आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

जेतवन में भिक्षुणी : विशाल श्रीवास्तव

Art: Samia Singh

अयोध्या में प्रेम

 

सरयू तट की घास पर बैठे हुए हैं हम

इस शालीन दोपहर में जब

और धूप का एक शिशु टुकड़ा

नरमार्इ से खेल रहा है तुम्हारी पीठ के साथ

ठीक उसी वक्त

मैं यह सोचना शुरू करता हूँ  कि

यह हवा जिसमें हम सांस ले रहे हैं

क्या हमें इतनी इज़ाजत देगी

कि प्रेम करते हुए हम

सहजता से जीवित रह सकें इस शहर में

 

इतिहास का अभयारण्य नहीं है यह शहर

और भले ही इसकी आत्मा में कलुष की कमी न हो

कमर तक कीचड़ में डूबे हों इसके नाम के हिज्जे

या फिर यहाँ  से उछाले गये किसी नारे की गूंज से

साबरमती के तट पर हो सकता हो

किसी स्त्री का गर्भपात

विलाप के पाश्र्वसंगीत में डूबा हुआ यह शहर

शुचितापूर्ण नैतिकता का

मंत्रोच्चार तो कर ही सकता है

 

तुम ही बताओ

कैसे किया जा सकता है अयोध्या में प्रेम

जबकि ठीक उसी समय

जब मैं तुम्हें चूमना चाहता हूँ

किसी धार्मिक तलघर से एक स्त्री की चीख उठती है

रखना चाहता हूँ  अपना गरम हाथ

जब मैं तुम्हारे कंधे पर

भरोसा दिलाने की कोशिश में

तो किसी इमारत के गिरने की आवाज़

तोड़ देती है हाथों का साहस

और वे काँप कर रह जाते हैं

 

तुम्हारी देहगंध को पहचानने

और याद रखने की कोशिश में

मैं विक्षिप्त-सा हो जाता हूँ

और मेरे नथुने सुन्न हो जाते हैं

धूप, धुंए और बजबजाते सीवर

की मिली जुली सड़ांध से

 

ऐसे ही किसी क्षण में लगता है

यह सड़न बस गर्इ है हमारे भीतर भी

और तुम जानती हो कि

लड़ते हुए तो किया जा सकता है प्रेम

सड़ते हुए ऐसा करना सम्भव नहीं

 

और कितना अजीब लगता है न

रसिक परम्परा का पोषक कहलाने वाला यह शहर

कितनी अरसता से भरा है

 

अयोध्या में प्रेम करना प्रतिबंधित है

नफरत करने के लिए यहाँ  तमाम विकल्प हैं

 

जेतवन में भिक्षुणी

 

 

बेहद करीब जाने

और लगभग पाँच बार सुनने के बाद

हम यह जान पाते हैं कि

फेफड़ों की पूरी ताकत से

गाती हुर्इ यह सांवली लड़की

हारमोनियम पर जो गा रही है

वह बुद्धं शरणं गच्छामि है

 

जीर्ण भग्नावशेषों और

नये आलीशान विदेशी मठों के बीच

जिस जगह पच्चीस बारिशों

में भीगते हुए तपस्या की बुद्ध ने

लगभग उसी जगह

भारत के सबसे पिछड़े गाँवों में से

एक से आने वाली यह लड़की

बहुत कुरेदने पर बताती है कि

उसे नहीं पता है इन शब्दों का अर्थ

वह केवल रिझाती है विदेशियों को

जिनकी करुणा से चलता है

पूरे घर का जीवन

 

अब इस पूरे मसले में

तार्किक स्तर पर कोर्इ समस्या नहीं है

पर जिन्हें पता है इन शब्दों का अर्थ

क्या वे ही जानते हैं इस पंक्ति का आशय

आगे का छोड़ भी दें

तो हम कहाँ  समझ पाये हैं

बुद्ध का पहला ही उपदेश

 

भव्यता की आभा में दीप्त

आकाशस्पर्शी इन मठों की

छाया में करुणा नहीं

उपजता है आतंक

विचरती हैं इनके हरित गलियारों में

अविश्वसनीय चिकनी त्वचाओं वाली

धवल वस्त्रधारिणी सित्रयां

 

कौन है असली भिक्षुणी?

 

जेतवन की बारिशें

बार-बार

पूछती हैं एक ही प्रश्न

3 comments
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  1. बहत अच्छी कवितायें हैं। खासकर पहली तो अद्भुत रूप से सधी हुई है । विशाल भाई को हार्दिक बधाई।

  2. महेश भाई ने वही लिखा, जो मैं लिखना चाहता हूं। पहली कविता में अनाचार और साम्‍प्रदायिकता के विरुद्ध एक साफ़ राजनीतिक बयान बहुत कामयाबी से दिया गया है, इसके लिए बधाई विशाल। दूसरी कविता में शामिल ज़रूरी भावुकता मुझे बहुत सहारा देती है, इस भावुकता का इधर की कविता से लगातार लोप हुआ है, जबकि इसके बिना कविता होती नहीं है और एक निरन्‍तर बढ़ती रुक्षता को ही कविकर्म का हासिल मानते हुए पाठकों के संकट का रोना रोया जाता है, या कभी पाठकों को ही बुद्धिहीन मान लिया जाता है।

  3. दोनों ही कविताएँ मर्म को छूती हैं और दोनों के दुख भी… विशाल और प्रतिलिपि दोनों को बधाई

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