दोहरे मरण की पहचान: कृष्णमोहन झा
कवि की अमरता ग़लतफ़हमी पर निर्भर करती है. जिस कवि में ग़लत समझे जाने का जितना अधिक सामर्थ्य होता है वह उतना ही दीर्घ-जीवी होता है. (विजयदेवनारायण साही)
मेरे सारे शब्द प्यार के किसी दूर विगता के जूठे :
तुम्हें मनाने हाय कहाँ से ले आऊँ मैं भाव अनूठे?
तुम देती हो अनुकम्पा से मैं कृतज्ञ हो ले लेता हूँ-
तुम रूठीं-मैं मन मसोस कर कहता, भाग्य हमारे रूठे!
मैं तुम को सम्बोधन कर मीठी-मीठी बातें करता हूँ,
किन्तु हृदय के भीतर किस की तीखी चोट सदा सहता हूँ?
बातें सच्ची हैं, यद्यपि वे नहीं तुम्हारी हो सकती हैं-
तुम से झूठ कहूँ कैसे जब उस के प्रति सच्चा रहता हूँ?
मेरा क्या है दोष कि जिस को मैं ने जी भर प्यार किया था,
प्रात-किरण ज्यों नव-कलिका में जिस को उर में धार लिया था,
मुझ आतुर को छोड़ अकेली जाने किस पथ चली गयी वह-
एक आग के फेरे कर के जिस पर सब कुछ वार दिया था?
मेरा क्या है दोष कि मैं ने तुम को बाद किसी के जाना?
अपना जब छिन गया, पराये धन का तब गौरव पहचाना?
प्रथम बार का मिलन चिरन्तन सोचो, कैसे हो सकता है-
जब इस जग के चौराहे पर लगा हुआ है आना-जाना?
होगी यह कामुकता जो मैं तुम को साथ यहाँ ले आया-
किसी गता के आसन पर जो बरबस मैं ने तुम्हें बिठाया,
किन्तु देखता हूँ, मेरे उर में अब भी वह रिक्त बना है,
निर्बल हो कर भी मैं उस की स्मृति से अलग कहाँ हो पाया?
तुम न मुझे कोसो, लज्जा से मस्तक मेरा झुका हुआ है,
उर में वह अपराध व्यक्त है ओठों पर जो रुका हुआ है-
आज तुम्हारे सम्मुख जो उपहार रूप रखने आया हूँ
वह मेरा मन-फूल दूसरी वेदी पर चढ़ चुका हुआ है!
फिर भी मैं कैसे आया हूँ क्योंकर यह तुम को समझाऊँ-
स्वयं किसी का हो कर कैसे मैं तुम को अपना कह पाऊँ?
पर मन्दिर की माँग यही है वेदी रहे न क्षण-भर सूनी
वह यह कब इंगित करता है किस की प्रतिमा वहाँ बिठाऊँ?
नहीं अंग खो कर लकड़ी पर हृदय अपाहिज का थमता है।
किन्तु उसी पर धीरे-धीरे पुन: धैर्य उस का जमता है।
उर उस को धारे है, फिर भी तेरे लिए खुला जाता है-
उतना आतुर प्यार न हो पर उतनी ही कोमल ममता है!
शायद यह भी धोखा ही हो, तब तुम सच मानोगी इतना :
एक तुम्हीं को दे देता हूँ उस से बच जाता है जितना।
और छोड़ कर मुझ को वह निर्मम इतनी अब है संन्यासिनि-
उस को भोग लगा कर भी तो बच जाता है जाने कितना!
प्यार अनादि स्वयं है, यद्यपि हम में अभी-अभी आया है,
बीच हमारे जाने कितने मिलन-विग्रहों की छाया है-
मति जो उस के साथ गयी, पर यह विचार कर रह जाता हूँ-
वह भी थी विडम्बना विधि की यह भी विधना की माया है!
उस अत्यन्तगता की स्मृति को फिर दो सूखे फूल चढ़ा कर
उस दीपक की अनझिप ज्वाला आदर से थोड़ा उकसा कर
मैं मानो उस की अनुमति से फिर उस की याद हरी करता हूँ-
उस से कही हुई बातें फिर-फिर तेरे आगे दुहरा कर!
यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि अज्ञेय की महत्वपूर्ण कविताओं की सूची में द्वितीया का कहीं नाम नहीं आता. अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित अज्ञेय की चुनी हुई कविताओं का संग्रह सन्नाटे का छन्द को यदि अपवाद मान लें तो उनकी प्रतिनिधि कविताओं के विभिन्न संग्रहों से भी यह बाहर रही है.इतना ही नहीं,हिन्दी साहित्य में एक लंबे समय तक अज्ञेय को लेकर जो युद्ध हुए हैं, तथा आक्रमण –प्रत्याक्रमण के दौरान उनकी जो कविताएँ उद्धृत हुईं हैं,उनमें भी यह अनुल्लिखित ही रही है. बेशक उनकी गिनीचुनी कविताओं के अभिधार्थ अथवा अतिपाठ के सहारे उन्हें ठिकाने लगाने के गैर-साहित्यिक प्रयत्न हिन्दी आलोचना के कुरुक्षेत्र में दिखते रहे हैं.कैसी विडम्बना है कि जो आलोचना साहित्य में इतिहास की खोज करने में निरंतर खर्च होती रही,उसी से आधुनिक हिन्दी कविता में घटित होनेवाला इतिहास अनदेखा रह गया. इस अनदेखी की एक वज़ह जहाँ साहित्य एवम कला की जटिल और सूक्ष्म दुनिया को आलोचना के भोथड़े और दिये हुए औज़ारों से ही समझ लेने का हमारे क्रांतिकारी आलोचकों का गहन आत्मविश्वास रहा है,तो वहीं दूसरा कारण हमारी आलोचना की वह संस्कृति है,जिसमें ‘महान’ आलोचकों द्वारा प्रतिपादित निष्कर्षों को प्रायः अन्तिम सत्य मान लिया जाता है.ऐसे निर्णयात्मक ‘सत्य’ गैर-साहित्यिक तो होते ही हैं,वे इस बात को मानने से इनकार भी करते हैं कि युग-परिवर्तन के कारण किस तरह कोई mमहत्वपूर्ण कृति नए अभिप्राय और नई अर्थ-छटाएँ लेकर हमारे पास लौटती है.दरअसल ये एक ही संकट के दो लक्षण हैं.मूल संकट किसी साहित्यिक रचना को सबसे पहले एक कलाकृति न मानकर एक कार्यक्रम मानने का दु्राग्रह है.ऐसी स्थिति में साहित्य विचारधारा के संपोषण का मात्र साधन बनकर रह जाता है;जबकि “साहित्य का पक्ष जिस जीवन का पक्ष है वह किसी भी ‘वाद’ से ज़्यादा पुराना है,और ज़्यादा विकासशील भी.उसका अपना जीवन विवेक किसी भी बड़े विचार द्वारा हँकाए जाने से इंकार करता है.“[i]
साहित्य की अपनी ज़मीन को विस्तृत और व्यापक करने के बजाए दुनिया बदलने को बेताब हिन्दी की मुख्यधारा की आलोचना अपेक्षित बौद्धिक स्वतंत्रता, सर्जनात्मकता और निष्पक्षता की अवहेलना करती रही,जिसके कारण अज्ञेय जैसे रचनाकार का सही मूल्यांकन नहीं हो सका.उनका कायदे से मूल्यांकन हुआ होता तो छायावाद को चीरकर विकसित होनेवाली काव्यधारा को हम ‘छायावादोत्तर कविता’ जैसे कामचलाऊ कालबोधक प्रत्यय से नहीं, उसकी विशिष्टि प्रवृत्ति से उसे जानते. इतना ही नहीं, हिन्दी कविता को सच्चे अर्थों में आधुनिक भावबोध(कृपया इसे आधुनिकता पढें) से आविष्ट करनेवाले युगप्रवर्तक कवि के रूप में अज्ञेय का विधिवत् अध्ययन शुरू होता और तत्कालीन काव्यधारा को सर्वथा नई दिशा की ओर मोड़ने में द्वितीया की ऐतिहासिक भूमिका का मूल्यांकन किया जाता.लेकिन ऐसा नहीं हुआ.अज्ञेय के विरोधियों के लिए अज्ञेय को समझने से ज़्यादा सुविधाजनक था उन्हें खारिज करना,क्योंकि लोक और जीवन के नाम पर जिस तरह कला-मूल्यों को राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक कार्यक्रमों में विघटित किया जा रहा था,अज्ञेय उसके विरुद्ध थे.हिन्दी साहित्य के अध्येताओं के लिए अब यह एक तथ्य है कि “साहित्य-क्षेत्र में कला-मूल्यों की लड़ाई अज्ञेय लगभग अकेले लड़ रहे थे.“[ii]
