तुलसी की कवितार्इ और आधुनिक हिन्दी का मानस: केदारनाथ सिंह
श्री देवताले जी, रामप्रकाश जी, श्री राजेश जोशी, आग्नेय जी, रमेशचन्द्र शाह और मेरे कर्इ सारे प्रिय बन्धु, जो मेरे सामने बैठे हैं, और मानस में गहरी पैठ रखने वाले ध्रुव शुक्ल, मेरे सामने बैठे हुए हैं.
मैं इस विषय के साथ थोड़ी छेड़छाड़ करूँगा, आपकी अनुमति से. मैं तुलसीदास की दो प्रसिद्ध पंक्तियों का स्मरण कर रहा हूँ : ‘राम सो बड़ों है कौन, मोसो कौन छोटो; राम सो खरों है कौन, मोसो कौन खोटो’. मैं राम नाम हटाकर वहाँ तुलसीदास का नाम रखना चाहूँगा. इस मंच से बोलते समय वहाँ तुलसी शब्द को रखकर मैं यूँ कहना चाहूँगा कि- ‘तुलसी सो बड़ों है कौन, मोसो कौन छोटो; तुलसी सो खरों है कौन, मोसो कौन खोटो’.
अब आप सोच लीजिये कि अगर मैं इस भूमि से बोलूँगा तो फिर आपकी निष्पत्तियाँ कहाँ तक जायेंगी? क्या होंगी? मैं तुलसी का विशेषज्ञ बिल्कुल नहीं हूँ. पढ़ता हूँ और एक विधार्थी की तरह पढ़ता हूँ. अगर कुछ योग्यता है तो सिर्फ इतनी कि बी.ए. की कक्षा में कुछ दिनों तक तुलसीदास को पढ़ाया था और पढ़ाया था मानस नहीं, ‘विनयपत्रिका पढ़ायी थी, कुछ और पद पढ़ाये थे. लेकिन एक और हक़ हासिल है मुझे तुलसीदास पर बात करने के लिए, वो यह कि मैं थोड़ा-सा बनारसी भी हूँ, काशी वाला भी हूँ और उस काशी में, जिसके बारे में तुलसीदास ने भी कहा था कि- ‘जहाँ बसे शम्भू और भवानी’ – पार्वती के शहर में मैं रहा हूँ. काफी लम्बे समय तक रहा हूँ. तुलसीदास के खड़ाऊँ के दर्शन भी किये हैं. उस स्थान की मृत्तिका का स्पर्श किया है. वो तट, वो घाट ‘तुलसी घाट के नाम से प्रसिद्ध है. उसके निकट ही रहता भी था. तो तुलसीदास कुल मिलाकर उस पूरे परिवेश में इतने ज़्यादा पैठे हुए थे कि उस निर्माण काल में जब मैं अध्ययन कर रहा था – बी.ए., एम.ए., फिर उसके बाद शोधकार्य – वह सारा कालखण्ड तुलसी के साथ एक प्रत्यक्ष-परोक्ष, उनके साहित्य, उनकी सीख, उनकी बनार्इ हुए संस्था है, और उनकी कृतियाँ, उनके साहचर्य में बीता.
मैं बहुत शुरू में ही कह दूँ कि हिन्दी का छात्र रहा हूँ, तो हमारी कक्षा में तुलसीदास पढ़ाये भी जाते थे. पर मेरा तजुर्बा यह है, अनुभव यह है कि हिन्दी पठन-पाठन की परम्परा में सबसे काम-चलाऊ ढंग से जिस कवि को पढ़ाया जाता है, वे तुलसीदास हैं. हमारा सबसे बड़ा कवि, जो हिन्दी का है, उसको सबसे अधिक काम चलाऊ ढंग से पढ़ाया जाता है, और उनकी कृतियों को पढ़ाते समय थोड़ी-सी मेहनत की भी जाये तो मानस को पढ़ाते समय लगता है कि इसको क्या पढ़ाना? हमारे गुरुजी पढ़ाते थे, तो एक सीख दी हमें उन लोगों ने कि मानस – पहला उनका वाक्य था क्लास में कि – मानस को काव्य की श्रेणी में नहीं रखना चाहिये, वो तो पुराण है. और फिर पुराण मानकर अगर उसका अध्ययन किया जायेगा, तो फिर आप कहाँ तक जायेंगे? कैसे पढ़ायेंगे? सिवाय कथावार्ता के? वो बात दूर तक जाती नहीं.
यानी काव्य न मानते हुए, न मानकर, तुलसीदास को पढ़ने-पढ़ाने की एक परम्परा – और वह भी यहाँ-वहाँ नहीं, काशी में, जहाँ कवि थे वे, जहाँ पैदा हुए वे और जहाँ उन्होंने अपना सर्वोत्तम अध्ययन किया. मानस का भी काफी बड़ा हिस्सा काशी में लिखा गया, और बाद की तो सारी कविताएँ उनकी, सारी कृतियाँ उनकी काशी में लिखी गयी थीं. उस काशी में एक इमेज़ जो तुलसीदास का बनाया गया था, खासतौर से पठन-पाठन के क्षेत्र में, वह यह भी था. पर धन्यवाद आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का, कि वे पहले ऐसे व्याख्याता उनके साहित्य के थे – मर्मज्ञ व्याख्याता, जिन्होंने तुलसीदास पर एक प्रभावी काम ये किया तुलसीदास को लेकर कि उनको व्यास परम्परा से हटाकर – ये बड़ा ज़रूरी काम था. काशी व्यास परम्परा की राजधानी है. यह मानने में भी मुझे कोर्इ संकोच नहीं है कि व्यास परम्परा ने रामचरित मानस को लोकप्रिय बनाने में बड़ी भूमिका निभायी. अगर घर-घर तक पहुँच चुका मानस, और जो कि पहुँचा, तो उसका बहुत कुछ श्रेय इस व्यास परम्परा को ही जाता है. हम सब जानते हैं कि इस व्यास परम्परा ने एक व्यवसायिक रूप लिया और फिर उसकी परिणतियाँ क्या हुर्इं – ये सब बताने की आवश्यकता नहीं है इस प्रबुद्ध समाज को.
परिणाम यह हुआ, खासतौर पर रामचरित मानस की पंक्तियों को लेकर जिस तरह के अर्थ-अनर्थ किये गये. मैं यहाँ उदाहरण की बात नहीं करना चाहूँगा, लेकिन ये संकेत करूँ कि एक बार – दशा सुमेध घाट पर, त्रिघाट (प्रसिद्ध घाट), जो तुलसीदास का प्रसिद्ध घाट भी था, हालाँकि उससे दूर रहते थे वे. तो वहाँ मैं अपने गुरु हजारीप्रसाद द्विवेदी के साथ शाम को और दो-तीन शार्गिदों के साथ जब जा रहे थे, तो एक व्यासजी मानस की कथा बाँच रहे थे. तो एक पंक्ति, मैं यहाँ उसकी व्याख्या कर ही नहीं सकता, जो व्याख्या उन्होंने की थी. वो प्रसंग यह था कि जब पार्वती जाती हैं राम को वर रूप में प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करने और एक अर्धाली एक पंक्ति आती है – ‘निज अनुरूप सुभग वर माँगा – अपने अनुरूप सुन्दर वर को माँगा. सीधी-सी लार्इन थी, भर्इ! इसका जो अर्थ किया, पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने पहले कहा- रुक जाओ, सुन तो लो पणिडतजी क्या कह रहे हैं. तो जो अर्थ उन्होंने किया – मैं क्षमा चाहूँगा, उसका बयान मैं यहाँ नहीं कर सकता. फिर पणिडत जी ने कहा- चलो, यहाँ से. यहाँ तक व्यास परम्परा पहुँच चुकी थी. उनकी अपनी है, ठीक है, श्रोता सामने है, उनको प्रसन्न करना है तो उसके अनुरूप ही वो बातें करते थे.
