मुश्किल में पड़े देश की कविताएं : शिरीष कुमार मौर्य
अगर आठवें दशक पर नज़र टिकायें, तो वक़्त के साथ यह दर्पण की तरह साफ़ और निश्चित हो चला है कि उसके महत्त्वपूर्ण कवि कौन हैं. विचारधारा के स्तर पर यहाँ दो धाराएँ हैं–एक, `अल्ट्रा लेफ़्ट´, यानी क्रान्तिकारी वाम( दूसरे, लचीला या `सॉफ़्ट लेफ़्ट´, यानी किंचित् उदार और व्यापक वाम. `अल्ट्रा लेफ़्ट´ के प्रमुख कवि साबित होते हैं आलोकधन्वा, गोरख पाण्डेय और वीरेन डंगवाल. नरम वाम की भी दो धाराएँ हैं. एक, वे कवि, जो अग्रज पीढ़ी में रघुवीर सहाय को अपना आदर्श मानते हैं. इनमें मुख्य हैं–मंगलेश डबराल, असद ज़ैदी, नरेन्द्र जैन और मनमोहन. दूसरी धारा के कवि रघुवीर सहाय को दृष्टि-पथ से ओझल नहीं करते मगर अपनी काव्य-चेतना, उसे चरितार्थ करने के कलात्मक अंदाज़, मंतव्यों, सरोकारों और रुझानों के मामले में केदारनाथ सिंह के ज़्यादा नज़दीक हैं. इनमें अग्रगण्य हैं–अरुण कमल, राजेश जोशी और ज्ञानेन्द्रपति. (पंकज चतुर्वेदी)
उपरोक्त उद्धरण कुछ समय पहले कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी के समयान्तर पत्रिका में छपे लेख ‘सन्तुलन का गुब्बारा फूट गया है’ का वो महत्वपूर्ण अंश है, जिसने कई हलचलों और किसी हद तक कुछ अग्रज कवियों में एक खिन्नता को भी जन्म दिया. मेरे लिए हिंदी कविता के सन्दर्भ में प्रस्थानबिंदु के रूप में ये पंक्तियाँ बहुत मूल्यवान हैं. पंकज के इस वक्तव्य को अगर मैं अपने हमउम्र कवियों में स्थापित करना चाहूँ तो अकेला नाम उभरकर सामने आता है हित्य अशोक कुमार पांडे का ….. वो सच्चे मायने में युवा हिंदी कविता का अल्ट्रा लेफ़्ट कवि है. पिछले दो-तीन सालों में अशोक कुमार पांडे की कविता ने मुझे लगातार आकर्षित किया है. उसके पास मुझे ख़ास तरह की इच्छाशक्ति दिखाई दी है, जिसे मैं हर हाल में अल्ट्रा लेफ़्ट की राजनीति कहना चाहूँ गा. उस पर कोई आवरण नहीं चढ़ाया जा सकता है, वो अपने भीतर के तेज से चमकती है. उसके बारे मैंने यही जाना है कि वो विचारवान युवा कवियों में भी उस दुर्लभ बीहड़ प्रजाति का जीव है, जो जीवन और विचार के सघनतम संघर्षों के लिए आज भी सड़क पर उतरने में यक़ीन करती है.
अशोक के कविता संग्रह ’लगभग अनामंत्रित’ पर बात करने से पहले उस दृश्य पर इतनी बात ज़रूरी थी, जिसमें अशोक के कवि का अस्तित्व है. उसकी कविता खुली राजनीति और विरोध की कविता है. भारतीय समाज के बदतर होते हालात में जहाँ धर्म, जाति, बाज़ार, भ्रष्टाचार आदि को जिस तरह नए-नए अर्थ मिलते जा रहे हैं, यहाँ विरोध अगर कहीं से आता है, तो वह अमूल्य है. अशोक की कविता ऐसे दृश्य सम्भव करती है, जिनमें मार्क्स के मूलभूत सिद्धान्तों से एक विलक्षण लगाव अपने पूरे जोखिम के साथ लक्षित होता है. अशोक कई बार कविता से समझौता कर जाता है पर सिद्धान्त से कभी नहीं. उसमें कला का करिश्माई प्रस्फुटन नहीं है, उसके पास चमकीली पंक्तियाँ नहीं है, उसमें किसी भी स्तर पर रूमान नहीं है, उसमें कहन की नाज़ुकी नहीं है, एक अलग शिल्प के प्रचलित रूखे गद्यांश भी उसके पास नहीं है – लेकिन एक कठोर किंतु उर्वर बनाई जा सकने वाली ज़मीन है और तपा हुआ कड़ियलपन भी. वह स्मृतिसम्पन्न कवि है. गाँव-जवार से आया बेहतर पढ़ा-लिखा – दुनिया और उसमें मनुष्यता के विरुद्ध चल रहे नए-नए दुश्चक्रों को जानने-समझने वाला युवा. उसकी कविता में गाँव और शहर के बीच एक नहीं, कई पुल हैं – जो भारतीय समाज की आज की मौलिक संरचना भी हैं.
