नब्बे के बाद: कविता में प्रतिरोध और उसका असर: विशाल श्रीवास्तव
जब सार्वभौमिक तौर पर यह बात मान ली गयी हो कि हिंदी विचार की नहीं विज्ञापन और मनोरंजन की भाषा है, तब उस भाषा में लिखी जा रही कविता में प्रतिरोध और उसके प्रभावों की बात करना और भी गंभीरता और दृष्टि से भरी परख की मांग करता है. वस्तुत: हर समय की रचनात्मकता उस समय के दबावों के विरुद्ध एक प्रतिरोध कर रही होती है, फिर भी जिन बृहत्तर अर्थों में हम यहाँ प्रतिरोध के रेखांकन की बात कर रहे हैं , उनके लिए थोड़ी ही सही पर सैद्धान्तिक समझ के साथ व्याख्या और अनुशीलन की आवश्यकता दिखायी देती है. अधतन संदर्भों पर बात करने से पूर्व यदि हम इस सैद्धान्तिक समझ के लिए थोड़ा पीछे जायें तो कुछ महत्वपूर्ण आलोच्य-बिंदु दृष्टिगत होते हैं. सबसे पहले बात इस विचार के साथ कि किसी समय की रचनात्मकता में एक साथ कर्इ संस्तर होते हैं और एक की उपस्थि ति निश्चित रूप से दूसरे की नगण्यता या ह्रास नहीं मानी जानी जा सकती, और संस्तरों की इन बुनावट के लिए रचनाधर्मिकता की प्राकृतिक दिशा और शकित एक बड़े तत्व के रूप में उत्तरदायी है. इस तथ्य को समझने के लिए मार्क्स द्वारा अपनी पुस्तक ‘थ्योरीज़ आफ सरप्लस वैल्यू में उलिलखित इस तथ्य को देख सकते हैं, जिसमें वे लिखते हैं कि ‘मिल्टन ने पैराडाइज लास्ट उन्हीं कारणों से लिखी जिन कारणों से एक रेशम का कीड़ा रेशम बनाता है’. दोनों ही अपनी प्रकृति के अनुसार काम कर रहे थे. एकबारगी ऐसा लग सकता है कि प्राकृतिकता का यह सवाल इतना महत्वपूर्ण क्यों है? पर जब हम कृति के प्रभाव की बात करते हैं तो प्राकृतिकता को इससे अलग रखना असम्भव हो जाता है. क्योंकि आलोचनात्मक अर्थों में एक गलत या अप्राकृतिक प्रतिकि्रयावादी विचार कलाकार की दृष्टि सीमा को संकुचित कर देता है. जब किसी मिथ्या विचार को किसी कृति का आधार बनाया जाता है तो यह रचना में ऐसे अन्तरविरोध पैदा कर देता है जो इसके कलात्मक गुणों को भी क्षरित कर देते हैं.
सम्भवत: यही कारण है कि प्लेखानोव साहित्य के समाजशास्त्रीय प्रभाव और सौन्दर्यशास्त्रीय प्रभाव के बीच पूरी कठोरता से फर्क करते थे, हालांकि उनका यह मानना था कि सिर्फ वह कला जो तात्कालिक आनंद देने के बदले इतिहास का हितसाधन करती है, महत्वपूर्ण होती है. यह तथ्य अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि एक दूसरे चिंतक अल्थूसर का कहना है कि कला को विचारधारा में बदला नहीं जा सकता है बस उसका विचारधारा से एक निश्चित संबंध होता है और विचारधारा असल में ऐसे काल्पनिक तरीकों का बयान करती है जिनके माध्यम से आदमी वास्तविक विश्व को अनुभव करता है, इसी बात को उनके ही मित्र पियरे मीशेर ने आगे बढ़ाते हुए अपनी किताब ‘थियरी आफ लिटरेरी प्रोडक्शन’ में कहा है कि भ्रांति, जो एक मनुष्य का सामान्य विचारधारात्मक अनुभव होता है, वह आधार है जहाँ से लेखक शुरू करता है लेकिन उस पर काम करते हुए उसे एक नया स्वरूप और ढांचा प्रदान करता है.