व्यास परम्परा की सकारात्मक, नकारात्मक दोनों भूमिका हैं. इसलिए रामचरित मानस को मान लिया गया कि वो पढ़ने-पढ़ाने की चीज़ नहीं है, वो कथावाचन की परम्परा के अन्तर्गत आता है. इसलिए सबसे खराब पढ़ाया जाता था रामचरित मानस. वो ही सज्जन पढ़ाते थे, जो कि पुराण मानते थे. एक और सीमा है अवधी भाषा, जिसमें रामचरित मानस लिखा गया. हालाँकि हमारे आदरणीय त्रिलोचनजी कहते थे कि वो तो अवधी भी नहीं है, जो खुद अवधी भाषी थे. त्रिलोचन जी कहते थे कि ये तो वो अवधी है जो कहीं नहीं बोली जाती है. तुलसीदास जी ने उस अवधी के आधार पर एक और अवधी गढ़ी है – काव्यभाषा अवधी, और बड़े परिश्रम से उस भाषा का निर्माण उन्होंने किया है, उसमें रामचरित मानस लिखा है. ये वो अवधी नहीं है, जिस अवधी को वो नहीं जानते. शायद उनकी इस बात में कुछ सच्चार्इ हो. लेकिन यदि इस अवधी की जो भाषिक संस्कृति है, उससे आज का मानस काफी दूर आ गया है. अब भाषिक संस्कृति की बात छोड़ दीजिये, उसके साथ जो एक हर भाषा का अपना व्याकरणीय ढाँचा होता है, एक पर्टीकुलर एक विशेष शब्द वहाँ है ‘परम रम्या राम जेही रामहि सुख देही – अब ‘जेही आज्ञा कर रहा है, वो कार्यचिन्ह ‘सुजीत’ क्या कर रहा है – हम नहीं जानते! हमको जो अध्यापक बता देगा, हम उसको मान लेंगे. बहुत सारे ऐसे कार्यचिन्ह सभी क्रियाएँ भी कर्इ बार आती हैं, जिनका एक काम चलाऊ अर्थ कर दिया जाता है और फिर छुट्टी पा लेते हैं हम. हम उस भाषा को नहीं जानते.
ब्रज-भाषा, अवधी – इन दोनों की अपनी भाषिक स्थिति से आज का मानस काफी दूर आ गया है. यह वास्तविकता है, जिसे हमें स्वीकार करना चाहिये. हम बहुत कुछ जानते हैं – ठीक-ठाक. उसका एक व्याकरण भी किसी हद तक हमको छुटपन में पढ़ा दिया जाता है. लेकिन अवधी और ब्रज भाषा, जिनमें हमारा महान काव्य सूर, तुलसी और अनेक कवियों ने लिखा, उससे इस प्रकार का परिचय, इस प्रकार का सम्बन्ध हमारा विधिवत बन नहीं पाता. यहाँ पंडितों-विद्वानों को बताने की ज़रूरत नहीं है कि व्याकरण से होकर भाषा में प्रवेश करने की और जब तक व्याकरण न पढ़ो तब तक फिर काव्य में प्रवेश करने की भी स्थिति नहीं बनती थी. इस सबके बिना अवधी में लिखा हुआ काव्य, ब्रजभाषा में लिखा हुआ काव्य पढ़ाया जाता है. यह उसकी एक बहुत बड़ी विडम्बना है. एकदम इक्कीसवीं सदी में छात्र आया है – मैं जे.एन.यू. में अध्यापन करता रहा हूँ और मैं जानता हूँ कि जे.एन.यू. का छात्र आज की स्थिति में जब तुलसीदास को पढ़ता है तो बहुत सारी चीज़ों से उसे जुड़ने में कठिनार्इ होती है. उदाहरण के लिए मैं कहूँ कि तुलसीदास भक्त किे कवि हैं. मान लीजिये, यही कहा जाता है ये इतनी आर्ट कौशिक बात है, हमने भक्ति की कुछ परम्पराओं में श्रेणियाँ बनायी हैं – साख्य भाव, दास्य भाव और वात्सल्य भाव वगैरह-वगैरह. अब एक आम, सामान्य प्रश्न है कि जो तुलसीदास के बारे में छोटी कक्षा से एम.ए. तक पढ़ता आ रहा हूँ कि तुलसीदास ने दास्य भक्ति की कविता की. अब आज का छात्र दास्य भक्त में कतर्इ दिलचस्पी नहीं रखता. वो नहीं जानना चाहता उसको. वह सम्बन्ध कन्विंस नहीं करता – यानी स्वामी और सेवक का सम्बन्ध आराध्य और आराधक के बीच – ये बात कहीं से उसको कन्विंस नहीं करती. और फिर उसको इस बात तक ले जाने में बड़ी कठिनार्इ होती है.
मित्रो! ये नयी पीढ़ी की मानसिक बनावट है, उसकी अपनी स्थिति है, जिसको हम अध्यापक पढ़ाते समय फेस करते हैं. सामना करते हैं उसका. ऐसी स्थिति में तुलसीदास का अध्ययन होता है. लेकिन इन सारी बातों के बावजूद एक पाठक के रूप में, हिन्दी के एक छोटे-मोटे रचनाकार के रूप में भी मैं तुलसीदास की कविता की पड़ताल करता रहता हूँ, क्योंकि ये एक बड़ा भारी प्रश्न है कि तुलसीदास बड़े हैं और इस बड़प्पन को चुनौती नहीं दी जा सकती. उसका एक बहुत बड़ा समुदाय है, वो साहित्य से बाहर भी है, वो ग्रामांचल में फैला हुआ है, वो उनकी महत्ता को स्वीकार करता है और शायद किसी काव्य-ग्रन्थ को ये प्रतिष्ठा तो मिली नहीं कि वो प्रमाण-ग्रन्थ मान लिया जाये. तुलसीदास का एक-एक कथन प्रमाण है – ‘प्रमाण नन्तोकरण: प्रमाण:. गोसार्इं जी ने कहा – गोसार्इं जी कहते कहाँ हैं! – गोसार्इं जी ने कहा तो अलिख है, अकाट्य है. वो बात उनको कन्विंस करती है, विश्वास में लेती है कि ये कैसे सम्भव हुआ? कौन-सा वो चमत्कार घटित हुआ – इसकी व्याख्या अलग से की जानी चाहिए. लेकिन ये प्रश्न उठता है. कहीं न कहीं हमको परेशान भी करता है कि इसका उत्तर हम खोजें. ये मैं मानने को तैयार नहीं हूँ कि अगर एक सामान्य जन गाँव का कभी पढ़ता है रामचरित मानस. मानस ही पढ़ता है, दूसरी कृतियाँ कम पढ़ता है. कुछ अपवाद हों, जो ‘विनयपत्रिका से भी जुड़ते हों. लेकिन सामान्यत: जो पढ़ा जाता है, वह मानस है.
मानस की बात है. एक छोटी-सी बात है, जो यहाँ उपयुक्त होगी. जैसा कि आप जानते हैं कि मानस मानसरोवर भी है, मन भी है, एक बड़ा भारी विराट रूपक खड़ा किया था तुलसीदास ने और सब जानते हैं कि तुलसीदास ने अपने सर्गों को काण्ड नहीं – काण्ड तो अब जुड़ गया – काण्ड हम कहते हैं, वह तो सोपान है. मानस के सोपान. मानस की एक-एक सीढ़ी. एक-एक सीढ़ी चलकर पहली सीढ़ी, दूसरी सीढ़ी, तीसरी सीढ़ी – प्रथम, द्वितीय, तृतीय सात सोपानों के बाद कहीं जाकर हम पहुँचते हैं वहाँ. जो मानस का अनितम वक्तव्य है, उद्देश्य है वहाँ तक. ये रूपक खड़ा किया था तुलसीदास ने.
लेकिन मेरे मित्र जे.एन.यू. में है. हमारे एक रूसी प्रोफेसर हैं – रूसी भाषा और साहित्य के और हिन्दी से रुचि है उनकी, अनुवाद वगैरह करते हैं बड़े आराम से. तो उन्होंने मुझे एक बात बतार्इ, बोले- भार्इ! मैं अभी किरगिस्तान गया था – किरगीज. तो किरगिस्तान का जो सबसे लोकप्रिय काव्य है, उसका नाम है ‘मनास और उसमें कथा आती है. ये मनास तुलसीदास के मानस से पहले का है, क्योंकि वो तो लोककाव्य है. लम्बे समय से चला आ रहा है. बारहवीं शताब्दी से मिलता है. उसमें कथा आती है कि एक योगी-एक सन्यासी, वो हिमालय से चला और हिमालय से चलता हुआ वो किरगिस्तान तक पहुँचा, किरगीज़ लोगो तक पहुँचा और वहाँ के जो भी राजा रहे होंगे, तो उनकी पत्नी गर्भवती थी और उस हिमालय से पहुँचे हुए योगी ने अपना जो दण्ड हाथ में था, उसे ठोकते हुए धरती पर कहा कि ये जो बच्चा पैदा होगा उसका नाम होगा मनास. वो लोग जोड़ते हैं कि मनास का सम्बन्ध कहीं हिमालय से जोड़ता है – हिमालय मानसरोवर है. यानी शायद मानस की कोर्इ परम्परा दूर तक फैली हुर्इ लोक में रही होगी. मैं नहीं जानता. इसकी खोज नहीं की गयी है. लेकिन इस कथा से एक बात निकलती है कि मानस लेखन की या लोक में कोर्इ परम्परा होनी चाहिये, जो दूर-सुदूर मध्य एशिया तक पहुँचती हो. तुलसीदास ने मानस की रचना की. बाद में मानस की कोर्इ परम्परा चली हिन्दी में – मैं नहीं जानता हूँ.
