बाजीच: ए अत्फाल: रामकुमार सिंह
पेन
यह एक प्राइमरी स्कूल थी. इमरजेंसी के बाद के दिनों की बात है. जेपी आंदोलन के असर में यह गांव अब भी था लेकिन अजीब सी संदेह की स्थिति भी थी. ज्यादातर लोग अपनी धोती की लांग उठाकर चलने लगे थे. उनके लिंग के पास जो नसबंदी का घाव किया गया था, वो तो भर गया था लेकिन उन्हें हमेशा एक संदेह रहता था कि धोती को कसकर बांधे रखने से उसे हवा नहीं लगेगी और वह फिर हरा हो जाएगा. कुछ लोगों ने धोती छोड़कर पायजामे भी सिलवा लिए थे. कहने लगे थे, इससे आराम रहता है. शुरुआती दिनों में उन्हें शर्म आती थी लेकिन अब वे इस तरह के किस्से भी जोरदार ठहाकों के साथ सुनाते थे कि सरकारी आदमियों ने किसको कहां पटक कर उनकी नस काटी. वे निरीह भेड़ों की तरह कुछ नहीं कर पाए थे. अपनी नसों में छुपी संततियों को बचाने के लिए वे दिनभर खेतों के बीच खाइयों में दुबके रहते थे.
बुरा दौर बीत गया था शायद. चुनावों की घोषणा हुई. कुछ जीपें गांव में आया करती थी. स्कूल के सामने ही बच्चों के खेलने का मैदान था. वहां चुनावी सभा होती थी. नेताओं की फौज गांव में आती थी तो स्कूली बच्चे भी उनके श्रोता होते थे. वे नारे लगवाते थे, इंदिरा गांधी जिंदाबाद, एक दो तीन चार, इंदिराजी की जय जय कार. इस काफिले के गुजरते ही दूसरा काफिला आता था. बच्चे फिर श्रोता होते थे. उनसे नारे लगाने के लिए बोला जाताथा. इंदिरा गांधी हाय हाय. दूसरा लोकप्रिय नारा था, कांग्रेस धोखा है, धक्का मारो मौका है. बच्चों को हमेशा संदेह होता था कि सच कौन बोल रहा है और झूठा कौन है?
इसी मैदान के पार एक कुंआ था. उसमें भांग नहीं घुली हुई थी. सारा मोहल्ला इसी से पानी खींचकर पीता था. कुंए की मुंडेर से मैदान के पार स्कूल में उसकी छप्पर वाली कक्षा को देखा जा सकता था. छप्पर वाली कक्षा से कुएं की मुंडेर
को देखा जा सकता था. अगर आंखों की रोशनी एकदम दुरूस्त हो तो कक्षा से कुछ बच्चे अपने मांओं पिताओं को पहचान लेते थे और सहपाठियों को बताया करते थे, ‘देखो, मेरी मां आज नए मटके में पानी भर रही है, बापू पांच रुपए में कल ही ये मटका लेकर आए थे. इसमें पानी बहुत ठंडा रहता है.’ बदले में कुंए की मुंडेर से कुछ माएं भी अपने बच्चों को पहचान लेती थीं. वे अपनी साथ वाली महिला को बताती थीं, ‘देखो, भंवरी पढ़ रही है. कल ही इसके बापू ने उसे नया पेन दिलवाया है. स्याही की दवात भी लाकर दी है. उसके बापू ने कहा है कि रोज एक पेज लिखा करेगी तो इसकी लिखावट सुंदर हो जाएगी.’
भंवरी इस पेन को लेकर इतराती रही थी. उसकी तीन चार सहेलियां बारी बारी से अपने हाथ में लेकर इसे देख रही थीं. बिमला ने उसे बताया कि पन्ने पर ज्यादा जोर देकर लिखने से इसकी निब टूट सकती है. इमरती ने बताया स्याही भरते समय आधा पेन खाली रखना चाहिए वरना गर्मी के दिनों में पेन से बाहर स्याही उफनकर कूद सकती है. कपड़े या किताबें खराब कर सकती है. बबलू ने कहा कि पेन को बंद करने की चूडि़यां अगर ठीक से कसी नहीं जाए तो उसके ऊपर का ढक्कन बंद करते हुए उसकी निब टूट सकती है. पेन एकदम नया था. चमकता हुआ. सारे बच्चों की नजर उसी पर थी. वात्सल्य रस में कमजोर पिताओं के लिए उसी वक्त तय हो गया था कि पेन के लिए उनके पास अपनी संतानों की मांग आएगी. उनकी जेब कटेगी. कुछ बच्चों ने अपने पुराने अनुभवों से ही सीख लिया था कि उनका बाप एक नंबर का कंजूस है और वह उन्हें पेन नहीं दिलवाएगा. इसलिए उन्होंने नए पेन के सपने भी नहीं देखे. भंवरी के बैठने की जगह पर एक झुंड सा बन गया था. हर बच्चा एक बार पेन हाथ में लेकर देखना चाहता था. शोर शराबा होने लगा था. बैठने की दरिया बच्चों के कोलाहल में सिकुड़ गई थीं और उसी समय मास्टर मेघ सिंह ने इस तरह से एंट्री मारी जैसे दाना चुगते कबूतरों के बीच किसी ने जोर से पत्थर फेंक दिया हो. सब लोग भागकर अपने आसन पर गए. फटाफट से किताब में आंखें ऐसे गड़ाई जैसे अलिफ लैला के किस्सों की तरह किताब में वो नक्शा छपा हुआ है, जिसमें मेघ सिंह से बचकर निकलने का रास्ता बताया गया है.