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उसकी कविता ‘कहाँ होगी जगन की अम्मा’ में आने वाले सतरंगे प्लास्टिक में सिमटे सौ ग्राम अंकल चिप्स और भड़भूजे के की कड़ाही से लाए गए दो मुट्ठी चनों के बीच का तनाव को महज स्मृति मान लेना भी भूल होगी, वह स्मृति और वर्तमान के बीच द्वन्द्व से पैदा हुए भविष्य का चुनाव है. अशोक की कविता मानो दो विरोधी उम्मीदवारों को आपके सामने रखकर सही के पक्ष में मतदान की अपील करती है. यह आज की कविता फ़र्ज़ है. आज के भारत में हम ऐसे ही अनेक मतदानों के बीच जी रहे हैं, जहाँ या तो हम अकसर ग़लत जगह मतदान कर आते हैं या फिर मतदान से विमुख होकर ग़ैरराजनीतिक होने का प्रमाणपत्र गर्व से दिखाते हैं, जबकि हमें शर्मिन्दा होना चाहिए.
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उपस्थित तो रहे हम हर समारोह में
अजनबी मुस्कराहटों और अभेद्य चुप्पियों के बीच
अधूरे पते और ग़लत नम्बरों के बावजूद
पहुंच ही गए हम तक आमंत्रण पत्र हर बार
यह अशोक के समकालीन कविता संसार में उपस्थित होने का भी दृश्य है. एक समारोह चल रहा है यहाँ … इधर तो और भी…अनवरत…पता नहीं ऊबते-थकते भी नहीं लोग. यहाँ अजनबी मुस्कराहटें अकसर परिचित चेहरों से आयीं….. जिनका पूरा, वास्तविक और प्रामाणिक पता होना चाहिए था कविता में, उनके पते अधूरे….नम्बर ग़लत… लेकिन वे आए … उनकी मौजूदगी मानो ज़िद बनती गई. कितना कोलाहल …. कितनी त्वरित मान्यताएं… अलग काव्य और उसके लिए अलग काव्यशास्त्र की आवश्यकता की कितनी घोषणाएं… और जहाँ और जिन बात होनी चाहिए…. वहाँ और उन पर अभेद्य चुप्पियाँ . वैसे भी हिंदी में अब कोलाहल और चुप्पियों का एक समानान्तर इतिहास बनता चला गया है. मैं तो इधर अपनी की हुई समीक्षाओं में उनका लगातार उल्लेख करते हुए थकने लगा हूँ .
