एडम ज़गायेवस्की की कविता ‘आग’ पर कुछ बातें: गीत चतुर्वेदी
संभवत: मैं एक आम मध्य-वर्गीय हूँ
व्यक्ति के निजी अधिकारों में विश्वास करने वाला
आज़ादी बहुत आसान शब्द है मेरे लिए
इसका मतलब किसी वर्ग-विशेष की आज़ादी से नहीं
सियासी तौर पर नादान, शिक्षित औसत दर्जे का
(कभी-कभार कुछ ख़ास लम्हों में मुझे सब कुछ साफ़ दिखने लगता है
यही लम्हे मेरी तालीम की रोटी-बोटी हैं)
मैं याद करता हूँ उस आग को
जिसकी चमक की तरफ़ मैं खिंचा चला गया था
जो अपनी तपिश से सुखा देती है
प्यासी भीड़ के होंठ
फूंक देती है किताबों को
झुलसा देती है शहरों की चमड़ी
मैं गुनगुनाता हूँ उसी आग के गीत
और जानता हूँ
दूसरों के साथ-साथ दौड़ना कितना बड़ा काम है
फिर मुँह में घुस आई राख के स्वाद के साथ
मैं सुनता हूँ अपने ही भीतर से निकलती
झूठ की विडंबना भरी आवाज़
और भीड़ की चीख़ें
और जब छूता हूँ अपना सिर
तो लगता है
छू रहा हूँ अपने देश की गोल खोपड़ी को
उसके सख़्त किनारों को.
इस कविता का शीर्षक है आग, और इसके कवि हैं समकालीन पोलिश कविता के बहुचर्चित कवि एडम ज़गायेवस्की. मुझे यह नहीं पता कि ज़गायेवस्की ने यह कविता किसके लिए लिखी, लेकिन जब-जब मैं इसे पढ़ता हूँ, ऐसा लगता है, यह कविता उन्होंने भारतीय मध्य-वर्ग को ध्यान में रख कर लिखी होगी. वर्गों का व्यवहार कमोबेश हर जगह एक-सा ही होता है, जैसा कि कविता की भूमिका हर जगह लगभग एक-सी है.
रेनाता गोर्शिंस्की द्वारा पोलिश से अंग्रेज़ी में किए इसके अनुवाद को पहली बार शायद मैंने पाँच साल पहले पढ़ा था, लेकिन पहली बार में इस कविता के भीतर तक भी नहीं पहुंच पाया था. (पहली बार में ही ऐसा संभव हो जाए, मेरा ऐसा आग्रह भी क़तई नहीं.) मेरी कहानियों की बुनियाद में कोई न कोई कविता होती है. पिछले साल नया ज्ञानोदय में छपी कहानी गोमूत्र इसी कविता से मैप की गई है. इसकी अनुमति लेने के लिए जब मैंने ज़गायेवस्की को ई-मेल किया और एक अदद स्माइली के साथ पूछा कि क्या सच में वह भारतीय मध्य-वर्ग को संबोधित कर रहे थे, जैसा कि मैं पढ़ते हुए संबोधन में हूँ, तो उनके जवाब में भी एक स्माइली थी; यह वही आग है, जो दौड़ो, झपटो, खाओ की तुकें भिड़ाती हुई जीवन को ऐसी अंतहीन दौड़ बना देती है, जिसमें बेतहाशा हांफते हुए हम पाते हैं कि दौड़ते-दौड़ते इतना आगे निकल आए हैं कि हमारी आत्माएँ कहीं पीछे छूट गई हैं, घुटनों के बल झुकी वे हमारे लौट आने का इंतज़ार कर रही हैं. वह कौन-सी आग है, जिसकी तरफ़ हम सब खिंचे चले जाते हैं और जो किताबों को झुलसा देती है, शहरों को राख कर देती है. आक्रामक उपभोक्तावाद की अष्टभुजाओं में फंसे मध्यवर्ग का बाज़ार व अर्थव्यवस्था के साथ संबंध का ध्यान कीजिए, आकर्षित करने वाली आग सब कुछ जला डालती है, यही नहीं, उसकी राख मुँह के भीतर घुस जाती है, आपको एक साथ दो चीज़ें सुनाई देती हैं- अपने भीतर का झूठ और बाहर भीड़ की चीख़, दोनों में सच क्या है?