‘शोर क्यों हो रहा था ?’ मेघ सिंह की दहाड़ थी.
सब के सब गजालों की तरह दुबक कर सांस रोके बैठे थे.
‘बोलोगे भी कि डंडे से बात करुं ?’
यह मेघ सिंह की आदत थी. पहली डिग्री फेल होते ही थर्ड डिग्री पर उतर आते थे. बीच का कोई रास्ता था ही नहीं. डंडा उनकी हाथ से हाथ पर मार करने वाली ऐसी मिसाइल था कि जिसके डर से सामने वाला मुकाबला शुरू होने से पहले ही समर्पण कर देता था. यह कक्षा की सामूहिक जिम्मेदारी होती थी कि दोषी को पकड़ पर मेघ सिंह के हवाले कर दे. ऐसा नहीं करने पर पूरी कक्षा को बाहर निकाल कर धूप में खड़ा किया जाता. बारी बारी से सबको हाथ बाहर निकालने के लिए कहा जाता, जिस पर मेघ सिंह अपनी उपलब्ध ताकत के साथ डंडे मारते थे. कमजोर दिलवाले इस आतंक को बर्दाश्त नहीं कर पाते थे. आधे बच्चे स्कूल इसी वजह से छोड़ देते थे कि वहां मेघ सिंह जैसा अध्यापक था. मेघ सिंह की धमकी का असर हमेशा की तरह बलबीर पर हुआ, ‘गुरुजी, भंवरी के पास नया पेन है, उसी को देख रहे थे सब लोग.’
‘जरा दिखाओ तो कौनसा पेन है ?’
‘स्याही वाला है गुरुजी.’ डरते डरते भंवरी ने गुरुजी की तरफ पेन बढा दिया था.
गुरुजी के हाथ में पेन था. नीले ढक्कन वाला. उसका पूरा पेट पारदर्शी था और उसमें स्याही की करवटें आसानी से देखी जा सकती थीं. वह ऊपर से नीचे तक नीला सा दिखता था.
गुरुजी का भी एक बार तो नए पेन को देखकर जी ललचाया.
‘तुम लोगों को अभी पेन की जरूरत नही है. तुम लोग ‘सांटी’ से लिखा करो. उसी से लिखावट सुंदर होती है.’ गुरुजी ने पेन को अपनी जेब में टांग लिया. भंवरी का मुंह उतर गया.
गुरुजी की ‘सांटी’ एक तरह से खडि़या थी जो उस इलाके में उगने वाले ‘कूंचों’ के ‘डोके’ को तीखे चाकू या ब्लेड से छीलकर तैयार की जाती थी. उसे स्याही की दवात में डुबोकर लिखा जाता था.
बात आई गई हो गई. गुरुजी ने पर्यायवाची शब्द पढाने शुरु किए. जिनको बच्चे पता नहीं कितना सीख पाए लेकिन वे इतना जरूर सीख गए कि मेघ का मतलब बादल भी होता है और सिंह का मतलब शेर होता है. लिहाजा गुरुजी का दूसरा नाम हो गया था बादल शेर. बच्चे अकसर बादलों को देखकर कहते थे, आज तो गुरुजी बरसेंगे. मेघ सिंह ने पढ़ाना खत्म किया तब भी उन्होंने भंवरी को उदास देखा था. उन्होंने अपनी जेब से पेन निकाल कर उसे दे दिया, ‘कल मत लेकर आना इसे. घर पर ही लिखा करो इससे. पूरी कक्षा परेशान होती है. दूसरे बच्चों का भी ऐसा पेन लाने का मन होता है.’
भंवरी ने पेन लिया. वह खुश हो गई. उतनी ही खुश, जितनी वह पहली बार पेन मिलने पर हुई थी. वह तो उम्मीद छोड़ चुकी थी कि गुरुजी उसे पेन वापस भी लौटाएंगे.
अंतरवेला हो गई थी. भंवरी ने पेन अपने बैग में रखा और अपनी सहेलियों के साथ खेलकूद में खो गई. कई बच्चे आस-पास अपने घरों में चले गए और जल्दी से कुछ खा पीकर लौटे. वे तमाम हिदायतों के बावजूद इस वक्त कभी धीरे खाना खाते नहीं थे. उन्हें लगता था, खाने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण छुपमछुपाई का खेल खेलना है और जितना समय खाने में बचाएंगे, वह खेलने के काम आएगा. भंवरी को पेन की खुशी में दो दिन से भूख भी नहीं लग रही थी. वह तो खेलते हुए भी अपने पेन के बारे में सोच रही थी.
अंतरवेला की समाप्ति की घंटी बजी तो बच्चे अपनी कक्षाओं में दौड़े. इससे पहले की गुरुजी पहुंचकर दूसरी हाजिरी करें, वे अपनी सीट तक पहुंचने की जल्दी में थे. भंवरी भी लौटी. सबसे पहले उसने बैग खोला. बैग में रखा ड्राइंग बॉक्स
निकाला. उसे खोला. उसके होश उड़ गए.
बॉक्स में पेन नहीं था.
उसने बैग को उल्टा पुल्टा किया. किताबों के पड़ोस से हाथ घुसा दिया लेकिन पेन वहां भी नहीं था. पूरे बैग को उलटकर खाली कर दिया. किताबें दरी पर फैल गईं. पेन वहां भी नहीं था. कक्षा के दूसरे बच्चे हक्के बक्के उसे देख रहे
थे. जब सारी उम्मीदें टूट गई तो भंवरी के भीतर से आंसूओं ने जगह छोड़ दी. वह दहाड़ मारकर रोई,
‘मेरा पेन चोरी हो गया. किसी ने मेरा नया का नया पेन चुरा लिया.’
