आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

बादेनुमा: नैयर मसूद

Art: Sunita

लिप्यन्तरण-नज़र अब्बास के साथ महेश वर्मा 

छली और परिंदे की मिलीजुली हैयत वाला हमारा बादेनुमा हवा का रूख़ बताना कब का छोड़ चुका था फिर भी मेरे बाप की जिन्दगी तक ये हमारे मकान की छत पर लगा रहा. कभी कभी उनसे कहा जाता कि अब जब ये सही काम नहीं कर रहा है इसे छत पर से उतार लिया जाये लेकिन वो हर बार ये ही जवाब देते थे कि इसकी जगह छत पर है और ये वहां नहीं तो और कहां रहेगा, कभी वो ये भी कहते थे कि ये हमारे मकान की पहचान है और इसका असल  मसरफ भी यही है वरना हवा का रूख़ मालूम करने की किसको ज़रूरत पड़ती है.

मुझको ज़रूरत पड़ती थी. मुझे पतंग उड़ाने का शौक था लेकिन मैं बादेनुमा का मोहताज नहीं था. दिन के वक़्त अक्सर मेरी नज़रें आसमान पर उड़ती हुर्इ रंगबिरंगी पतंगों की तरफ उठती रहती थीं. दूर या करीब किसी भी पतंग को देखकर मैं बता सकता था कि हवा किस तरफ़ की है. मैं ये भी बता सकता था जो बादेनुमा नहीं बता सकता था कि हवा धीमी है या तेज़ या ख़ानेदार. शाम का अंधेरा फैल जाता तो उड़ती हुर्इ पतंगें उतार दी जातीं और आसमान में सन्नाटा सा हो जाता था इसके बाद से सुबह होने तक अलबत्ता हवा का रूख़ मालूम करने के लिये बादेनुमा की मोहताजी हो सकती थी लेकिन पतंग उड़ाने का वक़्त ख़त्म हो जाने के बाद मुझको हवा का रूख़ जानने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी और अगर पड़ती भी तो अंधेरे में बादेनुमा दिखार्इ नहीं देता था.

कभी कभी मैं आसमान पर उड़ती हुर्इ किसी पतंग को देखने के बाद एक नज़र छत पर लगे हुए बादेनुमा पर भी डाल लेता और देखता था कि वो बिल्कुल सही काम कर रहा है. मैं उसे उस वक़्त ज़रूर देखता था जब दोपहर की गर्म धूप में उड़ती हुर्इ सब पतंगों को आहिस्ता आहिस्ता एक ही जानिब सरकते देखकर मुझको अंदाज़ा हो जाता कि हवा चलते-चलते रूख़ बदल रही है. इस वक़्त बादेनुमा भी बहुत आहिस्ता-आहिस्ता, जैसे अपनी मरजी के खि़लाफ़ लेकिन चुपचाप और सहूलत के साथ दाहिने या बायें घूमकर हवा के रूख़ पर थम जाता. ऐसे मौकों पर मैं उसके कुछ करीब चला जाता और उसे थोड़ी देर तक देखता रहता था.

ऐसे ही एक मौके पर मैने पहली मर्तबा उसकी आवाज़ सुनी. मैं उसके और ज़्यादा करीब हो गया. लेकिन अब वो हवा के रूख़ पर कायम हो चुका था और ख़ामोश था. इसदिन मैंने उसको ज़्यादा देर तक और बहुत करीब से देखा. दूर से वो मछली और परिंदे की मिलीजुली हैयत वाला कोर्इ जानवर मालूम होता था लेकिन अब मैने देखा कि उसकी बनावट में परिंदों वाली कोर्इ बात नहीं थी. वो सिर्फ मछली की हैयत का था. अलबत्ता बनाने वाले ने इसको इसके धुरे पर इस तरह बिठाया था जिस तरह परिंदे दरख़्त की फुनगी पर बैठते हैं. उसकी दुम और पहलुओं की पंखियाँ भी वैसी ही थीं जैसी मछलियों की होती हैं लेकिन दूर से इन दोनों चीज़ों पर किसी परिंदे की फैली हुर्इ दुम और फूले हुए पैरों का धोखा होता है और एक नज़र में वो मछली नहीं सिर्फ परिंदा मालूम होता. शायद इसलिये भी कि इसका ताल्लुक  पानी से नहीं हवा से था. दूर से देखने में वो नाजु़क और सुबूक भी मालूम होता था लेकिन करीब से कुछ भददा और मोटा मोटा बना हुआ  नज़र आ रहा था और साफ़ मालूम होता था कि इसे सख़्त मौसमों को झेलने और हर तरह की हवाओं का सामना करने के लिये बनाया गया है.

