जीवन और मृत्यु के बीच जो संवाद-सा कुछ है: शिरीष कुमार मौर्य
मृत्युबोध एक जटिल विषय है. मृत्यु के बारे में सोचते हुए या उसे अपने आसपास घटित होते देखते हुए कोई ज़रूरी नहीं है कि आप उससे भयभीत भी हों … इसलिए सबसे पहले तो यही कहना चाहूँगा कि मृत्युबोध अलग वस्तु है और मृत्युभय अलग…. इन्हें मिला देना बहुत कुछ गड़बड़ कर देना है ..ख़ासकर कविता के इलाक़े में. मैंने मृत्युबोध की कई कविताएं पढ़ीं… हमारे बुज़ुर्गों की…. अग्रजों की और हमउम्रों की भी. जीवन में कभी-कभी कुछ बातें देर से होती हैं, जैसे अभी महीना भर पहले ही अनिरुद्ध उमट के 2005 में छपे कविता संग्रह ‘कह गया जो आता हूँ अभी’ से मेरा पहला सामना हुआ. नवीन सागर को हम सभी पाठक जानते हैं और उनके कविकर्म को भी…इस संग्रह की शुरूआत के ही एक पन्ने पर उनकी तीन पंक्तियाँ दर्ज़ हैं:
यहाँ मेरा कंधा होना था
जहाँ मेरा हाथ खाली
झूल गया है हवा में
मैंने महसूस किया कि यह सिर्फ़ प्रिय कवि का उद्धरण-स्मरण ही नहीं है… संग्रह की कविताओं की थीम लाइन या जैसा प्राध्यापकीय या अकादमिक भाषा में कहते हैं ‘विषय-प्रवर्तन’ जैसा कुछ है. नवीन सागर पर एक बहुत अच्छी कविता भी है इस संग्रह में. कई कविताएं और हैं, जिनमें मृत्यु का उल्लेख है. मृत्यु के होने…कई तरह से होने …. न होने…कई तरह से न होने के कई दृश्य हैं यहाँ. उदासी, ख़ामोशी, निर्जनता, ठंडापन और आत्मवक्तव्यता बहुत है इस संग्रह में लेकिन इस सबके पीछे एक निरन्तर हलचल भी है… उत्तेजना है…सक्रियता है…बेचैनी भी भरपूर है. धीरे-धीरे मैंने समझा कि लेकिन के पहले वाली चीज़ें दरअसल शिल्प में हैं और लेकिन के बाद वाली कथ्य में…और फिर दोनों लगातार मिलते-बिछुड़ते भी रहते हैं. पिछले बीस साल में जिस तरह मैंने कविता को पढ़ा है, उसके सामने एक विकट चुनौती हैं इस संग्रह की कई कविताएं. अपनी स्मृतियों की खोह मैंने पाया कि अनिरुद्ध उमट की कुछ कविताएं मैंने कई साल पहले भी पढ़ी थीं और शायद अपनी पुरानी उम्र और तब की कठोर धारणाओं में मैं उन्हें खारिज भी कर चुका था. यहाँ यह मतलब हरगिज़ न निकाला जाए कि उम्र के साथ मेरी धारणाएं बदली हैं … बल्कि वे तो और भी मज़बूत हुई हैं… मगर कुछ हुआ है जीवन-अनुभवों में…रिश्तों में …साहित्य के संसार से मेरी निकटता बढ़ी है…पहले सिर्फ़ पाठक था फिर बतौर ‘कुछ-कुछ कवि’ मैं उसमें हिस्सेदार भी हुआ हूँ… मेरी समझ और अनुभूति का दायरा बढ़ा है. मैंने सीखा है कि कुछ चीज़ें सिर्फ़ आपके दायरे में न होने के कारण खारिज नहीं की जा सकतीं…. गुंजाइश आपके दायरे और उन चीज़ों, दोनों में बराबर बनी रहती है और कभी एकदम खुलकर सामने भी आ जाती है….आपको चौंकाती भी है… और उलझन में भी डाल देती है…. अनिरुद्ध उमट की कविता भी मेरे लिए इसी तरह की कविता है …. मैं बौखला जाता हूँ कि क्या करूं इन कविताओं का ….रख देता हूँ किताब….मगर पलटकर फिर खोलता हूँ… पढ़ता हूँ और बेचैन होने लगता हूँ. कुल मिलाकर वे परेशान करने वाले कवि हैं…. परेशानी पैदा करने को अपने ठेठ मानस और वैचारिक विधान में कविता का काम और उपलब्धि मानता हूँ मैं… और जैसी कि मेरी आदत है मैं किसी एक कवि को पढ़ते और उस पर लिखते हुए सिर्फ़ उसी में बंधकर नहीं रहना चाहता….इस बहाने कविता और विचार के सम्बन्धों की पड़ताल भी अनिवार्य लगती है मुझे.