हवा के साथ बात पहले स्कूल में फैली, फिर मोहल्ले में और फिर गांव में.
पूरी कक्षा ने आज सुबह ही तो भंवरी के हाथ में पेन देखा था. मेघ सिंह दनदनाते हुए कक्षा में घुसे.
‘नए पेन के बारे में सिर्फ तुम्हारी कक्षा जानती थी. तुम में से किसी ने चुराया है. चुपचाप पेन वापस सौंप दो वरना मुझसे बुरा कोई नहीं होगा.’
पूरी कक्षा शुतुरमुर्ग थी. सब बच्चों की गर्दन बैग में घुस रही थी. किसी को सचमुच पता नहीं था कि पेन किसने चुराया. अलबत्ता जो तीन चार उपद्रवी थे, उनके मन में इस पेन को चुराने का शैतानी खयाल आया था. उन्हें मन ही मन अफसोस हुआ कि बाजी उनके हाथ से निकल गई.
दस मिनट के मौन के बावजूद फैसला हुआ नहीं. कोई आवाज, कोई कबूलनामा नहीं आया. किसी ने कक्षा में हाथ भी नहीं उठाया.
यह पहली बार हुआ था कि स्कूल में कोई चोरी हुई थी. मेघ सिंह ने एक दिन की मोहलत दी थी कि कल स्कूल आने तक या तो चोर खुद ही कबूल करे वरना पूरी कक्षा इस चोरी को नतीजा भुगतने को तैयार रहे.
स्कूल की छुट्टी हो गई. अब बच्चे डर से थर्र थर्र कांप रहे थे कि एक आदमी की गलती की सजा कल उन सबको मिलेगी. यह बात बच्चों के मां बाप को भी पता चली. उन्हें लगा कि कल उनके बच्चे को बिना चोरी किए सजा मिलने का खतरा है तो हर कोई शाम होते होते गांव में पेन चोर को ढूंढने में मदद करने लगा. मांओं ने अपने बच्चों के हाथों में पानी रखकर कसम खाने को कहा कि उनका बेटा चोर नहीं है. यह पानी भी उसी कुएं का था, जो स्कूल के सामने था. मेघ सिंह की मार से अपने बच्चे को बचाने की इच्छा सारे मां बाप के मन में थी. वे चाहते थे कि कल बच्चों को स्कूल ही नहीं भेजें. लेकिन मेघ सिंह अनुशासन के मामले में सख्त अध्यापक थे और ऐसा करने पर उनकी पूरी दादागिरी होती थी कि वह स्कूल से बच्चों को निकाल भी दे. भलाई इसी में मानी गई कि चोर को ढूंढ़ा जाए.
गांव की वो शाम चोर को ही तलाशने में लग गई. चोरी पकड़ने के कई टोटकों पर चर्चा हुई. लोगों को गांव के पेमाराम पटेल की याद आई, जो ध्यान लगाकर ही चोर के बारे में बता देता था. कालू कुम्हार की भी चर्चा हुई जो एक आईने में मंत्र फूंकता था. उसके बाद छह साल से छोटा बच्चा उसे देखे तो उसकी भी आंखों की पुतली में पूरी घटना इस तरह दिख जाया करती थी जैसे उसे किसी ने रिकॉर्ड किया हो. कालू कुम्हार सिर्फ मंगलवार के दिन यह काम करता था और पेमाराम पटेल शनिवार को ही सिर्फ इस तरह का ध्यान लगाता था. आज का दिन तो बुधवार था. सुबह गुरुवार था. जब उनके बच्चों को मेघ सिंह के सामने जाना था. भंवरी के हृदय में अब भी पेन की स्मृतियों की तकलीफ थी. उसका मन खेल में नहीं लग रहा था. इमरती उसके घर आई और बोली चलो, अपन कहीं खेलने चलते हैं. भंवरी ने मना कर दिया. इमरती उसे खींचते हुए कुंए तक ले गई. कुंए की ढाल की तरफ बालू मिट़टी थी. उस पर पानी गिरने से वह जम गई थी. इमरती ने कहा, अपन भगवान जी को याद करते हुए गुड्डे गुडि़या का घर बनाएंगे. शायद वे तुम्हारा पेन भी लौटा दें. वे मिट्टी खोदने लगी. घर बनाने लगी. भंवरी की यादों में अब भी पेन टिका हुआ था. अचानक उसकी अंगुलियों को कुछ लकड़ी सा छुआ. उसने और खोदा तो मिट्टी से भरा एक लकड़ी का सा चिकना टुकड़ा उसके हाथ में आया.
यह लकड़ी का टुकड़ा नहीं था, उसका पेन था.
उसने चिल्लाकर कहा, ‘इमरती, मेरा पेन मिल गया.’
इमरती तो पहले से ही जानती थी कि पेन यहीं होगा. फिर भी उसने कहा, ‘किसी को बताना मत वरना भगवान जी, पाप लगाएंगे.’
सबने राहत की सांस ली थी. पूरी कक्षा मेघ सिंह की मार से बच गई थी.
लड्डू
स्कूल के सामने कुंआ अब भी मौजूद था. लेकिन अब उसका पानी ऊंट से नहीं खींचा जाता था. एक मोटा सा पाइप इस सौ फीट गहरे कुंए के पेट के बीचोबीच डाल दिया गया था.
एक बिजली का खंभा उसके बगल में था. उससे एक मोटी सी काली केबल आ गई थी. कुंए के बगल में एक गुमटी बन गई थी. उस गुमटी में दीवारों पर कुछ मोटे मोटे औजार लटकाए गए थे. लाल और हरे बटन थे. स्कूल के बच्चों को उसमें घुसने की मनाही थी.