अशोक कुमार पांडे का नाम इस सिलसिले का पहला नाम नहीं है और न अंतिम होगा. हिंदी की आलोचना पहले ही पुरस्कारों, बड़े प्रभुतापूर्ण पदों और साहित्यिक वैभव रूपी पिया की आस में आसन से डोलने को तैयार नहीं थी….इधर तो वह और भी जड़ होती गई है. मुझे कविता पर आलोचना करने वालों में अभी तो पंकज चतुर्वेदी के अलावा कोई दिखाई नहीं देता. अवस्थी सम्मान हर साल दिया जा रहा है, पर कविता के आलोचक कहाँ हैं….बिलकुल अभी की बात करूं तो ब्लागजगत में छप रहे नीलकमल के काम ने ज़रूर कुछ उम्मीद जगाई है. यूं तो निराला के समय से ये होता रहा है कि कवि को इस अटूट सन्नाटे को भंग करने के लिए ख़ुद ही हूक लगानी पड़ती है ….. अब ये ज़रूरत और भी बढ़ती जा रही है. ग़ौर करने की बात हो सकती है कि पंकज चतुर्वेदी का मैंने नाम लिया…वे भी ख़ुद पहले कवि हैं, बाद में आलोचक. इस अभूतपूर्व दृश्य के सहभागी हम सब अपने यथार्थ को बख़ूबी भोग रहे हैं. वरना मुझ जैसे व्यक्ति को, जो ठीक से कवि भी नहीं है, कविता संग्रहों पर समीक्षाएं लिखनी पड़ रही हैं – यह तो मेरे सामर्थ्य से ऊपर की विषयवस्तु है, जिसे मैं इधर बहुत संकोच और शर्मिन्दगी के साथ अंजाम दे रहा हूँ .
यह भी तो एक स्वप्न हो सकता है कि इतने उर्वर कविता-संग्रह आते जा रहे हैं और उन पर वैसी ही आलोचना भी…. कई हस्तक्षेप दिखाई दे रहे हैं…. बहसें चल रही हैं…. और यह सब इतना तीव्र और तिक्त है कि एक सुर में लिखते चले जाने की बजाए नए कवि अपना अंतस खंगालने पर विवश हो रहे हैं …. अफ़सोस ये स्वप्न ही है… इसका कोई साकार सरूप मुझे तो दिखाई नहीं दे रहा. जानता हूँ ये वक़्त मातम मनाने का नहीं… बल्कि गद्य के इलाक़े में कुछ अपनी ही कमज़ोरियों से पार पाने की कोशिशों के साथ उन कवियों पर बात करने वक़्त है, जिन पर प्रभुजन चुप हैं. कवितापाठ के आमंत्रणों में कमी नहीं हैं…. अब तो हर ओर से उनका आना और आते ही चले जाना ख़ासा दिलचस्प भी है … बकौल अशोक –
उन महफिलों में हम भी हुए आमंत्रित
जहाँ बननी थीं योजनाएं हमारी हत्याओं की .
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मैं उत्तराखंड का बाशिन्दा हूँ और यहाँ कमोबेश हर ग्रामीण परिवार से कोई न कोई व्यक्ति फ़ौज़ में नौकरी करता है. कभी वीरेन डंगवाल ने रामसिंह के जीवन का विडम्बनापूर्ण किंतु चेतावनी भरा कवितालेख हिंदी को दिया था, फिर बोतल-भर शराब के लिए एक अवकाशप्राप्त सैनिक के अपनी जवान बिटिया के साथ दिल्ली के तस्कर की लम्बी गाड़ी में घूमने का कठोर-करुण दृश्य अपने नए संग्रह स्याही ताल में दर्ज़ कर मानो उसका शोकगीत भी लिख दिया है. यह सब मुझे याद आ रहा है अशोक की कविता ‘एक सैनिक की मौत’ को पढ़ते हुए. कविता के स्तर पर ये साधारण है पर उसके पीछे की वास्तविकताएं देखें तो हमें कविता के पार उपस्थित जीवन और उसे संचालित करने वाली राजनीति पर निगाह डालनी होगी… इसी बिंदु पर कई आमफ़हम ब्यौरों में फंसी ये कविता अपने लक्ष्य को एक तरह से बींध देती है –
अजीब खेल है
कि वज़ीरों की दोस्ती
प्यादों की लाशों पर पनपती है
और
जंग तो जंग
शांति भी लहू पीती है
शांति का लहू पीना इस कविता का एक दूसरे अधिक बड़े, अर्थपूर्ण और विचारवान संसार में चले जाना है. इस बिंदु से आप सिर्फ़ द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का हालिया इतिहास भी देखें तो पता चलेगा कि शांति-स्थापना और उसकी जिम्मेदारी सम्भाले कोतवालों ने दुनिया का क्या हाल कर दिया है. नहीं, यह कविता सिर्फ़ एक सैनिक की मौत के बारे में नहीं है…. यहाँ वचन और संज्ञा दोनों वही नहीं है, जो दीखते हैं. यह एक मौत से कहीं अधिक बड़ी मौत के बारे में है ….. जिसमें आगामी मौतें भी निवास करती हैं.