अशोक वाजपेयी ने इस संग्रह का ब्लर्ब लिखा है, वहाँ से कुछ पंक्तियाँ –
अनिरुद्ध उमट की कविता बिना अपना हाहाकार मचाए या कि दूसरों के लिए कनफोड़ चीख़पुकार किए भाषा और अभिव्यक्ति की शान्त लेकिन स्पंदित गति से हमारे जाने हुए के भूगोल को स्पष्ट और विस्तृत करती है. उसमें निराधार आशावाद नहीं है…
अशोकजी की अपनी पहेलियाँ रही हैं….ये हम सब जानते हैं. वे मार्क्सवादियों से भरपूर आक्रान्त रहे हैं और जहाँ मौका मिला, वहाँ उन पर कुछ कटुतिक्त टीपने का लाभ उन्होंने हमेशा उठाया है. यह भी जान लीजिए कि ये उनके विचारक या आलोचक होने की नहीं, कवि होने की मुश्किल रही है. अपना हाहाकार, दूसरों के लिए कनफोड़ चीख़पुकार और निराधार आशावाद…. वामपंथी कवियों की कविता के लिए इस्तेमाल किए गए पद हैं….और दुख इस बात का कि उमट की कविता पर लिखते हुए वे आसानी से इस्तेमाल हो भी गए हैं….किस भूगोल की बात हो रही है यहाँ, अशोक जी कभी नहीं बता पाएंगे… दरअसल उमट की कविता ने एक भूगोल को स्पष्ट तो किया है, लेकिन विस्तृत नहीं…और भाषा और अभिव्यक्ति की शांत लेकिन स्पंदित गति का मुहावरा त्रिलोचन और शमशेर जैसे वामपंथी कवि-पुरखों पर और अभी मंगलेश डबराल और असद ज़ैदी जैसे अग्रज कवियों पर अधिक लागू होता है, जिनकी वाम विचारधारा बहुत स्पष्ट है …. दअसल अशोकजी की पहेलियाँ अब बूझ लीं गई हैं और वे उनकी चिंतन-सरणी के खिलाफ़ पड़ती हैं. थोड़ा विषयान्तर होगा पर एक मज़ेदार बात का उल्लेख करना है मुझे… यहाँ मैंने चिंतन का प्रयोग विचार के स्थान पर किया है …अपनी अध्यापकीय आजीविका के चलते एकाधिक शोधसमितियों में रहने का अवसर मिला मुझे और वहाँ मैंने एक बार एक विदुषी आचार्य को एक शोध-प्रस्ताव के शीर्षक में आए विचार शब्द पर इस क़दर भड़कता पाया कि पूछिए मत…कुछ देर बाद उन्होंने ही स्पष्ट किया कि विचार से तात्पर्य मार्क्सवाद निकलता है…अत: हमें इसके स्थान पर चिंतन शब्द का प्रयोग करना चाहिए… सो अशोकजी की मुश्किलों के बारे में सोचते हुए मैंने भी विचार को चिंतन कर दिया. रही बात निराधार आशावाद की तो कहना होगा कि कोरी भावुकता से उपजा आशावाद निराधार हो सकता है पर विचार और द्वंद्व से उपजी आशा के पास तो काफी पुख़्ता आधार होता है…यूँ भी सबके जीवन में आशा-निराशा की ऊबचूभ चलती रहती है….इसे फ़तवे की तरह इस्तेमाल करना ग़लत है…निहायत ग़लत है.