शायद कहीं न कहीं कवि की यह प्राकृतिकता जनवादिता के समर्थन की तरह सामने आती है, अंग्रेजी कविता में इसका विरल उदाहरण है वर्डसवर्थ और कालरिज द्वारा ‘लीरिकल बैलेडस का प्रकाशन. जिसमें कविता की सबसे सशक्त परिभाषा देते हुए वर्डसवर्थ ने भावनात्मक प्रवाह के साथ जनभाषा में कविता की सम्भाव्यता के प्रयोग की बात की है. यधपि था तो यह रोमांटिक कविता का घोषणा-पत्र पर यहाँ हम एक बार फिर से कविता के स्वच्छंद आकाश में एक तह के रूप में मौजूद जनसंस्कार को विन्यस्त पाते हैं.
अब हम वहाँ पहुंचते हैं जहाँ से प्रतिरोध की बात शुरू होती है. उपर की ये सारी बातें कविता की आंतरिक संरचना में रेशों की तरह मौजूद प्राकृतिक जनसंस्कार की पड़ताल के लिए आवश्यक हैं, जिनसे रचनाकार अपनी सामयिकता के साथ प्रतिरोध के मोर्चे पर खड़ा होता है. अब ऐसे में वही यक्षप्रश्न सामने आता है कि एक कवि के रूप में रचनाकार के लिए उपलब्ध भिन्न संस्तरों में से उसके लिए एक माकूल चुनाव कैसे सम्भव हो पाता है, या उस सम्भावना का वास्तविक औचित्य क्या है. ‘कविता के नये प्रतिमान’ में नामवर सिंह मुक्तिबोध के माध्यम से कलाकार की व्यक्तिगत र्इमानदारी, आत्मसंघर्ष, अन्तर्निषेध और अंत में ‘शांतिपूर्ण सह-असितत्व की बात करते हैं. ये लगभग वही तत्व हैं जो रचनाकार के प्रतिरोध और तत्संबंधी उसके रचनात्मक चुनाव के लिए जिम्मेदार होते हैं. यहाँ जिस शांतिपूर्ण सह-असितत्व की बात की गयी है, आज समूचे हिन्दी कविता के परिदृश्य पर उसका घना कुहासा छाया है, और इस कुहासे में राह दिखाते हैं पुन: मुक्तिबोध जो अपनी पुस्तक ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष’ में वे कहते हैं कि ‘कविता में कहाँ कितना फ्राड होता है मैं जानता हूँ इस फ्राड को आप कौशल भी कह सकते हैं …… यह अनिवार्य नहीं है कि काव्य की वास्तविक रचना का क्षण युगपत रूप से हृदय के द्रवण का चित्त की रसात्मकता का भी क्षण हो’. अर्थात जिस तथ्य को एक सैद्धानितक अपवाद के रूप में कभी मुक्तिबोध ने ग्रहण किया था आज वह एक सर्वमान्य फार्मूले का रूप ले चुका है.
चिंतन की एक अन्य दिशा यह भी है कि प्रतिरोध के पूरे मामले का सरलीकरण इस एक बात से किया जाता रहा है कि चूंकि अब हिन्दी पटटी में कोर्इ सक्रिय आंदोलन नहीं है तो उस किस्म का प्रतिरोध या उसकी छाया हिन्दी कविता में दृश्यमान नहीं होती. तो इस महान सुविधाजनक वाक्य की पड़ताल करते हुए मार्क्स के एक कथन को याद करना उचित होगा जो उन्होंने जर्मन रोमांटिक कविता के बारे में कहा था कि वह एक पवित्र नकाब है जिसके पीछे वहाँ के मध्यवर्ग का दुखपूर्ण गद्य छिपा हुआ है. कविता का काम जहाँ अर्थों को खोलना और दुखों को सार्वजनिक बनाते हुए उनका साधारणीकरण करना है, वहीं मिथ्या कविता जिसे हमने पूर्व में अप्राकृतिक कविता कहा है, का काम इसी तरह के पवित्र आवरण तैयार करना है, जो यथार्थ को अपने पीछे छिपा सकें. दुख की बात है कि हिन्दी में लगातार ऐसे आवरण तैयार होते रहे हैं जिन्होंने काव्यात्मक प्रतिरोध का रंग फीका किया है.