मैं देर से उसे तके जा रहा था और ठीक उस वक़्त जब वो सिर्फ मछली नज़र आ रहा था मुझे ख़याल होने लगा कि दरअस्ल ये परिंदा है जो किसी अजीब तरीके से मछली बन गया है और ठीक उसी वक़्त मेरी नज़र उसकी सीध में उड़ती हुर्इ एक पतंग पर पड़ी और मैंने देखा कि धीमी चलती हुर्इ हवा फिर रूख़ बदल रही है. मेरी नज़र लौटकर बादेनुमा पर रूकी वो अपने पहले वाले रूख़ पर कायम था और हलके हलक थरथरा रहा था. मैने आहिस्ता-आहिस्ता उसको बदलती हुर्इ हवा के रूख़ पर घुमाया और उसमें एक बार फिर मुझे उसकी मद्धिम सी आवाज़़ सुनार्इ दी. मेरी समझ में नहीं आया कि आवाज़ उसके किस पुर्जे़ से आर्इ है. मेरी समझ में उस वक़्त से भी नहीं आया कि उसकी ख़राबी की शुरूआत हो चुकी है. मैं उसकी आवाज़ पर ज़्यादा गौर कर रहा था जो मेरी पहचानी हुर्इ सी थी लेकिन मुझे याद नहीं आ रहा था कि मैंने उसे कहाँ सुना था. मैंने बादेनुमा के हर हिस्से को देखा लेकिन अब उसकी थरथराहट रूक चुकी थी और वो हवा के रूख़ पर कायम हो गया था. उसके बाद कर्इ बार मैंने उसको हवा का ग़लत रूख़ बताते हुए देखा और हर बार सोचा अपने बाप को बता दूँ कि हमारा बादेनुमा ग़लत काम कर रहा है लेकिन कभी कभी वो सही काम भी करने लगता था इसलिये मैंने किसी से कुछ नहीं कहा- अलबत्ता अब मैं छत पर पहुँचता  तो मेरी नज़र बादेनुमा पर सबसे पहले पड़ती फिर मैं आसमान में किसी पतंग को तलाश करके पता लगाता कि हवा किस तरफ़ चल रही है. ज़्यादातर हवा किसी दूसरी तरफ की होती थी. कभी-कभी हवा चलते-चलते रूख़ बदल कर उस तरफ की हो जाती जिधर बादेनुमा का रूख़ पहले से होता. ऐसे मौकों पर मुझे ख़याल होता कि हमारा बादेनुमा हवा का पाबंद नहीं हवा उसकी पाबंद है. उस वक्त मेरे लड़कपन के दिमाग़ में और भी अजीब ख़याल आने लगते थे जिनमे सबसे अजीब ख़याल ये होता था कि बादेनुमा ना सिर्फ खु़द ग़लत रूख़ों पर घूमता है बलिक हवाओं को भी ग़लत रूख़ पर मोड़ सकता है.

आखिर एक दिन वो एक ऐसे रूख़ पर रूक गया जिधर की हवा कभी नहीं चलती थी. तेज़ गर्म हवाओं की फस्ल आ पहुँची थी और पतंगबाज़ी का मौसम जा चुका था. शुरू दोपहर की हवा गर्म हो चली थी और मेरे बदन को उसका लम्स महसूस हो रहा था लेकिन अभी उसकी रफ़्तार में इतनी तेज़ी नहीं आर्इ थी कि महज़ लम्स की मदद से उसके रूख़ का पता लगाया  जा सकता ऐसे मौकों पर भी मुझे बादेनुमा की मोहताजी नहीं होती थी. मैं दौड़ता हुआ छत से नीचे उतरा अपने लिखने पढ़ने के सामान में से काग़ज़ का एक वरक लिया और सहन के कूड़े में से टूटी हुर्इ सुराही का एक टुकड़ा उठाया दुबारा छत पर पहुंचते पहुंचते मैं काग़ज़ के गोल टुकड़े फाड़कर जिन्हें हम टिकल कहते हैं उनकी छोटी सी गड्डी बना चुका था. बादेनुमा के पास मैंने गड्डी के नीचे ठीकरा लगा कर उसको सीधा उपर उछाल दिया. ठीकरा कुछ देर तक गड्डी को अपने उपर लिये हुए उठता चला गया एक लमहे भर के लिये फि़जा में रूका फिर गड्डी को वहीं छोड़कर नीचे उतरने लगा. गड्डी भी दम भर को अपनी जगह पर ठहरी रही फिर उसके टिकल मुंतशिर होकर इधर उधर फैले.उसी वक़्त मुझको बादेनुमा की कमर पर ठीकरे के गिरने की खोखली सी आवाज़ सुनार्इ दी और मेरी नज़र टिकलों पर से हट गर्इ बादेनुमा में हल्की सी थरथराहट पैदा होकर ख़त्म हो रही थी. मैंने आहिस्ता-आहिस्ता उसकी कमर पर हाथ फेरा जैसे बच्चों को चोट आने पर या जानवरों को उनसे खुश होकर सहलाया जाता है. फिर मेरी नज़र उपर उठी. सारे टिकल हवा में उलट पुलट होते एक ही सिम्त मगरिब से मशरिक की तरफ़ जा रहे थे. फिर वो मेरे मकान की छत से नीचे हो गये.

मैंने बादेनुमा की तरफ़ देखा. वो उसी रूख़ पर रूका हुआ था जिधर की हवा नहीं चलती थी. मैंने उसे मोड़ने की हल्की सी कोशिश की लेकिन वो अपने रूख़ पर जम गया था. मैने उसको दूसरी तरफ घुमाना चाहा लेकिन उसको जुम्बिश  नहीं हुर्इ. मैंने उसे घुमाने के लिये थोड़ा सा ज़ोर लगाया तो वो फिर हल्की आवाज़ निकालकर थरथराया और मुझे अंदेशा हुआ कि अगर ज़्यादा ज़ोर लगाऊँगा तो उसका कोर्इ पुर्जा या वो ख़ुद टूट जायेगा मैं ज़रा पीछे हटकर उसे देख रहा था. ठीक उस वक्त मैंने एक और आवाज़ सुनी.

”क्या ये ख़राब हो गया?

मेरे मकान से मिले हुए मकान की छत पर एक नौजवान लड़की खड़ी थी. हवा उसके बारीक दुपटटे में हल्की-हल्की लहरें डाल रही थी और उसकी नज़रें बादेनुमा पर जमी हुर्इ थीं. फिर उसने मेरी तरफ देखा. ये लड़की और पड़ोस के दूसरे घरों की लड़कियां भी अच्छे मौसम में अपनी अपनी छत पर आ जातीं और आवाज दबाकर आपस में बातें करती थीं. कभी कभी उनमें से किसी के साथ उसकी सहेलियां भी होतीं और उस वक़्त वो सब जो़र-ज़ोर से बोलती और हँसती थीं. उन मौकों पर वो हमारा बादेनुमा भी देखती और एक दूसरे को दिखाती थीं. मेरी तवज्जो उनसे ज़्यादा अपनी पतंगबाज़ी की तरफ़ रहती लेकिन उनकी आवाज़ें सुनकर मुझको उन छोटी छोटी चिडि़यों का ख़याल ज़रूर आता था जो हमारे सहन की मुंडेरों पर छार्इ हुर्इ बेलों में शाम को बसेरे के वक़्त खू़ब चहचहाती थीं.