लेकिन अज्ञेय सिर्फ़ कला-मूल्यों की लड़ाई नहीं लड़ रहे थे,बल्कि उसकी सार्थकता को बचाए और बनाए रखने के लिए परिवर्तित जीवन-यथार्थ को अपनी रचना-सामग्री बनाने के संघर्ष में विधिवत जुटे थे.आखिर क्या था यह परिवर्तित जीवन-यथार्थ?दरअसल, “छायावादी कवियों ने दुख को बहुत सरस बना दिया था,क्योंकि दुख उनके अस्तित्व को चुनौती नहीं देता था,उन्हें तोड़ता नहीं था,बस थोड़ा और मृदु,थोड़ा और कोमल,थोड़ा और भाव-प्रवण बना देता था.इसलिए छायावादी कविता में दुख का संगीत तो ज़रूर मिलता है,पर उस दुख को भोगने वाले हाड़-माँस के मनुष्य की असली तस्वीर नहीं दिखाई देती.“[iii] क्या द्वितीया के बारे में भी ऐसा कहा जा सकता है? लेकिन ज़रा रुकिये,कविता पर सीधे आने से पहले द्वितीया के रचनाकार की भाव-भूमि पर एक नज़र डाल लीजिए, “आज मैं जिस दुनिया में जीता हूँ वह असल में एक दुनिया न होकर दो दुनियाओं की संगम-रेखा या चाहें तो कह लीजिए संघात-रेखा है.मेरी तो अवश्य,और हम में से नब्बे प्रतिशत की शिक्षा ने भी हमें ऐसी जगह पर खड़ा करने में मदद की है जहाँ हमको दोनों तरफ से निरंतर मार भी पड़ती रहे और निरंतर सहारा भी मिलता रहे.जिस संधि-रेखा अर्थात विग्रह-रेखा पर हम चलने को बाध्य हैं वहाँ पूर्व और पश्चिम,प्राचीन और नवीन दोनों की संस्कृतियों से हमें बराबर रसद-पानी और गोला-बारूद भी मिल रहा है और दोनों ही हम पर गोले बरसाते हुए हमारे संपूर्ति के साधन नष्ट भी करते जा रहे हैं.यह संधि-विग्रह-रेखा मूल्यों की युद्ध-रेखा है.“[iv]
हिन्दी कविता के इतिहास में चेतना की इसी ज़मीन और अनुभव के इसी तापमान से आधुनिकता उत्पन्न हुई,जिसे ऊपर इस लेख में ‘सच्चे अर्थों में आधुनिक भाव-बोध’ कहा गया है.ऐसी टिप्पणी करते हुए साहित्य का यह विद्यार्थी इस तथ्य से अनवगत नहीं है कि हिन्दी साहित्य में आधुनिकता के स्रोत और उसकी व्याप्ति पर एक लम्बी बहस चली है,जो थमने के बजाए इधर और गतिशील हुई है.यह बहस देशज आधुनिकता और वैश्विक आधुनिकता के भारतीय सन्दर्भ में छिड़ी है.कहने की आवश्यकता नहीं कि अज्ञेय की ऊपरोक्त टिप्पणी जहाँ एक ओर परम्परा से प्राप्त न सिर्फ ऊर्जा और सुरक्षा के सम्बल,बल्कि उसकी अपर्याप्तता तथा उसके खतरों को रेखांकित करती है,तो दूसरी ओर पश्चिमी–सभ्यता की भौतिक उपलब्धि एवम् उसकी निरर्थकता को चिन्हित करती है “जिसने सत्य को खोजने के लिए सब रास्तों को खोल दिया है,किन्तु उसे पाने की समस्त संभावनाओं को नष्ट कर दिया है.“[v] इसलिए मूल समस्या पूर्व अथवा पश्चिम या प्राचीन अथवा नवीन का चुनाव या बहिष्कार नहीं,बल्कि दो दुनियाओं के संवाद एवम् संघात से उत्पन्न वह दुर्निवार नियति है जिससे निकल पाना शायद मुमकिन नहीं.सभ्यता की यह ऐसी अवस्था है जहाँ पारंपरिक समाज से उपलब्ध आश्रय और मुक्ति के औज़ार जीवन में किसी भी तरह की भूमिका निभा सकने में असमर्थ हैं.अब तर्क और विश्लेषण ने भावना और धारणा पर आधारित ज्ञान को अधूरा और अवैज्ञानिक साबित कर दिया है.किसी भी तथ्य या विचार या खोज को अन्तिम कहने की निर्विकार सुविधा अब हमारे पास नहीं रही.विश्व के किसी कोने में घटित जीवन का कोई प्रसंग हमारे विचारों की बनी-बनाई व्यवस्था को एक झटके में बदल देता है.