प्रतिरोध के मुददे पर बात करते हुए यह भी देखना आवश्यक है कि उसके कर्इ अवसादी संस्तर इन बीते दशकों में विन्यस्त होते गये हैं. जिन आधारभूत चीजों के प्रतिरोध को लेकर हिन्दी में विचार कविता का उदभव हुआ था न सिर्फ उन चीज़ों में बदलाव और विस्तार आया है बलिक जिस धरातल से कविता में प्रतिरोध की आवाज उठ रही थी, वह धरातल भी समाजशास्त्रीय परिवर्तनों के कारण बदल गया है. साहित्य के इस बदले हुए समाजशास्त्र को समझे और स्वीकार किये बिना कविता में प्रतिरोध की पड़ताल सम्भव नहीं है. जैसे, उदाहरण के तौर पर अधिकतर कवि गाँव से शहरों की ओर आये हैं, लेकिन जीवनभर वे गाँव की कवितायें लिखें यह आवश्यक नहीं है, उनकी प्रारमिभक कविताओं में गाँव का दिखना स्वाभाविक है लेकिन उतना ही स्वाभाविक उनकी बाद की कविताओं में दिखने वाला शहरी जीवन और उसकी तथाकथित सुविधाजनकता भी है. यह शहरी जीवन लगातार सुविधाजनक होता गया है और उसमें कवि लगातार घेरे में आता गया है, और उसकी नैतिकता पर शक किया गया है. अभावों से जूझते हुए दयनीय कवि की छवि से निकलकर कवि अब एक आम शहरी की तरह जीने लगा है.
कविता की दृष्टि और प्रतिरोध को लेकर यह शक नया नहीं है. ऐसा पहले भी हुआ है, अपनी पुस्तक ‘नये प्रतिमान पुराने निकष’ में लक्ष्मीकांत वर्मा कहते हैं कि ‘पंत अपने बन्द कमरे की खिड़की से ग्रामवधू को देखते हैं तो अज्ञेय वातानुकूलित गाड़ी के पारदर्शी शीशे से कोदो उपजाने वाले महतो की दीनता पहचानते हैं’. अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि क्या ऐसे में अन्य कला माध्यमों की तरह प्रतिरोध के मसले पर कविता प्रश्नातीत होने की ओर आगे बढ़ जाती है और कवि से उसी तरह यह सवाल पूछा जाना बन्द कर देना चाहिए कि तुम कविता क्यों लिखते हो जिस तरह कोर्इ किसी शास्त्रीय गायक से नहीं पूछता कि तुम क्यों गाते हो?
लेकिन सौभाग्यवश या दुर्भाग्यवश इन पंक्तियों का सच थोड़ा धुंधला है. दरअसल पिछले दशकों में लगातार हमारे आस-पास की राजनैतिक-सामाजिक और आर्थिक स्थितियां जिस तरह गडडमडड हुर्इ हैं उनके कारण प्रतिरोध का सवाल और उसके आधार भी मिश्रित और संदेहास्पद हो गये हैं. वैचारिक संक्रमण और संकट की निशानअंदेशी ही सबसे बड़ा और मुशिकल काम हो गया है. उपर जिस सुविधाजनक परिस्थिति की बात हमने की है वह महज वायवीय नहीं है. वस्तुत:, नियामक तत्व के रूप में आज विधमान पूंजीप्रवाह ने समाज के हर वर्ग को उसके अनुरूप ‘सुविधाजनक स्थिति का एक खोल प्रदान कर दिया है. इस खोल में चाहे अनचाहे हमारे बीच का वह कवि भी बन्द है, ऐसे में उससे किसी धारदार प्रतिरोध की मांग करना एक तरह की नाइंसाफी भी हो सकती है.
