जून 2008 / June 2008
किस्सा एक नाकाम संपादकीय मंसूबे का1. प्रतिलिपि के प्रवेशांक ने पाठकों, लेखकों, प्रकाशकों, सरकारों को हिला के नहीं रख दिया. हमें ऐसी अपेक्षा नहीं थी. न ही इसने (ऑनलाइन) साहित्यिक पत्रकारिता के नए प्रतिमान तय कर दिए. ऐसी अपेक्षा भी हमें नहीं थी. हमारी साईट पर रोज़ पाँच सौ पाठक नहीं आए. अपेक्षा हमें इसकी भी नहीं थी. क्या हम कुछ अपेक्षा कर भी रहे थे?बस यही कि जो पाठक/लेखक इस अंक तक पहुँचें, वे इसे संजीदगी से लें और ज्यादातर ऐसा हुआ भी. अब दूसरे अंक का समय है. हमारा पूर्वानुमान था दूसरा अंक निकलना कठिन होगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. 2. जैसा हमारा परिचय कहता है, हमारे पास संसाधन सौ के थे, योजना सिर्फ़ एक की. दूसरे अंक की हमारी तैयारियाँ इस निश्चय से शुरू हुई कि हम तिब्बत पर तिब्बती लेखकों और दूसरों के लेखन पर एक फोकस करेंगे. हम ल्हासा में हुई घटनाओं से विचलित थे और हमारी कोशिश थी इस अंक में, खासकर भारतीय साहित्यिक लेखकों का तिब्बत पर ताज़ा लेखन हो और ल्हासा की घटनाओं पर लेखकीय/ साहित्यिक प्रतिक्रियाएं भी. लेकिन जल्दी ही हमें पता चलना शुरू हुआ कि राजनीतिक टिप्पणीकारों के अलावा बहुत- से लोगों के लिए तिब्बत पर लिखना या तो खतरनाक था, या राजनीतिक रूप से ग़लत या सीधे सीधे असुविधाजनक. जब मुख्यधारा मीडिया में तिब्बत पर राजनीतिक टिप्पणियों की बाढ़ आयी हुई थी, हम रोज़ एक संभावित लेखक खो रहे थे. हमने तेंजिन सुन्दुई (Tenzin Tsundue) जैसे युवा तिब्बती लेखकों से सम्पर्क करने की कोशिश की लेकिन उनका कोई ठिकाना नहीं था. बाद में (तहलका से) पता चला वे गिरफ्तार कर लिए गए थे. अभी कुछ वर्ष पहले तक भारतीय मुख्यधारा में एक प्रमुख युवा तिब्बती स्वर रहे और भारत में ही जन्मे इस युवा कवि को, जिसे पिकाडोर-आउटलुक का नॉन-फिक्शन पुरस्कार जीते हुए अधिक समय नहीं हुआ है, इन दिनों साहित्यिक संपादक कम और गुप्तचर संस्थाएं और पुलिस ज़्यादा तलाश करते है. और फ़िर हमें हिन्दी कवि-कथाकार उदय प्रकाश मिले जिन्होंने अपने ब्लॉग पर अपनी कविता तिब्बत (1977-8) उन्हीं दिनों पोस्ट की, वह कविता जिससे 1981-2 में कवि के रूप में उनकी पहचान बनी थी. (इसी कविता पर उन्हें भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार मिला था). उदय ने इस कविता के नेपथ्य के बारे में, उन प्रक्रियाओं और प्रेरणाओं के बारे में लिखना शुरू किया जो तीन दशक पहले उनके आस पास मंडरा रही थीं. यही गद्य हमारी शीर्ष कथा बनना था. अब लगता है, यह फोकस कर सकने में मिली नाकामी ही पिछले कुछ महीनों का असल हासिल है. 3. मध्य मई में जयपुर में सीरियल बम धमाके हुए और अचानक ही यह संसार हमारे लिए बदल गया.वह शहर जिसका हम तीनों के जीवन में एक ख़ास रोल है, शहर जिसे हम किसी दूसरी जगह से ज़्यादा प्रेम और घृणा करते हैं, उस शहर की ‘ज्यामिति’ बिगड़ गयी थी*. मुख्यधारा मीडिया में ‘हमारी शान्ति’ और ‘उनका हमला’ का मुहावरा हर तरफ़ फ़ैल गया है. और इसके समांतर एक पीडामय चुप्पी ने शहर की सबसे सम्वेदनशील आवाजों को घेरना शुरू कर दिया है: बौद्धिक एक्टिविज्म आपको अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध तैयार करता है लेकिन वो इस बारे में बिल्कुल अवाक् है कि जब शहर में बम फट रहे हों तो क्या प्रतिक्रिया करें? हमारी ‘योजना’ है कि अगले अंकों में से कोई एक हिंसा/आतंक पर फोकस करेगा. हम एक और नाकामी के लिए तैयार है. 