इसीलिए “आधुनिकता के पहले मतलब को हम सबसे पहले विश्व संदर्भ में ही पहचान पाते हैं.यह विचारों की यूनिवर्सेलिटी जो है चाहे मार्क्स हों,चाहे फ्रॉयड हों या आइन्स्टाइन हों,उसको हम इतने रीजनल या एक जगह रख नहीं पाते हैं.उनके विचारों में जो इतनी सार्वभौमिकता है,यूनिवर्सेलिटी है,वह मुझे आधुनिकता का एक महत्वपूर्ण अंग लगता है.दूसरी बात,ये अपने-अपने क्षेत्रों के अत्यंत क्रांतिकारी चिंतक रहे हैं और हमारे पारंपरिक और ऐतिहासिक चिंतन पर ही नहीं,चिंतन के ढ़ंग पर भी सशक्त संदेह और प्रश्न की मुद्रा को जायज़ ठहराते हैं.“[vi]
हिन्दी साहित्य के चौथे दशक में इस सशक्त संदेह और प्रश्न की मुद्रा को जायज ठहराने का मतलब था छायावादी मनोभूमि की तन्मय एकाग्रता(साही) को बदले हुए जीवन-यथार्थ की चोट से तोड़ देना.उसके मेटाफिजिकल महामानवत्व को साधारण जीवन की दुविधाओं और विडम्बनाओं से मटमैला बना देना.उसके अन्तर्जगत के सत्य और बहिर्जगत के सत्य के अद्वैत-बोध को दुर्निवार व्यवधानों और अपरिहार्य अन्तर्विरोधों से भर देना.यह इसलिए ज़रूरी था क्योंकि छायावादी “यथार्थ को मूलत: अपरिभाषित, निर्माणातुर, अविरोधी, कच्ची और गीली मिट्टी की तरह देखते हैं जिस पर आदर्श की कोई मुहर लगाई जा सकती है,जिसको किसी भी शकल या रूप-रंगत में मोड़ा जा सकता है.जिस तरह अन्तर्जगत का सत्य बिल्कुल अपने हाथ का है, उसे हम जिस स्वप्न के आकार का चाहें गढ़ सकते हैं, उसी तरह बहिर्जगत का सत्य भी है,एक ही जादू दोनों को ही मन मुताबिक गढता चलता है.संक्षेप में कटु यथार्थ, कठोर यथार्थ, ऐसा यथार्थ जिसके आगे हमें अपनी इच्छाओं को दबाना पड़े, या जो हमारे आन्तरिक सत्य के आगे अभेद्य अड़चन-सा बनकर खड़ा हो जाय जिससे हमें ‘समझौता’ करना पड़े—इस तरह के यथार्थ की कल्पना न छायावादी काव्य में ही है, न आरंभिक प्रेमचन्द में ही है. या है भी तो बहुत कम.“ [vii]
इस काम का आरंभ तो दिनकर, बच्चन और भगवती चरण वर्मा जैसे रचनाकारों ने किया, लेकिन उसे कायदे से परिणति पर पहुँचाया अज्ञेय ने.आधुनिक मनुष्य के आन्तरिक और बाह्य यथार्थ की टकराहटों को ही नहीं, बल्कि उस आन्तरिक यथार्थ की विभिन्न परतों और उसके द्वैध को अज्ञेय ने चिन्हित किया. नहीं, सिर्फ़ चिन्हित नहीं किया, उसे अपने युग का स्वर भी बना दिया.यह स्वर नितांत लौकिक और हमारे होने-न-होने से जुड़ा था. इसमें न विराट नाटकीयता थी और न महत में विलीन हो जाने की आतुरता.इस दौर के लेखन पर ज़रा ठहरकर विचार करने से हम पाएँगें कि “छायावाद के बाद का न सिर्फ़ बहिर्जगत अध्यात्म-विहीन है,बल्कि अन्तर्जगत भी ‘आध्यात्मिक’ नहीं हैं. नये कवियों में से बहुतों ने काफी दूर तक अन्तर्मन के महाद्वीप या महासागर में कोलम्बस-जैसी अन्वेषण यात्राएँ की हैं,
कभी-कभी छायावादियों से ज़्यादा भी; लेकिन हिन्दुस्तान के इतिहास में पहली बार यह घटित हुआ कि भीतर पैठने पर ‘आत्मा’ के दर्शन नहीं हुए. मिला कुछ और ही.“[viii]
आखिर क्या है यह ‘कुछ और’?क्या यह परिवर्तित युग-चेतना और तज्जनित अनास्था की कालिमा है?क्या यह बदले हुए मनुष्य की यथासंभव संपूर्णता से रहित निरर्थकता की भावना है?क्या यह छायावादी एकात्मकता के लय-भंग के बाद पैदा हुई खंडित चेतना है? क्या यह विभाजित मन की प्रेत-छाया है,जिसकी मुमकिन वज़हों के बारे में अज्ञेय ऊपर बता चुके हैं?