मित्रो! मैं रामचरित मानस के अतिरिक्त कुछ पुस्तकों की चर्चा करना चाहता था. रामचरित मानस में दो-तीन बातें कहना चाहूँगा. जब-तब मानस को पढ़ता हूँ मैं और अपनी कसौटी मैंने बना रखी है – कविता के अच्छे-बुरे की कसौटी – और मैं मानता हूँ कि कभी-कभी अचानक किसी काव्य-ग्रन्थ को उठा लीजिये और जब पढ़ने का मन हो, बिना सोचे-अलमारी में पुस्तकें लगी हुर्इ हैं, आपका जी करे कि इसको ही पढ़ना है, अभी इस क्षण मुझे पढ़ना है – मैं स्वीकार करूँ कि कभी-कभी मानस को इस तरह से उठाता हूँ, पढ़ना चाहता हूँ और सिर्फ कौन-से अंश मुझे मानस में अच्छे लगते हैं. इसकी लम्बी-चौड़ी व्याख्या नहीं करूँगा, लेकिन जो बात मुझे सबसे दिलचस्प लगती है, वो मानस का वो छन्द और उसका संगीत और इतना बड़ा काव्य का फलक महाकाव्य, उसको बाँधा गया एक छोटे से छन्द में – चौपार्इ जिसको हम कहते हैं. और ऐसा छन्द जो लगभग गिलहरी की तरह फुदकता हुआ छन्द है. एक डाल से दूसरे डाल पर गिलहरी जैसे फाँदती है, वैसे ही यह छन्द चलता है. एक विलक्षण संगीत है इस छन्द में और फिर क्रमानुसार, विषय के अनुसार एक छोटा छन्द अपने को इतना लचीला बनाता चलता है. इतने प्रकार के क्रम से होकर गुज़रता है, संगीत की प्रणालियों से होकर गुज़रता है. मैं नहीं जानता कि इतने छोटे छन्द में इतना बड़ा महाकाव्य और वो भी उसके भीतर से विविध सम्भावनाओं को पैदा करता हुआ काव्य इससे पहले कभी लिखा गया होगा – यह बात मुझे चकित करती है.
चौपार्इ में इससे पहले पदमावत ने काम किया है. पदमावत का महत्त्वपूर्ण है, बलिक बड़ी ठेठ भाषा है. वो ज़्यादा अवधी है. तुलसीदास के काम जो है, वह बड़े पैमाने पर है. मुझे लगता है कि एक वृहद, सोद्देश्य योजना के अन्तर्गत रचा हुआ काव्य मानस. कुछ था एक विराट संदेश था उनके पास, जिस संदेश को उन्हें पहुँचाना था. एक तरह का मैसेन्ज़र है वो. दरअसल, मुझे दो कवि अदभुत लगते हैं, जो लगभग अपना संदेश देने के लिए एक हद तक उतावले दिखार्इ पड़ते हैं – हमको यह कहना है, पाठक तक यह पहुँचाना है – जैसे पहुँचे. एक तो हमारे विराट तुलसीदास और दूसरे – आप नाम सुनकर चकित होयेंगे – मैं आज के, बीसवीं सदी के एक दूसरे कवि की बात करना चाहता हूँ बर्टोल्ट ब्रेख्त. जर्मन के बर्टोल्ट ब्रेख्त को अपनी बात कहनी है और कहनी है तो लगभग उपदेश के स्तर तक जाकर के अपनी बात को कह सकते हैं. तुलसीदास, जो कहना है सीधे-सीधे कहना है. उपदेश की तरह भी कहना है, तो कहना है उसी तरह कहना है. किसी और तरीके से नहीं कहना.
ब्रेख्त की एक कविता में पढ़ रहा था. …… के मजदूर लेनिन जयन्ती मना रहे थे और लेनिन जयन्ती मनाते समय उनको यह हुआ कि हमको क्या करना चाहिये इस अवसर पर – संगीत का आयोजन करें, ड्रामा का आयोजन करें. तो एक सदस्य सुझावदेता है कि हम मच्छर मारने वाली दवा ले आये हैं और उस दवा का छिड़काव करें, लेनिन को सबसे बड़ी श्रद्धांजली यही होगी. मच्छर मारा जाये, लोगों को बीमारी न हो, कष्ट न हो. यानी एक बहुत सीधे-सीधे कहना चाहिए कि उपदेशात्मक संदेश देती हुर्इ एक योजना के साथ लेनिन की जयन्ती मनायी जाती है. तुलसीदास लगभग उसी तरह से अपनी बात कहते हैं. जो कहना है, वो सीधे कहते हैं. वो चाहे मच्छर मारने के लिए ही कहना पड़े, वे कहेंगे. लेकिन आश्चर्य है कि उपदेशात्मक होने का खतरा उठाते हुए भी तुलसीदास कविता को बनाये रखते हैं, और उस कविता को बनाये रखने में उनकी भाषा किस तरह से साधक होती है. भाषा का ऐसा विरल प्रयोजन हिन्दी में दूसरा नहीं हुआ. इतने सारे प्रयोग, भाषा में इतने सारे रूप! मुझे जो स्थल अच्छे लगते हैं रामचरित मानस के – अयोध्याकाण्ड के कुछ स्थल अच्छे लगते हैं. वो ज़्यादा कोमलकान्त पदावली में लिखे हुए हैं. लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि मेरी पसन्द है किषिकन्धाकाण्ड. किषिकन्धाकाण्ड को मैं बहुत पसन्द करता हूँ. आमतौर पर उसका पाठ नहीं किया जाता. उसके बाद के उत्तरकाण्ड का पाठ किया जाता है. लेकिन जहाँ वो वानरी समुदाय है और जिस तरह से वानरी समुदाय का वर्णन करते हैं – तुलसीदास एक ‘पशुलोक (या प्रश्नलोक) क्रियेट करते हैं. आधुनिक साहित्य में उस तरह का पशुलोक जब एक दूसरे धरातल पर हमारे नेरूदा करते हैं. उस नेरूदा के पशुलोक का एक प्रारूप है, कहीं न कहीं किषिकन्धा में आपको मिल जायेगा पढ़ते हुए – ऐसा लगा था मुझे.
मैं तुलसीदास को उन दिशाओं से देखने की कोशिश कर रहा हूँ, जिनकी ओर से तुलसीदास को समानान्तर नहीं देखा जाता. राम का चरित्र विशाल है, विराट है. लेकिन मुझे उससे ज़्यादा राम के छोटे-छोटे चरित्र यहाँ तक कि उनकी गिलहरी भी. बहुत सारी चीज़ें भूल जाती हैं, राम की वो गिलहरी नहीं भूलती, तुलसीदास की गिलहरी नहीं भूलती. निषाद नहीं भूलते. छोटे चरित्रों का ऐसा एक अचानक आने वाले चरित्र होंगे, पात्र होंगे – वो चेतन-अचेतन दोनों ही, और ज़रा देर के लिए आयें और आकर मन पर गहरी छाप छोड़कर चले गये. ये जो तुलसीदास की क्षमता है, ये मुझे चकित करती है. लंकाकाण्ड मुझे सर्वोत्तम लगता है. युद्ध का वैसा वर्णन पूरे भारतीय साहित्य में मेरी जानकारी में नहीं है. और सबसे अधिक जो बात चकित करती है, वह यह है रावण का चरित्र. रावण जैसा विराट चरित्र! कर्इ तरह से विराट चरित्र है वो. उसके अंकन में तुलसीदास ने अपनी सर्वोच्च प्रतिभा का उपयोग किया है. कर्इ बार तो इतनी विराट एक छवि बनती है रावण की, एक बिम्ब बनता है रावण का – उस विराट बिम्ब के आलोक में राम का रामत्व और उजागर होता है. ऐसा मुझे कर्इ बार लगता है.