ये लड़कियों के छत पर आने का वक़्त नहीं था. सुनसान दोपहर में अपनी छत पर अकेली खड़ी उस लड़की को बादेनुमा की तरफ देखते देखकर मुझे ऐसा मालूम हुआ जैसे मेरे घर का कोर्इ राज़ खुल गया हो. इतने में उसने फिर पूछा: ”खराब हो गया ?

”नहीं मैंने कहा ”ठीक है”

”क्यों ? उसने अपने दुपटटे को देखते हुए कहा: ”हवा तो … ”

”हवा ग़लत चल रही है” मैंने उसकी बात पूरी होने से पहले ही कहा. वो इसके बाद भी कुछ देर तक खड़ी खामोशी के साथ बादेनुमा को देखती रही, फिर मुड़ी और आहिस्ता-आहिस्ता चलती हुर्इ छत के दूसरे सिरे के ज़ीनों पर उतर गर्इ. मैंने सोचा अब अपने बाप को इत्तेला कर दूँ कि बादेनुमा ख़राब हो गया फिर ये ख़याल करके रूक गया कि दो तीन दिन तक और इसको देख लूँ. अलबत्ता अब मैं दिन में कर्इ-कर्इ बार छत पर जाता और बादेनुमा को उसी एक रूख़ पर ठहरा हुआ देखकर चला आता था. मैं दिन के इब्तेदार्इ हिस्से में छत पर ज़रूर जाता और उसे देखता रहता. यहां तक कि धूप बढ़ जाती और हवा गर्म हो जाती. उसमें कभी-कभी मुझे नींद के झोंके  भी आने लगते फिर आसपास की कोर्इ आवाज़ मुझको होशियार कर देती थी. ऐसे ही एक मौके पर सरसराहट की आवाजें सुनकर चौंक पड़ा. मैने उपर देखा हर तरफ़ रंगबिरंगी पतंगें उड़ती दिखार्इ दे रही थीं जिस तरह बाज़ त्योहारों के दिनों में दिखार्इ देती है. मैं कुछ देर तक उनके जमघट को दिलचस्पी से देखता रहा फिर मुझे बादेनुमा का खयाल आया और मैने उसकी तरफ़ देखा उसका रूख़ उधर का हो गया था जिधर पतंग हवा का रूख़ बता रही थीं. मैंने आसमान की तरफ़ देखा. पतंगे अहिस्ता-अहिस्ता दाहिनी जानिब सरक रही थीं. मैने बादेनुमा की जानिब देखा वो भी अहिस्ता-आहिस्ता दाहिनी तरफ मुड़ रहा था. मैं उठकर उसकी तरफ़ बढ़ने को था कि मेरे मुंह पर गरम हवा का तमाचा सा पड़ा और मेरी आंख खुल गर्इ. धूप तेज़ हो गर्इ थी और ज़मीन तपने लगी थी. मैने आसमान की तरफ देखा. कहीं कोर्इ पतंग नहीं उड़ रही थी. अलबत्ता मेरे बदन को जलाती हुर्इ तेज़ रफ्तार हवा के लम्स से मालूम हो रहा था कि वो मग़रिब से मशरिक की तरफ़ चल रही है लेकिन बादेनुमा उसी अजनबी रूख़ पर रूका हुआ था. मैं उठकर उसके बिल्कुल करीब चला गया उसके दाहिने पहलू से टकराते हुए गर्म झक्कड़ उसे छत से उखाड़ फेंकने की कोशिश करते मालूम हो रहे थे लेकिन वो पत्थर की मूरत की तरह अपने रूख़ पर जमा हुआ था और थरथरा भी नहीं रहा था. जब मुझे बिल्कुल यकीन हो गया कि वो बेकार हो चुका है और मैं अपने बाप को ये खब़र सुनाने के लिये तेजी़ के साथ ज़ीने उतरने लगा, मुझे कुछ खु़शी भी महसूस हो रही थी जिस तरह बच्चों को बल्की  अब ये कह सकता हूँ बड़ों को भी उस वक़्त महसूस होती है जब उन्हें कोर्इ ख़ास ख़बर जब वो बुरी ही ख़बर हो सबसे पहले सुनाने को मिल जाती है.

जीने उतरते हुए मुझे ये भी याद आया कि ख़्वाब  में मुझको बादेनुमा पर गुस्सा आ रहा था लेकिन अब जागने के बाद मुझको याद नहीं है कि मेरे गुस्से का सबब क्या था.

मैं सीधा बाहर वाले मुलाकाती कमरे में पहुँचा जहां मेरे बाप बैंत की लंबी सी नीची कुर्सी पर आधे लेटे बैठे रहते थे. मैं उन्हें बहुत ज़माने से इसी कमरे में इसी कुर्सी पर देख रहा था लेकिन मुझे याद है कि पहले वो मकान के अंदरूनी हिस्से में रहते थे अलबत्ता उनको बार-बार मुलाकाती कमरे में जाकर बैठना पड़ता था. इसलिये कि उनके पास मिलने वाले बहुत आते थे. मिलने वाले उनके पास अब भी आते थे लेकिन इस वक़्त इस कमरे में सिर्फ मेरी मां उनके पास बैठी हुर्इ थीं. वो भी शुरू में मुझको नज़र नहीं आर्इं. मैं तेज़ धूप से आया था और मुझे कमरे में अंधेरा फैला हुआ मालूम हो रहा था. बेंत की कुरसी भी दिखार्इ नहीं दे रही थी लेकिन मुझे यकीन था कि उस पर मेरे बाप मौजूद होंगे बल्कि कर्इ मुलाकाती भी कमरे में बैठे होंगे इसलिये मैंने ज़रा जोश के साथ और कुछ एलान करने के अंदाज़ में बादेनुमा की ख़बर सुना दी. ये भी बता दिया कि कर्इ दिन से वो एक गलत  रूख़ पर आकर ठहरा हुआ है और ये भी कि उसके पुर्जे  शायद आपस में उलझ गये हैं. इतनी देर में कमरे का अंधेरा छंट गया और मैने देखा कि मां होठों पर उंगली रख रखकर मुझे चुप रहने का इशारा कर रही है. मैं चुप हो गया ये भी चुप हो जाता इसलिये कि जो कहना था वो कह चुका था. मैंने अपने बाप की तरफ देखा वो कमर तक चादर ओढ़े हुए आंखें बंद किये अपनी कुर्सी पर करीब करीब लेटे हुए थे. उनके चेहरे पर फैली हुर्इ आसूदगी से ज़ाहिर था कि वो गहरी नींद सो रहे हैं.