इन प्रश्नों के उत्तर हमें द्वितीया के अन्तस्तल में मिल सकते हैं.इसलिए नहीं कि किसी खास योजना से उत्प्रेरित होकर यह कविता लिखी गई है, बल्कि इसलिए कि हर सच्चे रचनाकार की तरह अज्ञेय भी बदलते जीवन के उतार-चढाव और उसमें जीते-मरते लोगों को परिभाषित करना अपनी ज़िम्मेदारी समझते हैं.अज्ञेय जैसे सर्जक के संन्दर्भ में ‘ज़िम्मेदारी’ कहने में अगर अतिरिक्त चेष्टा दिखे, जिससे रचनाकार की स्वत:स्फूर्तता अवरुद्ध होती लगे, तो उसकी जगह निष्ठा कह सकते हैं.
अज्ञेय को निकट से जाननेवालों का कहना है कि द्वितीया तब लिखी गई जब उनके जीवन में कोई प्रथमा भी नहीं थी. 1937 में अज्ञेय मात्र 26 बरस के थे.इस कविता में स्त्री-पुरुष के सम्बंधों की जटिलता तथा प्रेम के सर्वथा नए भावबोध का जैसा विदग्ध चित्रण है,उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि 26 वर्ष की आयु में इस तरह के संश्लिष्ट अनुभव हासिल करने के अवसर प्रायः नहीं मिलते. आज से लगभग 75 बरस पहले,बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में स्थितियाँ और अलग रही होंगी. लेकिन इस प्रसंग में जाने का क्या मतलब? क्या यहाँ अज्ञेय की एक विशेष कविता के मूल्यांकन के सिलसिले में कोई समाजशास्त्रीय टीका तैयार करने की कोशिश हो रही है? कदापि नहीं. साहित्यालोचन के नाम पर पिछले कई दशकों से हिन्दी की तथाकथित मुख्यधारा की आलोचना गला फाड़-फाड़कर जिस तरह इस गायन-शैली का रियाज करती रही है,वह वितृष्णा जगाने के लिए काफी है. इसलिए उस निरर्थकता से बचते हुए प्रस्तुत रचना की विषाद-दृष्टि को क्यों न उसके आन्तरिक तर्कों के सहारे समझने की चेष्टा की जाय. आखिर हममें से यह कौन नहीं जानता कि अज्ञेय किसी कृति के मूल्यांकन में उसके रचनाकार की निर्वैयक्तिकता पर कितना बल देते रहे हैं.लेकिन यहाँ अगर अज्ञेय की अवस्था से द्वितीया को जोड़कर देखने की कोशिश की जा रही है तो सिर्फ़ यह रेखांकित करने के लिए कि द्वितीया की काव्य-सामग्री कवि-जीवन के किसी सहज उपलब्ध अनुभव का कविता में रूपांतरण न होकर उस युग की बदली हुई अनुभूति का उत्कट प्रमाण है.यह उत्कटता छायावादी अमूर्तन के क्षितिज में बिजली के फूल की तरह कौंधकर किसी दर्शन में विसर्जित नहीं हो जाती, बल्कि अपने अस्तित्व की पीड़ामय नश्वरता में निरंतर झंकृत होती रहती है.
ऊपर कहा गया है कि द्वितीया एक प्रेम कविता है.जिस युग में यह कविता लिखी गई उसे ध्यान में रखने से निस्संदेह यह एक परिघटना साबित होती है. हिन्दी साहित्यालोचना ने छायावादी कविता में अभिव्यक्त निजता की भावना को काफी रेखांकित किया है और उसे द्विवेदीयुगीन कविता की निर्वैयक्तिकता और शुष्कता की तुलना में एक सिद्धि की तरह देखा है.एक हद तक यह ठीक भी है, लेकिन आज गौर से देखने पर हमें लगता है कि छायावादी कविता एक सार्वजनिक किस्म की निजता का निर्माण करके सन्तुष्ट हो जाती है.इस कविता में चित्रित स्त्री-पुरुष के सम्बंध महाकाव्यात्मक पृष्ठभूमि से बाहर निकलकर अपनी निजी दुनिया के निर्माण में कोई खास दिलचस्पी लेते हुए नहीं दिखते.इस संदर्भ में कह सकते हैं कि छायावादी कवि जोखिम लेने से कतराते हैं और निजी भावनाओं को रहस्य में लपेटकर,उसे थोड़ा न्युट्रल बनाकर दुनिया की सतह पर लाते हैं.वे अपनी ठोस जैविक प्रेम-भावना को कविता का प्रत्यक्ष विषय बनाने से हमेशा बचते हैं.एक सीमा से आगे दैहिक प्रसंग में संलग्न होना उन्हें अनैतिक और अनुदात्त जान पड़ता है.