4. इस अंक में, शीर्ष कथा के अतिरिक्त, स्वीडिश कवि आन येदरलुण्ड पर एक फीचर है जिसमे आन की कविता पर स्ताफान स्यदरब्लुम के परिचयात्मक नोट्स और उनकी कविताओं का हिन्दी अनुवाद करने की प्रक्रिया पर तेजी ग्रोवर का अंतरंग गद्य शामिल है. वागीश शुक्ल का असाधारण लेखन विशेष: एक तिलिस्मी उपाख्यान के अंशो में पेगन आख्यान युक्तियों को ‘क्राइम थ्रिलर’ से मिला देता है. रुस्तम (सिंह) का डैथ एंड द सेल्फ पिछले अंक में प्रकाशित उनके पाठ का एक ‘सखा-पाठ’ है जो आत्म और अवसान की अंतर्पाठीयता को , आत्म की एक अपूर्वोप्लब्ध धारणा से पहचानने का यत्न करता है. हिन्दी कवि-कथाकार-आलोचक रमेश चंद्र शाह के नाम लिखे गए मलयज के पत्र इस अंक का पांचवा फीचर हैं पैंतीस बरस पुराने इस संवाद के अंश उपलब्ध कराने के लिए हम कवि-कथाकार अनिरुद्ध उमट और प्रकाशक प्रशांत बिस्सा के आभारी हैं. तीन युवा कवियों – समीर रावल, विवेक नारायण और एनी जैदी के अलावा भारत के सबसे ख्यातिप्राप्त कवियों में से तीन मंगलेश डबराल, एच.एस.शिवप्रकाश, शीन काफ़ निज़ाम और ऑनलाइन दुनिया में जेम्स ज्वॉयस के नाम से मशहूर के.वी.के. मूर्ति इस अंक के कवि हैं. हमें खुशी है कि हम पुरुषोत्तम अग्रवाल, जो हममें से अधिकांश के लिए एक साहित्यालोचक या यूनिवर्सिटी प्राध्यापक, या राजनीतिक टिप्पणीकार, या एक्टिविस्ट हो गए हैं, को यह याद दिलाने में कामयाब रहे कि वे एक कवि भी हैं . उनकी इस आत्म-शंका, या आत्म-विस्मृति से कुछ क्षति समकालीन हिन्दी कविता की भी हुई है, इस अंक में प्रकाशित कवितायें इसका प्रमाण हो सकनी चाहिए. वैद साब (कृष्ण बलदेव वैद) का इंटरनेट और ई-मेल आदि में प्रवीण पाया जाना एक सुखद आश्चर्य था. वे इस अंक के कथा खंड के अगुआ है जिसमें सम्पूर्णा चटर्जी की दो अंग्रेज़ी कहानियाँ, हिन्दी गद्य का एक विलक्षण नमूना तेजी ग्रोवर की कहानी सु, सारा राय की लगभग जादुई यथार्थवादी विल्डरनेस और संगीता गुंदेचा की हिन्दी कहानी कथाकार शामिल है जो शायद सिर्फ़ भोपाल में ही लिखी जा सकती थी. अंजुम हसन के उपन्यास लुनेटिक इन माय हैड को प्रस्थान बिन्दु बनाकर लिखा गया चंद्रहास चौधरी का लेख शेक्सपियर के बारे में भारतीय पूर्वग्रहों का एक दिलचस्प वृतांत है. के.एन.पणिक्कर के रंगमंच पर उदयन वाजपेयी का निबंध पेगन सौंदर्यशास्त्र के पक्ष में तर्कणा करते हुए पणिक्कर की कालिदास पुनः( प्रस्तुतियों) को इस सौंदर्यशास्त्र में अवस्थित करता है. इस अंक की सामग्री छह लिपियों में है: हिन्दी, अंग्रेज़ी, कन्नड़, उर्दू, स्वीडिश, और केटलन. क्या हम बहुलिपि, बहुभाषी स्पेस बनने की दिशा में सही जा रहे हैं! हम शीन काफ़ निज़ाम, एच.एस.शिव प्रकाश, तेजी ग्रोवर, समीर रावल और आन येदरलुण्ड के शुक्रगुजार हैं कि ऐसा हो पाया. इसके अलावा हम आभार व्यक्त करते हैं स्वीडिश पत्रिका मेड आन्द्रा ऊर्ड्रस की संपादक विक्तोरिया का जिन्होंने स्वीडिश अनुवाद छपने से पहले तेजी ग्रोवर के आन येदरलुण्ड पर लिखे गद्य को मूल अंग्रेज़ी में प्रकाशित करने की अनुमति दी; छायाकार उल्ला मोंतान का जिन्होंने आन का एक पोर्ट्रेट मित्रतापूर्वक भेज दिया और निक्लास नील्सन का जिन्होंने आन की कविताओं की स्वीडिश सॉफ़्ट कॉपी उपलब्ध कराई. * द ज्योमेट्री ऑव कन्ट्रास्ट्स, प्रताप भानु मेहता, इंडियन एक्सप्रेस , मई 15, 2008. |
The Story of an Editorial Misadventure1. Pratilipi’s inaugural issue did not take readers, writers, publishers or governments by storm. We didn’t expect that. It did not set new standards for (online) literary journalism. We didn’t expect that either. It didn’t have five hundred visits a day and that too was not unexpected. Did we expect anything, then? Yes, we expected it to be enjoyed by readers/writers once they came to visit/read it. And they did. At least, most of them. Now it is time for the second issue. We anticipated it to be