तो मित्रो! मैं रामचरित मानस की बात कर रहा था. रामचरित मानस तुलसीदास की योजना, प्रयोग – यानी एक तरह की योजना थी उनकी. एक समाज बनाना था. हालाँकि उस समाज को बनाकर रामचरित मानस में भी उसका प्रति-समाज भी दिखाया. मैं रामराज्य और कलयुग वर्णन की बात कर रहा हूँ. रामराज्य उनका आदर्श है, लेकिन इतना बड़ा आदर्श कायम करने के बाद उसके बरक्स फिर कलयुग वर्णन करना – यानी एक क्षितिज बनाया और दूसरे क्षितिज को ध्वस्त किया. ये एक खास तरह की मैं कहूँ – मैं क्षमा किया जाऊँ इस शब्द का प्रयोग करने के लिए – एक डायलेटिक्स का प्रयोग भी तुलसीदास करते हैं. क्योंकि रामराज्य तो आदर्श है. वो तो न तब हुआ, न आज होता हुआ दिखार्इ पड़ता है, कलयुग वास्तविकता है और तुलसीदास को उसकी गहरी अनुभूति थी. जानते थे. इस अनुभूति से पैदा होने वाला जो बाद का लेखन है तुलसीदास का, वो कर्इ दृष्टियों से मुझे बहुत आकृष्ट करता है. आप जानते हैं, यहाँ-वहाँ जोड़ दूँ कि बाद की कृतियों में भी है तो राम ही – वही राम हैं, वही लक्ष्मण हैं, वही सीता हैं, वही हनुमान हैं – लेकिन हर कृति में बदलते गये. थोड़ा-सा कहीं बारीक अध्ययन किया जाये कि राम जी – विनयपत्रिका में आते-आते कैसे राम में क्या फर्क पड़ता है? फिर कवितावली तक क्या होता है? हनुमान किस तरह हनुमान बाहुक तक आते-आते बिल्कुल अलग हनुमान हो जाते हैं. ये जो क्रमिक विकास है राम के बिम्ब का और रामकाव्य के जितने भी चरित्र हैं, उनके बिम्ब में बहुत बारीक, उनके छन्द में बहुत बारीक जो परिवर्तन घटित होता चला गया यहाँ से वहाँ तक – इसका भी क्रमिक अध्ययन ब्यौरेवार किया नहीं गया है.
मित्रो! मुझे लगता है कि एक विराट आदर्श सामने रखने के बाद – बाद के तुलसीदास में एक क्रमिक मोहभंग की स्थिति भी दिखार्इ पड़ती है. मेरा अपना आंकलन यह है. जो कुछ रचा-बनाया, जिसका सबसे चरम रूप स्वयं वो है राम नाम, नाम महिमा – और इस नाम महिमा के बरक्स कवितावली है, वो कहते हैं कि- राम अगर तुमने ढील दी, ये दुख, ये दारिद्र, ये सब ज्यों का त्यों बना रहा तो नाम ‘राम महिमा बोरिवो – डूब जायेगा नाम – यानी वो सारा कष्ट, सारी समस्या. मैंने एक छोटे-से शब्द की ओर ध्यान दिया कि तुलसीदास बार-बार एक शब्द का प्रयोग करते हैं – ‘हा-हा शब्द. बाद के काव्य में ‘हा-हा शब्द कितनी बार प्रवेश हुआ है – ‘हाहाकार. ‘दारिद्र दशानन दबार्इ दुनी दीनबन्धु दरिद्रन देखहि तुलसी हाहा करी. कवितावली है ये, कि दारिद्र दशानन. एक और दशानन था वो, जो रामचरित मानस में था, यहाँ एक दूसरा दशानन है, वो दारिद्र जी का दशानन है, वो गरीबी का दशानन है, और ये वास्तविक इस दुनिया का दशानन है. इसने दारिद्र दशानन दबार्इ दुनी – दुनिया को दबा रखा है, दुनिया को तबाह करना चाहता है, उसको नष्ट करना चाहता है और ‘दरिद्रन देखहि तुलसी हाहा करी – वो नामधारी राम मैं देखता हूँ और हाहाकार करता हूँ. ये हाहाकार तुलसीदास का रामचरित मानस में उतना नहीं है. वहाँ विश्वास है. कर्इ बार तो निरन्ध्र विश्वास भी लगता है. उसमें भी कहीं-कहीं आपको थोड़ी खरोंच दिखार्इ पड़ेगी. हैं तो मनुष्य. इस लोक में रहते हुए कविता लिख रहे थे काशी में. जिस काशी में उन्हें इतना पीडि़त किया गया, सताया गया. और औरों ने नहीं, स्वयं पणिडत जवान ने सताया. वहाँ बैठकर लिख रहे थे. सब कुछ सहते हुए लिख रहे थे. तो वो पीड़ा कहीं-कहीं दिखार्इ पड़ती ही है उनकी.
और मित्रो! मैं मानस के बारे में एक बात कहकर मैं आगे की कृतियों पर कमेन्टस करना चाहूँगा. सारा रामचरित मानस लिखने के बाद, रामचरित मानस के अंतिम दोहे पर आपका ध्यान गया होगा और ध्रुव शुक्ल का तो गया ही होगा, बहुतों का गया होगा – मैं वहाँ थोड़ा ठहर गया था. हम लोग थोड़ा-सा भारतीय काव्यशास्त्र से होकर गुज़रे हैं, तो कहा जाता है कि उपमेय और उपमान में उपमान को उपमेय से बड़ा होना चाहिये, तब उपमेय का जो सौन्दर्य है वह निखरकर सामने आयेगा. इस मर्यादा को मानने वाले तुलसीदास और ये अंतिम दोहा! कैसे, किस कोने से निकल कर आया – ‘कामी नारि प्यारी जिमि लोभी प्रिय जिम दास तिमि रघुनाथ निरन्तर’. शास्त्रज्ञ थे. निरन्तर नहीं, ‘दे’ करना पड़ेगा ‘र’ को – ‘तिस रघुनाथ निरन्तरा प्रिय लागहु मोहि राम – कामी को जैसे स्त्री प्रिय होती है और लोभी को जैसे पैसा प्रिय होता है. अब ये दो उपमाएँ दी जा रही हैं भगवान राम के लिए. जो सर्वोच्च है, उसके लिए निकृष्टतम उपमाएँ दी जा रही हैं. ये मर्यादा पुरुषोत्तम राम का भक्त तुलसीदास! मर्यादा भार्इ तुलसीदास! और मानस का समापन करते समय अंतिम – भरतवाक्य कह लीजिये उसका – उस दोहे में ये प्रसंग आने वाला और इस तरह का उपमान! जो तुलसीदास के मर्मज्ञ हैं, इसका औचित्य सिद्ध कर सकते हैं. मैं उसमें नहीं जाऊँगा. लेकिन कम से कम पाठक के रूप में मुझे यह दोहा एक और तुलसीदास, जो मानस के समापन के साथ आगे आने वाले थे, उसकी सूचना भी देता है.
और कहा जाता है खण्डकाव्य की और महाकाव्य की एक मान्यता हमारे यहाँ ये भी है कि अनितम सर्ग आते-आते आने वाले का पूर्वाभास भी दे दिया जाये. अब वो या सप्तम सोपान जो है, उसका अंतिम दोहा, उसके बाद तो कोर्इ सर्ग आने वाला नहीं है लेकिन तुलसीदास तो हैं, राजेन्द्र काव्य आने वाला है – वो एक और तुलसीदास, जो विनयपत्रिका में जिसका आभास पहली बार मिलता है, कवितावली में और ज़्यादा प्रखर होकर मिलता है और सबसे अधिक गहरी पीड़ा के साथ दिखार्इ पड़ता है. हनुमान बाहुक, हनुमान बाहुक उसकी बात मैं अन्त में करूँगा. लेकिन विनयपत्रिका, निवेदन, आत्मनिवेदन भगवान राम के साथ! आत्मनिवेदन तब किया जाता है जब सारे प्रयास कर लिये, बात बनी नहीं, तो फिर किसी की सिफारिश से अर्जी यदि वहाँ तक पहुँच जाये और जिसको सुनना चाहिये, वो सुन ले और फिर काम बने.
दिलचस्प छन्द है विनयपत्रिका का – ‘कबहुक अम्ब अवसर पार्इ’. हमारी बनारस तो एक विलक्षण नगरी है. वहाँ एक प्रसिद्ध तबला-वादक थे. उनका दावा था कि तुलसीदास तबला बजाना जानते थे और वे उसके समर्थन में ये छन्द कोट कर रहे थे – ‘कबहुक’. कहते हैं कि ये तबले की धुन है – कबहुक अम्ब अवसर पार्इ. इस छन्द में दूसरी पंक्ति है – ‘मेरी ओर सुध दयायवी, कछु करुण कथा सुनाय.’ अब सीधे-सीधे कहना अपर्याप्त है. कहना हो तो कहने का एक छद्म होना चाहिये, और बेहतर ये हो ऐसे कहें कि बात किसी और की हो रही हो, उसी में मेरी बात डाल दीजिये. उर्दू का सस्ता-सा शेर – ‘क्यों कब सुनने लगे जाहिद, वो कब सुनने लगे काशिद. मगर यूँ सुना देना मिलाकर दूसरों की दास्तां में दास्तां मेरी. तुलसीदास उस समय लिखा हुआ काव्य मेरी ओर सुध दयायवी, कुछ करुण कथा सुनाये – कुछ और कथा सुनाइये, एक करुण कथा राम को सुनाइये, और उसी में मेरी कहानी भी डाल दीजियेगा; तब शायद ज़्यादा असरदार होगी. ये आत्मनिवेदन के पीछे की यातना, वो पीड़ा! इस पीड़ा का लम्बा बयान विनयपत्रिका में अनेक रूपों में मिलेगा. कर्इ बार अपने पर हँसते हुए, मूर्ख वो अनेक बार अपने आपको कहते हैं.