छायावादी कविता की उदात्तता पर ऐसी निर्भरता के कारण आगे की कविता के लिए जीवन का बहुत बड़ा अनुदात्त, असंपादित और सर्जनात्मक संभावनाओं से भरपूर क्षेत्र खुल जाता है, जिसे एक ओर प्रगतिवाद बहिर्मुखी यथार्थ के चित्रण से भरने का प्रयत्न करता है तो दूसरी ओर अज्ञेय उस जगह को युगीन मनुष्य के आंतरिक संकट और उसकी निजी दुनिया के ताना-बाना को समझने के लिए इस्तेमाल करते हैं.उनकी प्रस्तुत कविता को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए. ‘
द्वितीया एक प्रेम कविता है ज़रूर,लेकिन यह हिन्दी की उन अधिकांश प्रेम कविताओं से इस अर्थ में (भी) भिन्न है कि यह न तो प्रेम पाने या देने की आकांक्षा से अनुप्रेरित है और न प्रेम के बीत जाने या रीत जाने की पीड़ा और अवसाद में विसर्जित होती है.उस अर्थ में यह शुद्ध प्रेम कविता है भी नहीं. इसका शीर्षक ही प्रेम के प्रचलित पारंपरिक रोमानी भाव-बोध में एक विक्षोभ पैदा करता है.हमारे यहाँ पहले प्रेम के कौमार्य और कांति को कितना अतिरंजित करके देखा गया है!लेकिन वह सिर्फ़ कला और साहित्य में.जीवन में तो प्रेम अब भी तत्कालीन समाज की नैतिकता के विरुद्ध एक विद्रोह ही है.बेशक शहरी मध्यवर्ग में धीरे-धीरे प्रेम को स्वीकृति मिल रही है,लेकिन दूसरे प्रेम को वहाँ भी प्राय: व्यक्तित्व के विचलन के रूप में ही ग्रहण किया जाता है.इस मनोवृत्ति के विपरीत द्वितीया प्रेम-विहीन जीवन में दूसरे प्रेम की अनिवार्यता, पीड़ा,अधूरेपन और दुविधाओं को तो चिन्हित करती ही है,वह इस तथ्य का भी निर्विकल्प उदाहरण प्रस्तुत करती है कि बदलते मनुष्य को परिभाषित करने के लिए सिर्फ़ नए शब्द नहीं, रचनात्मक साहस की भी ज़रूरत पड़ती है.क्या इसे आधुनिक हिन्दी कविता के इतिहास की एक खास घटना नहीं मानी जानी चाहिए कि जिस युग में बड़े-बड़े कवि अपने प्रेमानुभव को सार्वजनिक करने से बच रहे थे, उसी युग में 26 वर्ष का एक युवा कवि दूसरे प्रेम की नैतिकता और उसकी अन्तर्निहित पीड़ा को वाणी दे रहा था?
प्रस्तुत कविता में आखिर क्या है प्रेम की नैतिकता और उसकी अन्तर्निहित पीड़ा? उत्तर देने की जल्दबाज़ी से बचते हुए आइये कविता को ज़रा नजदीक से पढें. कोई बेहतर शब्द न खोज पाने के कारण कह सकते हैं कि इस कविता में एक खास किस्म का त्रिकोण उपस्थित है.द्वितीया में एक पुरुष और दो स्त्रियाँ हैं.लेकिन स्त्रियाँ एक-दूसरे को जानतीं नहीं, जानना नहीं चाहतीं, जान नहीं सकतीं, क्योंकि वे अलग अलग देश-काल में अवस्थित हैं.कवि के लिए एक स्त्री अत्यंतगता है और दूसरी उसके वर्तमान में उपस्थित. जिस स्त्री ने पहली बार उसके जीवन में प्रेम का उन्मेष जगाया, भौतिक रूप से अब वह उसकी ज़िंदगी से बाहर है;परिणामस्वरूप उसके जीवन में एक भयानक रिक्ति पैदा हो गई है.भावनात्मक रूप से अब वह अपाहिज हो चुका है.ऐसी अवस्था में उसके जीवन में दूसरी स्त्री प्रवेश करती है जिसके कारण उसका संकटापन्न अस्तित्त्व सहानुभूतिपूर्ण संसर्ग और आश्वासन से थोड़ा सहारा पाता है. द्वितीया अब उसकी बैसाखी बन जाती है. बैसाखी ज़रूरी है, उसके बगैर काम नहीं चल सकता, मगर वह है आरोपित.वह अंग का विकल्प नहीं बन सकती. कवि को कटे हुए अंग की याद बरबस आती रहती है.चूँकि उस स्त्री ने प्रेम के दुर्लभ अनुभव से पहली बार कवि के जीवन को विदग्ध किया,उसे अर्थवत्ता दी इसलिए उसके होने में वह (प्रथमा) सतत विद्यमान है.उसका यह न होकर भी होना और होकर भी न होना एक नए किस्म की विडम्बना को जन्म देता है. कवि जिस अनुभव को दुबारा जीना चाहता है वह उपलब्ध नहीं है-व्यतीत हो चुका है, और उसे अनुपलब्ध जानकर जब बदली हुई जीवन-स्थितियों से समझौता करता है, उसी में जीने की कोई उम्मीद खोजता है तो उसकी पसलियों में छुपकर बैठा हुआ अतीत उसका रास्ता रोक लेता है;उसकी साँसों को अवरुद्ध कर देता है.अब वह किसी भी तरह की निष्ठा से वंचित और अकेला है–
मैं तुम को सम्बोधन कर मीठी-मीठी बातें करता हूँ,
किन्तु ह्रदय के भीतर किस की तीखी चोट सदा सहता हूँ ?