बच्चों के लिए मनाही का कोई अंत नहीं था. चुनाव के दिन थे. स्कूल में ही वोट पड़ते थे. उसके आस पास जाने तक की मनाही थी. फिर भी बच्चे तो बकरियों के किशोर मेमनों की तरह थे जो अच्छे खासे हरे घास वाले अपने चरागाह को छोड़कर खेत के बुवाई वाले हिस्से में घुसने का मौका ढूंढ़ते थे. उन्हें पता होता था कि ऐसा करने से उन्हें डांट पड़ेगी लेकिन वर्जित को करने में उन्हें बेहद मजा आता था. चुनाव के दिनों में बच्चे वहीं जाकर टिक जाते थे, जहां वोट पड़ते थे. ड्यूटी पर मौजूद पुलिसवाला लाठी लेकर उनका पीछा करता था. वे कुंए के ढलान में बालू में कुत्तों के बनाए ‘घूरों’ दुबक जाते थे. कुत्ते उनके सबसे अच्छे दोस्त थे.
मेघ सिंह की आंखों पर नजर का चश्मा लग गया था. उसे आदत नहीं थी. कई बार घर ही भूलकर आ जाते थे और हाजिरी रजिस्टर में नाम पढ़ने में दिक्कत होती थी. मेघ सिंह वही था लेकिन विद्यार्थी बदल गए थे. वे किसी भी विद्यार्थी को आवाज लगाते थे और कुलवंत सबसे आगे रहता था. वह रजिस्टर में नाम पढ़कर बोलता था और कक्षा से आवाज आती थी, ‘हाजिर साब.’ या ‘उपस्थित गुरुजी.’ ‘यस सर’ और ‘प्रजेंट सर’ की अंग्रेजी बीमारी से अब भी स्कूल अपरिचित था. मेघ सिंह के कानों का ध्वनि बोध इतना बेहतर था कि कोई दूसरा विद्यार्थी अपने मित्र की अनुपस्थिति में उसकी हाजिरी नहीं बोल सकता था. एक आध बार ओम ने कोशिश की थी कि वह लालचंद की हाजिरी बोल दे क्योंकि लालचंद अपने ननिहाल चला गया था. वह नहीं चाहता था कि वह लौटे तो मेघ सिंह के सामने अपनी नानी से मिलने जाने की भी सफाई देनी पड़े. मेघ सिंह की नजर तो रजिस्टर में ‘पी’ या ‘ए’ लिखने में रहती थी लेकिन कानों को अच्छे से पता होता था कि जो विद्यार्थी बोल रहा है वो असली है या नहीं. उसने लालचंद को पकड़ लिया था और हिसाब डंडे से ही चुकता किया गया था. लड़के तो मेघ सिंह से छुट्टी मांगने तक में कतराते थे. उन्हें लगता था छुट्टी मांगने का मतलब ही यह है कि मेघ सिंह डंडे से बात करेगा. उन्हें स्कूल में कम हाजिरी वाले बच्चे बिलकुल पसंद नहीं थे. बात छुट्टी की ही नहीं थी. सारे ही नियम कायदों में वह इतना ही सख्त था. कुलवंत की बहन की सास मर गई थी. ओम के परिवार की भी उस गांव में रिश्तेदारी थी. दोनों को बहन की सास के बारहवें में जाना था. उनका लालच इतना सा था कि वहां लड्डू खाने को मिलेंगे. कुछ और मिठाइयां भी होंगी. घर के सब लोग जा रहे हैं. उन्हें भी जाना है. अब फैसला मेघ सिंह के हाथ में हैं.
‘गुरूजी, दो दिन की छुट्टी चाहिए ?’ कुलवंत ने मेघ सिंह का करीबी होने के कारण अगुवाई की. ओम पीछे ही खड़ा था.
‘दोनों को ?’
‘हां.’
‘क्यों ?’
‘बाई के सासरे जाना है. उसकी सास मर गई है ना.’
‘लड्डू, खाने जा रहे हो ?’
‘हां.’
‘मेरे लिए भी लाओगे ?’
‘……’ दोनों चुप थे.
‘मेरे लिए लड्डू लाओ तो जाने दूं.’ मेघ सिंह ने रजिस्टर से नजरें उठाकर
चश्में से दोनों को घूरते हुए हल्की मुस्कराहट के साथ कहा. आमतौर पर उसे किसी ने मुस्कराते देखा नहीं था.
‘लाएंगे. जरूर लाएंगे गुरुजी.’ कुलवंत को लगातार चुप देखकर ओम ने पीछे से कह दिया. छुट्टी स्वीकार हो गई. कुलवंत और ओम में झगड़ा हो गया.
‘कैसे लाएंगे लड्डू ? यूं ही कह दिया तूने. ’
‘नहीं कहता वो छुट्टी कैसे देता ?’
‘लेकिन अब फंस गए ना. गुरुजी को सब याद रहता है. वह आते ही लड्डू मांगेंगे.’कुलवंत की चिंता अब लड्डू खाने से ज्यादा लड्डू लाने की हो गई. ओम इतनी बार मेघ सिंह से डंडे खा चुका था कि उसे इस बात से फर्क ही नहीं पड़ता था कि लड्डू का इंतजाम नहीं हो पाया तो क्या होगा ? ‘दो चार डंडे मार लेंगे गुरुजी. इससे ज्यादा कुछ होगा नहीं. लड्डू तो खाकर आएंगे. क्यों इतना परेशान हो रहा है ?’ ओम ने कुलवंत को हौंसला दिया.