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अशोक कुमार पांडे को कलाविहीन कवि कहने के कई मामले भी मैंने देखे-सुने हैं. मैं कोई बहुत बड़ा लिखित आलोचकीय दस्तावेज़ तैयार नहीं कर रहा हूँ कि ‘देखे-सुने’ जैसे पदों के स्थान पर पूरा सन्दर्भ हाजिर करूं….इतनी छूट मैं लेना चाहता हूँ . बहरहाल… निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर, रघुवीर सहाय, चन्द्रकान्त देवताले, विष्णु खरे, आलोक धन्वा, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल, मनमोहन, असद ज़ैदी आदि अग्रज नामों के बावजूद हिंदी की मुसीबत ये है कि यहाँ नये कवि या उसकी कविता के बारे में बात करने वाले लोग कला शब्द से ऐसे व्यवहार करते हैं, जैसे वह कोई जलता अंगारा हो… कोई उसे हाथ में लेकर परखने-सोचने को तैयार नहीं. मैंने पहले किसी लेख में गिरिराज किराड़ू और व्योमेश शुक्ल पर कलावादी होने के आरोपों पर कुछ बातें कही थीं…अशोक के मामले में आरोप उलटा है – यहाँ कला न होने का ग़म है. अब कुछ है तो मुसीबत, कुछ नहीं है तो मुसीबत. इन अतिरेकी जनों से पार पाना मुश्किल है …. न गिरिराज और व्योमेश में उतनी कला है, जितनी बताई जाती है और न अशोक की कविता कला से उस तरह वंचित है, जैसा दिखाया जाता है. इस संग्रह में बहुत ग़ौर से हर चीज़ पढने का कष्ट उठाए बिना भी आप ‘अंतिम इच्छा’ जैसी कविता और उसकी कला को देख सकते हैं. अंतिम के साथ इच्छा – जीवन और कविता, दोनों में यही कंट्रास्ट तो कला है –
न्यायविदो
कुछ तो सोचा होता
यह क़ायदा बनाने से पहले
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इसी संग्रह में कुछ आगे बढ़ें तो पायेंगे कि उधर उस वक़्त में अज्ञेय ‘मौन भी अभिव्यंजना है’ के सिद्धान्त की पूंजी अपने गतानुगामियों को थमा गए थे, जिसके पालनहार अब भी मौजूद हैं…और इधर इस वक़्त में अशोक जैसा सर्वहारा है, जो कहता है –
उतना नि:शब्द नहीं होता मौन
उतना मासूम और शालीन
जितना कि सुनाई देता है अक्सर
दरअसल अशोक ने इस रसायन का यह छद्म समझ लिया है –
पसर जाता है शब्दों के बीच
किसी रंगगंधहीन गैस
या फिर निर्वात-सा ही
और सोख लेता है सारा जीवनद्रव्य
अज्ञेय ने अपनी बात प्रगतिशील आंदोलन के दबाव में कही थी ….वे शांतिप्रिय कवि थे … ‘शांति’ के गूढ़ और कूट के बारे में मैं अभी सैनिक वाली कविता के सन्दर्भ में ही बहुत कुछ कह चुका हूँ . इस मौन के बारे में अशोक की समझ आगे और भी खुलती है –
बहसों के तेज़ झंझावात के बीच
मायावी दावन-सा धर लेता है ऋषिरूप
और बिखेर देता है अपराजेय विषैली मुस्कान
असत्य के पक्ष में ..