और एक दिलचस्प प्रयोग – और मैं कहूँगा विनयपत्रिका बहुत ब्रजभाषा में है, और ये भाषा तब तक अखिल भारतीय काव्य की भाषा बन चुकी थी. अवधी अखिल भारतीय भाषा, काव्य की भाषा नहीं बन सकी थी, लेकिन ब्रजभाषा अखिल भारतीय काव्यभाषा बन चुकी थी. अखिल भारतीय काव्यभाषा मैं कह रहा हूँ, क्योंकि ब्रजभाषा, काव्यभाषा राजा, रर्इस और मर्मज्ञ खानदान की मिलिकयत थी. देश के अनेक भागों में लिखी गयी. और जो उर्दू – यहाँ बांगला जानने वाले लोग होंगे – तो छोटी-सी ब्रज बोली बंगाल तक पहुँची. जिसको ब्रज-बोली कहते थे. तो ब्रजभाषा व्यापक रूप ले चुकी थी. उस ब्रजभाषा में तुलसीदास ने कविता की. मुझे बहुत दिलचस्प प्रयोग लगता है तुलसीदास का ये. और वो प्रसिद्ध छन्द आप लोगों ने पढ़ा होगा – ‘केशव कहि न जाये, का कहिये? देखत तब रचना विचित्र हरि समझ मनहिं मन रहिये’. भाषा की एक लाचारगी, कि यहाँ तक तो हम कह सकते हैं – हम क्या कहें, कैसे कहें – ये तो हम कर सकते हैं. लेकिन क्या कहें, भाषा इसके सामने असमर्थ थी – भाषा की असमर्थता. लेकिन एक जो दिलचस्प लगता है, एक प्रयोग, ध्यान दीजिये! ‘देखत तो रचना विचित्र हरि समझ मनहिं मन रहिये; केशव कहि न जाये का कहिये? आपको याद आ रहा है कि ये प्रयोग आगे चलकर हिन्दी में कहीं दिखायी पड़ता है! नहीं दिखार्इ पड़ता. आश्चर्यजनक रूप से उर्दू में जाकर इसका रूप दिखार्इ पड़ता है – ‘रहिए ऐसी जगह चलकर जहाँ कोर्इ न हो. हमसुखन कोर्इ न हो’. तो रहिये वाला प्रयोग जो है, किस तरह से ब्रजभाषा में एक नया रूप प्रकट हो रहा था. तुलसीदास उसको पकड़ रहे थे. एक मान्यता है न कि ब्रजभाषा के भीतर से खड़ी बोली निकली. तुलसीदास के यहाँ वो किस तरह से उस भाषा का विजन निकला. एक अलग काव्यभाषा रच रहे थे उस ब्रजभाषा से. परिचित ब्रजभाषा के भीतर से भी एक नयी भाषा रचते हुए तुलसीदास दिखार्इ पड़ते हैं. ये भाषा मुझे कर्इ रूप में – अवधी तो करती ही है उनकी – ब्रजभाषा के कर्इ विलक्षण प्रयोग आकृष्ट करते हैं.
विनयपत्रिका को लेकर बहुत सारी बात हो सकती है. आप जानते हैं कि भक्तों के बीच वो बहुत लोकप्रिय है. विनयपत्रिका से आगे चलकर मैं कोर्इ लम्बी-चौड़ी व्याख्या उसकी नहीं करूँगा. देखिये, कवितावली थोड़ा रुककर, ठहरकर – वो जो एक नये तुलसीदास का आभास मिला था रामचरित मानस में अनितम दोह से – मैं कहना चाहूँगा, ये मेरा अपना आकलन है – वो निरन्तर किसी और रूप में विकसित, वो लोक-चिन्ता, लोक-दुख, लोक-यातना, जो संतति तुलसीदास की भोगी हुर्इ, भोगा हुआ, और उनकी वो विराट कल्पना जो राम थे – इनके बीच का द्वन्द्व प्रकट होता है; और वो बाद की कृतियों में लगातार तीव्रतर होता जाता है कवितावली के अनेक छन्दों में. आप सबका वो प्रिय और मेरा इसलिए भी कि मुझे अपनी बोली भी दिखार्इ पड़ती है उसमें – ‘जीविका विहीन लोग सीध मान सोच बस कहत एक, एकन सो कहाँ जार्इ कां करर्इ. मैं नहीं जानता, एकदम सीधे इस दुनियादारी की बात – यहाँ बेरोजगारी है. बेरोजगारी का शायद पहला उल्लेख – जीविका विहीन लोग, चर्चा की गयी. काम नहीं है. यह पहला उल्लेख है हिन्दी कविता में काम न मिलने का, बेरोजगारी का. जीविका विहीनता का इसके पहले कोर्इ उल्लेख मिलता है – मेरी जानकारी में हो तो मैं एनलाइटन होना चाहूँगा. तुलसीदास करते हैं पहली बार. जीविकाविहीन लोग शीतमान दुखी हैं और चिन्ता में हैं. और चिन्ता क्या है? कि कहाँ जार्इ, का करीं. ये प्रयोग मेरी भोजपुरी का है. कहाँ जार्इ का करीं – ये क्रियापद! भूलें न! तुलसीदास तो बनारस के थे, बनारस में भोजपुरी बोली जाती है, और त्रिलोचन जी सही कहते थे कि- तुलसीदास की अवधी में भोजपुरी घुसी हुर्इ है, ब्रजभाषा भी घुसी हुर्इ है बहुत. ये पंक्ति मुझे बहुत मार्मिक लगती है और भौतिक, दुख, पीड़ा. कर्इ बार सीधा बेबाक वर्णन मुझे दिखार्इ पड़ता है. दूसरी अनेक पंक्तियों में मिलेगा आपको. कवितावली इस दृष्टि से शायद बार-बार पढ़ी जाने योग्य पुस्तक है. उसका अवलोकन नये सिरे से किया जाना चाहिये.
मित्रो! मैं अपनी बात कवितावली से निकालना चाहूँगा और हनुमान बाहुक, जिसको मैंने इधर पढ़ा. मैंने दुर्भाग्य से विधिवत उसको कभी नहीं पढ़ा. अभी भी विधिवत पढ़ा, इसका दावा तो नहीं करूँगा. अंतिम कृति मानी जाती है उनकी. और एक तरह का विराट विलाप है उनका. चीख है. ….. परन्तु ग़ालिब तो कहते हैं- मेरे बदन में चिराग जल रहे हैं. तुलसीदास इस तरह की उपमा का तो उपयोग नहीं करते, लेकिन जिस तरह से पूरे शरीर का वर्णन किया है, त्रासकालीन वर्णन किया है, और उस सारे वर्णन में ऐसा गहरा अस्तित्वबोध है. उस जैसा हिन्दी में इससे पहले कहीं मिलता है – मैं नहीं जानता हूँ.
हनुमान बाहुक को पढ़ते हुए मुझे कर्इ चीज़ें – ग़ालिब के पत्र, और तो और डैथ आफ इवान इलिच – वो महान, मृत्यु का ऐसा बड़ा बखान तो दूसरा है ही नहीं, वो पीड़ा – ये सब कुछ – एक तुलसीदास की वह कृति आज की अनेक कृतियों को समानान्तर ऐसे उल्लेखों का लगातार मुझे स्मरण करा रही थी. और वहाँ क्या है? एक राम बड़वाबे से बड़ी है आग पेट की. जिसमें आता है न! लेकिन इसको बुझाने वाला एक है. राम इसको बुझा सकते हैं. ये विश्वास मुझे थोड़ा टूटता हुआ दिखार्इ पड़ता है. हनुमान बाहुक की कुछ पंक्तियाँ, जो मैं वहाँ से नोट करके लाया था, आपसे साझा करना चाहूँगा. लेकिन उससे पहले कि हनुमान बाहुक की उन पंक्तियों को आप तक ले जाऊँ – वो प्रसिद्ध कवितावली का छन्द – आप सबका सुना हुआ – लेकिन वो बिल्कुल अलग तुलसीदास हैं. मानस से अलग, जो एक अलग तुलसीदास की चर्चा मैं कर रहा हूँ, जो आज के मानस को ज़्यादा अपील करते हैं – नये मानस को, आज के पाठक को, मेरे जैसे पाठक को और मेरे बाद के पाठकों को भी.
