नए कवि के सम्मुख अज्ञेय: महेश वर्मा
किसी का सत्य था
मैं ने सन्दर्भ में जोड़ दिया.
कोई मधु-कोष काट लाया था
मैं ने निचोड़ लिया.
किसी की उक्ति में गरिमा थी
मैं ने उसे थोड़ा-सा सँवार दिया,
किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था
मैं ने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया.
कोई हुनरमन्द था :
मैं ने देखा और कहा, ‘यों !’
थका भारवाही पाया—
घुड़का या कोंच दिया, ‘क्यों ?’
किसी की पौध थी,
मैं ने सींची और बढ़ने पर अपना ली,
किसी की लगायी लता थी,
मैं ने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली.
किसी की कली थी
मैं ने अनदेखे में बीन ली,
किसी की बात थी
मैंने मुँह से छीन ली.
यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ :
काव्य-तत्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ ?
चाहता हूँ आप मुझे
एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें.
पर प्रतिमा — अरे, वह तो
जैसे आप को रुचि आप स्वयं गढ़े !
(‘नया कवि: आत्म स्वीकार’, अरी ओ करूणा प्रभामय)
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Why is my verse so barren of new pride,
so far from variation or quick change ?
Why with the time do I not glance aside
to new found methods and do compounds strange ?
(Shakespeare’s sonnets # 76)
किसी का सत्य था
मैंने संदर्भ में जोड़ दिया.
प्रकटत: एक से आत्म-स्वीकार को प्रस्तावित करतीं ये काव्य पंक्तियाँ आधुनिकता के दो सुदूर बिन्दुओं से आर्इ हैं. आधुनिक काल की शुरूआत के कवि शेक्सपियर और आधुनिकता के अंतिम प्रहर में सृजनरत अज्ञेय जिस विडंबना पर अपनी ऊंगलियाँ रख रहे हैं, अगर उपर से देखें तो यह मौलिक न हो पाने का अपराध बोध मालूम पड़ता है… एक पवित्र हदय का कन्फेशन…. लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है ? हम जानते हैं कि नहीं.
यह सोच पाना भी कठिन है कि शेक्सपियर जैसे सर्वकालिक महान कवि को भी मौलिकता की कमी के आक्षेप का सामना करना पड़ा था और इस सानेट में वे जितने इस आक्षेप से क्षुब्ध दिखार्इ देते हैं उतने ही रक्षात्मक भी लेकिन 1959 में प्रकाशित अज्ञेय की यह कविता वस्तुत: अज्ञेय के आलोचक का वक्तव्य है, तत्कालीन युवा कविता के लिये एक आरोप पत्र! इस जगह से देखें तो हमें सहज ही देानों उद्धरित काव्यांशों का विपर्यय दिखार्इ देने लगता है और इन पंक्तियों के बीच फैले लगभग चार सौ वषोर्ं के आधुनिक का आँतरिक संकट भी.
यह अनायास नहीं है कि इस कविता में अज्ञेय नये कवि के सत्य, उसे अभिव्यक्त करने वाली उकित, उसके क्राफ्ट और इन सबसे बनने वाली कवि-छवि, इन सबको, काव्यकर्म के प्रत्येक स्तर पर प्रश्नांकित करते हैं. इससे पहले तीसरे सप्तक की भूमिका में यह कहते हुए कि ”यहाँ यह स्वीकार किया जाये कि नये कवियों में ऐसों की संख्या कम नहीं है जिन्होंने विषय-वस्तु समझने की भूल की है, और इस प्रकार स्वयं भी पथभ्रष्ट हुए हैं… अज्ञेय समकालीन कविता में व्याप्त अराजकता से अपनी खिन्नता प्रकट करते हैं और नकली और असली कविता के संदर्भ में उनकी भूमिका तय करते हुए आलोचकों, अध्यापकों और संपादकों से कहते हैं – ”यह भी उन्हीं का काम है कि नकली के प्रति सावधान करते हुए असली की साख भी न बिगड़ने दें… ऐसा न हो कि नकली से धोखा खाने के डर से सारा कारोबार ही ठप हो जाये! इस वर्ग ने यह काम नहीं किया है, यह सखेद स्वीकार करना होगा. बलिक कभी तो ऐसा जान पड़ता है कि नकलची कवियों से कहीं अधिक संख्या और अनुपात नकली आलोचकों का है- धातु उतनी खोटी नहीं है जितनी कि कसौटियाँ हीं झूठीं हैं!” आधुनिक समय के ”नायक” कवि का असंतोष जितना नकली कविता से नहीं है उससे अधिक नकली आलोचना से है इसलिये वे आगे आते हैं और तत्कालीन कविता और आलोचना की विपन्नता को रेखांकित करने की जि़म्मेदारी लेते हैं लेकिन इसके लिये मौन का यह साधक कविता का ही शिल्प चुनता है जहाँ हम अज्ञेय की उस सुपरिचित व्यंग्यात्मक और खिलवाड़ करती शैली को देखते हैं जो उनके कथेतर गध का प्रमुख तत्व रही है.