प्रश्न वही है कि आख़िर किस तरह की कविता और कैसा कवि-मनुष्य चाहते हैं आप ? मुझे बहुत खेद होता है जब हमारे बुजुर्ग कवि कुंवरनारायण को बहुत होनहार और समझदार जन भी ऋषि कहने लगते हैं. अब आत्मजयी और वाजश्रवा के बहाने लिखने से उनके सिर यह मुकुट पहना दिया जाए, जिसे पता नहीं वो पहनना चाहेंगे भी या नहीं, तो अलग बात है. अशोक की कविता में बहुत ख़ास बात है कि वो अपने बहाने आपको अनायास ही विचार और साहित्य के दूसरे महत्वपूर्ण प्रसंगों में ले जाती है…. आप अशोक की कविता पढ़ते हुए, उस पर बात करते हुए समूची हिंदी कविता पर बात कर पाते हैं तो यह श्रेय उसे अनिवार्य रूप से देना होगा. कविता को लेकर एक अलग-सी अतिरिक्त बेचैनी पूरी किताब में है. ज़रा गिनिए कि कविता शब्द का इस्तेमाल ही पूरे संग्रह में कितनी बार हुआ, फिर इस बहस को जानना-समझना उतना मुश्किल न होगा, जिसे अशोक बार-बार पूरे हठ के साथ सम्भव करता है.
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अशोक की कविता में अपने होने की पूरी गरिमा के साथ स्त्रियाँ आती हैं और उनके साथ हुए अन्यायों दुखद इतिहास भी. अशोक के ही शहर ग्वालियर से आयी कविताएं ‘बहन का प्रेमी’ और ‘प्यार में डूबी हुई माँ’’ की वाचालता के बरअक्स उसकी ‘माँ की डिग्रियाँ ’ का यह पहला पैरा –
घर के सबसे उपेक्षित कोने में
बरसों पुराना जंग खाया बक्सा है एक
जिसमें तमाम इतिहास बन चुकी चीज़ों के साथ
मथढक्की की साड़ी के नीचे
पैंतीस सालों से दबा पड़ा है
माँ की डिग्रियों का एक पुलिन्दा
यह कविता एक समूचा आख्यान है. मेरे लिए बहुत ख़ुशी और वैचारिक सन्तुष्टि की बात होती है जब मैं किसी कविता के लिए ‘समूचा’ और ‘आख्यान’ जैसे पदों का प्रयोग कर पाता हूँ . यह कविता लम्बी भी है – चार पृष्ठ की. इसमें अतीत की आवाजाही वर्तमान के सन्दर्भों में बदलती जाती है. माँ अपनी डिग्रियों से पुरानी सखी की तरह बतियाती है. उस मथढक्की साड़ी की अंतर्कथा भी कही जाती है, जिससे जुड़ी रस्म में बाबा यानी दादा घंटों चीखते रहे और नाना हाथ जोड़कर खड़े रहे आंखों में आंसू भरकर…. यही आंसू इस पूरी रस्मनिभाई में माँ की आंखों में चले गए…उम्र भर के लिए. पिता ने इन एम.ए. तक की डिग्रियों को निरर्थक कर देने की कार्रवाई को पुरुषोचित चतुराई से माँ के घर और बच्चों के लिए किए गए आत्मबलिदान में बदल दिया. पैंतीस साल पहले डिग्रियों को हासिल करने की कहानी किसी महानाख्यान की तरह है. कवि ने माँ के कालेज के दिनों की मुश्किल कल्पना की, उन्हें हमउम्रों के बीच चहचहाते हुई लड़की तरह सोचा, उस बारे में भी सोचा जहाँ कालेज की चहारदीवारी पर कोई किसी का इन्तज़ार कर रहा होता है ….उसने मंगलसूत्र की चमक और सोहर खनक के दृश्य को अन्याय और विडम्बना में बदलते देखा….और फिर वास्तविक और काल्पनिक, दोनों तरह के अतीत को वो अपने एक दशक के प्रेम में सरूप मौजूद पाने लगा…इस गूंजते हुए प्रतिरोध के साथ कि उस चटख पीली लेकिन उदास साड़ी के नीचे / दब जाने के लिए नहीं थीं उस लड़की की डिग्रियाँ …..यह भी अशोक की कला है…. उसने कहीं भी…किसी भी पद अथवा रूप में…प्रयोग में… विषय की गरिमा को किंचित भी गिरने नहीं दिया. इस तरह के बीहड़ विषय को शुरू से अंत तक उसके पूरे तनाव के साथ सम्भाल पाने की कला दूसरे कई प्रिय कलाकारों की मौजूदगी के बावजूद इस क़दर मैंने सिर्फ़ अशोक में देखी.