यह व्यक्ति सियासी तौर पर नादान और औसत दर्जे का शिक्षित है, लेकिन उसे अद्भुत विजन्स आते हैं- जादू या वरदान की तरह कुछ ख़ास लम्हें हैं, जिसमें उसे सब कुछ साफ़ दिखता है, उन्हीं लम्हों में वह राजनीति को पहचान लेता है, उन्हीं में वह अर्थव्यवस्था और समाज में अपनी हिस्सेदारी की मांग करता है, और यही लम्हें जो तादाद में बहुत कम होंगे, क्योंकि वे ‘कभी-कभार’ और ‘कुछ ख़ास’ हैं, वही लम्हें उसे तालीम देते हैं, लेकिन जो इल्म का इस्तेमाल निहायत सुविधा से करता है. उसकी तालीम ही उसे बताती है कि यह आग किताबों को फूंक देती है, शहरों की चमड़ी को झुलसा देती है, लेकिल फिर भी तपिश से सूखे होंठों पर उसी आग के गीत होते हैं. यह व्यक्ति दूसरों के साथ दौड़ रहा है, उस दौड़ की महानता से गौरवान्वित.
कौन नहीं है यह व्यक्ति? यह विलेपार्ले या मयूर विहार में रहने वाला व्यक्ति है, जिसने मकान की कि़स्तें नहीं भरीं, जिसे कभी बुल्स ने मारा, तो कभी बीयर्स ने; यह अंकारा या इस्तांबुल में रहने वाला व्यक्ति है, जो क्रेडिट कार्ड का बिल नहीं भर पाया; यह ह्यूस्टन में रहने वाला व्यक्ति है, जिसकी कार बैंक वाले उठा ले गए. औसत दर्जे के ये सभी शिक्षित, तालीम के ख़ास लम्हों में, जानते-बूझते, एक आग के प्रति आकर्षित हुए थे- उस आग के, जो शहरों की चमड़ी झुलसा देती है…
और अंत में चकराता हुआ अपना सिर, अपना नहीं जान पड़ता. अपने जैसे इतने सारे सिर दिखते हैं कि सिरों से बना हुआ पूरा देश जान पड़ता है. एक त्रासदी का इमपर्सोनेशन शुरू हो जाता है. यहाँ एक एब्सेंट यूनिवर्सल अप्रोच है, जो मामूली लक्षणों को कैप्चर कर हर किसी की कविता बना देता है.
यहां आकर कविता के प्रीफेस की चार पंक्तियों का महत्व साफ़ हो जाता है. ज़गायेवस्की की कविता में प्रीफेस एक चाभी की तरह होता है. उसे हटाकर पढ़ें, तो मतलब और न खुले. ‘मध्य-वर्गीय’, ‘निजी अधिकार’, ‘आज़ादी’, ‘वर्ग-विशेष की आज़ादी’ जैसे अत्यंत प्रचलित लोकतंत्रीय शब्द पूरे माहौल में किस क़दर निरर्थक व भ्रामक दिखते हैं, और ये सारे शब्द किस तरह मात्र औज़ार हैं, माहौल और मानसिकता को एक ख़ास दिशा में स्टीयर करने के लिए, यह कविता के ख़त्म होते-होते साफ़ हो जाता है.
मध्यवर्ग की दशा-मनोदशा, इच्छा-अभिलाषा, नियति और त्रासदी पर कोई कविता, इतने कम शब्दों में, इतनी बारीक बुनावट के साथ मेरी नज़र में नहीं आ पाई है, जो इतनी छलिया हो कि गद्य का टुकड़ा-भर लगे, लेकिन जिसमें तमाम लैंडमाइन्स बिछी हुई हों.
एडम ज़गायेवस्की का जन्म 21 जून 1945 को सोवियत संघ के अधीन ल्वूव शहर में हुआ, जो अब यूक्रेन का हिस्सा है. वह पोलिश कविता की उस परंपरा के कवि हैं, जो मिवोश, हर्बर्ट, शिंबोर्स्का और रूज़ेविच से बनती है. उनकी शुरुआती कविताएं द्वितीय विश्वयुद्ध और कम्युनिस्ट शासन के बाद की निराशा, क्रोध और अवसाद की कविताएं हैं, लेकिन मुझे उनकी बाद की कविताएं, ख़ासकर कैनवस संग्रह (1991) के बाद की, ज़्यादा पसंद हैं, जहां वह सिर्फ़ पोलिश नहीं रह जाते, बल्कि एक एब्सेंट यूनिवर्सल कवि-सा अपील करते हैं. उनकी प्रचुर गद्यात्मकता बरक़रार रहती है, लेकिन उनमें एक अत्यंत प्रासंगिक मिस्टिसिज़्म उभरता है, जो कहीं से भी प्रवचनों की तरह तरल नहीं. एक उन्मादी औघड़ की सनक-भरी बड़बड़ाहट, जो तमाम रहस्यों से भरी होकर भी, दार्शनिक कि़स्म के रहस्यवाद को उपेक्षित करती, बहुत सीधे कनटाप बजाती हुई गुज़र जाती है. भीतरी और बाहरी दुनिया के जवाबों को सवाल की तरह देखती, संतुलन की रस्सियों की तन्यता को जांचती.