यह सच है कि रचना में कलाकार के दार्शनिक वक्तव्य की स्पष्टता को खोजना कर्इ बार भ्रामक निष्पत्तियों तक पहुंचा सकता है लेकिन आधुनिक भारतीय साहित्य में अज्ञेय उन विरले साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने अपने निबंधों से अलग अपनी कविताओं में भी बारंबार दार्शनिक प्रश्नों को उठाया है इतना कि उनके समानधर्मा निर्मल वर्मा के शब्दों को थोड़ी देर के लिये उधार लें-”अज्ञेय अधिकांश समय (दुर्भाग्यवश हमेशा नहीं) याद रखते हैं कि वह लेखक हैं- दार्शनिक नहीं. लेकिन यह ”दुर्भाग्यवश हमेशा नहीं भी इतने पर्याप्त रूप में उनके लिखे में मौजूद है कि वह उनके दार्शनिक आग्रहों को सहज ही सामने रख देता है. शब्द, सत्य, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और इन सबसे बढ़कर स्वत्व बोध… ये बारंबार उनकी कविता में सामने आते हैं और वह भी इस तरह कि उनके अंतश्चेतनामूलक दार्शनिक दृष्टिकोण को देकार्त से होते हुए उनके परवर्ती दार्शनिक डेविड हयूम के इस प्रश्न में देखा जा सकता है कि ”कारणता के समर्थन का आधार कहाँ हैं ? हम जानते हैं कि यह अनैतिहासिकतावादी आग्रह कांट के प्रागनुभविक प्रत्यय में अपनी पूर्णता प्राप्त करता है.
अज्ञेय की इस कविता में क्या हमें यह कांटियन आग्रह स्पष्ट दिखार्इ नहीं देता कि ”मौलिकता को जीनीयस का प्राथमिक गुण होना ही चाहिये. लेकिन एक गैर द्वंद्वात्मक और गैर भौतिकवादी मनन पद्धति में (जहाँ ऐतिहासिक गतियों के बरक्स में तात्कालिकता को प्राथमिकता दी जाती है) मौलिक काव्य तत्व को खोजने में अज्ञेय का क्या आशय हो सकता है ? कहीं अज्ञेय ने स्वयं को ”शब्द खोजी” कहा था तो क्या उनके मौलिकता के आग्रह को नयी भाषा की मांग के संरचनावादी आग्रह के रूप में देखा जाये ? या यह प्रत्ययवाद के स्वस्फूर्त, सहजानुभूतिपरक और अंतत: एक दैवीय कौंध से साक्षात्कार की आकांक्षा है ? यह ज्ञात है कि भविष्य का समाज गढ़ सकने की कला की क्षमता और योजना के प्रति अज्ञेय कभी सहज महसूस नहीं कर सके और यह कहते हुए हम उनके संपादन में प्रकाशित माक्र्सीय राजनैतिक आग्रह वाले कवियों की मज़बूत सूची को विस्मृत नहीं कर रहे हैं. अपनी संपादकीय दृष्टि में राजनैतिक आग्रहों के प्रति निरपेक्ष रह सकने वाले अज्ञेय के प्रति पर्र्याप्त आदर रखते हुए भी कविता में मौलिकता की उनकी आपेक्षा में मानव के साथ क्रिया करके नित नवीन होते यथार्थ की आपेक्षा नहीं है वह नयी अनुभूति और नयी संवेदना की आसिततिवक आपेक्षा ही मालूम पड़ती है.