मैं खामोश था लेकिन मेरी मां ने फिर एक बार अपने होठों पर उंगली रक्खी, मुझे करीब बुलाया और सरगोशी में कहा: ”मुशिकल से सोये हैं”

इसी वक़्त मेरे बाप की आवाज़ सुनार्इ दी ” क्या हुआ कौन ख़राब हो गया” मेरी मां ने फिर मुझे चुप रहने का इशारा किया और फिर सरगोशी में कहा ”सो रहे हैं.”

बाप के चेहरे और बंद आंखों से इस तरह आसूदगी ज़ाहिर थी, हम दोनों कुछ देर तक उनको देखते रहे फिर मां ने आहिस्ता से पूछा: ”तुम्हें कोर्इ काम तो नहीं है? ”

पतंगबाज़ी का मौसम ख़त्म होने के बाद से मुझको फुर्सत थी. मैंने सर के इशारे से बता दिया कि मुझे कोर्इ काम नहीं है.

”तो ज़रा देर इनके पास बैठ जाओ” उन्होंने कहा ”हम अभी आ रहे हैं. ”

मैं बाप के करीब बैठ गया. मां उठकर कमरे के बाहर जाने लगीं फिर रूककर मुड़ी, मुझको इशारे से करीब बुलाया पर पहले से भी ज़्यादा धीमी सरगोशी में पूछा-”वो सचमुच ख़राब हो गया ? ” मैं सर के इशारे से जवाब देने को था कि मेरे बाप ने करवट बदलने की कोशिश की ये उनके लिये मुश्किल    काम होता था और इसमें उन्हें मदद की ज़रूरत पड़ती थी. उनकी आंखें दो तीन बार खुलकर बंद हो गर्इं. इतनी देर में मां ने कुर्सी के करीब आकर उनको एहतियात के साथ करवट बदलवा दी और वो फिर सो गए. मां ने झुककर मेरे कान में कहा. ”इनको न  बताना और कमरे से बाहर चली गर्इं. मैं ख़ामोश बैठा अपने बाप को देख रहा था. वो इसी तरह आसूदा चेहरे के साथ  आंखें बंद किए लेटे हुए थे और इसी तरह आंखें बंद किये किये उन्होंने पूछा: ”वो कबसे ख़राब है ? ”

क्या ये सोते में बोल रहे हैं ? मैंने अपने आपसे पूछा लेकिन उसी वक्त उनकी आंखें खुल गर्इं और चेहरे से तकलीफ़ ज़ाहिर होने लगी. वो फिर करवट बदलना चाह रहे थे. मैंने उनकी मदद करने की कोशिश की तो उन्होंने मुझे रोक दिया और बोले ”अपनी मां को आ जाने दो ”उन्हें  बुलाऊँ ? मैंने उठते हुए पूछा. ”नहीं आती होंगी उन्होंने कहा और फिर पूछा ”कबसे खराब है?” मैंने खु़द को जवाब देने पर मजबूर पाया और इस मजबूरी पर कुछ खुशी महसूस की मुझे बादेनुमा की ख़राबी की इब्तेदा का दिन याद आया जब हवा रूख़ बदल रही थी लेकिन वो अपने पहले वाले रूख़ पर कायम रहा था. मैंने उन्हें उस दिन से लेकर आज तक की बातें बता दीं. जो बातें नहीं बतार्इ थीं वो उन्होंने खु़द पूछ ली.

”तुमने उसे ठीक करने की कोशिश की थी ? ”

मैं साफ़ मुकर गया. वो ख़ामोशी के साथ मेरी तरफ़ अधखुली आंखों से देखते रहे. मुझको शुबहा हुआ कि उन्हें मेरी बात का यकीन नहीं आया और मैं खु़द को मुजरिम सा महसूस करने लगा. किसी मुजरिम ही की तरह मैं कोर्इ और झूठ सोच रहा था कि वो बोले: ”अच्छा खैर उससे छेड़छाड़ न करना” और उन्होंने मेरे हाथ पर हाथ रक्खा ”अपनी मां को न बताना. ”

वो कुछ और कहने को थे लेकिन कमरे के दरवाज़े पर आहट सुनकर रूक गये. मेरी मां उनके लिये कुछ खाने को लार्इ थीं. इससे पहले कि वो कुर्सी के करीब पहुँचतीं बाप ने मेरा हाथ आहिस्ता से दबाया और बोले- ”किसी को भी न बताना” लेकिन दूसरे दिन वो मुलाकातियों में घिरे हुए थे और सबके सब बादेनुमा की खराबी की बातें कर रहे थे.

