आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

तुम्हारे नाम से निकल कर एक अक्षर: अरुण देव की कविताएँ

Art: Samia Singh

 अगर मगर

तुम अगर नदी रहती तो मैं एक नाव बन तैरता रहता

अगर तुम वृक्ष रहतीं तो बया बन एक घोसला बनाता तुम्हारे हरे पत्तों के बीच

अगर तुम कपास रहती बन जाता वस्त्र छापे का रंग बन चढ़ जाता

कि धोने से भी न उतरता

 

अगर तुम आँधी रहती तो मैं एक तिनका बन उसके भंवर में घूमता ही रहता

कभी नहीं निकलता उससे बाहर

अगर शून्य होती तो तुम्हारे आगे कोई अंक बन जुड़ जाता

हो जाती तुम अनेक

 

जैसे एक घर से मुझे विदा करती

दूसरी बस में मेरे बगल में आ बैठती

तीसरी मेरा कालेज में इंतज़ार कर रही होती

चौथी मेरी क्लास में बैठी होती

पाँचवी के साथ कैंटीन में डोसा खाता

छठी मुझे बस स्टैंड तक छोड़ने आती

सातवी बस में मेरे लिए अपने बगल वाली सिट रिर्जव रखती

आठवी के साथ फ़िल्म देख कर आता

नौंवी के साथ किसी किताब की दुकान पर कविता पर चर्चा करता

घर लौटता तो फिर पहली मिलती

 

और इस तरह तुम्हारे हर रूप में तुम्हारे साथ रहता.

 

पर्यायवाची

गुलमोहर आज लाल होकर दहक रहा है

उसके पत्तों में तुम्हारे निर्वस्त्र देह की आग

मेरे अंदर जल उठी है

 

उसके कुछ मुरझाये फूल नीचे गिरे हैं

उसमें सुवास है तुम्हारी

मुझे प्रतीक्षा की जलती दोपहर में सुलगाती हुई

 

यह गुलमोहर आज मेरे मन में खिला है

आओ की आज हम दोनों एक साथ दहक उठे

की भीग उठे एक साथ की एक साथ उठे और

फिर गिर जाएँ साथ साथ

 

मेरी हथेली पर तुम्हारे नाम से निकल कर एक अक्षर आ बैठा है

और तबसे वह जिद्द में है कि पूरा करू तुम्हरा नाम

 

शेष तो तुम्हारे होठों से झरेंगे

जब आवज़ दोगी अपने होठों से मुझे मेरी पीठ पर

 

उन्हें ढूढता हूँ तुम्हारे मुलायम पहाडो के आस-पास

वहाँ मेरे होटों के उदग्र निशान तुम्हें मिलेंगे

तुम्हारे नाभि कुण्ड से उनकी तेज़ गंध आ रही है

 

मैं कहाँ ढूंढू उन्हें जब कि मैं ही अब

मैं नहीं रहा

 

तुम्हारे नाम के बीच एक-एक एक करके रखूं अपने नाम का एक-एक अक्षर

 

कि जब आवाज़ दे कोई तुम्हें

मेरा नाम तुम्हे जगा दे कि उठो कोई पुकार रहा है

अगर कहीं गिरो तो गिरने से पहले बन जाएँ टेक

और अगर कहीं घिरो तो पाओ उसे एक मजबूत लाठी की तरह अपने पास

कि अपने अकलेपन में उन्हें सुन सको

कि जब उड़ो ऊँचे आकाश में वह काट दे डोर तेज़ काटने वालो की

 

वैसे दोनों मिलकर पर्यायवाची हो जाएँ तो भी

चलेगा.

अर्थ के बराबर सामर्थ्य व वाले दो शब्द

एक साथ.

 

आटे की चक्की

पम्पसेट की धक-धक पर उठते गिरते कल-पुर्जों के सामने

वह औरत खड़ी है

पिस रहा है गेहूं

 

ताज़े पिसे आटे कि खुशबू के बीच मैं ठिठका

देख रहा हूँ गेहूं का आटे में बदलना

 

इस आंटे को पानी और आग से गूँथ कर

एक औरत बदलेगी फिर इसे रोटी में

 

दो अंगुलिओं के बीच फिसल रहा है आटा

कहीं दरदरा न रह जाए

नहीं तो उलझन में पड़ जायेगी वह औरत

और करेगी शिकायत आंटे की

जो शिकायत है एक औरत का औरत से

वह कब तक छुपेगी कल-पुर्जों के पीछे

 

इस बीच पीसने आ गया कहीं से गेहूं

तराजू के दूसरे पलड़े पर रखना था बाट

 

उसने मुझे देखा छिन्तार

और उठा कर रख दिया २० किलो का बाट एक झटके में

पलड़ा बहुत भारी हो गया था उसमें शमिल हो गई थी यह औरत भी

 

उस धक-धक और ताज़े पिसे आंटे की खुश्बू के बीच

यह इल्हाम ही था मेरे लिए

 

की यह दुनिया बिना पुरुषों के सहारे भी चलेगी बदस्तूर.