मौलिकता और विशेषकर कला में मौलिकता पर परस्पर विरोधी मालूम पड़ते विचारों से हमारा आधुनिक समय भरा हुआ है. यहाँ हम आधुनिक समय को इसलिये भी रेखांकित कर पा रहे हैं क्योंकि यह बात सर्वविदित है कि प्राचीन ग्रीस में प्रत्येक उत्पादन और कला के लिये ”क्राफ्ट संज्ञा का सामूहिक प्रयोग किया जाता था. अपने मध्ययुगीन अतीत से किसी भी कीमत पर अलग दिखार्इ पड़ने की छटपटाहट ने आधुनिकतावादी आँदोलन के भीतर मौलिकता की खोज को महत्वपूर्ण जगह दी है. इस आलोक में नेरूदा का बहुचर्चित वाक्य सहज याद हो आता है जहाँ वे मौलिकता को खारिज करते हुए उसे अपने समय की एक और जड़ासक्ति (fetish) करार देते हैं और उसके नष्ट हो जाने की भविष्यवाणी करते हैं. आकाश के नीचे कुछ भी मौलिक नहीं है से लेकर कांट के पूर्वोद्धृत वाक्यांश तक मौलिकता का प्रत्यय बाइनरीज़ की भूल भुलैया में घूमता दिखार्इ देता है. यहाँ हम अज्ञेय की एक और प्रेरणा इलियट के किंचित संतुलित दृष्टिकोण को देखें- ”…यदि किसी कवि को हम बिना पूर्वाग्रह के पढ़ें तो हमें ज्ञात होगा कि उसकी कविता के विशिष्ट और अतिवैयक्तिक अंश वे हैं जिनमें उसके पूर्वज और मृत कवि, प्रभावी ढंग से, अपनी अमरता दर्शा रहे हैं. (परंपरा और वैयक्तिक कला कौशल) तो क्या अज्ञेय अपने समय की युवा कविता में पूर्वज कवियों की अनुपस्थिति के प्रति अपना रोष दर्ज करा रहे हैं या यह नव स्वच्छंदतावादी कवि परंपरा और पूर्वीयता की कमी को मौलिकता के संकट के रूप में देख रहा था ?
कविता को किसी ने आगामी सभ्यताओं को लिखे पत्र की संज्ञा दी है. पश्चिमी साहित्य और दूसरे देशों में भी युवा कलाकारों और लेखकों को वरिष्ठ कवियों द्वारा व्यक्तिगत अथवा सार्वजनिक पत्र लिखने की परंपरा रही है. यहाँ हम युवा कवि के नाम लिखे रिल्के के दस पत्रों को याद करें कि वे किस विनम्रता, सहानुभूति और संवेदना के साथ अपने समय के युवा कवि के पत्रों का उत्तर देते हैं, धैर्यपूर्वक उसकी ग़लतियों, पुनुरुक्तियों आदि पर उंगली रखते हैं और उसकी कविता के सुंदर अंशों की प्रशंसा करते हैं. यह देखने की चीज़ है कि इस पूरे दौर में उनका टोन कहीं व्यंग्यात्मक या उपहासात्मक नहीं होता.
अज्ञेय की इस कविता को क्या हम एक ऐसा ही पत्र मान सकते हैं, युवा कवि को ठहरकर आत्म परीक्षण करने की सलाह देता पत्र जो उसे अंतत: कन्फेशन के उस पवित्र कमरे तक ले जाने का आकांक्षी है जहाँ किसी और का मधुकोष निचोड़ लेने, किसी और की पौध सींचकर अपना लेने, किसी और की कली बीन लेने और अंतत: किसी और का सत्यकिसी और की बात चुरा लेने का पाप स्वीकार करके वह रचना की निर्मल ज़मीन पर लौट सके ? क्या इस कविता को हम पोलैण्ड के महान कवि रूजे़विच की उस कविता की तरह पढ़ें जहाँ रूजे़विच नये कवि को आँसुओं से न लजाने की सीख देते हैं या मीवोष की वह कतिवा जहाँ वे युवा कवि को राजधानी के बजाय अपने चेहरे के वर्णन से कविकर्म शुरू करने की सलाह देते दिखार्इ देते हैं या रसूल हमज़ातोव की नये कवि को वह प्रसिद्ध सलाह ”मत कहो कि मुझे विषय दो, कहो कि मुझे आँखे दो या एक साहित्य शिक्षक के रूप में नोबोकोव की कामन सेंस के राक्षस को मारकर लिखना शुरू करने की नोबोकोव की राय की तरह.