शामियाना लगा था. पंगत में बैठे लोग जीम रहे थे. पांच सात लोग लगातार हाथों लड्डू, गोंदपाक, बूंदी, नमकीन और सब्जी पूड़ी परोसने में लगे थे. परोसने वाले की मनुहार कुछ अलग ही थी. वह ‘जोरामरदी’ एक आध लड्डू थाली में खिसका ही देता था. सब्जी पूरी की तरफ ज्यादा ध्यान देने वाले कुछ किशोरों को उनके बुजुर्ग डांट रहे थे,
‘सब्जी रोटी तो रोज ही खावौ हो, पहले मिठाई पर फटकारो लगाओ.’
किशोरों ने बुजुर्गों की उतनी ही सुनी जितनी बुजुर्गों ने तब अपने बुजुर्गों की सुनी जब वे किशोर थे. वे अपने स्वाद से भोजन कर रहे थे, ना कि बुजुर्गों की हिदायत से.
लेकिन कुलवंत को लड्डुओं में स्वाद नहीं आ रहा था. उसे बार बार मेघ सिंह की याद आ रही थी. ओम मजे से चटखारे लगा के मिठाइयों का मजा ले रहा था. कुलवंत ने बगल में बैठे ओम को कोहनी मार कर कहा, ‘मेघ सिंह के लड्डू का क्या करना है ?’
‘पहले भरपेट खाने तो दे, फिर सोचेंगे.’
‘तू कैसे खा सकता है यार. मुझे तो गले से नीचे नहीं उतर रहा.’
लड्डू परोसने वाला आ गया था. कुलवंत ने मना किया कि उसे नहीं खाना. ओम की थाली में दो लड्डू पहले से थे. उसने कहा,
‘दो और रख दो.’
कुलवंत को ओम की उस हामी पर गुस्सा आ रहा था. खाना परोसने वाले बार बार कुछ और लेने का आग्रह कर रहे थे.
ओम ने कुलवंत को कहा,
‘दो लड्डू उठा के अपनी जेब में रख ले. दो मैं उठा लूंगा.’
‘पागल हो गया है क्या, यहां डांट पड़ेगी.’
‘डर मत, मैं बोल रहा हूं वैसा कर.’
चारों तरफ लोग अपने खाने में डूबे थे लेकिन एक दम बगल में बैठे बुजुर्गों का ध्यान दोनों बच्चों पर ही था. वे इस बात का ध्यान रख रहे थे कि थाली में जूठा नहीं छोड़ा जाए.
ओम ने ओट लेकर बुजुर्ग की नजर बचाई. दो लड्डू उठाकर अपनी जेब में रख लिए.
फिर उसने कुलवंत के बगल में बैठ अपने ताऊजी का उनसे आगे बैठे बच्चे के सामने पड़े किसी सिक्के की तरफ ध्यान बंटाया जो असल में उसने ही फेंका था. इतना मौका लगते ही कुलवंत ने बाजी मार ली. दो लड्डू उसने पार कर लिए.
बिना समय गंवाए दोनों उठ खड़े हुए. अपनी निकर की जेबों में दोनों ने कुल चार लड्डू मेघ सिंह के लिए चुरा लिए थे.
अब शाम तक वहीं रुकना था. वे सब दो ऊंट गाडि़यों में यहां पहुंचे थे. गोधूलि के समय उनकी गाडि़यां अपने गांव की तरफ रवाना हुई. दोनों का ध्यान अपने लड्डुओं की तरफ था. निकर में हल्की चिकनाई तो लग ही गई थी. जेब का एक हिस्सा उभर कर बाहर भी आ रहा था. उसे अपने पुरखों की नजर से बचाए वे मेघ सिंह के लिए रसद लेकर चल रहे थे.
कच्चे रास्ते से कस्बे में पक्की सड़क आई. फिर कच्चा रास्ता आया. कस्बे से बाहर निकलते हुए एक कुंए की ‘खेळ’ में ऊंट ने पानी की तरफ उम्मीद से देखा. चाचा ने उसे पानी पीने जाने दिया. वे खुद कूद कर कुएं से थोड़ी दूर दीवार के सहारे बैठकर पेशाब करने लगे. ओम और कुलवंत को लड्डूओं के बारे में बातचीत करने का अवसर मिल गया.
‘मेरा नेकर तो चिकणा हो गया है, तेरा ?’
‘मेरा भी.’ ओम ने कहा.
‘मां बहुत मारेगी. उसे पता चल जाएगा कि हमने लड्डू चुराए हैं.’ कुलवंत ने
कहा.
‘तो मार खा लेना. गुरुजी से तो कम ही मारेगी.’
‘लेकिन यह नेकर धुलेगा नहीं तो.’
‘सब धुल जाएगा. केरोसिन तेल डालकर धोने से सब दाग मिट जाते हैं.’
‘मुझे तो भूख लग रही है. मैंने तो वहां लड्डू खाए भी नहीं.’
‘तो अब खा ले एक लड्डू. गुरुजी को तीन दे देंगे.’
‘तीन तो काणा होता है. मां कहती है किसी को तीन कुछ भी नहीं देना चाहिए.’
‘तो एक लड्डू मैं भी खा लेता हूं. मुझे भी खाने का मन हो रहा है.’ ओम ने समाधान निकालते हुए कहा, ‘गुरुजी को दो लड्डू ही बहुत हैं. मार से तो बच ही जाएंगे. यही तो कहेंगे कि कम लाए हो.’