मुलाकाती जैसा कि मैंने बताया मेरे बाप के पास बहुत आते थे. उनमें नये नये लोग भी होते थे, जिनको एक दो बार मैंने देखा फिर वो नज़र नहीं आये. इन बदलते हुए मुलाकातियों के अलावा कर्इ लोग ऐसे भी थे जो इनके पास पाबंदी से करीब करीब रोज़ाना आते थे. उनमें का कोर्इ अगर कर्इ दिन के वक्फ़े के बाद आता तो मेरे बाप उससे कभी शिकायत के लहज़े में और कभी  तशवीश के साथ उसकी खैरियत दरियाफ़्त करते थे. ये मुलाकाती ज़्यादातर मेरे  ही मुहल्ले के रहने वाले थे. और उनके मकान हमारे मकाने के आसपास थे. मैंने उनको गली में या सड़क पर चलते फिरते बहुत कम देखा. अलबत्ता जब मैं पतंग उड़ाने के लिये छत पर जाता तो उनमें से बाज़ अपने अपने मकान की छत पर नज़र आते ज़्यादातर जाड़े के दिनों में धूप खाते हुए. अब ये सब मामूली घरेलू लिबास पहने  होते थे. लेकिन यही लोग जब अपने घर से निकलकर हमारे यहां आते, तो उनके  बदन पर सर से पैर तक तकल्लुफ का लिबास होता था जैसे किसी तक़रीब में आये हों और मेरे बाप भी जब कोर्इ उनसे मिलने आता तो रोज़मर्रा क घरेलू लिबास की जगह मेहमानी में जाने वाला पूरा लिबास पहनकर मुलाकाती कमरे में जाते थे. लेकिन जब से वो मुस्तविल इस कमरे में रहने लगे थे उन्होंने अपने उपर से ये पाबंदी हटा ली थी और मुलाकातियों  के आने पर पोशाक बदलने के बाये कंधों तक चादरा  ओढ़ लेते.

मुझे इस कमरे में मुलाकातियों को पहुँचाने के लिये अक्सर जाना होता था. कभी कभी मेरी मां मेरे हाथ उनकी ख़ातिर मदारात के लिये शरबत वगैरह भी भिजवाती थी. इन मौकों  पर मुझको वहां होने वाली गुफ़्तगुओं का कान में पड़ना अच्छा मालूम होता था लेकिन मैं उन्हें ध्यान से नहीं सुन पाता था. उस कमरे में देर तक टिकता ही नहीं था बस ये जानता था कि वो सब, मेरे बाप भी बहुत उम्दा गुफ़्तगू करते हैं और हंसते-हंसाते भी खू़ब हैं. हालांकि मेरी मौजूदगी में वो लोग चुपचाप से हो जाते और मैं भी वहां से जल्दी ही चला आता लेकिन उस दिन मैं जब खाने के सामान की किश्ती लेकर वहां पहुंचा तो सारे मुलाकाती एकदम से ख़ामोश होकर इस तरह मेरी तरफ़ मुतवज्जो हो गये कि मैं घबरा कर रह गया और ख़्वाहमख़ाह खु़द को मुजरिम महसूस करने लगा लेकिन वो सब, मेरे बाप भी हल्की मुस्कुराहट के साथ मेरी तरफ़ इस तरह देख रहे थे जिस तरह मेहरबान बुजुर्ग अपने छोटों की तरफ़ देखते हैं. कुछ देर बाद उनमें से किसी ने पूछा- ”बेटे वो जो छत पर लगा है, हवा बताने वाला..? वो ख़राब हो गया है..?” मैंने फौरन बता दिया. फिर घबराकर अपने बाप की तरफ़ देखा लेकिन उनके होठों पर अब भी मुस्कुराहट थी. उन्होंने  बहुत नर्मी के साथ कहा: ”इन्हें पूरी बात बता दो”

”हाँ मियाँ शुरू से आखि़र तक” एक मुलाकाती ने कहा. मैंने उन्हें भी वो सब बता दिया जो बाप को बता चुका था और उन्हें भी ये नहीं बताया कि मैंने उसका रूख़ सही करने की कोशिश की थी.

देर तक कमरे में ख़ामोशी रही. यहां तक कि धीरे धीरे सबके चेहरों से मुस्कुराहटें गायब हो गर्इं फिर किसी ने मेरे बाप से कहा ”इसीलिये तो हम कहते हैं उसे उतरवा लीजिये जवाब में मेरे बाप ने वहीं बातें कहीं जो मैं शुरू से बता चुका हूँ. फिर वो सब कुछ और बातें करने लगे और मैं खाली किश्ती लेकर वहां से चला आया.

इसके बात मैंने उस कमरे में बादेनुमा की बातें कर्इ बार सुनी लेकिन रफ़्ता- रफ़्ता इसका जि़क्र कम होता गया. शायद इसलिये कि इन रोज़ के मुलाकातियों की तादाद भी घटती जा रही थी. दो जाड़े गुज़रते-गुज़रते वो बहुत कम रह गये. फिर उनमें से भी एक एक दो दो करके कम होने लगे. आखिर में एक मुलाकाती रह गये थे. जो कभी-कभी चले आते थे. अब उनको चलने में मुश्किल होती थी. उनके घर का कोर्इ आदमी उनको पकड़कर हमारे यहाँ पहुँचाता और थोड़ी देर के बाद आकर ले जाता था. लेकिन उस ज़माने में भी सर से पैर तक उनके बदन पर उम्दा लिबास होता था.

एक दिन मेरे सामने ये  आखिरी मुलाकाती फिर मेरे बाप से बादेनुमा की बातें कर रहे थे. वही पुरानी बातें थीं और मेरे बाप वही पुराने जवाब दे रहे थे. उस दिन पहली बार मैंने बुजुर्गों की बातों में दख़ल दिया और जो सवाल कभी-कभी मेरे ख़याल में आता था वो पूछ लिया-

”उसे ठीक नहीं कराया जा सकता?”