बात नब्बे और उसके बाद की करनी है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कविता निरंतर अपनी पिछली पीढ़ी से कुछ न कुछ ग्रहण करती है. खासकर हिन्दी में काव्य-भाषा, विचार और भाव-बोध अल्पांश और बहुलांश में लगातार परम्परित हुए हैं. अस्सी का दशक हिन्दी कविता का महत्वपूर्ण दशक है और उसने हिंदी कविता को कर्इ महत्वपूर्ण कवि दिये हैं. नब्बे के बाद की कविता का परिदृश्य भी उस कविता से कर्इ मायनों में परम्परित हुआ है. एक बड़ा अंतर जो प्रतिरोध के मसले पर अस्सी के दशक से ही हिंदी कविता में दिखने लगता है, वह यह कि अपनी पिछली पीढि़यों की तरह इस पीढ़ी के कवि पालिटिकली करेक्ट तो थे लेकिन नागार्जुन और मुक्तिबोध जैसे कवियों की तरह न तो उनमें सर्वहारा के प्रति वह व्यक्तिगत रागात्मक सम्पृकित ही निवेशित हो पायी और न ही वे अपने निजी जीवन में किसी सक्रिय आंदोलन के सहभागी बन पाये, कुछेक कवि इसके अपवाद भी हो सकते हैं. समग्रत: इस पीढ़ी ने कवि के रूप में क्रांति के नायक की जगह क्रांति के ढिंढोरची या मशालची का दायित्व निभाना अधिक उचित समझा. इसे आलोचना या निंदा न समझकर एक आवश्यक और अनिवार्य बुरार्इ के रूप में समझा जाना चाहिए, जिसके समाजशास्त्रीय कारणों की बात हम पहले ही कर चुके हैं.
नब्बे के बाद की कविता के परिदृश्य में कुछ नये प्रभावकारी तत्व भी शामिल हुए जिनमें साम्प्रदायिकता, आर्थिक सामाजिक तत्वों के रूप में लचीली व्यवस्था का आगमन और साहित्य व सभ्यता समीक्षा की सैद्वांतिकी के रूप में उत्तर आधुनिक विमर्श को रेखांकित किया जा सकता है. कविता में प्रतिरोध की वैचारिकी के रूप में इन लक्षणों की उपस्थि ति एक मजबूत आधार को जन्म तो देती है लेकिन हमने देखा कि किस तरह धीरे धीरे ये लक्षण एक तरह की रचनात्मक फार्मूलेबाजी में बदल गए. इसका बहुत बड़ा उदाहरण साम्प्रदायिकता के विरुद्ध लिखी गयी कविताओं की बहुतायत है. एक हिट कविता की दरकार में इस विषय पर सैकड़ों सतही कविताएं लिखी गयीं, यहीं पर प्राकृतिकता का वह प्रश्न उपस्थित होता है जिसकी चर्चा हमने शुरू में ही कर दी थी. कुछ ऐसा ही हाल बाजारवाद और उत्तरआधुनिकता पर लेखन का रहा है. यहाँ एक मौजूं बात कहना जरूरी है, एडोर्नो ने कहा है कि उत्तर आधुनिकता प्रोटेस्ट भी है और यूटोपिया भी बलिक कर्इ बार एक निगेटिव यूटोपिया भी है. ऐसे में प्रतिरोध के जिन बदले हुए स्तरों और धरातलों की बात हम कर रहे थे, वे यहाँ एक साथ प्रतिरोध और उसके विलोम की तरह एक साथ उपस्थि त होते हैं.
किसी भी समय के संदर्भित काव्य-आकाश की भांति नब्बे के बाद के समय में भी कर्इ धाराओं में कवि सक्रिय रहे हैं, उनकी अपनी प्राथमिकताएं रही है, अपने काव्य-विषय रहे हैं और इसी कारण उनके प्रतिरोध की मात्रा, दिशा और गुणात्मकता भी अलग अलग रही है. यदि उदाहरणों के माध्यम से बात करनी हो तो शुरुआत करते हुए मैं अयोध्या 1991 नामक अपनी कविता से चर्चा में आये कवि अनिल कुमार सिंह के बारे में कहना चाहूँ गा. वे एक ऐसे कवि हैं जो अब घोषित रूप से कविता नहीं लिखते. कभी-कभी एक महत्वपूर्ण कवि के लिखना बन्द कर देने का सवाल मुझे किसी भी लोकप्रिय सैद्धानितकी के प्रश्न से अधिक बड़ा लगता है. अगर उनकी कविता के उदाहरणों में जाएँ तो शायद हमने अपने जवाब के कुछ सूत्र मिल सकें, अपनी कविता ‘हिकारत भरा समय’ में वह लिखते हैं- ‘हिकारत भरा समय है यह स्थितियां चूकि गडमड हैं इसलिए निरीहता कब हथियार बन जाएगी ठीक-ठीक समझा नहीं जा सकता ….. इसीलिए सम्भव हो सका है कि जब हम एक बेहतर दुनिया की बात कर रहे हों तो हो सकता है कि ठीक उसी समय में यह भी सोच रहे हों कि दुनिया हमारे कदमों के नीचे कैसे आए’. यह स्पष्टवादिता के रूप में एक प्रच्छन्न व्यंग्य है जिसे प्रतिरोध के एक गाढ़े संस्तर के रूप में देखा जा सकता है. अपने आस-पास सर्वसुलभ प्रतिबद्धता के दोगलेपन का यह स्वीकार समूचे परिदृश्य की सच्चार्इ को हमारे सामने रखता है. उनकी ही एक दूसरी कविता ‘महान कवि’ के अंश हैं – ‘जिन्दगी के तमाम दांव पेंचों के बावजूद कविताएं लिखता है हम अपने को अधम महसूस करने लगें इतने अच्छे ढंग से कविताएं सुनाता है वह …. सत्ता के गलियारों को फलांगने के लिए जनता की छाती पर ओवरब्रिज बनाता है महान कवि’. अब इन कविताओं को एकबारगी डिस्ट्रकिटव और नंगर्इ से भरी कविताएं भी कहा जा सकता है, पर मार्क्स ने जिस पवित्र नकाब की बात की थी, ये कविताएं उसी आवरण के खिलाफ प्रतिरोध पैदा करती हैं.