बहरहाल…इसी ब्लर्ब में यह भी आता है – जो सहज दिया गया है उसको पहचानना और जो हमारी आकांक्षाओं-निराशाओं में गुंथा हुआ है उसे दृश्य करना कविता के ज़रूरी काम हैं – बहुत ख़ूब काम बताए हैं अशोकजी ने …दुनिया-ज़माने के धर्मगत-जातिगत भेदभाव, भारतीय समाज का सदियों पुराना सामन्ती कूड़ा-करकट, रूढ़ियाँ , आज का बाज़ार और भी न जाने क्या-क्या …. जो हमें सहज ही दे दिया गया…उसे महज दृश्य करना ही कविता का काम है. हम दिए गए को दृश्य करने कविता में नहीं आए हैं … हम तो उस दिए गए के कूड़े को नष्ट करने के लिए आए हैं. किसी मेहतर के सिर पर मलमूत्र सहज दे दिया जाता रहा है…अशोकजी के अनुसार हमें सिर्फ़ उसे पहचानना और दृश्य कर देना है …. कविता का ज़रूरी काम हो जाएगा और समाज सड़ता रहेगा अपनी उसी सनातन गंदगी में… फिर दुनिया में कवि की ज़रूरत क्या है ? बहुत सुख का विषय है कि अशोकजी का बताया यह ज़रूरी काम अधिकांश हिंदी कविता ने नहीं किया है….जिसमें अनिरुद्ध उमट की इन कविताओं को भी शामिल माना जाए. हिंदी कविता ने न सिर्फ़ प्रतिरोध से लेकर प्रतिशोध तक के दृश्य सम्भव किए हैं, बल्कि उनमें भागीदारी भी की है… मुक्तिबोध ने जीवन भर अपने सिर पर कितना मैला ढोया है…हमसे ज़्यादा अशोक जी जानते होंगे, जिनका उनसे व्यक्तिगत सम्पर्क और उनके कविता संग्रह में सक्रिय हस्तक्षेप रहा है.
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अनिरुद्ध उमट की कविताएं दृश्य ही सम्भव नहीं करतीं, वक्तव्य भी देती हैं. इन वक्तव्यों में प्रतिकार भी होता है और एक मंद्र स्वर का प्रतिशोध भी. इस संग्रह में मृत्युबोध की सभी कविताएं इसी तनाव और तीव्रता की कविताएं हैं.
यह रात तो वही है
जिसमें आधी रात बाद हमारी बातों में
सपने हुए लापता
यह रात जिसके आंगन से
बड़ा झोला ले आने वाले के
पैरों के निशान तक नहीं हैं
यह रात वही तो है
जब हमारे बीच तैनात हुआ था भेदिया
मगर अदृश्य हमारे प्रेम का हाहाकार
जिसने हमें ज्ञात तक नहीं होने दिया
सिर पर से लापता हो चुके तारों के बारे में
जिसने हमें अज्ञात रखा
हम जहाँ एक-दूसरे से सटे खड़े थे
वहाँ हमारे मध्य था
एक सूख चुका अंधा कुंआ
इसी रात तो हमारी सांसें थम गई थीं
जब कुंए में से कोई हमारा नाम ले कर
बुला रहा था
और यह कि रात हमें लगा था कि हमारे मध्य
कोई रहता था जो मर गया था
मैंने यह रात शीर्षक की यह पूरी कविता ही उतार दी है. इसमें रिश्तों लेकर बहुत कुछ निजी हो रहा है….लेकिन अपना हाहाकार भरपूर है, जो कविता को निजता से बाहर निकाल लाता है … फिर कविता के उपकरण देखिए …रात का ज़िक्र … उसके आंगन में बड़ा झोला ले आने वाले के पैरों के निशान … कुछ फंतासी… कुछ भय … और वह भेदिया … मुझे मुक्तिबोध याद आने लगते हैं. वहाँ जासूस है … यहाँ भेदिया है … वहाँ बावड़ियाँ … यहाँ अंधा कुंआ … हालांकि इन सबके स्वरूप ख़ासे भिन्न हैं लेकिन कविता के समूचे रचाव में मुक्तिबोध की छाया पसरी हुई है. मृत्यु का भेद यह कि दोनों में से कोई नहीं, दोनों के मध्य कोई रहता था, जो मर गया…अब यह इतना बड़ा भेद भी नहीं…. वह जो अदृश्य हमारे प्रेम का हाहाकार आता है कविता में…वह कहीं कुछ दृश्य हुआ होता तो यह मृत्यु नहीं होती. सम्बन्धों की मृत्यु दरअसल व्यक्ति की मृत्यु से बड़ी होती है…उसमें एक नहीं, दो…और शायद और भी मृत्यु शामिल होतीं हैं.