”किससे? ” मेरे बाप ने मायूसी के लहजे में कहा. ”उसे वही ठीक कर सकता था बेटे”

मुलाकाती ने और भी मायूसी के लहजे में कहा: ”जिसने उसे बनाया था”

मेरे बाप ने उनकी तार्इद में मायूसी के साथ सर हिलाया. फिर कहा: ”दूसरे इसे और भी ख़राब कर देंगे मुलाकाती ने भी ताइद में मायूसी के साथ सर हिलाया. फिर दोनों देर तक इस तरह ख़ामोश रहे जैसे बोले बगैर एक दूसरे से बातें कर रहे हों यहां तक कि मुलाकाती के घर का  नौकर उनको वापस ले जाने के लिये आ गया. उनके जाने के बाद बाप ने मुझको अपने करीब बुलाया: ”उसका ख़याल छोड़ दो बेटे उन्होंने कहा और आपनी मां की फि़क्र करो. देखते हो वो हमारे पीछे ख़ुद को ख़त्म किये ले रही है. ”

इसी वक़्त मेरी मां जो शायद देर से मुलाकाती के जाने का इंतेज़ार कर रही थीं कमरे में आ गर्इं. वो दोनों हाथों से ताम्बे की एक गोल सीनी संभाले हुए थीं. सीनी के बीचो बीच में एक अंगेठी रखी हुर्इ थी जिसमें कोयले दहक रहे थे और उनके उपर एक छोटे से बरतन में कोर्इ रौग़न गर्म हो रहा था. रौग़न की खुशबू सारे कमरे में भर गर्इ और कमरा ग़र्म और महफ़ूज मालूम होने लगा. मां ने सीनी कुर्सी के करीब फर्श पर रख दी. रौग़न के बरतन को अपने दुपटटे से पकड़कर अंगेठी पर से उतारा और उसे भी फर्श पर रख दिया. बाप उन्हें देखते रहे, फिर बोले ”सारे काम आप ही करती हैं घर में और लोग नहीं हैं क्या ? ”

मां कोर्इ जवाब दिये बगैर उनके बदन पर पड़ा हुआ चादरा  उतारकर तह करने लगीं.

हमारे घर में और लोग भी थे लेकिन मेरे बाप के सारे काम मां ही करती थीं. उन्होंने कभी अपनी किसी तकलीफ़ का जि़क्र नहीं किया था इसलिये हम लोगों को गुमान नहीं था कि वो खु़द को ख़त्म किये ले रही हैं लेकिन एक सुबह वो बहुत देर तक बिस्तर से नहीं उठीं और दोपहर को दूर और करीब के रिश्तेदारों के बीच में उनकी मैय्यत रखी हुर्इ थी. उस दिन घर के दूसरे लोगों ने मेरे बाप के सारे काम किये और उन्हें कुछ नहीं बताया लेकिन रात को उन्होंने मां के बारे में कुछ पूछने के बजाए खु़द उनकी ख़बर सुना दी. फिर सिर्फ इतना कहा- ”हम तो पहले ही कहते थे”

कर्इ दिन तक वो किसी से कुछ नहीं बोले और घरवाले आ आकर काम करते रहे उनके पास मिलने वालों का आना कब का ख़त्म हो चुका था. मां के मरने पर भी कोर्इ नहीं आया या शायद आया हो और मुझे पता न चला हो. लेकिन अब घरवालों में से कोर्इ न कोर्इ उनके पास ज़रूर मौजूद रहता था. मैं भी दिन में कर्इ बार उनके कमरे में जाता और देर तक वहीं रहता था.

एक दिन शाम के वक़्त जब सेहन की बेलों में चिडि़याँ चहचहा रही थीं मैं बाहरी कमरे में दाखि़ल हुआ तो वहां मैंने अपने बाप के आखिरी मुलाकाती को मौजूद पाया. मैं उनको मुश्किल  से पहचान सका लेकिन ये हिसाब नहीं लगाया पाया कि वो कितने दिन बाद हमारे यहाँ आए हैं. मेहमानों वाली कुर्सी पर वो टेढ़े-मेढ़े से बैठे हुए थे और उनके घर का एक मुलाजि़म जो खु़द सहारे का मोहताज मालूम होता था पीछे खड़ा हुआ उन्हें इधर उधर गिरने से रोक रहा था. इस मरतबा इन मुलाकाती के बदन पर रोज़मर्रा का मामूली घरेलू लिबास था और अब मुझे ख़याल आया कि वो हमारे मकान से मिले हुए मकान की छत पर जाड़ों की धूप में बैठा करते थे और सिर्फ एक कपड़ा  कमर से लपेटे होते थे. लेकिन उस वक़्त मैं उन्हें बाप के मुलाकातियों से अलग कोर्इ आदमी समझता था.

वो सर झुकाए ख़ामोश बैठ इधर उधर हिल रहे थे. मेरे बाप भी ख़ामोश थे और ऐसा मालूम होता था कि दोनों एक दूसरे की मौजूदगी से बेख़बर हैं. मैं भी ख़ामोश खड़ा था. दोनों को देखते देखते एक बार फिर मुझको ऐसा मालूम होने लगा कि वो कुछ बोले बगैर एक दूसरे से बातें कर रहे हैं. मैं बाप के सिरहाने की तरफ़ था मुलाकाती मेरे सामने थे उनका बदन अब भी हिले जा रहा था और नौकर कभी उनको दोनों हाथों से सहारा देता कभी एक हाथ से उन्हें संभालता और दूसरा हाथ इस तरह उनके उपर झूलने लगता जैसे मक्खियाँ  उड़ा रहा हो. मैंने मुलाकाती और बाप के चेहरों को बारी बारी ग़ौर से देखा और मुझे आप ही शुबहा होने लगा कि वो दोनों बादेनुमा की बातें कर रहे हैं. और ये   शुबहा उस वक़्त यकीन में बदल गया जब अचानक मेरे बाप ने कहा: ”फायदा?  ”कुछ फायदा नहीं फिर भी वो किसी का क्या बिगाड़ रहा है ?

मुलाकाती देर तक बैठे तार्इद के अंदाज में सर हिलाते रहे आखिर बूढ़ा नौकर उन्हें सहारा देता हुआ वापस ले गया और उसमें दो बार खु़द भी लड़खड़ा कर गिरते-गिरते बचा.