जब तक ऊंट पानी पीकर तृप्त हुआ और चाचा पेट से पानी खाली कर के आराम महसूस कर रहे थे तब तक कुलवंत और ओम ने मेघ सिंह के हिस्से के दो लड्डू कम कर दिए थे.
घर पहुंच गए थे. चाचा और बापू ने मां को कह दिया था कि सबके पेट में मिठाइयां दौड़ लगा रही हैं. पेट भरा हुआ है. आज खाना नहीं खाएंगे. कुलवंत और ओम ने एक दूसरे को विदाई दी. इस आग्रह के साथ कि एक एक लड्डू तो बचाकर रखना ही है भले ही भूख लग जाए और हां, रात को लड्डू छुपाते समय इस बात का जरूर रखना है कि उसे चींटियां नहीं लग जाएं. वरना तो वे सुबह तक चट जाएंगी.
लड्डू उन्होंने थैले में छुपा दिया था. थैला बरामदे में लगी एक ऐसी कड़ी में टांग दिया था जहां सिर्फ ऐसी चींटियां ही पहुंच सकती थीं जिन्होंने कभी किसी नट मंडली में काम किया हो, जिनका इतने पतले और लटकते हुए तार पर चलने का अनुभव हो. उनके गांव में ऐसी चींटियां नहीं थी. लड्डू सुबह तक सुरक्षित था.
सुबह स्कूल की तैयारी में मां से बचाकर निकर रखा गया. नहा धोकर दोनों खुद ही तैयार हुए. चोरों में एक किस्म की आत्मनिर्भरता आ ही जाती है. मांओं को गर्व हुआ कि पहली बार उनके सपूत अपने आप तैयार हो कर स्कूल जा रहे हैं. दोनों स्कूल पहुंच गए थे. मेघ सिंह आज चश्मा लेकर आए थे. उन्होंने हाजिरी बोली. उन्हें लगा, मेघ सिंह बीच में ही रूक कर उनसे पूछेगा कि मेरे लड्डू कहां हैं ? लेकिन ऐसा नहीं हुआ. वह सहज भाव से हाजिरी बोलता गया. फिर रजिस्टर में कुछ दर्ज करने लगा. कुलवंत ने ओम को इशारा किया. दोनों ने थैले से एक एक
लड्डू निकाले और चुपचाप मेघ सिंह के सामने हाथ पीछे करके खड़े हो गए.
उनके दोनों के हाथों में लड्डू थे. मेघ सिंह ने जब सिर उठाया तो दोनों सामने खड़े थे.
‘क्या हुआ ? फिर छुट्टी चाहिए ?’
दोनों ने इनकार में सिर हिलाया.
‘यहां क्यों खड़े हो ?’ मेघ सिंह थोड़ा नाराज हुआ.
अजीब बात है. गुरुजी तो गजब कर रहे हैं. इसके लिए इतनी मेहनत से लड्डू लाएं हैं ये तो मांग भी नहीं रहे हैं.
दोनों ने हाथ आगे किए और मेज पर लड्डू रख दिए.
‘आपने छुट्टी देते समय लड्ड लाने को बोला था. हम लेकर आए हैं.’ कुलवंत ने कहा.
मेघ सिंह भीतर तक खुश हो गए थे. उनकी आंखों में नमी थी. स्नेह के अतिरेक में यह पूछना भी भूल गए कि ये लड्डू वे लोग कैसे लाए हैं ?
‘बेटा, मैंने तो मजाक किया था. ये लड्डू तुम्हीं दोनों खा लो.’
गेहूं
अब कुंआ सूख गया था. पाइप उखड़ गए थे. हर घर में नल लग गया था. अब छप्पर से कुंए की उजड़ी हुई मुंडेर नजर आती थी. बच्चों के स्कूल के बाहर का मैदान के चारों ओर दीवार खिंच गई थी. इस दीवार के भीतर एक बड़ा सा मंदिर बना दिया गया था. उसकी दीवारें इतनी ऊंची थी कि मंदिर में क्या हो रहा है, यह बच्चे नहीं देख सकते थे और बच्चे क्या कर रहे हैं यह मंदिर से दिखाई नहीं देता था. कुंआ अब किसी काम का नहीं रह गया था. लोग उसमें मंदिर में चढाए जाने वाले नारियल का कचरा फेंकते थे.
छप्पर वाली कक्षा और जर्जर हो गई थी. अब इस विद्यालय में बच्चे कम हो रहे थे. गांव में एक पब्लिक स्कूल में बच्चे बढ़ते जा रहे थे. हर साल सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों की गिरती संख्या को देखकर सरकार को चिंता हो गई कि यदि नई पीढ़ी पढ़ेगी नहीं तो देश आगे कैसे बढ़ेगा ? एक बूढ़ा सा आदमी, जो इस देश का प्रधानमंत्री कहलाता था, विज्ञापन में उन दिनों टीवी पर हर जगह आता था. एक सुहाना सा गाना बजता था. प्रधानमंत्री के पीछे कुछ गरीब से बच्चे तख्तियां लेकर दौड़ते थे. हालांकि वे सचमुच गरीब बच्चे नहीं थे. उन्हें गरीबों जैसी पोशाक पहनाकर टीवी वालों ने शूटिंग कर ली थी. अब समय ऐसा आ गया था कि जो जैसा दिखता था, वैसा था नहीं. इस समय का नया नारा था, स्कूल चलें हम.
दूसरी जगहों का नहीं पता लेकिन इस गांव में इतनी भूख नहीं थी कि लोग अपने बच्चे नहीं पाल सकें. हां, वे दुख जरूर उठाते थे. मेहनत मजूरी करते थे, लेकिन जिन संतानों को उन्होंने पैदा किया उन्हें दो वक्त की रोटी देने की कोशिश जरूर करते थे.