वो विशाल वर्णाश्रम धर्म पर आधारित एक रामराज्य के अन्त को निर्मित करने वाले तुलसीदास, उसके पैरलल कलयुग का लम्बा चित्र खड़ा करने वाले तुलसीदास और फिर कवितावली में अपनी निजी पीड़ा का बखान करते हुए, उस सबको ध्वस्त करते हुए, एक और पीड़ा का बयान करने वाले तुलसीदास. ‘धूत कहो अवधूत कहो रजपूत कहो ये सारे ‘वो जुलहा कहो कोऊ – ये तुलसीदास बोल रहे हैं. लगभग कबीर जैसे बोल रहे हैं. आदमी तो लगभग मर्यादा वाले जिस तरह के शब्दों का प्रयोग करते हैं – ‘काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहु’ – मैं सीधे-सीधे उस शब्द का प्रयोग तो नहीं करूँगा, लगभग गाली-गलौच तक चली आने वाली भाषा है. ‘काहू की बेटी से बेटा न ब्याहु, काहू की जाति बिगारन सोर्इ. इस पूरे छन्द में मुझे अनितम पंक्ति जि़यादा मार्मिक लगती है और बहुत दूरगामी लगती है कि – ‘मांग के खइवो मसीत में सोइवो. क्या-क्या चीज़ है? माँग के खाऊँगा. खैर! वो तो पहले भी कह चुके हैं मैं माँग कर खाता रहा हूँ. रामचरित मानस में शुरू में ही कह चुके हैं. ‘चारि फल जानत हो चारि ही जनक को’ – ऐसा कह चुके हैं कवि छन्द में, कवितावली में. तो मांग के खइवो मसीत में सोइवो में क्या ध्वनि है, बन्धु? पूरी हिन्दू परम्परा को मानते हुए अन्त में ये क्यों कहना पड़ा. वो कौन-सी चोट थी? कौन-सी पीड़ा थी? कोर्इ तो रही होगी. तुलसीदास जैसा बड़ा कवि कह रहा है- मसीत में सोइवो.
और आगे जो पूरी महाजनी सभ्यता थी, उस पर चोट कि, ‘लेवें को एक – न एक लूँगा न दो देना पड़ेगा. इस एक लेने और दो देने की स्थिति का बहुत वर्णन कवितावली के कर्इ छन्दों में है. हाँ, एक दिलचस्प मुहावरा मुझे तुलसीदास का मिला – ‘हाथी स्वान लेवा देही’ – हाथी ले लेंगे, स्वान दे देंगे आपको. ये पीड़ा तुलसीदास की, जो बहुत भौतिक पीड़ा है, इस लोक की पीड़ा है. उस विराट आदर्श के स्मरण मात्र से, नाम स्मरण मात्र से सब कुछ ठीक हो जायेगा – उसमें खरोंची पैदा करती हुर्इ पीड़ा है. मैंने इसको गहरे असितत्वबोध की पीड़ा कहा, जो हनुमान बाहुक में बहुत गहरार्इ में बड़ी पीड़ा के साथ व्यä हुआ है. ‘कहो हनुमान सों तुलसीदास के आराध्य – क्रम से बात कर रहे हैं वो. मैंने अपनी इस पीड़ा का, ये जो शारीरिक पीड़ा है, जिसको झेल रहा हूँ, इसका वर्णन मैंने अपने सारे आराध्यों से किया, सबसे याचना की – ‘कहो हनुमान सों, सुजान राम राम सों’. राम को रिपीट किया. हनुमान से भी कहा, राम राम से भी कहा और राम राम से राम राम कहते हुए कहा – ध्वनि ये भी है. कहो हनुमान सों सुजान – सुजान शब्द यहाँ ‘सुजान राम राम सों, कृपानिधान शंकर सों – उनसे भी कहा- भर्इ! सावधान, सुनिये, दुबारा कह रहे हैं, ठीक से सावधान होकर सुनिये मैं क्या कह रहा हूँ- ‘तुमसे कहा न होय हाहा, फिर हाहाकार आ गया उनका. ‘तुमसे कहा न होय – अगर तुमसे कहने से ये नहीं होता, ये सारा मेरा अब तक का संचित विश्वास कि तुमसे कहूँगा, तुम्हारी अनुकूलता प्राप्त होगी और सारी समस्या हल हो जायेगी. ये मेरी पीड़ा का समाधान क्या है? ‘तुमसे कहा न होर्इ हाहा’ – हाहाकार करते हुए ‘सो बुझाइये मोय’ – वो ही मुझे समझ में आ रहा है कि अब तुमसे कहने से होगा नहीं. सारा कहने के बाद भी यह कहना कि मुझे लग रहा है, मेरी समझ में आ रहा है कि इतने मार्ग से समस्या का समाधान नहीं होने वाला.
यह जो मोहभंग की स्थिति है, जो अंतिम काल में हनुमान बाहुक तक आते-आते तुलसी में दिखार्इ पड़ती है. स्मरण करते हैं उनका, लेकिन पीड़ा का बयान करते हुए अपने मोहभंग को भी व्यक्त करने से नहीं चूकते. और अंतिम पंक्ति इस छन्द की ‘हम ही रहो मौन’ – अब मैं चुप रहूँगा, अब नहीं बोलूँगा. ‘हम ही रहों हों मौन’, वयों सो जान जानिये हम ही रहों हों मौन – मैं ही मौन रहकर अब रहूँगा. मैंने देख लिया इतना सारा कहने से भी बात बनी नहीं. अब मैं चुप रहूँगा. मौन रहूँगा. इस मौन हो जाने में तुलसीदास की उस विराट पीड़ा के सामने और उस विराट पीड़ा का निवेदन करते हुए आराध्य के सामने मैं चुप रहूँगा, क्योंकि मैंने बोया है मैं काटूँगा और कोर्इ नहीं काटेगा. मुझे इन पंक्तियों को पढ़ते समय फिर ग़ालिब याद आये – ‘इब्ने मरियम हुआ करे कोर्इ’ – कोर्इ र्इसा मसीह मरियम का बेटा हुआ करे. ‘इब्ने मरियम हुआ करे कोर्इ मेरे दुख की दवा करे कोर्इ’. तुलसीदास भी इस दवा की तलाश अपने पूरे लेखन में करते रहे. उसकी दवा की अचूक टिकिया राम नाम, उस राम नाम की टिकिया अन्तत: उस भौतिक विराट भौतिक पीड़ा के सामने जो हनुमान बाहुक में व्यक्त हुर्इ है – लगता है कि वो काम नहीं कर रही है. स्मरण फिर भी कर रहे हैं उनका – शंकर का, हनुमान का, राम का नाम ले रहे हैं. लेकिन लगता है कि नहीं, इसको मैंने बोया है, मुझे ही काटना है और कोर्इ काटेगा नहीं. यानी थोड़ी-सी शंका, थोड़ा संदेह.
मित्रो! मुझको इसको पढ़ते हुए निराला जी भी याद आये और मैं यहाँ एक छोटा-सा प्रसंग – मैं ज़्यादा समय तो नहीं ले रहा हूँ? मैंने पहली बार तुलसीदास पर जिस व्यक्ति से भाषण सुना था, वो निराला थे. मैं छठी का विधार्थी था और मेरे स्कूल में तुलसी जयन्ती के अवसर पर निराला बोलने आये. उन दिनों निराला ने, लगभग उसी समय जो बाद में पत्र छपा है – जानकीवल्लभ शास्त्री के नाम एक पत्र लिखा. कर्इ सारे पत्र लिखे थे. उन पत्रों में एक पंक्ति आती है. शायद आप विज्ञजनों का ध्यान गया होगा! कि अब तक जो लिखा गया है, मैं उसको उलटकर लिखना चाहता हूँ – टिपीकल निराला. अब तक जो लिखा गया है, उसको मैं उलटकर लिखना चाहता हूँ. और उसे उलटकर लिखने का उन्होंने एक प्रयास किया था – रामचरित मानस को भी थोड़ा अलग ढंग से लिखना. यानी जो तुलसीदास ने अपने ढंग से अवधी में लिखा, तुलसी होकर लिखा, राममय होकर लिखा – उसको निरालामय होकर अलग ढंग से खड़ी बोली में हिन्दी में लिखा जाये. अब तक जो लिखा गया है, जो उलटकर लिखा जाये – वे कहा करते थे. कोशिश की थी उन्होंने. आप जानते हैं कि दो सर्गों का अनुवाद खड़ी बोली में किया था उन्होंने. फिर निराला जैसे बड़े कवि को लगा कि नहीं, बात बन नहीं रही है. तुलसीदास ने जैसा कहा, वैसा मैं नहीं कर पाऊँगा. उससे अलग हटकर भी कहूँ तो मार्मिक स्थिति पैदा नहीं कर पाऊँगा, जो तुलसीदास कर सके थे और फिर चुप हो गये.