इस पूरे संग्रह में यह बात तो बिल्कुल साफ़ है कि मृत्यु हर कहीं व्यक्ति से अधिक रिश्तों की है…जिस शहर गए कविता में धोखे, स्वप्न, रातें, घातें आदि हैं और जहाँ कवि गया है, वह शहर भी गले लग कर कहता है क्या तर्पण करने आये हो …और फिर न लौटने वालों की अस्थियों का पता पूछता कवि एक तथ्य से हमारा सामना कराता है कि तुम्हें अपनी अस्थियाँ ख़ुद ही लानी पड़ीं …..और यह अंत –
यार्ड में रेल यूँ धोयी जा रही थी
जैसे किसी की अंतिम क्रिया में शामिल हो
लौटी हो घर की दहलीज़ पर
रिश्तों की मृत्यु के आगे भले कवि असहाय नज़र आए पर व्यक्ति की मृत्यु से मुलाकात का अपना सलीका बताना नहीं भूलता –
जिस क्षण तुम्हें मृत्यु
लेने आएगी
उसकी आँखों में मत देखना
सिर्फ़ कहना
देखो तुम्हारे हाथ कितने गंदे हैं
देखो तुम्हारी घड़ी कब से
बन्द है
मैं सोचता रह जाता हूँ ….बचपन में रूसी लोककथाओं की एक किताब में ज़ार की सेना से अपमानित और वंचित स्थिति में भूखा-प्यासा निकाला गया एक बूढ़ा सिपाही ज़िन्दगी के संघर्ष में बार-बार सामने आती मृत्यु के साथ बिलकुल यही करता है और बिलकुल यही कहता है….और ऐसा करते-कहते हुए वह शतायु होता है. पता नहीं कवि ने वो लोककथाएं पढ़ीं हैं कि नहीं …नहीं पढ़ी हैं, तो यह साक्ष्य है कि मुसीबत में पड़ा आदमी संघर्ष और अनुभूति के स्तर पर हर देश और काल में एक ही होता है…यही है साम्यवाद जीवन और विचारों का, जिसकी हम जैसे कुछ लोग अब भी दुहाई देते हुए लगातार कनफोड़ चीख़पुकार, हाहाकार और आशावाद की तोहमत झेलते हैं.