इस संग्रह में और भी कई-कई तरह से स्त्रियों की आमद है, जिसे विस्तार से समीक्षा लिखकर भली-भांति रेखांकित नहीं किया जा सकता…ये बहुत उलझे हुए ….इधर से उधर जाते तार हैं…. जोखिम भरे… लेकिन इनमें विद्युत है…इन्हीं की बदौलत रौशनी है.
संग्रह का शीर्षक भी किसी आफ़त से कम नहीं….कमनिगाह लोगों के लिए. प्रगतिशील दौर के बाद राजनीति के प्रति गौरवपूर्ण उदासीनता दिखाने …. उसे सिद्धान्त और काव्यमूल्य की तरह स्थापित कर देने का अपराध सिर्फ़ कवियों ने नहीं… हमारे राजनीतिक और विचारवान कहे जाने वाले आलोचकों ने भी ख़ूब किया है। जिस विषय, विचार और शिल्प के साथ अशोक कविता की दुनिया में आया है, वह लगभग अनामंत्रण जैसी ही स्थिति है…. पर वह आया है …. और इसी ख़ास बिन्दु पर कविता संग्रह के ब्लर्ब पर लिखी कुमार अम्बुज की इन पंक्तियों के साथ फिलहाल मैं अपनी बात को भी अख़ीर पर लाना चाहूंगा …अशोक से यह कहते हुए कि फिर मिलेंगे कामरेड…मिलते ही रहेंगे….
अनेक कविताएं प्रमाण हैं कि अशोक कुमार पांडेय प्रस्तुत समय के कवि-दायित्व के प्रति सजग हैं, हस्तक्षेप करते हैं और जीवन तथा कविता में उपलब्ध सक्रियता की फांक को लगातार कम करते हैं. वाग्जाल और ढुलमुलपने के बरअक्स वे पक्ष लेते हैं, अपना कोण तय करते हैं. अपने इरादों में ये राजनैतिक कविताएं हैं.
Shandaar likha hai Shirish ne, kavita sagrah par khas taur par likhi baaton aur unke vicharon ko alag-alag karen to ek behtareen sameeksha ke sath-sath samkaleen kavita par ek gambheer charcha bhi maujood hai. Kavi aur alochak donon ke sath Pratilipi ko badhai aise umda aur tatasth lekh ke liye
yah to ekdam nayi vidha mein baatcheet kii hai shirish bhaiya ne. doosre wale lekh mein bhi jis tarah pahle khand mein ashok ji ke vaktavya ka vishleshan kiya hai.. jee khush ho gaya.. baar baar badhai…
शुक्रिया विमल – विशाल।
एक शानदार संकलन पर एक बेहतरीन आलेख…बस अशोक की लम्बी कविता पर कुछ न कहना खलता है.
अशोक की यह किताब बताती है , कि इस दौर में भी इस प्रतिबद्धता के साथ कवितायें लिखी जा सकती हैं । आपने जिस तरह से इस पर ठहर कर लिखा है , वह भी शानदार है …बधाई
Bahut hi imaandar drishti. Aap
lagataar aalochana bhee likhen aapke kaviroop ko sankoch karne ki jarurat nahi hai. . Abhaar.
उदाहरणों के चयन में मोर्य साहब ने अल्ट्रा लेफ्ट को शायद ज्यादा तवज्जो नहीं दी, खैर आलेख पठनीय है और समझने में आसान भी, ……लेकिन राजनैतिक कट्टरता और जातीय-धार्मिक कट्टरता में कोई फर्क होता है या नहीं ? और अगर कोई एक विचार ही सर्वश्रेष्ठ रहा होता तो दूसरा क्यों आता ? मनुष्यता की पीड़ा को आप किसी भी विचारधारा से जोड़ दें -वो जुड़ जायेगी……असल बात कविता के समग्र प्रभाव की है और शायद आलोच्य कवि की सर्वश्रेष्ठ कविता उसकी शीर्षक कविता है जो आपने पूरी नहीं दी. …मगर उत्तर दक्षिण आधुनिकताओं के दौर में किसी कवि की अंगद जैसी कट्टरता क्या संवेदनशील कवि कर्म के लिए उचित होगी