कविता पढ़ते समय मैं हमेशा उस दिये की तलाश में रहता हूँ, जिसे कवि ने देहरी पर रख दिया हो, जिसका प्रकाश जितना भीतर जा रहा हो, उतना ही बाहर भी आ रहा हो. उनकी कविताओं में यह रोशनी बराबर बंटी हुई दिखाई देती है.
हालाँकि पोलिश कविता जगत में ही ज़गायेवस्की में आए इस परिवर्तन को सराहा नहीं गया है. एक इंटरव्यू में वह कहते हैं कि पोलैंड के आलोचक सरकारी वकीलों की तरह हैं, उन्हें सिर्फ़ आरोप लगाना आता है. वे मुझे गंभीर कवि भी नहीं मानते, वे कहते हैं कि मैं गूंगी, बेजान चीज़ों की कविता लिखता हूँ.
उनकी कविताओं में आए अध्यात्म को कई बार ‘ईसाईयत के प्रचार´ से भी जोड़ा गया, जिसके बारे में वह कहते हैं, ‘मैं नए दौर का धर्मोन्मादी पगलेट नहीं बनना चाहता, साथ ही ख़ुद को धंधेबाज़ कैथलिक लेखकों से भी दूर रखना चाहता हूँ. मेरा मानना है कि पुराने मेटाफिजिकल सवालों से जूझने के लिए कवि को हमेशा नई भाषा, उपमा और व्यंजना खोजते रहना चाहिए.’
ज़गायेवस्की के यहाँ यह मेटाफिजिक्स एक प्रोडक्ट की तरह भी आता है, जो ग्लोबल व्यवस्था में करोड़ों में बिकता है, जिसकी व्यंजना में वह 9/11 के बाद अद्भुत कविता ट्राय टु प्रेज़ दिस म्यूटिलेटेड वर्ल्ड लिखते हैं, जो आइरनी के विशाल कंगूरों की परिधि मापती है.
उनकी कविताएं इन्हीं गूंगी, बेजान चीज़ों के ज़रिए सवाल करती हैं कि हमने अपनी जि़ंदगी को क्या बना लिया है, हमारे दिनों का स्वाद क्या है और हमारी रातें किस बेनाम बेचैनी और डर की करवट में दबी रहती हैं. वह हमारे निर्वासनों की पड़ताल करती है. आखि़र हम सब एक निर्वासित जीवन जी रहे हैं, ज़रूरी नहीं कि वह भौगोलिक निर्वासन ही हो, हम समय से निर्वासित लोग हैं.
प्रिय गीत चतुर्वेदी जी,
इसी बात को लिए हुए एक और पोलिश कविता याद आ गई… आपने शायद पहले ही पढ़ ली हो.
आदमख़ोरों के नाम पत्र (तादेउश रूज़ेविच)
प्यारे आदमख़ोरो /मत खीजो /उस आदमी पर/ जो रेल के डिब्बे में/ महज़ बैठने की जगह माँगता है/ कृपया इस बात को समझो/ कि दूसरे लोगों के भी/ दो टाँगें और चूतड़ होते हैं/ प्यारे आदमख़ोरो/ एक सेकेंड को रूको/ कमज़ोर को रौंदो मत/ मत पीसो अपने दाँत/ कृपया इस बात को समझो/ कि बहुत से लोग यहाँ हैं/ और भी बहुत से आएँगे/ थोड़ा उधर सरको/ जगह दो/ मत खरीद डालो/ तमाम मोमबत्तियाँ तमाम जूतों के तस्मे/ तमाम नूडल/ पीठ फेर कर मत रटते रहो/ मैं मुझे मेरा मेरे लिए/ मेरा आमाशय मेरे बाल/ मेरा गल्ला मेरा पाजामा/ मेरी बीवी मेरे बच्चे/ मेरी राय/ प्यारे आदमख़ोरो/ बेहतर हो हम एक दूसरे को चबा न जाएँ ठीक न/ क्योंकि निश्चय ही/ हमारा पुनरूत्थान नहीं होने जा रहा है/ 1957 अनुवाद- असद ज़ैदी.