a tougher task than it turned out to be. 2. As our “About” page says, we had resources for a hundred issues and the planning for one. Our preparations for the second issue began with attempts at focusing on writings on Tibet by Tibetan, and other, writers. Events in Lhasa had hurt us deeply, and besides gathering fresh literary writings on Tibet, especially by Indian writers, we were looking for writerly/literary responses to the event. But we soon found out that it was either dangerous or politically incorrect or simply inconvenient to write about Tibet unless you were a political commentator. Just when the mainstream media was flooded by such commentaries, we were losing our potential contributors. We tried contacting young Tibetan writers like Tenzin Tsundue but his whereabouts were unknown. Later we came to know (through Tehelka) that he had been arrested. Born in India, this young poet – who, not very long ago, won the Picador-Outlook Non-fiction Prize and who had very much become the mainstream, young voice of Tibet for a while – is now a man sought more by intelligence agencies and the police than by literary editors. And then, we came across Hindi poet and fiction writer Uday Prakash, who had posted his poem Tibet (1977-78) on his blog, a poem that brought him recognition in 1981-82 (he was awarded the Bharat Bhushan Agrawal Poetry Award for it). Uday began to write about the backdrop of the poem, about the processes and inspirations that haunted him thirty years ago. This piece would become our Lead Story. Looking back, the failure in bringing out the ‘focus’ seems to be our most precious gain in the last couple of months. 3. Mid-May, there were serial blasts in Jaipur and all of a sudden the world changed for us. A city that has a special role in the lives of all three of us, a city that we love and hate more than most places, its ‘geometry’ was disturbed*. The mainstream media is full of a rhetoric of ‘our peace’ and ‘their attack’ and with every passing moment a painful silence has begun to wrap the city’s most sensitive voices; intellectual activism prepares you for atrocities and injustice, it has almost no way of telling you how to react when bombs explode in your city. We ‘plan’ to focus one of our future issues on violence/terror and we are ready for another failure. 4. This issue, besides Uday’s lead story, has a feature on Swedish poet Ann Jäderlund which includes Staffan Söderblom’s introduction to her poetry and an intimate piece by Teji Grover on translating her into Hindi. Excerpts from Wagish Shukla’s Vishesh: Ek Tilismi Upakhyan make an outstanding piece of writing that blends pagan narrative devices with those of a crime thriller. Juxtaposing narratives and myths in Dalit oral memory with the versions of mainstream and Dalit historians, Badri Narayan’s text not only tells another tale of a piece of subaltern history effaced from the mainstream narratives, but also hints at the contemporary interests that inspire readjusting of history. Rustam (Singh)’s Death and the Self, a companion to his text in the previous issue, tries to read