लेकिन जिन लोगों ने ‘राम की शक्ति पूजा कविता’ पढ़ी होगी. वो शायद तुलसीदास को सबसे बड़ा ट्रिब्यूट है हिन्दी कविता का. आप सब जानते हैं कि वो कथा ली गयी है कृतिवास से, एक दूसरे रामकथा के विसर्जक से – कृतिवास की कथा, और वो शक्ति पूजा का प्रसंग तो रामचरित मानस में आता नहीं, शिव पूजा का प्रसंग शाक्त प्रदेश में ही लिखा जा सकता था, बंगाल से लिया जा सकता था. वहाँ से कथा ली और उस कथा को लेते हुए तुलसीदास से गहरे स्तर पर जोड़ते हुए उस कथा के स्थलों में, चरित्रों तक में कैसा परिवर्तन किया है निराला ने. मैं उसकी व्याख्या में यहाँ नहीं जाऊँगा. मैं केवल यहाँ छोड़ते हुए अपनी बात को समाप्त करके आगे बढ़ना चाहूँगा, बलिक समाप्त ही करना चाहूँगा कि अब तक तुलसीदास के प्रति सबसे बड़ा टि्रब्यूट राम की शä पिूजा है. कृतिवास को जानकर, कृतिवास से लेते हुए, लेकिन तुलसीदास की इतनी अनुगूँजें भरी हुर्इ हैं राम की शä पिूजा में, कि उसके बिना उसका पूरा पाठ बनता नहीं है. एक कवि की इतनी छवियाँ जिस समाज में हों – हमारे पड़ोस में एक बाबू जंगीसिंह थे, जैसे नाम उस जमाने में होते थे, वो मानस का नित्य पाठ करते थे. उनकी आँखों में मैंने तुलसी की छवि देखी है. अनपढ़ थे. याद थे उनको बहुत सारे छन्द. सुनाते थे और बहुत तन्मय होकर सुनाते थे. एक छन्द मैंने वहाँ देखी है अनपढ़ की आँखों में, व्यास परम्परा से जुड़े हुए लोगों की आँखों में देखी है, अपने बहुत सारे बड़े अध्यापकों की आँखों में भी. हमारे गुरु हजारीप्रसाद द्विवेदी! आप जानते ही हैं कि वे कबीर ही थे. कबीर की परम्परा के थे. लेकिन अंतिम दिनों में बार-बार कहा करते थे कि मुझे लगता है कि अंतिम समीक्षा की पुस्तक मुझे तुलसीदास पर लिखनी चाहिये.
ये तुलसी के भीतर जो एक कायल करने वाली ताकत है, जो सम्पूर्ण तुलसीदास को लेकर बनता है, केवल मानस को लेकर नहीं बनता है. मैं कहना चाहूँगा, मानस एक है, लेकिन मानस के अतिरिक्त एक और तुलसी का विराट रूप बनता है. अनेक स्तरों पर बनता है. उसके भीतर से छोटे-छोटे कर्इ तुलसीदास के रूप दिखार्इ पड़ते हैं. मेरा ख्याल है कि आज का जो पाठक है, क्योंकि जब मैं अपने छात्रों से बात करता रहा हूँ. कभी-कभी तुलसीदास को लेकर बात करने के अवसर आये हैं और एक हिन्दी के छात्र को एक लम्बा इन्टरव्यू तुलसीदास पर देना पड़ा, तभी मैंने इस बात का अनुभव किया कि तुलसीदास को समग्र रूप में लेकर बात कीजिये. सिर्फ मानस को लेकर बात करेंगे तो शायद पूरी तरह से उस कवि के साथ न्याय हम नहीं कर पायेंगे.
मित्रो! मैंने शुरू में कहा था कि मैं इस विषय के साथ छेड़छाड़ करूँगा. थोड़ी-सी छेड़छाड़ की. आप विद्वानों और मर्मज्ञों के सामने इन थोड़े शब्दों के साथ यदि मैंने तुलसीदास की विराट छवि के सामने कहीं कोर्इ गुस्ताखी की हो, तो क्षमा चाहूँगा. धन्यवाद.
चन्द्रकान्त देवताले
(अध्यक्षीय वक्तव्य)
आदरणीय अत्यन्त, आत्मीय और प्रिय केदार जी, सभा में उपसिथत सभी आत्मीय स्नेही बन्धुओं! एक पुण्य स्मृति को संवाद चर्चा और विचारोत्तेजक बनाने का ये जो प्रयोग है, ये जो कर्मकाण्ड से उसको बाहर लाता है और सोचने का एक प्रांगण प्रदान करता है. वो बहुत उत्प्रेरक है. मैं बहुत संक्षेप में कुछ बातें कहना चाहता हूँ, क्योंकि छेड़छाड़ के बाद तो फिर चुप ही हो जाना चाहिये, और यहाँ इतने लोग बैठे हैं, और वो भी केदार जी जैसे कवि और तुलसीदास जैसे महाकवि, उनके बारे में आख्यान, उन सबके बारे में कहें, तो उसके बाद में कुछ कहने को बचता नहीं है. और यहाँ कर्इ इतने वरिष्ठ लोग बैठे हैं कि जो ऐसे कर्इ-कर्इ विचारों और उनकी अध्यक्षता करने की क्षमता रखते हैं. तो इस व्याख्यान के अन्दर व्याख्यान के अनेक अध्यक्ष यहाँ मौजूद हैं और उन सबके पास अपना-अपना एक अध्यक्षीय टिप्पणी और भाषण उनके मन में पैदा हो गया है. जैसा रामकृष्ण ने कहा कि प्रश्न पैदा किया. दो-तीन बातें मेरे मन में भी उपजीं, जो मैं कहना चाहता हूँ कि ज्ञानेश्वरी में अध्याय तीन में अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं कि- ‘भगवान बहुत हो चुका, अब आप मराठी में कहिये. मतलब जो मराठी में सुनने के वास्ते अर्जुन भगवान कृष्ण का आहवान करते हैं, और ये मध्ययुग का, भक्तियुग का एक ऐसा वाक्य है – जैसे दो वाक्य हमारे हिन्दी समाज, हमारी हिन्दी पट्टी में – तुलसीदास ने अपने महाकाव्य से, अपनी भाका (या भाषा) प्रयोग से उन्होंने उसको सिद्ध और चरितार्थ किया है. तो ये एक सम्पूर्ण काव्य को उतना व्यापक जनभूमि में और जन-जन में उसको पहुँचाना और इतना प्रिय कवि बनाना अपने आप में ऐतिहासिक चीज़ है.
अब प्रश्न यह उठता है कि पणिडत नेहरू ने अपनी आत्मकथा में शायद या कहीं और लिखा है कि सम्राट अकबर के जमाने में हिन्दुस्तान में तुलसीदास नामक एक कवि थे. तो बिनोबा भावे ने उनको एक टिप्पणी की थी और एक खत भेजा था कि आपको यह कहना चाहिये कि जिस समय हिन्दुस्तान में तुलसीदास जैसा महान कवि था, उस समय अकबर नाम का व्यक्ति यहाँ पर शासन करता था. ये बात बिनोबा ने कही है. तो इससे हमको यह मालूम पड़ता है कि हमारे इतिहास की जो समझ है और हमारी बहुत सी जो समझ है, वो कितनी है. मतलब, एक महाकवि का जमाना है वो और तुलसीदास को समझना और उनकी व्याख्या करना – प्रत्येक युग अपनी समृद्ध विरासत का नया भाष्य करता है, उसकी नयी टीका करता है और उसको अपने सन्दर्भों में समझना और स्पष्ट करना चाहता है. और हमारे सामने साफ-साफ दो तरह के कवि सरप्लस थे – मराठी के सन्त कवि थे, कबीर थे और इधर हमारे सगुण भक्त कवि थे तुलसीदास. तुलसीदास हमारे पूरे समाज के मन में उतने छाये, जितनी कबीर की आवाज़ नहीं छायी. यधपि कबीर भी हैं. लेकिन जो बात तुलसीदास की है, वो उनकी नहीं है. तो यहाँ ये जो स्थिति है, इससे मैं इस विषय के एक पक्ष को थोड़ा-सा छूना चाहता हूँ, और वो पक्ष है आधुनिक हिन्दी मानस. ये जो टारगेटेड आधुनिक हिन्दी मानस है, जो चिन्हित किया गया है, तुलसीदास की कवितार्इ को वह क्या समझता है? वो क्या ग्रहण करता है? और ये क्या चीज़ है. मेरी चिन्ता का विषय ये है. तुलसी की कवितार्इ, उसकी महत्ता, उसका बड़प्पन – ये केदार जी ने बताया.
