आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

बोधिसत्व की दो कविताएँ

क्या इसीलिए जन्मा राम के अवध में

कुछ आवाजें आ रही है
इन आवाजों में घुले हैं कई स्वर

कभी लगता है कि ये बहुत दूर से आ रही आवाजें हैं
कभी लगता है कि घर में ही उठ रही है यह आवाज
या घर के पीछे का कोलाहल है यह।

कई लोग हैं और लगातार बोल रहे हैं।

कभी कभी ये आवाजें रुलाई की तरह लग रही है
दारुण दुख से उपजी रुलाई की तरह
कभी शोक में डूबी
कभी हाहाकार की छाया सी
कभी आर्तनाद सी
जैसे घर जलने पर रो रही हों औरतें
जैसे लोथ गिरने पर चारों दिशाओं में धूँ-धूँ उठता है

इनमें कोई सुबक रहा है
कोई भर रहा है सिसकी
कोई चुप करा रहा है किसी को

लगता है यह दुनिया रुलाई की आवाजों से भर गई है
मुझे नहीं सुननी ये रोने की आवाजें
यह गिड़गिड़ाहट
यह बुक्का फाड़ रोर क्यों सुनूँ मैं
क्या इसीलिए जन्मा राम के अवध में
कि रुलाई के घिर कर रहता रहूँ
घर में घुस कर भी बच न पाऊँ रुलाई से।

मैं खिड़की-दरवाजा बंद कर सोने की कोशिश करता हूँ

लेकिन इन आवाजों का क्या करूँ
जो रोकने से भी नहीं रुक रहीं।

वे दीवार और दरवाजों से छन कर आ रही है
भीतर मुझ तक अंधेरे कमरे में।

आवाजों के लिए अंधेरे उजाले का कोई फर्क नहीं होता

क्या इन आवाजों को रोका नहीं जा सकता
मुझ तक पहुँचने से।

जब वो नहीं होगी तब भी होगी उसके न होने की आवाज।
गुर्राहट न सही हकलाहट की तरह
नारा न सही रिरियाहट या बुलाहट की तरह

वैसे अब भी आ रही इन आवाजों से दूर जाना चाहता हूँ
मैं दूर जाना चाहता हूँ थोड़ी देर के लिए
लेकिन ये मुझ तक आती जा रही हैं लगातार।

क्या करूँ
कैसे बचूँ इन आवाजों से

तुम्हारे पास कोई उपाय है
आवाजों को रोकने का।

क्या उठना होगा और जानना होगा कि
यह किनकी और कैसी आवाज है

क्या आवाजों को दरकिनार नहीं किया जा सकता
क्या सो नहीं सकता एक गहरी नींद हाहाकार के बीच।

उन आवाजों में कोई फेरी वाला है क्या
कोई फकीर, कोई साधू, कोई अवधूत, कोई जोगी, कोई किसान
कोई बढ़ई, कोई धुनिया, मिरासी कोई, कोई टिटहरी
कोई नुनहारा, कोई लकड़हारा, कोई पड़ोसी, कोई पूर्वज, कोई संबंधी ,
कोई परिचित , कोई राहगीर
या मेरी अपनी ही आवाज है यह
कहीं खो गई बहुत पुरानी आवाज
मुझे तो याद नहीं कि मैंने कब नारा लगाया
कब किसी को बुलाया , जगाया

पता नहीं कितने लोग हैं
उधर जो मिल कर एक आवाज हो गए हैं
और बोलते ही जा रहे हैं।

कब तक जागता रहूँगा बंद घर में
कब तक बाहर नहीं निकलूँगा
कब तक इस आवाज का हिस्सा नहीं बनूँगा

मुझे बाहर निकलना ही होगा
बनना ही होगा इस आवाज का भाग
कब तक अकेले में गा पाऊँगा यह मौन का राग।

तुम्हारे कहने से

तुमने कच्चे चाँद को देखा है
किसी एकदम कोमल कच्चे चाँद को
गोबर और चिकनी मिट्टी से बने चाँद को
भूंसी और पुआल से बने चाँद को
कुम्हार के चाक पर चढ़े चक्कर काटते चाँद को।

ऐसे चाँद को जिसकी छाती पर
खड़ाऊँ पहन कर टहल गया है कोई
अभी-अभी

कोई कैसे चल सकता है कच्चे चाँद की छाती पर
कच्ची छाती पर कौन टहल सकता है
वह भी खड़ाऊँ पहन कर