बातें सच्ची हैं,यद्यपि वे नहीं तुम्हारी हो सकती हैं—
तुम से झूठ कहूँ कैसे जब उसके प्रति सच्चा रहता हूँ ?
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होगी यह कामुकता जो मैं तुमको साथ यहाँ ले आया—
किसी गता के आसन पर जो बरबस मैंने तुम्हें बिठाया,
किन्तु देखता हूँ, मेरे उर में अब भी वह रिक्त बना है,
निर्बल होकर भी मैं उस की स्मृति से अलग कहाँ हो पाया?
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तुम न मुझे कोसो,लज्जा से मस्तक मेरा झुका हुआ है,
उर में वह अपराध व्यक्त है ओठों पर जो रुका हुआ है—
आज तुम्हारे सम्मुख जो उपहार रूप रखने आया हूँ
वह मेरा मन-फूल दूसरी वेदी पर चढ चुका हुआ है!
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नहीं अंग खोकर लकड़ी पर हृदय अपाहिज का थमता है.
किन्तु उसी पर धीरे-धीरे पुनः धैर्य उसका जमता है.
उर उसको धारे है,फिर भी तेरे लिए खुला जाता है—
उतना आतुर प्यार न हो पर उतनी ही कोमल ममता है![ix]
लेकिन किसी भी प्रकार की निष्ठा से वंचित होने के बावज़ूद, पराजय, ग्लानि, दुविधा और अकेलेपन की पीड़ा को झेलकर कवि अपने इस प्रेम के लिए पर्याप्त सहानुभूति अर्जित कर लेता है.यों यह अलग बात है कि उसकी कोशिश किसी बाहरी सहानुभूति की अर्जना नहीं, बल्कि खुद को बिखरने से बचाना, फिर से खुद को संयोजित करना और पुनः अपनी सर्जनात्मकता को उपलब्ध करना है.जो लोग अज्ञेय की कविताओं के पास उन्हें विघटित करने नहीं,चालू राजनीति से प्रेरित तात्कालिकता के दबाव से मुक्त होकर अपने युग को समझने और उनसे ऊर्जा ग्रहण करने जाते हैं,वे जानते हैं कि इस रचनाकार के लिए सर्जनात्मकता कितना बड़ा मूल्य है. अज्ञेय का दृढ़ विश्वास है कि सर्जनात्मक हुए बगैर स्वाधीन नहीं हुआ जा सकता और स्वाधीनता के बिना व्यक्तित्व अर्जित करना असंभव है;और जो व्यक्तित्वहीन हैं वे किसी भी प्रकार के निर्माण में कोई भूमिका निभा ही नहीं सकते.