बरसात ख़त्म होते-होते सब समझ चुके थे कि मेरे बाप बहुत दिन नहीं जियेंगे. उनकी खबर गिरी पहले से ज़्यादा हो रही थी और उनकी हर जरूरत का ख़्याल रखा जाता था जब भी उनका कोर्इ काम किया जाता वो खुशी के हजे में हम सबको दुआएँ देने लगते थे लेकिन वो कुछ सोचते भी रहते थे. मैं अब ज़्यादातर उनके कमरे में रहता और उन्हें सोचते देखा करता था उनकी आंखें कभी पूरी कभी अधखुली होती थीं लेकिन वो कुछ देखते मालूम होते थे उनको इस तरह देखते देखकर कभी मुझको ये खयाल होता कि वो मेरी मां को याद कर रहे हैं और कभी ये कि उन्हें बादेनुमा का खयाल आ रहा है लेकिन अब उनकी हालत इतनी तेजी से बिगड़ रही थी कि बहोत जल्द मैं बादेनुमा ही को नहीं मां को भी भूल गया.

आसमान पर बादल अब नज़र नहीं आते थे लेकिन कभी कभी बादलों के बगैर ही खामोशी के साथ कौंदा  लपकने लगता और लोग बारिश होने या न होने की पेशगोइयाँ करते. एक रात जब चाँद की आखिरी तारीखें थीं. कौंदे  की ख़ामोश लपक बहुत बढ़ गर्इ. मैं बाप के कमरे में था. वहां दिन को तारीकी सी रहती थी लेकिन इस रात  ऐसा मालूम होता था कि बहुत तेज  रौशनियां एक साथ जलबुझ रही हैं. मेरे बाप अपनी लम्बी कुरसी पर लेटे दिखार्इ देते  फिर अंधेरे में गुम हो जाते थे. रौशनी और अंधेरे का ये मंज़र जो बचपन में मुझको अच्छा लगता उस वक्त पूरे कमरे को किसी वहशत  भरी कशमकश में मुबितला  दिखा रहा था. मेरे बाप ख़ामोश लेटे हुए थे. अचानक मुझे शुबहा हुआ कि वो निज़ात की कशमकश से दो-चार हैं. मैंने सोचा घर के दूसरे लोगों को बुला लाऊँ लेकिन उसी वक्त मुझे बाप की थकी-थकी आवाज सुनार्इ दी:

”उपर कौन है”

मैं उनके करीब पहुँच गया- ”उपर ? ” मैंन उनकी तरफ झुककर पूछा

”छत पर”  उन्होंने कहा ”कोर्इ बोल रहा है”

मैंने कानों पर ज़ोर दिया हर तरफ़ ख़ामोशी थी सिर्फ कौंदा लपक रहा था मैंने कानों पर और ज़ोर दिया और अब मुझे भी एक मद्धिम आवाज़ सुनार्इ दी. कुछ कराहने की सी आवाज़ थी जैसे बहुत बूढ़े लोगों के मुँह से उठते बैठते में बिना इरादा निकलती है-लेकिन ये उपर से आती नहीं मालूम हो रही थी. किसी भी तरफ से आती नहीं मालूम होती थी.

मद्धिम आवाज़ फिर सुनार्इ दी और अचानक मुझे याद आ गया कि ये आवाज़ बहुत पहले बादेनुमा के अंदर से उस वक्त आर्इ थी जब हवा रूख़ बदल रही थी और उस वक़्त भी जब मैंने उसको हवा के रूख़ पर घुमाने की कोशिश की थी.

कौंदा फिर लपका और मैंने देखा कि मेरे बाप आवाज़ सुनने की कोशिश कर रहे हैं. मैंने उनसे कहा ”उपर जाकर देखे लेता हूँ”

उन्होंने कोर्इ जवाब नहीं दिया. मैं तेज़ी के साथ कमरे से निकला और सहन से गुज़र कर ज़ीने चढ़ता हुआ छत पर पहुँच गया. बादेनुमा कुछ दूर पर बार बार चमकता नज़र आ रहा था. कौंदे की लपक में वो ऐसा मालूम होता था जैसे ख़ालिस चांदी की बनी हुर्इ कोर्इ चीज़ हो. मैंने करीब जाकर उसे देखा वो उसी अजनबी रूख़ पर रूका हुआ था और उसमें न कोर्इ घरघराहट थी न आवाज़. मैं उसके गिर्द घूम घूमकर उसे देख रहा था और उसी में एकबार मैं देखा कि मेरे मकान से मिले हुए मकान की छत पर कोर्इ खड़ा हुआ है. लपकते हुए कौंदे में उसका चेहरा बार-बार रौशन हो रहा था.

ढलती हुर्इ उम्र की कोर्इ औरत मालूम होती थी. मैं उसको पहचान नहीं पा रहा था और कौंदे की हर लपक के साथ उसको ग़ौर से देखता था आखि़र मुझे याद आ गया कि वो अपनी सहेलियों के साथ और अकेली भी छत पर आया करती थी. उस वक़्त वो अकेली खड़ी अपनी छतपर से बादेनुमा को देख रही थी और मेरी मौजूदगी से बेखबर नज़र आती थी. मैंने खु़द को उसकी मौजूदगी से बेखबर ज़ाहिर किया और धीरे धीरे चलता हुआ छत से नीचे उतर आया.

कमरे में मेरे बाप उसी करवट लेटे हुए थे. मैं दबे पाँव आया था लेकिन उन्होंने मेरी आहट सुन ली और पूछा ”कोर्इ था ? ”

मैंने उन्हें बता दिया कि उपर सिर्फ बादेनुमा है यह भी बता दिया कि वो ख़ामोश है और अपने रूख़ पर रूका हुआ है. वो बहुत देर तक ख़ामोशी के साथ उसी करवट लेटे रहे. जब मुझे यकीन हो चला था कि वो सो गये हैं तो उन्होंने गहरी सांस खैंची और कहा: ”उसे उतरवा लेना” और एक और गहरी सांस खैंची.