अब प्रश्न मेरे सामने यह है कि ये जो आधुनिक हिन्दी मानस है, अगर इसको हम यहीं छोड़ दें, ऐसे ही छोड़ दें, तो बात तो आधी रह जायेगी. तो आधी बात को थोड़ा-सा पूरा करने की कोशिश ये है कि पहले तो आधुनिक हिन्दी मानस को हम कैसे टारगेट करेंगे, चिन्हित करेंगे. एक साक्षरता, शिक्षा, उसमें साहित्यिक अनुवाद, पुस्तक प्रेम, संस्कृति प्रेम, कविता के अन्दर क्लासिक हमारे जो महान ग्रन्थ हैं. उन ग्रन्थों के प्रति झुकाव, उनको आत्मसात करना, उनकी हमारे घर में जगह नहीं है तो हमारे दिमाग़ में, हमारे मानस में कहाँ और कैसी और कितनी जगह होगी. यह एक बहुत बड़ी बात है, बहुत बड़ा प्रश्न है. और मैं समझता हूँ कि आज की इस बातचीत का और इस विषय की जो चुनौती है, वह यही है कि हमारे आधुनिक मानस को क्या हो गया? हमारी जो आधुनिक स्थिति है, हमारा जो समय है – उसको क्या हो गया है कि उसमें तुलसीदास जैसे कवि के अन्तर्विरोधों को हम समझ नहीं पा रहे हैं. उनकी बहुत-सी खूबियों को हम समझ नहीं पा रहे हैं. तो ये समाज हम जानते हैं. यानी आज कबीर ने जो कुछ किया, वो भी हमारे समाज को बनाना चाहते थे. तुलसीदास भी बनाना चाहते थे. और दोनों के अन्तर्विरोध कितने हैं? जो एक सांस्कृतिक संघर्ष था मध्ययुग का, जिसको मुक्तिबोध ने अपने एक निबन्ध में बहुत व्यापक ढंग से और बहुत विस्तार से और बहुत सूक्ष्मता से उसकी व्याख्या की है. तो ये समाज चीज़ है. मतलब हमारे बड़े-बड़े जो मिथक होते हैं, बड़े-बड़े जो गरिमा के प्रसंग होते हैं, वो कभी-कभी समाज में विस्फोटक भी साबित हो जाते हैं और कभी हमारे समाज में जो बड़े-बड़े विस्फोटक मिथक होते हैं, वो सृजनात्मक भी हो जाते हैं. तो ये आधुनिक मानस का प्रश्न है और उसको सोचना चाहिये.
और मुझे तो यह सोचना चाहिए कि आधुनिक मानस कहाँ है? और वो जब आधुनिक मानस का समय था, 60 के बाद, तब हमारे आधुनिकतावादी और आधुनिक मानस भी आधुनिक नहीं थे. और हमारी आधुनिकता कितनी उधार ली हुर्इ है, कितनी वस्तुगत है, कितनी पदार्थगत है, कितनी उपकरणगत है और कितनी विचारगत है, कितनी मनोगत है, वो मानसगत कितनी है – यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है. परसाई ने श्रीकान्त जी से ठीक-ठीक कहा था, उचित ही कहा था कि तुम किन बुद्धिजीवियों की बात करते हो और कितने बुद्धिजीवियों की बात करते हो. ये कोर्इ अंतिम चुनौती नहीं है. बहुत से बुद्धिजीवी यहाँ भी बैठे हैं और सचमुच हैं और विश्वसनीय हैं. किन्तु ये समाज कहाँ है उसका? उसका मानस कहाँ है? और वो चीज़ें हमारे समाज में घटित क्यों नहीं हो रही हैं. ये बहुत छोटे-छोटे प्रश्न हैं, जो एक ओर व्यक्ति को परेशान करते हैं.
दूसरी बात मैं कहता हूँ कि हमारी जो साहित्यिक दुनिया है, जैसे मुक्तिबोध ने कहा है कि- हम साहित्यिक दुनिया में ही नहीं रहते, वास्तविक दुनिया में रहते हैं. तो हमारी जो साहित्यिक अवधारणा है, या बौद्धिक हमारे जो आर्किटेक्ट हैं, बौद्धिक जो स्थापत्य है और हमारे समाज की और हमारे जीवन की जो वास्तविक हकीकत है, उस हकीकत के बीच में कवितार्इ जो है, वो कहाँ ब्रिज बनती है, कहाँ सेतु बनती है, इस प्रश्न को भी हमको सोचना होगा और विचार करना पड़ेगा. तो बहुत सी चीज़ें हैं, ये सब मनोमंथन, जिसको मुक्तिबोध कहते हैं कि मनोमंथन – ये निरन्तर मनोमंथन करने वाले, परेशान करने वाले, उद्विग्न करने वाले प्रश्न हैं, जो कभी तुलसीदास के नाम से आते हैं, कभी अन्य नाम से आते हैं, कभी अमर्त्य सेन के नाम से आते हैं, कभी मुक्तिबोध के नाम से आते हैं, कभी निराला के नाम से आते हैं और हमारे मुट्टीभर लोगों का मनोमंथन कर पाते हैं. कितना बड़ा मन होगा और कितना उसमें से सार-तत्त्व निकलता होगा, ये अभी-भी जाँच-पड़ताल का और अध्ययन का विषय होना चाहिये.
तो ये जो विषय है, ये हमको बहुत सोचने के लिए उत्प्रेरित करता है और हमारी शिक्षा, साक्षरता, आर्थिक और सामाजिक स्थिति , हमारे सांस्कृतिक ताने-बाने – उन सबके बीच में कवितार्इ की आवाज़ क्यों ख़ामोश है? कवितार्इ क्यों नहीं काम करती है? और हम अन्तर्विरोधों की जाँच क्यों नहीं करते हैं चीज़ों की. मतलब उनमें से जो हमको चाहिये, उसको हम ग्रहण क्यों नहीं करते हैं? मतलब हमको तुलसीदास के साहित्य में बहुत कुछ मिल सकता है हमारे जीवन के वास्ते. जैसा कि गांधीजी के साथ हम कर रहे हैं, आज वो ही हमने तुलसीदास के साथ किया और इसी तरह से हम अपनी सम्पूर्ण विरासत के साथ न तो न्याय कर पा रहे हैं और न तो उसका वास्तविक गुणगान कर पा रहे हैं, और न वास्तविक उसको अपने जीवन में आत्मसात कर पा रहे हैं. तो एक बहुत ही कठिन ट्रेजिडी है, जिसके बीच में हम लोग हैं. क्योंकि हम लोग सोचते हैं, परेशान होते हैं, इसलिए इतने शब्दों का, मैंने ज़्यादा शब्दों का ही उपयोग किया, क्योंकि स्मृति व्याख्यानों में तो मेरा यह प्रस्ताव रहेगा कि अध्यक्ष नाम की चीज़ इसमें नहीं होना चाहिये. व्याख्यान ही अपने आप में पर्याप्त है और उस व्याख्यान के बाद प्रत्येक श्रोता – क्योंकि हमारे श्रोता कितने हैं, वे स्वयं अध्यक्ष हैं – सब श्रोताओं को उनकी जगह पर अध्यक्ष बना दिया जाये और ये कह दिया जाये कि इतने अध्यक्षों का वक्तव्य और भाषण, समापन भाषण सम्भव नहीं है, अत: अपनी-अपनी टिप्पणी घर जाकर रखें. और इस बहाने तुलसीदास जी का भी मैं बहुत-बहुत आभारी हूँ और इस विषय का, जिसके बहाने केदारजी के साथ हाथ पकड़कर दो दिन से घूम रहा हूँ और आप सब आत्मीय लोगों के बीच में उपस्थित होने का बहुत दिक्कतों के बाद साहस कर पाया हूँ, और आप लोगों को देखकर मुझे अच्छा लग रहा है. बहुत-बहुत धन्यवाद.