हिन्दी में ऐसे पत्र कम ही हैं और समकालीन कविता में तो और भी कम. बहुत कोशिश करने पर भी अज्ञेय की एक और कविता याद आती है जहाँ वे अपने पैरों की छाप पर कदम रखकर चलते आने के लिये युवा कवि को पुकार रहे हैं या त्रिलोचन का एक सानेट याद आता है जहाँ वे कहते हैं कि ढेला उड़ता था, हवा चलती थी जैसे निरर्थक वाक्य लिखकर ही कवि हो जाना आजकल काफी आसान हो गया है… हम देखते हैं कि दोनों उदाहरणों में वरिष्ठ कवि अपने सामने आ रही युवा कविता से काफी खिन्न हैं और अपने स्वर की तुर्शी को व्यंग्य में ढलने से रोक नहीं पा रहे हैं. यह संभवत: वह दूरी है जिसे चौथे सप्तक की भूमिका में अज्ञेय र्इमानदारी से स्वीकार करते हैं-”… इस बात का उल्लेख भी आवश्यक है कि तार सप्तक के संपादक को तीसरा सप्तक के बाद के युग की स्थिति से कुछ अतिरिक्त क्लेश इसलिये भी होने लगा कि वय के अन्तर के साथ संवेदना का अंतर भी स्वभावत: बढ़ने लगा…. ऐसी बढ़ती हुइ दूरी अनिवार्य है और उसके साथ-साथ इच्छा रहते भी समानता का कठिनतर होते जाना भी स्वाभाविक है…. जिन कवियों की रचनाएँ मैं चुनकर प्रस्तुत कर रहा हूँ उनका मैं प्रशंसक तो अवश्य हूँ, लेकिन उन्हें पाठक के सामने प्रस्तुत करते हुए उनके साथ एक दूरी, एक तटस्थता का भी बोध मुझमें है.
समकालीनता के विशाल आकाश के नीचे अनुक्रमिकता से लंबे अंतर से उत्पन्न इस दूरी को अपने गध और संपादन में स्वीकार करते अज्ञेय कविता में इस स्थिति से सहज महसूस नहीं कर रहे होते. प्रस्तुतकर्ता की यह उदारता रचनात्मक-आलोचना (जो यह कविता मालूम पड़ती है) तक आते आते उतनी उदार नहीं रह पाती और शब्दों के चयन में बेहद सजग हमारा यह बड़ा कवि व्यंग्य की शरण लेता दिखार्इ देता है और कविता के मध्य में हम देखते हैं कि उसने शब्दचातुर्य की अपनी रास थोड़ी ढील दी है.
लेकिन क्या समकालीन कविता और वरिष्ठ आलोचना का यह दृश्य हिन्दी कविता के लिये नया है ? निराला की कविता के संदर्भ में आचार्य की व्यंग्योक्तियाँ और मुक्तिबोध के संदर्भ में डा. रामविलास शर्मा एवं नामवर सिंह के मूल्यांकन में क्या हम यही दृष्टिकोण नहीं देख चुके ? दिलचस्प बात यह है कि इसका समाधान भी अज्ञेय अपने गध में स्वयं प्रस्तुत करते दिखते हैं-”आज जो लिखा जा रहा है उसका सच्चा वकील आज का लिखने वाला ही होना चाहिए.”
यह सच है कि सामाजिक दर्शनों में ”सारत: और अंतत:” ही निर्धारक तत्व के रूप में सामने आता है लेकिन क्या इसे कविता और समकालीन कलारूपों पर यथातथ्य लागू किया जा सकता है ? हममें से शायद ही कोर्इ इस पर सहमत हो. यहाँ भौतिकवादी इतिहास दृष्टि और प्रत्ययवादी दृष्टिकोण में मेल कराने की कोर्इ मंशा नहीं है फिर भी अपने साहित्य समाज में बहुतायत में उत्पादित समकालीन कविता को देखते हुए क्या हम अंशत: अज्ञेय से सहमत नहीं होते ? क्या मौलिकता कुछ नहीं है और मौलिकता सबकुछ है के स्याह सफेद के बीच प्रथमत: रचनात्मक अद्वितीयता ही पाठक का ध्यान आकर्षित नहीं करती ? रचना में मौलिकता किस प्रक्रिया से और किस रूप में सामने आये इस पर असहमतियाँ हैं लेकिन इसे होना चाहिये या नहीं इस पर विवाद की कोर्इ गुंजार्इश नहीं है. यह दो विश्वदृष्टियों का अंतर हो सकता है और दो राजनैतिक दृष्टिकोणों का भी लेकिन गांधी लोहिया की समाज दृष्टि और मार्क्सीय समाजदृष्टि का अंतर इतना अधिक नहीं है कि कला के ”यूनिवर्स आफ डिस्कोर्स” (सूडो स्टेटमेंटस, रिचडर्स) में भी उसे अनिवार्यत: अलग-अलग देखा जाये. अगर ऐसा है तो भी ”कविता कविता से निकलती है कहने वाले अज्ञेय और ”नया कवि: आत्म स्वीकार” लिखने वाले अज्ञेय के रचना विस्तार में इस पर सहज निर्णय देना आसान नहीं है. यहाँ हम इलियट को फिर याद करें – ”वर्तमान और विगत दोनों एक-दूसरे का मूल्यांकन करते हैं.”