एक नये पीड़ित के सम्मुख / Before A New Kind Of Victim
हमारे सार्वजनिक और निजी स्पेस में, आतंक के अनुभव पर एकाग्र इस पहले वार्षिकांक की शीर्ष कथा तीन समाजविज्ञानियों के मज़मूनों से बनी है: आशीष नंदी का एक साक्षात्कार, मुख्यधारा मीडिया में ९/११ के भारतीय प्रति-हस्ताक्षर बन चुके ‘२६/११’ को पढने का यत्न करता हुआ अश्वनी कुमार का निबंध और महात्मा गाँधी के अंतिम दिनों के बारे में सुधीर चन्द्र की ताजा, अप्रकाशित पुस्तक के कुछ अंश.यह अंक, अपनी प्रस्तावित योजना के अनुसार आतंक के अनुभव पर एकाग्र है और शीर्ष कथा के पहले दो मज़मून ऐसे विमर्श के उदहारण हैं जिसके केंद्र में आतंक के सबसे हिंसात्मक सार्वजनिक प्रदर्शन – आतंकवाद- के पीड़ित हैं. सीरियल बम धमाकों और नए किस्म के आतंकवाद के साथ हम एक सर्वथा नए पीड़ित के सम्मुख हैं. एक ऐसा पीड़ित जो किसी भी ‘पारंपरिक’ कारण/व्याख्या – रंग, नस्ल, धर्म, जाति, राष्ट्रीयता, विचारधारा, सम्पत्ति या उसके अभाव से पीड़ित नहीं. वह सिर्फ इसलिए एक पीड़ित है कि वो या उसका कोई परिजन, मित्र एक स्थान-विशेष पर एक समय-विशेष पर मौजूद था. पहले दोनों मज़मून जहाँ इस नयी आतंकवादी हिंसा की यादृच्छिकता, इसकी समाज-मनोवैज्ञानिक श्रेणियों और इसके संभावित उपचारों का विश्लेषण करते हैं वहीं सुधीर चंद्र का गाँधी-स्मरण इस पूरे परिदृश्य का न सिर्फ़ एक काउंटर-प्वायंट है, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के विशेष संदर्भ में अहिंसात्मक प्रतिरोध के इतिहास को ठीक उस बिंदु पर पढ़ता है जहाँ वह स्वयं अपने प्रणेता के द्वारा प्रश्नांकित है. क्या गाँधी की सफलता से अधिक उनकी असफलता को ठीक से – जैसी वह है वैसे – पढ़ने से ही उनका सार्थक पुनराविष्कार संभव है? | The lead feature of our first anniversary issue, focusing on terror in our public and private spaces, comprises of 3 pieces: An interview with Ashis Nandy, Ashwani Kumar’s essay that tries to read what has become the Indian counterpart of 9/11 in the mainstream media (“26/11”), and excerpts from Sudhir Chandra’s new book on the last days of Mahatma Gandhi.The first two pieces are examples of the kind of discourse that focuses on the victims of the most violent public face of terror – terrorism. With bombings and serial blasts, we have entered a unique phase in human history. We are confronting a completely new, unprecedented kind of victim who is victimized not for his/her gender, color, caste, nationality, identity, ideology, property, wealth or lack of it. Instead, this is a victim who is victimized only because s/he happened to be there at a particular place at a particular time.Whereas the first two pieces analyze this new terrorism, its randomness, its socio/psychological categories and its probable solutions, Sudhir Chandra’s piece on Gandhi serves not only as a counterpoint, but reads nonviolent resistance, particularly in the context of the Indian subcontinent, precisely at the point where it is questioned by its own originator. Can it be that the meaningful rediscovery of Gandhi is possible more by reading his failures – for what they are – than by reading his successes?
* Click to ReadAn Interview with Ashis Nandy: Giriraj Kiradoo |