मेघ सिंह उसी स्कूल में था. स्कूल अब मिडिल हो गया था. दो नए अध्यापक भी आ गए थे. एक दिन बूढे़ प्रधानमंत्री ने लाल किले से खुश होकर कहा कि चूंकि अब हमारा पेट ऊपर तक भर गया है. इसलिए सीधे सीधे कुछ खाना मुमकिन नहीं है. अब दूसरे तरीके से कुछ और खाएंगे और जनता को खिलाएंगे. अब हर स्कूल आने वाले बच्चे को हर महीने दस सेर गेहूं मिलेगा. वो पढाई के लालच में भले ही ना आए लेकिन उसके घर वाले गेहूं के लालच में जरूर पढ़ने भेजेंगे. सरकार की ओर से बंटने वाली इस ‘खैरात’ में पहले बच्चे को तौलकर अनाज दिया जाने लगा. इस तुला में भी वही खूबी थी, जो इस देश के बनियों, ठेले, सब्जीवालों की सारी तुलाओं में होती थी. यह कमबख्त कम तौलती थी. दस सेर की जगह आठ सेर तौल दिया. बच्चे तो बच्चे थे, शिकायत करते तो यह तुला उन्हें डांट देती थी कि जितना मिल रहा है, उतना क्या कम है? यह तो मुफ्त का माल है और इसमें भी तुम्हें पूरा तौल चाहिए. बच्चे चुप करा दिए गए. बचा हुआ गेहूं विद्यालय के अध्यापकों के घर जाने लगा. जब उनकी पत्नियों ने आपत्ति जताई कि इस गेहूं की रोटियां बनने के बाद ज्यादा काली दिखती है तो मेघ सिंह ने अपने उपलब्ध ज्ञान के आधार पर कह दिया कि यह सरकारी गेहूं है. इसमें आयरन ज्यादा है. सच बात तो यह थी कि इस देश में खूब भुखमरी के बावजूद सरकार के पास गेहूं इतना ज्यादा हो गया था कि रखने के लिए जगह ही नहीं बची थी. वह धूप में तपता था. बारिश में भीगता था. बाढ में बहता
था. आग में जलता था. इसके बावजूद सरकारी अफसरों ने सरकार तक यह खबर भिजवाई कि सब हादसों और आपदाओं के बावजूद गेहूं बहुत बच गया है. हम भी कितना खाएंगे. हमारा भी पेट भर गया है. यह गेहूं भीग भी गया है. इसे अब देश के स्कूलों में बंटवा दो. मेघ सिंह की आयरन वाली दलील को पहले तो उसकी पत्नी ने मान लिया लेकिन जब रोटियों में स्वाद ही गायब मिलता रहा तो उस गेहूं का दलिया पीसकर उसने अपनी बकरियों का खिलाना शुरू कर दिया. बकरियां मौन थी. वे ना प्रधानमंत्री को शिकायत कर सकती थीं ना मेघ सिंह को. बस चबर चबर गेहूं का दलिया चबाती.
उस दौर में गांव में सबसे ज्यादा खुश वे बकरियां ही थीं जिन्हें सरकारी गेहूं भी खाने को मिलता था और पढ़ना भी नहीं पड़ता था. एक दिन खेत में चरते हुए सरपंच की बकरियों से मेघ सिंह की बकरियों की मुलाकात हुई. उनकी खूबसूरती देखकर सरपंच की भूरती बकरी ने मेघ सिंह की चितकबरी बकरी से पूछा,
‘बहन, बहुत सुंदर हो गई हो इन दिनों. राज क्या है ?’
चितकबरी ने कहा, ‘क्या बताऊं बहन, आजकल चारे के साथ जोरदार अनाज भी मिलता है. तुम जानती हो, खेत में उगने वाले गंवार से तो मुझे मोटे होने का खतरा था लेकिन यह तो सरकारी गेहूं है, धुला हुआ एकदम. इसमें प्रोटीन कुछ ज्यादा ही लगता है. फिर मुफ्त का है तो जब तक मेरा पेट नहीं भर जाता तब तक मालकिन बर्तन हटाती नहीं है. मुझे तो खेत में सिर्फ चहलकदमी के लिए आना होता है. वरना खाने पीने की तो घर में कमी नहीं है बहन. मैं तो दुआ करती हूं कि अगले जन्म में भी भगवान अगर ठीक समझे तो मुझे सरकारी मास्टर के यहीं बकरी बनाकर भेजे.’
सरपंच की बकरी ने खाना पीना छोड़ दिया. वह भी सरकारी गेहूं खाने की जिद पर अड़ गई. सरपंच ने मेघ सिंह और उसके बाकी दोनों शिक्षकों को बुला लिया. तुला और कम तौलने लगी. गेहूं और बंट गया.
यह बात एमएलए तक भी गई. वह भी कतार में आ गया. गेहूं और बंट गया.
एमएलए एमपी का आदमी था. गेहूं राष्ट्रीय संपत्ति था और उस पर यदि बच्चों और जानवरों का हक था तो उतना ही राष्ट्र के जनप्रतिनिधि का भी हक था, क्योंकि उसे लगता था कि वह देश का सबसे उत्कृष्ट जानवर है.