 

टार्च

उजाले में यों ही पड़ा था आंखें बंद किए

जैसे वह कुछ हो ही नहीं

उसे तो जैसे  अंधेरे की प्रतीक्षा भी नहीं

कि रौशन हो सके उसका होना

 

हाँ अगर अंधेरा घिर आए

सूझे न रास्ता

उजाले तक न पहुंच पाए हाथ

वह आ जाता है खुश-खुश

और तब भी दिखती है रौशनी

वह कहाँ दिखता है

 

कभी-कभी फोकस ठीक करना होता है

काटनी होती है कालिमा

नहीं तो बिखर जाता है प्रकाश

धुंधला पड़ जाता लक्ष्य

 

वह है वहाँ अब भी जहाँ चमक-दमक कम है

अंधेरी रात में उसके सहारे

किसी पगडंडी पर चल कर देखो

तब दिखता है उसका होना .

 

 मठ

मठ पुराना था पर प्राचीन नहीं

आलस्य और जड़ता ने

संत के विचारों को बदल दिया था ठस दिनचर्या में

संसार से कटे पर सांसारिकता में लिप्त साधू

सुबह शाम कुछ पदों को बाँचते थे

 

गगन गुफा से अब नहीं झरता था निर्झर

निनाद में अनहद नाद कौन सुनता ?

आरती में जलता था दीया

पर उसमें उन महान संस्कृतियों के मिलन से

पैदा हुई वह चमक अब न थी

शब्द-भेद को बूझने वाला कोई न था

मद्धिम थी ब्रहम ज्ञान का लौ

घंटी के शोरर में दब गये थे कबीर, पलटू, दादू के पद

 

महंत के सन्दूक में आदि संत के वाणी की हस्तलिखित प्रतियाँ थीं

जिन्हें वह बार-बार गंगा में प्रवाहित करने की बात कहता था

उसे अब बुरी लगने लगी थी

आदि संत की टोका-टोकी

वाणी का विवेक विचलित करता था

 

हाट में बैठी माया के फंदे में आ गया था यह पुराना मठ

हंसा उड़ चला था और

हृदय का दर्पण धुंधला पड़ गया था

विकट पंथ पर अब न दरकार थी

घट के ज्योति की

 

वर्ष के किसी  दिन लगता था मेला

मठ के परम्परागत शिष्य, सामाजिक जुटते

 

महंत माया में जल रहे संसार की बात करता

कनक,कामिनी से बचने की सलाह देता

शब्द भेद की चर्चा करता और

शून्य शिखर की ओर  इशारे करता

 

लोग सुनते कि मठ के पास इतने बीघा जमीन है

इस बार ले लिया गया है दो ट्रैक्टर

और महंत को मिल ही गया अन्ततःरिवाल्वर का लाइसेंस.

 

चाँद , पानी और सीता

स्त्रियाँ अर्घ्य दे रही हैं चन्द्रमा को

 

पृथ्वी ने चन्द्रमा को स्त्रिओं के हाथों जल भेजा है

 

कि नर्म मुलायम रहे उसकी मिट्टी

कि उसके अमावस में भी पूर्णिमा का अंकुरण होता रहे

 

लोटे से धीरे-धीरे गिरते जल से होकर आ रहीं हैं चन्द्रमा की किरणें

जल छू रहा है उजाले को

उजाला जल से बाहर आकर कुछ और ही हो गया है

बीज भी तो धरती से खिलकर कुछ और हो जाता है

 

घुटनों तक जल में डूबी स्त्रियों को

धान रोपते हुए, भविष्य उगाते हुए सूर्य देखता है

देखता है चन्द्रमा

स्त्रियाँ सूरज को भी देती हैं जल, जल में बैठ कर

कि हर रात के बात वह लौटे अपने प्रकाश के साथ

 

धरती पर पौधे को पहला जल किसी स्त्री ने ही दिया होगा

तभी तो अभी भी हरी भरी है पृथ्वी

स्त्रियाँ पृथ्वी हैं

रत्न की तरह नहीं निकली वें

न ही थी किसी मटके में जनक के लिए

 

अगर और लज्जित करोगे

लौट जायेंगी अपने घर

 

हे राम !

क्या करोगे तब…

 

5 comments
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  1. बहुत ही अच्छा संकलन … अलग अलग भावनाओ को लिए हुए… अगर मगर, पर्यायवाची .. हट कर … आटे की चक्की, चाँद पानी और सीता …. मठ में युगों की सोच में बदलाव और बदलाव भौतिकता का… टार्च अपने में अलग .. टार्च का होना अँधेरे में होना लगता है…

  2. bahut hi sunder kavitaye

  3. sundar shant

  4. बहुत ही सौम्य शांत और तरलता की सी मन में पिघलती रचनाएँ हैं। मुझे बहुत पसंद आईं। आकर श्रृंगार से रिक्त सरल एवं संश्लेषित रचनाओं में ये कवितायेँ अनमोल हैं।

  5. समकालीन कवियों में अरुणदेव की कवितायेँ प्रभावित करती हैं ,चयनित कवितायेँ इसकी सशक्त और सुन्दर बानगी हैं ! उन्हें मेरी शुभकामनाएं !

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