the intertextualities of Self and Death by developing a notion of self not available beforehand. Malayaj’s letters to Hindi poet, novelist and critic Ramesh Chandra Shah make our fifth feature for the issue. We are extremely grateful to poet and fiction writer Aniruddh Umath for making excerpts of this thirty-five year old dialogue available to us. Three young poets – Sameer Rawal, Vivek Narayanan and Annie Zaidi; three of the most well-known Indian poets – Mangalesh Dabral, Sheen Kaaf Nizam, and H.S. Shiva Prakash; and K.V.K. Murthy, better known online as James Joyce, are the poets in the issue. Purushottam Agrawal has become, for most of us, a literary critic, a political commentator, an activist, and a university professor. We are happy to have reminded him, and others, that he is a poet. The poems in this issue should be proof enough that contemporary Hindi poetry may have lost something valuable because of his self-denial or self-doubt. It was a real pleasant surprise to find Vaid Saab (Krisna Baldev Vaid) comfortable with the internet and e-mail. He leads the fiction section which also has Sampurna Chattarji’s brilliant short stories, Teji Grover’s Su – an unusual piece of Hindi prose – Sara Rai’s near magic realist Wilderness and Sangeeta Gundecha’s Kathakar, a Hindi story that somehow could have been written only in Bhopal. Anjum Hasan’s Lunatic in My Head is the point of departure for Chandrahas Chaudhary’s interesting essay on Indian prejudices about Shakespeare. Udayan Vajpeyi in his essay on K.N. Panikkar’s theatre pleads a case for pagan aesthetics and tries to locate Panikkar’s Kalidasa (re)presentations within that framework. This issue has six scripts: Hindi, English, Kannada, Urdu, Swedish and Catalan. We are on track to be a multiscript, multilingual space. We thank Sheen Kaaf Nizam, H.S. Shiva Prakash, Teji Grover, Sameer Rawal and Ann Jäderlund for making it possible. We also thank the Swedish magazine Med Andra Ords and its editor Viktoria for giving us permission to publish the English version of Teji Grover’s piece on Ann Jäderlund, prior to its publication in Swedish translation. We thank Ulla Montan for allowing us to use one of her portraits of Ann Jäderlund and Niclas Nilsson for making the Swedish text of Ann’s poems available in soft copy. * Geometry of Contrasts, Pratap Bhanu Mehta, Indian Express, May 15, 2008. |
giriraj ji,
pratilipi dekhna ek zaroori kaamon men se hai…or baat hai ki wystaon ke karan tipanni nhi kr ska…aapne alpawdhi men hi bahut stariya samagri jutai hai…hm sab pratilipi ko lekar aaswasth hain aur apne kiye ko sahyogi prayaas hi samjhenge…tibbat ko is balwale men kendriya wishay banana sahsik hai…kai aise lekhak jinka likha padh kr main bada hua hu, unhe pratilipi men dekhkr prasanatt hui…yh prtilipi ki uplabdhi hai ki wh ek nye madhyam men bahubhasik aur waishwik wimarsh ke liye space bana rahi hai…aaswasth rhiye…itna jatan beja na jayega…main swayam apne yahan jo kuch mahtwapurn aur rakshniya maloom padega, pesh krunga hi…
aadar ke sath…
anurag vats..
it’s good to look at & nice to go through . congrats !