपा गया. ‘संभावित रूप से नीची जाति’ का होने का यह अ-पार्थिव, ‘आध्यात्मिक’ दण्ड है – उचित संस्कार/मुक्ति से वंचित किया जाना. एक मृत देह विशेष के साथ यह व्यवहार (शरत के समकालीन समाज के बारे में जो कुछ कहता है उसके अतिरिक्त) कथा के पठन का एक मार्ग भी खोलता हैः देवदास एक जमींदार का पुत्र है जो धीरे धीरे समाज के हाशिये की ओर विस्थापित होता है (डि-कल्चराइजेशन?) जिसका चरम है उसकी मृत देह का ‘अस्पृश्य’ मान लिया जाना, देव उस सामाजिक वृत से पूरी तरह विस्थापित (उन्मूलित) हो जाता है जिसमें वह जन्मता है – देवदास का मार्जिनलाईजेशन उसकी मृत्यु में पूरा (कंम्प्लीट) होता है; वह सामाजिक व्यवस्था के ही नहीं, पृथ्वी पर जो कुछ है उसके हाशिये में जा गिरता है – भड़ाग, एक मनुष्येतर हाशिया जहाँ वह जानवरों की लाशों और कूड़े की संगति में है! (किसी अन्य पठन में सामाजिक मार्जिनलाईजेशन की इस कथा को ‘आध्यात्मिक अधोपतन’ की कथा की तरह भी पढ़ा जा सकता है)

देवदास की (जीवन-मृत्यु-) कथा का काउंटर-प्वायंट है चंद्रमुखी की कथा. चंद्रमुखी का हाशिये की ओर विस्थापन एक अवयस्क के रूप में होता है किंतु यह कथा में पहले ही हो चुका और हमें बहुत बाद में पता चलेगा. कथा में देवदास और हम जब चंद्रमुखी से पहली बार मिलते हैं वह सामाजिक मुख्यधारा से बाहर है और वहाँ से देवदास की कथा के विपरीत, उसके सम्पूरक की तरह, उसकी कथा एकल्चराइजेशन? ( या उदात्तीकरण) की कथा है. इसीलिए, देवदास यदि ‘प्रेमकथा’ है तो वह देवदास और चंद्रमुखी की प्रेमकथा है जिसमें पार्वती एक मूलभूत (ऑरिजिनल) विषयांतर ‘पारो’ है. चूंकि वह मूलभूत है देवदास पार्वती के देश/गाँव लौट कर ही मरेगा लेकिन उसका मार्जिनलाईजेशन इतना पूर्ण है कि उसका मरना पार्वती के घर की देहरी के बाहर ही होगा – एक और अमर, अनुल्लंघनीय हाशिये पर.

ग़फ़्लत

जैसा इस निबंध का वायदा था हम देवदास की ग़फ़्लत पर लौट आये हैं.

‘देवदास’ का ‘अर्थ’ (उसकी व्यंजना) ‘प्रेमी’ से अधिक ‘शराबी’ है – और ‘प्रेमी’ से अधिक ‘एक विफल प्रेमी’. वह शराब क्यों पीता है?

मैं बर्दाश्त करने के लिए नहीं पीता. मैं यहाँ तुम्हारे साथ हूँ इस कडवे सच को बर्दाश्त करने को पीता हूँ. क्या नाम है तुम्हारा है हाँ चन्द्रमुखी मैं पीता हूँ कि तुम्हें बर्दाश्त कर सकूं.

देवदास अपने (मूल) प्रेम (जिसे हम पहले ही ‘ऑरिजिनल विषयांतर’ कह चुके हैं) में मिले कष्टों/ विफलता को बर्दाश्त करने के लिये नहीं पीता जैसा कि देवदास-पन का रूढ़ार्थ है बल्कि इसलिये पीता है कि वह चन्द्रमुखी की उपस्थिति को बर्दाश्त कर सके – चन्द्रमुखी जो उसके लिये पारो का विलोम है, जो पारो के अभाव का सबसे असहनीय व्यंजक है लेकिन जैसा हम पहले देख चुके हैं चंद्रमुखी पारो का नहीं देव का विलोम है, सम्पूरक है और धीरे धीरे देव को (और उसके नशे मे किये गये ‘प्रलाप’ के जरिये चंद्रमुखी को भी) यह ‘ज्ञान’ अगर होता है कि चंद्रमुखी उससे प्रेम करती है तो वह नशे की ग़फ़्लत में ही होता है. ग़फ़्लत ही ‘ज्ञान’ का मार्ग है.