अब इसी प्रतिरोध के एक दूसरे रंग को इसी पीढ़ी के कवि कुमार अम्बुज में देखा जा सकता है, वे अपनी कविता ‘अतिक्रमण में लिखते हैं ‘फिर मारने की चीज़ के बारे में लम्बे प्रचार के बाद तय कर दिया जाता है कि वह बचाने की चीज है, जैसे जिसके पास बंदूक है वही अमर है’. यहाँ जिस प्रचार की बात कवि कर रहा है वह कोर्इ साधारण मुनादी नहीं बलिक पूंजीवादी मीडियाक्रिटी का एक महत्वपूर्ण औजार है जो चीज़ों के स्वरूप को ठीक उल्टे रूप में बदल देता है, ऐसे में बंदूक के भय के खिलाफ कवि का सकारात्मक प्रतिरोध अपनी आवाज़ उठाता है. कुछ ऐसा ही भय हम पाते हैं एकांत श्रीवास्तव के यहाँ, जो कहते हैं ‘हमारी देह और आत्मा को दीमक की तरह खाता रहा डर सुर्ख लाल खून को हरा करता हुआ …. जो कहता है वह नहीं डरता वह सबसे ज्यादा डरता है’. यहाँ सबसे महत्वपूर्ण प्रतिरोध है परिस्थिति के भय का स्वीकार करना. इससे पूर्व खतरों की जिस निशान अंदेशी की बात हमने की थी, उसका रूपक हमें यहाँ मिलता है, भय है, इस बात को मान लेना, उससे लड़ार्इ के खिलाफ एक पहला कदम हो सकता है.
कुछ ऐसी ही बात पंकज चतुर्वेदी भी कहते हैं कि ‘बुखार में लिखी गर्इ चिट्ठी खून से रौशन सतह पर शब्द की दस्तक है’. कवि यह मात्र भावाकुलता में कर रहा हो, ऐसा नहीं है, यह परत दर परत जमते जा रहे अवसाद की परिणति है, कहीं न कहीं स्वयं और स्वयं के यथार्थ से प्रतिरोध करता हुआ कवि इस परिणति पर पहुंचता है. शायद इसीलिए अनायास नहीं है कि हेमंत कुकरेती कहते हैं ‘अपने समुदाय की तरफ से मैं कहता हूँ कि हड्डियां कहीं और गिरवी हैं हमारी हमें शरण देने के नाम पर बहस बाद में करना अभी तो हमें थोड़ा पानी दो जिसमें ढेर सारा नमक हो’ और आर चेतनक्रांति कहते हैं कि ‘मैंने सारा खतरा अपनी तरफ रखा और शहर के बीचोबीच खड़े होकर पूछा कि अगर आप चाहें तो बता दें कि सच क्या है क्योंकि मेरे पास सच को जानने का कोर्इ तरीका नहीं था और क्योंकि उन्हें झूठ से अनेक फायदे थे इसलिए उन्होंने बिल्कुल सच की तरह सहज होकर कहा कि सच तो यही है जो तुम देख रहे हो’. निश्चित रूप से इन कविताओं में प्रतिरोध का सशक्त स्वर है, जो समकालीन व्यवस्था और उसके क्रूर समाजशास्त्र के खिलाफ खड़ी होती हैं. एक दूसरी आवाज़ निलय उपाध्याय की भी है जो कहती है कि ‘चीखते-चीखते थक चुका हूँ अब चुप होना चाहता हूँ मेरी गलतियों जो मैंने नहीं की और नहीं कीं मुझे क्षमा कर दो कतार में खड़ी अपेक्षाओं चलते चलते जैसे फट जाती है रिक्शे के टयूब की हवा फट गया है मेरे भीतर का साहस मेरा धीरज’. किसी प्योर साइन कर्व की तरह प्रतिरोध का चुकना और फीनिक्स की तरह पुनर्जन्म लेकर खड़े होना इस दशक के कवियों की कविताओं में बार-बार दिखता है. यही हिन्दी कविता के इस समय में प्रतिरोध के एक मिश्रित पर बहुलांश में विधमान चेहरे की विशिष्टता है.
