सिर में एक ज़गह : अंजुम हसन
मोहल्ला
उन सीढियों पर जो हमारे फाटक को आती हैं
बिहारी पकौड़ीवाला अक्सर एक अनाम औरत
को चूमता दिखाई देता है
अजीब बात। मेरे माता पिता बुझा देते हैं बैठक की रोशनी
जब भी ऐसा होता है। कारों की रोशनी में उभर आते हैं वे –
एक अटूट गुप्त छाया
सीढियां और भी क्रियाएँ आमंत्रित करती हैं
यहीं का बाशिंदा फ़कीर कभी कभी लेट जाता है वहाँ,
खाई जैसे रंग लिये, और राहगीर संतरे के पेड़ों
को देखने के लिये ऊपर चढ़ आते हैं
लेकिन यह बात दूसरी है। अपनी पकौड़ियों की गंध लिये
मृदुभाषी पकौड़ीवाला और, उसके आधे घंटे –
अदम्य उन्माद का द्वीप, किसी और की सीढियों पर
जबकि उसके चहों ओर रोजः वही अडियल मुफ्तखोर,
जांघो में लातें, गालियों के परिचित शब्द
एक अपरिचित भाषा में
अपनी माँ के कपड़ों में
मेरी बगलों का पसीना
सहमकर उसके ब्लाऊज को भिगोता है –
शर्मीले, सीले फूल मेरे पसीने के उसके ब्लाऊज पर।
मैं पहनती हूँ उसके प्यास-नीले और जंगल-हरे
और जले-संतरे के रंगों को जैसे वे मेरे हों:
मेरी माँ के रंग मेरी त्वचा पर एक धूल भरे शहर में
मैं उसके कपड़ों में चलती फिरती हूँ
मन ही मन हंसते हुए, इस बोझ से मुक्त
कि आप जो पहनते हैं, वही आप हो जाते हैं:
अपनी माँ के कपड़ों में न तो मैं ख़ुद हूँ न माँ हूँ
लेकिन कुछ-कुछ उस छह साल की लम्छड सी हूँ
जो अपनी उंगलियों पर माँ की सोने की अंगूठियाँ
चढा लेती है, बड़ा सा कार्डिगन पहन लेती है –
धूप और दूध की गंध से भरा –
और प्यार में ऊंघती फिरती है, कमरों में
जिनके पर्दे जून की शहद भरी रोशनी
के खिलाफ खींच दिये गये हैं
बारिश
तुम सुनोगे उसे, जगते हुए, पंखे की ग़रज में
सूखे नारियल के पत्तों की सरसराहट में, कंकरों में
जो किसी लॉरी से धूल भरी गली में डल रहे हैं
तुम सुनोगे उसे रात के अंतिम विमान में
(जिसकी ध्वनि बादलों की ग़रज सी होगी)
पक्षियों की वर्णमालाओं में, और गुस्से से भरे प्रेशर कुकरों में
तुम ढूँढोगे उसे शाम में, विराट छायाओं में,
किसी एक बादल की खोज में,
और रात में,
जब वह कहीं बहुत दूर से आकर
शहर को एक नयी रौशनी से स्पर्श कर सकती है।
तुम्हें नहीं मिलेगी वह मार्च के बचे हुए धूसर पत्तों में
या दुबले सुर्ख़ अर्धचंद्राकार के पीछे जो
आकाश के किसी ज्वरित टुकड़े पर
ख़ुद को जला रहा है।
दिन की ख़ुश्क गर्मी से
तुम्हारे बालों में बिजली दौड़ जायेगी
मानसून की रातों की रजत बिजलियों से तुम्हारे स्वप्न
बिंध जायेंगे, वे नीली हरी रातें
झींगुर जिनका उत्सव मनाता है, वे पहाड़ी रातें जिन्में
भाग्य छतरियों से जुड़ा है
लेकिन यहां वीनस की आंख एकदम स्वच्छ है
रात में तुम रेफ्रिजरेटरों में ढूंढोगे उसे,
उसके ज़ायके को अपनी जीभ पर लिये खरबूजे काटोगे –
संवेदनशून्य लाल हृदय का फल – और दुख में खीरे खरीद लाओगे
तुम धुंध के नैराश्य को करीबन भूल जाओगे, लेकिन याद रखोगे
कितनी जल्दी आईने और गलियां निष्ठुर हो जाते थे
और प्रतीक्षा करोगे कि फिर उसी कम्बल को आसमान में तान
इस सख्त और अचल रोशनी का स्वभाव बदल दिया जाय
तुम कहाँ हो का ‘कहाँ’ सिर में एक ऐसी ज़गह है
जो त्वचा से तय होती है, और तुम पता पहचानते हो
नाम और नम्बर से नहीं, किसी परिचित ताने बाने से
पत्तियों की गति, ट्रैफिक और गलियों से
और जब तुम चले जाते हो, केवल लिफाफे बातें करते हैं
उस शहर की जहां अब तुम रहते हो
क्योंकि अपेक्षाएं जस-की-तस बनी रहती है इन्द्रियों में
सालों बनी रहती हैः सूखी हवाओं से बौराये अप्रैल में
बारिश को तरसती
(अंग्रेजी से अनुवाद: तेजी ग्रोवर)
kavita behad prabhavit karti hai aabhar!