मैं उनकी आवाज़ की तरफ़ देखता रहा. कौंदे का लपकना मौकूफ़ हो चुका था और आसमान पर बहुत दूर कहीं कोर्इ बादल गड़गड़ रहा था मैंने कमरे की वाहिद जलती हुर्इ धुंधली रौशनी में बाप के करीब जाकर उनके चेहरे को ग़ौर से देखा. वो गहरी नींद सो रहे थे और उनके सीने पर पड़ा हुआ कपड़ा धीरे-धीरे उपर नीचे हो रहा था. उसके बाद जैसा कि हम सब पहले ही समझ गये थे मेरे बाप बहुत दिन जि़ंदा नहीं रहे. उनके हवास आखि़र वक़्त तक काम करते रहे और वो कुछ कुछ बातें भी किया करते थे. ज़्यादातर अपने तीमारदारों को दुआएँ देते थे कभी कभी अफसोस भी करते थे कि उनकी वजह से सबको तकलीफ हो रही है लेकिन बादेनुमा का उन्होंने नाम भी नहीं लिया. इस पर मुझे इतनी हैरत नहीं थी जितनी इस पर कि वो मां का भी जिक्र नहीं करते थे. आखि़री दिन अलबत्ता उन्होंने एक बार मां का पूरा नाम मय वल्दियत  लिया था लेकिन उसके आगे कुछ कहने से पहले दम तोड़ दिया.

बाप के मरने के बाद मैं घरेलू मामलों में उलझा रहा. इस अरसे में मेरे मोहल्ले के कर्इ मकानों के उपर नर्इ मंजि़लें बन गर्इं. उन तामीरों ने मेरे मकान को इस तरह घेरा कि बादेनुमा को ज़मीन पर से देखना मुमकिन नहीं रहा. शुरू में मुझको इसका एहसास नहीं हुआ था लेकिन एक दिन कहीं बाहर से घर वापस आते हुए मैं उस मोड़ पर पहुँचा जहां से मेरे मकान की छत और उस पर लगा हुआ बादेनुमा दिखार्इ देने लगता था. एक मकान की नर्इ उपरी मंजि़ल ने दोनों को अपनी ओट में ले लिया था. मैंने अलग-अलग रूख़ों से जाकर देखा बादेनुमा किसी भी रूख़ से नज़र नहीं आ रहा था.

कर्इ बेसूद चक्कर लगाने के बाद मैं घर में आया और सीधा छत पर पहुँचा. वो पहले की तरह अपने रूख़ पर जमा हुआ था और उसकी हैयत मैं कोर्इ तब्दीली नहीं हुर्इ थी उसके बदरंग बदन और भददी बनावट को देखकर मैंने हैरत के साथ सोचा कि कौंदे की रौशनी में वो मुझे चांदी का बना हुआ क्यूँ मालूम हुआ था. ताहम उस रात के मुकाबिले में इस वक़्त वो ज़्यादा ख़ूबसूरत मालूम हो रहा था.

दूसरे दिन एक मिस्तीरी  छत के उस छोटे से चबूतरे को खोद रहा था जिस पर बादेनुमा का धुरा कायम किया गया था. काम शुरू करने से पहले मिसितरी ने कह दिया था कि वो बादेनुमा को एहतियात के साथ उतार तो लेगा लेकिन उसको दोबारा सही ज़ाविये पर लगा नहीं सकता. उस पर मैंने कहा था: ”अब इसको लगाना नहीं है. उसके बाद उसने ज़रा इतमिनान के साथ अपना काम शुरू कर दिया था.

उसने चबूतरे के मसाले की कर्इ तहें उतारीं यहां तक कि धुरी ढीला होकर हिलने लगा मिसितरी ने काम करते-करते मेरी तरफ मुड़के पूछा: ”इसे कहां रखवार्इयेगा. ये मैंने नहीं सोचा था अब तेजी़ के साथ फै़सला करके मैंने कहा: ”मचान पर या किसी बड़े संदूक में”

”इस तरह रक्ख-रक्खे ये ख़राब हो जायेगा उसने कहा फिर कुछ रूककर बोला: ”हमारी मानिये तो एक बात कहें” मैंने उसकी बात मान ली.

मेरे पास उतने मुलाकाती नहीं आते जितने मेरे बाप के पास आते थे ये मुलाकाती बदलते रहते हैं और मेरे यहां सिर्फ उस वक़्त आते थे जब उनको मुझसे या मुझको उनसे कोर्इ काम होता था. हर मुलाकाती शुरू में कम से कम पहली बार इस भददी सी मछली को दिलचस्पी से देखता है जो मेरे मुलाकाती कमरे के एक गोशे में बने हुए छोटे से चबूतरे पर धुरे के सहारे टिकी हुर्इ है. फर्श से उसकी दुम और सर की उँचार्इ एक चकसां है जिसकी वजह से ये धुरे की नोक पर सीधी-सीधी लेटी हुर्इ नज़र आती है और उसे देखकर किसी को ख़याल नहीं होता कि ये कोर्इ परिंदा है और इसका तआल्लुक हवाओं से है. सब इसे सजवाटी चीज़ समझते हैं इसलिये कोर्इ मुझसे नहीं पूछता कि इसका मकसद क्या है. मैं भी किसी को नहीं बताता कि ये हमारे यहां का बादेनुमा है जो हवा का रूख़ बताना छोड़ चुका है.

3 comments
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  1. aaj facebook per chandan pandey k zariye yahan aaya aur yah kahani padhi aur main stabdha hoon aur bas rulaai nahin phooty! chandan,giriraj ji , nazar abbaas aur maheshji ka shukriya!
    baki ki kahaniyan kuchh samay baad padhoonga kyonki abhi to yahi taaree hai!

    sabhi ko naye saal ki shubhkamnayen!

  2. यह है कहानी। कहानी जीवन में से बनती है, तथ्‍य और ऑंकड़े और ज्ञान का प्रकटीकरण उसे खत्‍म कर सकता है। और नाजुक विवरणों के साथ यहॉं है वह कहानी जिससे साहित्‍य का दर्जा कुछ ऊँचा उठा हुआ जान पड़ता रहता है।

  3. kamaal ki kahani hai…kai bar iis tarh ki rachnayen padh kar lagta hai ki na hi padha hota to achha tha….ab kai dino tak kuch bhi sochne vicharne ki surat nahi rahegi…..

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