इस ग़फ़्लत का एक और पठन शायद संभव है – देवदास अस्तित्व की जिस बिल्कुल भिन्न कल्पना को संभव करता है वह ‘प्रेमियों, पागलों, कवियों’ (जिनको शेक्सपीयर समानाधिकरण में रखते हैं) के साथ साथ ‘नशेड़ियों’ के लिये ही संभव है शायद. कहीं ऐसा तो नहीं देवदास एक नशेड़ी/शराबी होने का अभिनय पहन लेता है कि वह इस संसार के कूट से, उसके विधि निषेधों से बाहर रह सके?

उसकी ग़फ़्लत एक झीनी चदरिया है है जिसके पीछे वह अनवरत स्वयं को नष्ट कर रहा है.

3

शरत के समकालीन (पाठक) समाज में शायद यह संभव था कि एक सर्वथा ‘अनुपयोगी लूज़र’ की प्रेम/पतन कथा को ट्रैजिक सहानूभूति या ग्रेस मिल जाये, क्या आज यह संभव है?

(यह प्रश्न इस विश्वास से निकला है कि देवदास की सबसे बड़ी शिक्षा है संसार के सब प्रयोजनों/प्रलोभनों को एक ‘अमूर्त’, एक भाव के सम्मुख तुच्छ माना जा सकता है; वह आत्महंता प्रायश्चित्त का आख़िरी सत्याग्रही है – अपने मानदंड पर अपने द्वारा नियत ‘उपयुक्त’ सज़ा को पाने के प्रयत्न में स्वयं को अनवरत नष्ट करता हुआ असंसारी)

अनुराग बसु की फ़िल्म देव.डी. देखने से पूर्व जो बहुत से संदेह थे वे किसी तरह इस एक प्रश्न का रूप ले रहे थे – देवदास को ‘समकालीन’ बनाया जा सकता है कि नहीं यह मेरे लिये एकमात्र इसी प्रश्न के उत्तर पर निर्भर था। यूँ भी शरत की यौन-बाह्य (extra-clitoral) कथा  (यद्यपि मुझे संदेह है वह सचमुच ऐसी है) में यौन आशयों और मोटिफों का विनिवेश करने या देवदास को शराब की जगह अन्य ज़्यादा ‘समकालीन’ नशों का आदी चित्रित करने या चन्द्रमुखी के अबोध इलोपमेंट को एमएमएस स्कैण्डल से प्रतिस्थापित करने जैसी ऑब्वियस युक्तियों से यह संभव नहीं था।

अनुराग बसु की फ़िल्म में यह हो पाता है या नहीं यह खोज़ हम एक दूसरे निबंध के लिये सुरक्षित रखते हैं।

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इस निबंध में आये उद्धरण कुणाल सिंह द्वारा किये गए हिंदी अनुवाद से लिए गए हैं जो हिंदी प्रिंट पत्रिका नया ज्ञानोदय के प्रेम महाविशेषांक १ में प्रकाशित हुआ है.

3 comments
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  1. badhai.bahut hi imaginative reading.apne devdaas ke mrityu ke vatayan ke pardon,pallon aur pattiyon ko a-sthanit kar diya hi.saksmta aur sa-ahamta ke ghas-foos aur balle-dannde se bane varnaayit kutiyon me jo uttar-mrtyu sam-sweekar ka abhinay racha jata hi devdaas uski sam-bhavna ko sura-varan ke peechhe abhinay ke dwra rikt kar dete hi.
    devdas ke posthomous fate kee shandaar reading.

  2. धन्‍यवाद किराडू भाई। आपकी पत्रिका से परिचय करवाने का नेक काम अनिल यादव ने किया, उनको भी सलाम।

    क्‍या देवदास का उदात्‍तीकरण कपोलकल्पित है, यह गुत्‍थी सुलझी नहीं है।

  3. Bahut achcha nibandh padhne ko mila.

    Par sir ek galati hai isme, Dev D ka nirdeshan Anurag Basu ne nahi Anurag Kashyap ne kiya tha.

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