आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

आतंक के कुछ और चेहरे / More Faces of Terror

राजनीति और मुख्यधारा मीडिया के बावज़ूद, आतंक के अनुभव को पूर्णतः आतंकवाद में निश्शेष नहीं किया जा सकता, ‘आतंकवाद’ से ‘नियमित’ अर्थों के अलावा, उनसे परे भी इसके कई ‘अर्थ’ ‘हैं – भोपाल गैस त्रासदी के पीडितों के जीने के, मरने के, होने भर के आतंक पर बुकर नामांकित उपन्यासकार इन्द्र सिंहा की रिपोर्ट हिन्दी अनुवाद में (जिसे उपलब्ध कराने के लिये हम सम्भावना क्लिनिक, भोपाल के सतीनाथ षडंगी- सथ्यू – के आभारी हैं); नोबेल पुरस्कार से सम्मानित नार्वीजी लेखक नूट हाम्सुन (जो कई दशकों से एक पहेली हैं – नार्वे के जर्मन अधिग्रहण के दौरान हिटलर के समर्थक रहे हाम्सुन के लेखन में ‘उस खौफ़नाक विचारधारा’ के शायद ही कोई लक्षण हों) पर हाम्सुन की हिन्दी अनुवादक तेजी ग्रोवर का निबंध जो कहता है कि युद्ध के बाद जाँच के बहाने वृद्ध हाम्सुन को जैसी अमानवीय यंत्रणा दी गई वह प्रमाण है कि ‘सिर्फ़ नाज़ी ही नाज़ी नहीं थे’ और युवा लेखक एनी जैदी का पत्र शैली में लिखा गया गद्य जो महानगरीय पब्लिक स्पेस में एक स्त्री के दैनिक आतंक को व्यक्त करता है. Despite politics and mainstream media, the experience of terror cannot be entirely subsumed within terrorism. Terror has meanings beyond those regulated by the term “terrorism” – presented here are Booker-nominee Indra Sinha’s report (courtesy Satinath Sarangi (Sathyu) of Sambhavana Clinic, Bhopal) on the victims of the Bhopal gas tragedy and their terror – of living, of dying, of being, Teji Grover’s essay on the Nobel prize winning Norwegian author Knut Hamsun (an enigma – a Hitler sympathizer during Norway’s occupation, Hamsun’s writing has no signs of “that terrible philosophy”) which says that the inhuman torture inflicted on the aging Hamsun in the name of investigations after WW-II proves that “it is not just the Nazis who are Nazis”, and Annie Zaidi’s epistolatory fiction that talks of the daily terror experienced by women in urban public spaces.

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सुनो, मैं बताता हूँ आतंक क्या हैः इन्द्र सिन्हा

क्या हम हाम्सुन को पढ़ना छोड़ दें: तेजी ग्रोवर

Dearest K.P.: Annie Zaidi

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