दरअसल अज्ञेय के लिए प्रेम का अनुभव भी व्यक्तित्वार्जन की एक प्रक्रिया है.इसलिए महत्वपूर्ण सिर्फ़ उसे हासिल करना या उस अनुभव में निरंतर बने रहना नहीं, उसे पाने की प्रक्रिया में बिखर जाना भी सार्थकता प्राप्त करना है.अज्ञेय के लिए प्रेम का कोई भी स्तर मूल्यवान है.किसी ऐसे ही क्षण में वे कहते हैं,“अपनी विजय तुझे दी तो क्या दिया?वह तो सभी देते हैं:इस प्रकार विजय स्मरणीय बन जाती है और उस का ‘दान’ उस का स्मारक बन जाता है.यानी दान दाता को लौट आता है, दाता का अहं और स्फीति पा जाता है!…जा,अपनी हर पराजय,हर लज्जा भी तुझे देता हूँ.वह भी स्मरणीय बनती है तो बने.इस प्रकार वह लौटकर मेरे पास तो नहीं आती; या आती भी है तो टिकने नहीं, स्फीति देने नहीं; कुछ और माँगकर ले जाने ही आती है…इस प्रकार अपने को देता हुआ, छीजता हुआ कुछ न रह जाऊँ, वही ठीक है.“[x]
द्वितीया में कवि की पराजय और लज्जा के दो छोर हैं.बल्कि उसकी पराजय और लज्जा का कारण ही यही है.प्रेम की चिरंतनता में उसके तपते ह्रदय को यदि शीतल आश्रय मिला होता तो उसके जीवन में द्वितीया नहीं आती. द्वितीया नहीं आती तो दो खंभों के बीच तनी हुई रस्सी पर उसे इस तरह नाचना नहीं पड़ता.निर्द्वंद्व होकर वह प्रथमा से प्राप्त प्रेम के तथाकथित अनश्वर संसार में जीवन का सारतत्व पा लेता.लेकिन हम जानते हैं कि बीसवीं सदी में जी रहे कवि तो क्या, सामान्य मनुष्य के लिए भी ऐसे अखण्ड काल में विश्वास करना कितना मुश्किल है.समस्या यह है कि कवि प्रेम और इस जीवन की नश्वरता को बहुत निकट से जानता है;बल्कि यही उसका संकट है.एक स्तर पर यह कविता प्रेम की क्षणभंगुरता,जीवन में उसकी अपर्याप्तता तथा उसकी क्षतिपूर्ति की कोशिश और ऐसा न कर पाने के कारण गहरे असंतोषजन्य पीड़ा को व्यक्त करती है, तो दूसरे स्तर पर यह अनुभूत तथा आत्मीय समय के प्रति कवि की उत्कट तन्मयता,उस अवस्था को पुनः प्राप्त न कर पाने के कारण पैदा हुए त्रास और उपलब्ध, अनिर्वाचित, अनजाने वर्तमान पर उसके लाचार विश्वास को अभिव्यक्त करती है.
युवा आलोचक प्रणय कृष्ण ने ठीक ही लक्षित किया है कि “अज्ञेय के यहाँ प्रेम प्रमुखतः विडम्बना बन कर आता है.प्रेम की द्वन्द्वात्मकता हिन्दी में उनकी ही कविता में आकार ग्रहण करती है.एकत्व और द्वैत, अहं और आत्मदान,पाना और खोना, प्रेम और हिंसा, अज्ञेय के काव्य में इन सबकी सहोपस्थिति उनकी प्रणयानुभूति को विडम्बनात्मक और द्वन्द्वात्मक आयाम देती है, उसे दुविधात्मक बनाती है.“[xi]
उपरोक्त टिप्पणी को इस आलेख में प्रयुक्त अज्ञेय के उस कथन के आलोक में पढा जाना चाहिए– जहाँ उन्होंने हमारे परिवर्तित मानस के निर्माण में पूर्व और पश्चिम,प्राचीन और नवीन की संधि-विग्रह-रेखा की निर्णायक भूमिका का ज़िक्र किया है– और बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक के मध्य में हिन्दी काव्य-धारा को सच्चे अर्थों में आधुनिक भावबोध से मोड़ देने वाले कवि के रूप में उनका मूल्यांकन होना चाहिए. भविष्य में इस दिशा में अगर कोई गम्भीर प्रयास होता है तो उसका आरंभिक संदर्भ द्वितीया ही बनेगी.
1 कुँवर नारायण:आज और आज से पहले, राजकमल प्रकाशन,दिल्ली,1998,पृष्ठ-67
2 मलयज:कविता से साक्षात्कार,संभावना प्रकाशन,हापुड़,1990,पृष्ठ-33
3 वही,पृष्ठ-11
4 अज्ञेय:लेखक का दायित्व,वाग्देवी प्रकाशन,बीकानेर,2002,पृष्ठ-28
5 निर्मल वर्मा:धुंध से उठती धुन,राजकमल प्रकाशन,दिल्ली,1997,पृष्ठ-198
6 कुँवर नारायण:आज और आज से पहले, राजकमल प्रकाशन,दिल्ली,1998,पृष्ठ-47
7 विजयदेव नारायण साही:छठवाँ दशक,हिन्दुस्तानी एकेडेमी,इलाहाबाद,1987,पृ्ष्ठ-276-77
8 वही,पृष्ठ-266
9 अज्ञेय:सदानीरा भाग-1,नेशलन पब्लिशिंग हाउस,दिल्ली,1986,पृष्ठ-171
10 अज्ञेय:कवि-मन,वाग्देवी प्रकाशन,बीकानेर,2000,पृष्ठ-73
11 प्रणय कृष्ण:अज्ञेय का काव्य:प्रेम और मृत्यु,आधार प्रकाशन,पंचकूला,2005,पृष्ठ-24