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ग़ौर से पढ़ने पर समझ में आता है कि अनिरुद्ध उमट की कविता में आने वाले जीवन और मृत्यु के सब सन्दर्भ भले निजी लगते हों पर इनका सम्बन्ध निजता से बाहर किसी बड़ी टूटन से है. इन्हें पढ़ने वाले पाठक अगर इनसे जुड़ाव महसूस करते हैं तो भी यह निजता वहीं भंग हो जाती है. अनिरुद्ध उमट के यहाँ बहुत निजता है…पर यह एक भग्न-निजता है… गोपनीयता और निजता के बीच का फ़र्क़ भी यहाँ भरपूर है…समाज और भूगोल इनमें मुखर होकर बोलते हैं…जबकि कवि समाज के बारे में कोई सायास टिप्पणी कहीं नहीं करता पर वह लगातार जुड़ा हुआ है, उसे अपने जनों की फ़िक़्र है, उनके पक्ष में उसके मन में प्रतिबद्धता और प्रतिरोध, दोनों हैं – इस बारे में मैं नहीं, उमट की कविता ख़ुद बोल रही है –
किसी भूले चौराहे पर वह
बता रहा होगा
लोककला में विदूषक
और आधुनिक कला में
उदासी के उद्गम स्थलों को
बचाना कितना ज़रूरी है
यह भी कि इसके लिए
देह में रक्त
हृदय में स्पन्दन
मस्तिष्क में ज्वार भाटा
न हो
अपितु भीड़ में खड़े लोगों
अभी मैं जहाँ खड़ा हूँ
प्रार्थना करो कि यहाँ से डिग न जाऊं
इंच भर भी हिल न जाऊं
बात लगातार निजता की हो रही है तो देखो चौकीदार ज़रा ग़ौर से सुनो की इन पंक्तियों से भी गुज़र कर देखना होगा…
भई यह मज़ाक नहीं
मगर हम आज तक समझ नहीं पाए
तुम जो रात को हमें कहते हो
जागते रहो
कौन जागता रहे हम या चोर
जो बेहद मौलिक है
हम जो बेहद पारम्परिक
नींद के अलावा कुछ जो सोचते ही नहीं
सम्भोग और सोच के परे दुनिया ही नहीं
चोरों के मौलिक और हमारे बेहद पारम्परिक होने के बीच इस कविता से हमें अनिरुद्ध उमट की वैचारिक दुविधाओं के सुराग मिलते हैं…और अगर दुविधा है तो फिर कविता है…क्योंकि कविता हर वक़्त में दुविधाओं से सतत् सामना भी रही है. ख़ुद कवि अपनी एक कविता में कहता है – अनुनय ही क्यों हठ क्यों नहीं …. मतलब हिंदी कविता में सात सौ साल पुरानी हठ-परम्परा से उसका न सिर्फ़ परिचय है, बल्कि वह उसका सम्मान भी करता है.
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कभी शानी ने हिंदी कथा-साहित्य में मुस्लिम पात्रों की लगभग अनुपस्थिति पर प्रश्न उठाया था, जिसे हिंदी कविता के सन्दर्भ में भी जस का तस देखा जा सकता है. वाकई मुस्लिम पात्रों की आवाजाही कम है कविता में… 1960 से 2000 तक की कविता में यह एक हद तक है पर इधर की कविता में तो बिलकुल ही कम. अनिरुद्ध उमट के इस संग्रह में यह आवाजाही है – अली मियाँ सिरीज़ की चार कविताएं हैं और कुछ दूसरी कविताओं में भी बड़ी बी जैसे पात्र मौजूद हैं. यह दरअसल सायास नहीं होना चाहिए कि आपकी कविताओं में किसी ख़ास तबके़ का जिक़्र आए. जान-बूझकर कर ऐसा करना, न करने से भी बड़ा अपराध होगा. इसे हमारी सामाजिक और राजनीतिक घटनाओं-दुर्घटनाओं में देखना होगा. समुदायों के बीच बढ़ते अलगाव को उसके कारणों के साथ परखना होगा. भारतीय समाज धर्म और जाति के नाम पर लगातार टूटता समाज है….विखंडित समाज…उत्तरसंरचनाओं का समाज…जबकि इसी समाज में टेक्नोलोजी और सूचना प्रौद्योगिकी के भव्य भवन भी हैं….इसलिए फ्रांस से आओ…अमरीका से आओ, हे उत्तरआधुनिकतावादियो आओ … तुम्हारे लिए हमने यह महान भारतीय प्रयोगशाला तैयार की है. बिना आधुनिकता जाने उत्तरआधुनिक हो गए हैं हम. बिना विज्ञान जाने हमने अपने टैक्नोक्रेट महामहिम तैयार किए हैं… एक भी ठीक-ठिकाने का मनोविज्ञानी नहीं दे पाए हम पर फूको के लिए हमारे विद्वान बांहें पसारे खड़े हैं….