एक दिन प्रधानमंत्री को सपना आ गया कि उसने जो गेहूं बच्चों के लिए बांटने को कहा था, उसे तो उसके मां बाप, घर और देश के जानवर खा रहे हैं. उन्हें दिव्य ज्ञान हो गया कि अब बच्चों को गेहूं नहीं दिया जाएगा. अब स्कूल में ही बच्चों को दलिया और घूघरी बनाकर खिलाएंगे. जिससे वे हट्टे कट्टे हो जाएंगे और अच्छे से पढ़ पाएंगे. क्योंकि और लोगों की तरह प्रधानमंत्री ने भी कभी निरोगधाम नाम की पत्रिका में पढ़ा था कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है. हालांकि देश के अखबारों में उनके बारे में यह छपता था कि वे दारू के शौकीन हैं. उन्हें मधुमेह, रक्तचाप, लीवर, गुर्दे, आंत और दिमाग संबंधी कई बीमारियां एक साथ ही हो गई थीं. कई बार ऐसा हुआ कि वे भूल जाते थे कि वे इस देश के प्रधानमंत्री भी हैं. लेकिन इतना तय था कि वे इस देश के लोगों को अब भी बेवकूफ समझते थे. उन्हें हमेशा लगता था कि इस तरह की छोटी मोटी भीख देकर वे एक बार फिर अगली बार चुनाव जीत जाएंगे. इस बात का उम्मीद कम ही थी कि उन्हें इस गांव के बच्चों के भविष्य में जरा सी भी दिलचस्पी थी. बावजूद इसके कि यह गांव उसी देश में था जिसके वे प्रधानमंत्री थे. यह देश उसी दुनिया में था, जिसके बारे में स्कूली बच्चों को हमेशा अच्छी बातें पढाई जाती थीं. उन्हें बताया जाता था कि यह देश किसी जमाने में दुनिया का गुरु था.
प्रधानमंत्री जो भी सोचते थे या नहीं सोचते थे उसका सीधा असर इस गांव पर पड़ने लगा था. अब इस विद्यालय में घूघरी और दलिया बनने लग गया था. तीनों अध्यापकों को आधा समय इसी बात में लग जाता था कि आज क्या बनाना है ? बच्चों की नजर भी पढाई के काले पट्ट की तरफ ना होकर ज्यादातर रसोई की तरफ होती थी कि आज खाने में क्या बन रहा है ?
रसोई में जो खाना बनाने के लिए रखी गई थी, उसका नाम इमरती था. उसने शराबी पति के साथ रहने से इनकार कर दिया था. उसका कोई बेटा इस स्कूल में नहीं पढ़ता था. वह सिर्फ गेहूं और वेतन के लालच में बेमन से बच्चों लिए खाना बनाती थी. ज्यादातर उसमें कॉकरोच, चुहिया और छिपकली भी साथ उबल जाती थी. देश की सरकार की इच्छा के अनुसार बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाई जा रही थी. जिस दिन बच्चों को वह छिपकली या चुहिया अपने दलिया में पड़ी दिख जाती थी, वे सब बीमार पड़ जाते थे और उन्हें इलाज की जरूरत पड़ती थी.
भंवरी की शादी हो गई थी. उसके दो बच्चे पैदा हो गए थे. वे जब अपने गांव में होते थे तो वहीं के स्कूल में घूघरी खाते थे. जब ननिहाल आते थे तो उस स्कूल में घूघरी खाते थे, जहां उनकी मां पांचवी कक्षा तक पढ़ी थी. मेघ सिंह और तीनों अध्यापकों के घर भेजने के लिए अब भी अनाज बचता था. अब भी उनकी पत्नियों का मन होता था तो उससे रोटी बनाती थीं मन होता था तो उसे बकरियां खाती थीं. स्कूल के बच्चे ही अपनी पीठ पर लादकर यह अनाज अपने गुरुजनों के घर पहुंचाते थे. मेघ सिंह की पत्नी को यह चिंता होने लग गई थी कि दो साल बाद जब मेघ सिंह रिटायर हो जाएंगे तो घर में गेहूं आना बंद हो जाएगा. इस बात का ताना वह अभी से देने लगी थी.
सरकारी स्कूल में बच्चे लावारिस से लगते थे. वे जब भी गोल मटोल ग्लोब पर इस देश को घूमते हुए देखते थे तो यूं लगता था कि हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी के बीचोंबीच वह एक गेहूं का दाना है, जो लगातार पानी में डूबे रहने की वजह से फूल गया है.
कुलवंत पड़ोस के कस्बे में देसी शराब के ठेके पर सेल्समैन हो गया था, जहां से कभी कभार मेघ सिंह भी अपने लिए शराब खरीदता था. ओम गांव में ही एक आटा चक्की पर एक हजार रुपए महीने के वेतन पर काम करने लगा था, जहां मेघ सिंह और बाकी दो अध्यापकों के घर का गेहूं भी पिसने आता था. मेघ सिंह हमेशा ओम को इस बात के लिए दस बीस रुपए फालतू देने का लालच देता था कि वह सरकारी गेहूं वाला आटा किसी दूसरे के आटे में मिला दे लेकिन ओम अपनी नौकरी का हवाला देकर मना करता था. वह भी कब तक इस लालच को रोक पाता.
चोरी इस गांव में अब बच्चों का खेल नहीं हैं.
majedar kahani hai. shuruat men ling wali bat se bacha bhee ja sakata tha.
bahut yatharthparak kahani hai, jo shiksh ke kramash badalate swaroop ko ingit karti hai saath hi shikshaa ke saath hi har kshetra me badhate hue bhrashtaachaar ko rekhankit karti hai. baharhal achchhi kahani ke liye sadhuwad.
bahut sunndar shabd rachna..pura mahol jeevant ho utha.3 kahani 3 kalkhand..bahut saral swabhavik abhivyakti.