प्रतिरोध करती हुर्इ कविता लिखने वाला एक कवि स्वर ऐसा भी है, जो भयग्रस्त नहीं दिखता. अपनी बात कहते हुए वह किसी तरह की आत्मदया से मंद नहीं पड़ता, पूरी ठसक से अपनी बात कहता है. अष्टभुजा शुक्ल लिखते हैं- ‘जवान होते बेटों इतना झुकना इतना कि समतल भी खुद को तुमसे ऊंचा समझे कि चींटी भी तुम्हारे पेट के नीचे से निकल जाए लेकिन झुकने का कटोरा लेकर मत खड़े होना घाटी में कि ऊपर से बरसने के लिए कृपा हंसती रहे’. यह समझने की ज़रूरत है कि मुख्यधारा से दूर रह रहे एक कवि की ताकत कहाँ से आ रही है? निश्चित ही यह लोक की ताकत है, आस-पास के परिदृश्य की समृद्ध गंध है, जो उसे प्रतिरोध करने की शक्ति के साथ एक ज़रूरी आत्माभिमान भी देती है.
अब यदि इस सबके असर की बात करें तो इन कविताओं की अपील कहाँ तक पहुंचती है, हमारे बोध के किस स्तर तक? वह कौन से रिस्पांसेज जगाती है? तो वस्तुत: हमारी दुनिया के प्रति अन्तर्निहित समझ को उभारती है, उसे काेंचकर जगाती है और हमारी उस दुनिया की समझ को अधिक पुष्ट करती है.
जेमेसन का कथन है कि साहित्य में जो राजनीतिक नहीं लगता उसके भी राजनीतिक निहितार्थ होते हैं. तो कर्इ बार जिस कविता को हम निरीह और अशक्त पाते हैं, जिसके बारे में हमें लगता है कि आग बुझ चुकी है और सिर्फ चिनगारी-सी छिटकती दिखार्इ देती है, उसके भीतर कोर्इ अदम्य गरमाहट छिपी हो सकती है. हमारे समय के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि मंगलेश डबराल ने साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त करने के अवसर पर अपने वक्तव्य में कहा था कि कविता अपने समय के संकटों को पूरी सच्चार्इ से व्यक्त नहीं कर पाती इसलिए उसमें हमेशा ही संकट बना रहता है. कविता के प्रभाव की इस अपूर्णता का एक कारण यह भी है कि अन्य विदेशी भाषाओं की भांति हिन्दी में उस तरह का पाठक समाज नहीं है, जो कवि को पढ़ता नहीं है, बल्कि उससे संवाद करता है, उससे प्रभाव ग्रहण करता है और साथ ही उस पर निगरानी भी रखता है. दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि हिन्दी का कवि अकेला है. साहित्य के परिवर्तनशील समाजशास्त्र ने लगातार कवि और उसकी कविता को अंधकार भरे हाशिये में धकेला है. आमजन का रचनात्मक जुड़ाव संचार के नये साधनों की उपलब्धता के कारण साहित्य से टूटता गया है, ऐसे में इस प्रभाव की पड़ताल लगभग अलक्षित-सी रह जाती है. हमारे समय के महत्वपूर्ण कविकथाकार उदय प्रकाश की कविता ‘तीली की पंकितयां हैं – ‘सबसे संक्षिप्त और सबसे सरल है सबसे लंबी और जटिल प्रक्रिया में बनी चीजों को खत्म करना’. कर्इ बार ऐसा लगता है कविता के प्रतिरोधात्मक इतिहास के असर को भी निर्मम समय की किसी तीली ने इसी तरह खत्म कर दिया है.