ख़ैर जाने दीजिए मैं एक भटका हुआ आदमी हूँ….बहका हुआ भी…. किसी पर बात करना चाहता हूँ और किसी पर करने लगता हूँ…तैयारी कुछ और होती है …..काम कुछ और…बहरहाल, अभी हम देखते हैं उमट के अली मियाँ को –
मियाँ जी तुम्हारे तहमद में कितने पैबन्द
दाढ़ी में तिनके कितने
जाले कितने आंख में
छाले पांव
हाथ में लकीरों का हुजूम कितना कितना
सिर पर आसमान कैसा काला
और भारी
जिसमें तारों की आहो-पुकार
मुंह में जली रोटी-सा चांद
घर में दीवारों की टकराहट
खिड़कियों की भड़भड़ाहट
दरवाज़े की दीमक
मियाँ जी तुम्हारी हर पतंग
कटती
हर धागा टूटता
क़ब्र तक से आती
बदबू तुम्हारे बदन की
तुमने जो अपनी निज़ात का नुस्खा लिखा
वह तक लापता
मियाँ जी मुसलमान हैं तो तहमद में लगे पैबन्द यह तय कर देते हैं कि वे किस वर्ग के प्रतिनिधि हैं. उमट की कविता में यह वर्गबोध है…और इस कविता के अलावा और जगह भी है. ये कविता मुझे वहाँ ले जाती है, जिसे अतीत कहते हैं और यहाँ ले आती है, जिसे वर्तमान कहते हैं – बीच में मुझे एक पूरा जटिल सामाजिक नक्शा मिलता है – मुझे सहज दे दिए गए विरूपित संस्कार मिलते हैं – मुझे अयोध्या की ओर जाती उन्मादी भीड़ मिलती है, मैं उस भीड़ से बुरी तरह पिट जाता हूँ…लहूलुहान घर आता हूँ – रात को मेरे दरवाज़े पर पत्थर मारे जाते हैं – मेरी दीवारों पर कोयले से गालियाँ लिखी जाती हैं – फिर मैं कुछ अपने में लौट पाता हूँ – लक्ष्य बेध देने के बाद उन्माद भी थमने लगता है – अपराधियों की ताज़पोशियाँ शुरू होती हैं – मैं देर रात तक घर से बाहर भटकता हूँ – फिर जीवन में गुजरात आता है – मैं ख़ुद पूछना चाहता हूँ कि क्यों मियाँ जी की हर पतंग कटती है…हर धागा टूटता है…क्यों उन्होंने जो अपनी निज़ात का नुस्खा लिखा था, वह तक लापता है खा े हेवित हैं और उन्हें . मुझे आजकल इतनी बार टूटने के बारे क्यों लिखना पड़ता है …. क्यों, आख़िर यह निरन्तर अलगाव, जो किसी नियम में बांधा नहीं जा सकता…. बेलगाम …. क्यों – क्या संसार में बची हुई मनुष्यता भी अब इसे रोक पाने में असमर्थ है….जबकि दुनिया भर में उस बची हुई मनुष्यता के कवि भी जीवित हैं और कविता भी…
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कुल मिलाकर यह संग्रह एक अटूट तनाव में बिंधी हुई कविताओं का संग्रह है. इन कविताओं से हुए मेरे इस लम्बे और आत्मीय, फिर भी आधे-अधूरे संवाद में शायद मैं हावी रहा हूँ …. इसके लिए मैं इस अग्रज कवि के प्रति खेद भी प्रकट करना चाहता था…पर उसी की इन पंक्तियों ने रोक दिया है –
उससे कुछ कहना नहीं
वह भी कुछ कहेगा नहीं
वह आ रहा है
उसमें लीन मत हो जाना
वह मिले तो पूछना नहीं
सिर्फ़ कहना भर
तुम यहाँ क्या कर रहे हो
अभी तो तुम पृथ्वी से पांव छुड़ा रहे थे
अभी तो तुम्हारे सिर पर आसमान
आ गिरा था.
बेहद उम्दा
क्या इससे ज्यादा कठिन भाषा का इस्तेमाल नहीं हो सकता था ,,,,,,,कविता और समीक्षा दोनों में ही ?