इस बात को आगे बढ़ाते हुए मुझे अभी हाल में अक्टूबर 2011 टोरांटो, कनाडा में हुए इंटरनेशनल फेसिटवल आफ पोयट्री आफ रेजिस्टेंस की चर्चा आवश्यक लगती है जहाँ लैटिन अमेरिकन और फिलीस्तीन के मुददों पर चर्चा हुर्इ और कविता को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ऐक्य का माध्यम बनाने की बात की गयी. यह सही है कि हिन्दी कविता में ऐसी ठोस पहल नहीं है. किन्तु यदि हिंदी का कवि विचार तक पहुंचने के लिए अपने नैसर्गिक रास्तों को चुने और पाठकों से उसका आत्मीय संवाद स्थापित होते हुए एक क्रियाशील साहित्य-समाज बन सके तो एक बृहत्तर प्रतिरोधात्मक असर की बात बहुत असंभव नहीं है.
अंत में आत्मालोचन के रूप में मैं पुश्किन की कविता की ये पंक्तियाँ रखना चाहूँगा-
हम सभी हैं विश्वासघाती और पापी
कृतघ्न, निर्लज्ज पतुरियों की तरह
उठती नहीं कोर्इ भावना हमारे दिलों में
गुलाम चुगलखोर और मूर्ख, बुराइयों के
झुण्ड पनपते हैं हम सब में.
प्रतिरोध….वाकई…प्रतिरोध….
अच्छा लिखा विशाल।
कविता पर विचार के इलाक़े में व्याप्त सूनेपन को अपने-अपने तरीकों से भरना अब ज़रूरी हो चला है, विशाल के लेख से इस ओर कुछ हलचल दिखाई दी है।
हम कविता पर बहस कर सकते हैं, यह विश्वास लौटने लगा है। वरना तो अब तक पंकज चतुर्वेदी इस काम को अकेले ही करते रहे हैं …. बिना इस बहस के कविता गिर जाती है। हमारे कई युवा साथी अब बहस की परम्परा में दिखाई दे रहे हैं, विशाल का इसमें आना बहुत सुखद है।
विशाल जी ,आपका यह लेख पढा अच्छा लगा, देश विदेश के नामवर कवियो विचारकों के कथ्य और विश्लेषण से युक्त अत्यंत रोचक और ज्ञान परिमंजन करने वाला प्रभावी लेख है ,परन्तु सारी कवायद एक जगह आकर खडी हो जाती है –हिन्दी पाठक बहुसंख्यक नही है ,यही खलता है , और जो है, उन तक ऎसे संश्लिष्ट आलोचनात्मक गहन सोच ,आख्यान नही पहुंच पाते यह कष्टकारी विषय है । बहरहाल बेहद अच्छे और तर्कमय निर्भय लेख के लिये आभार सह धन्यवाद ।
और अंत की ये पंक्तियां बहुत बडे सच को उजागर करती है
हम सभी हैं विश्वासघाती और पापी
कृतघ्न, निर्लज्ज पतुरियों की तरह
उठती नहीं कोर्इ भावना हमारे दिलों में
गुलाम चुगलखोर और मूर्ख, बुराइयों के
झुण्ड पनपते हैं हम सब में.
इस लेख में मार्क्स को विकृत किया गया है. ‘थ्योरीज़ आफ सरप्लस वैल्यू ‘ को लेखक ने यूँ उद्धृत किया है- ‘मिल्टन ने पैराडाइज लास्ट उन्हीं कारणों से लिखी जिन कारणों से एक रेशम का कीड़ा रेशम बनाता है’.
मार्क्स ने ” आवश्यकतावश ” लिखा है, ना कि “कारणों से” और इससे निष्कर्ष यह नहीं निकाला है कि “कि प्राकृतिकता का यह सवाल इतना महत्वपूर्ण क्यों है?” इसके विपरीत यहाँ मार्क्स ने लेखक का श्रम किन परिस्थितियों में उत्पदक या अनुत्पादक हो सकता है, इसकी विवेचना की है. इसलिए मार्क्स ने यह भी लिखा है कि मिल्टन ने अपनी रचना पाँच पौंड में बेच दी थी. प्राकृतिकता की अपनी अवधारणा सिद्ध करने के लिए मार्क्स के मुँह में उसे डालना अनुचित है.
वैसे तो इस लेख का अद्य-वाक्य ही भ्रामक है-“जब सार्वभौमिक तौर पर यह बात मान ली गयी हो कि हिंदी विचार की नहीं विज्ञापन और मनोरंजन की भाषा है, तब उस भाषा में लिखी जा रही कविता में प्रतिरोध और उसके प्रभावों की बात करना और भी गंभीरता और दृष्टि से भरी परख की मांग करता है.” इसका कोई प्रमाण है या यह स्वयंसिद्ध है?
देखें- मार्क्स-एंगेल्स, साहित्य तथा कला. पृष्ठ-१६८. प्रगति प्रकाशन , मास्को. १९८१.
पूरे आदर के साथ मेरी अरज कि यह भी देखें:-
Milton produced Paradise Lost for the same reason that a silk worm produces silk. It was an activity of his nature. Later he sold the product for 5 pounds. But the literary proletarian of Leipzig, who fabricates books (for example, Compendia of Economics) under the direction of his publisher, is a productive laborer; for his product is from the outset subsumed under capital, and comes into being only for the purpose of increasing that capital. A singer who sells her song for her own account is an unproductive laborer. But the same singer commissioned by an entrepreneur to sing in order to make money for him is a productive laborer; for she produces capital”.
Marx, Theories of Surplus Value, Part I, Moscow: Foreign Languages Publishing House, 1956, p. 389
मुझे अनुवाद से ज्यादा मूल पुस्तक पर विश्वास रहता है। यहां साफ ‘रीज़न’ शब्द का प्रयोग हुआ है, ‘नेसेसिटी’ का नहीं। यह तो पहले से स्पष्ट ही है कि माक्र्स इस पुस्तक में श्रम की उत्पादकता या अनुत्पादकता की बात कर रहे हैं, पर मूल पुस्तक का यह अनुच्छेद यहां साफ तौर पर स्पष्ट करता है कि मिल्टन और रेशम का कीड़ा दोनों माक्र्स की दृष्टि में अनुत्पादक श्रमिक हैं क्योंकि वे किसी एसाइनमेंट पर नहीं बल्कि सिर्फ अपनी प्रकृति के कारण काम कर रहे हैं।
दूसरी बात यह कि बन्धु इतना तो समझें कि लेख का पहला वाक्य कोई सिद्धवाक्य नहीं बल्कि हिन्दी पर लगने वाला एक आक्षेप है और विचारहीनता के इसी आक्षेप के खिलाफ यह लेख अपनी बात रखता है। यह लेख न इस बात को सिद्ध करता है न इससे सहमति दिखाता है बल्कि अपनी सामग्री से अक्सर व्यंग्य में कहे जाने वाले इस वाक्य का विरोध करता है।
प्राकृतिकता को लेकर लेखक का आग्रह या बात समझ के परे है …. आखिर उनका प्राकृतिकता से तात्पर्य क्या है… क्या रेशम के कीड़े की तरह कवि भी अपनी रचना करता है. इसका मतलब या तो कवि सचेतन नहीं लिखता या रेशम का कीड़ा रेशम का उत्पादन सचेतन करता है … और ये दोनों बातें मेरे गले नहीं उतर रहीं … मुक्तिबोध ने कहीं संवेदनात्मक ज्ञान की बात कही है. यहाँ कवि की संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञान की संवेदना को रेशम के कीड़े और कवि के सन्दर्भ में कोई समझा सकता है क्या …. और फिर ये कैसे तय होगा कि कौन सी कविता अप्राकृतिक है
विशाल का यह लेख समकालीन कविता के लिए एक आवश्यक बहस में विषय प्रवर्तन के रूप में देखा जा सकता है । प्रतिरोध के स्वर अभी मद्धिम नहीं हुए हैं बल्कि पूंजीवाद की वर्तमान स्थितियों में उन्हें नए सिरे से मुखर करना आवश्यक हो गया है । हाँ आत्मालोचन हर दौर की तरह इस दौर में भी ज़रूरी है ।