गीली और नम जमीन पर चलना भी
कठिन होता है
और इस तरह कुछ कुचलते विदीर्ण करते हुए चलना कितना
कठिन है।

कभी सोचा है विदर्ण करना जितना कठिन है तुम्हारे लिए
उतना ही सरल भी है
कुछ भी तोड़ देना, काट देना फोड़ देना, गिरा देना, ढहा देना
मिटा देना, नष्ट कर देना
सबसे सरल है चोट करना

सहेजना-सम्हालना कितना कठिन,
कठिन है कच्चे चाँद की छाती पर खड़ाऊँ पहन कर टहलना।

बाहर निकलता हूँ
आने और जाने के, भगदड़ और दौड़ने के निशान दिखते हैं
कौन गया कुचलता हुआ
कच्चे चाँद को
गोबर और भूंसी से बने चाँद को
उस पर तो उंगलियों के निशान थे
किसी के।

तुम तो नहीं थे
वे पैर तुम्हारे तो नहीं थे
वो खड़ाऊँ तुम तो नहीं पहने ते
देखो मिट्टी में लिपटे हैं तुम्हारे पैर या कुछ और
देखो
अभी न दिख रहा हो तो उजाला होने तक रुको
अगले चाँद के उजाले तक रुकना पड़े तब तक रुको

अगली दौड़ के पहले देखो
जो बिना अपना पैर देखे दौड़ते हैं
वे कहाँ दूर तक जा पाते हैं
जो बिना अपना खड़ाऊँ देखे दौड़ते हैं
वे कहाँ कहीं भी पहुँच पाते हैं

देखो आकाश में चाँद की सिसकी व्याप रही है
सुनों धरा को एक एक कर चौतरफा रुलाई ढाँप रही है।
तुम्हें जितना दौड़ना हो दौड़ो लेकिन देख लो
तुम किसी चाँद पर तो नहीं दौड़ रहे
कच्चे चाँद पर
गोबर और भूंसी से बने चाँद पर
पुआल और सूखे पत्तों से बने चाँद पर।

उन पैरों को पहचानना होगा और रोकना होगा
कैसे भी कच्चे चाँद पर चलने से
चाँद को बचाना होगा टूटने से कुचलने से।

तुम चाहो तो तुम भी ये काम कर सकते हो

यह कोई बहुत कठिन काम नहीं है
बस तुम्हें कहना होगा कि ये काम नहीं होगा
यकीन करो एक तुम्हारे कहने भर से
कहीं भी कोई चाँद नहीं कुचला जाएगा।
हर चाँद उगेगा और खूब तमतमाएगा।

6 comments
Leave a comment »

  1. जब वो नहीं होगी तब भी होगी उसके न होने की आवाज।
    गुर्राहट न सही हकलाहट की तरह

    बेहतरीन कवितायें .
    एक अरसे के बाद भरपूर और नायाब कवितायें पढ़ने को मिलीं .
    कवि को शुभकामनाएं और प्रतिलिपि का आभार .

  2. Ye baat hai bilkul sahi, chahe samajh me na aa rahi ho abhi, koi kab tak antarman ki aawajo se bach payega, kabhi na kabhi to unka hissa ban hi jayega…. Jis din apni ek awaaj bahari aawajon se mil jayegi, saayad usi din se duniya badalti nazar aayegi…… …. Ati uttam prayas hetu subhkamnayen evm dhanywad……… (himanshu)

  3. Thank you very much Shirish ji. Sach hai kab tak in awajo se door raha ja sakta hai, kab tak chup chap
    baith kar maun jia ja sakta hai. Ane do Awajo ko ane do, jeevan ka hissa ban jane do . kabhi jeevan ka anand ban kar to kabhi karun krandan bankar ane do awajo ko ane do, kabhi prem ki fuhar bankar to takrar bankar ane do awajo ko ane do….

  4. आवाजों के लिए अंधेरे उजाले का कोई फर्क नहीं होता

    देखो आकाश में चाँद की सिसकी व्याप रही है
    सुनों धरा को एक एक कर चौतरफा रुलाई ढाँप रही है।
    तुम्हें जितना दौड़ना हो दौड़ो लेकिन देख लो
    तुम किसी चाँद पर तो नहीं दौड़ रहे
    कच्चे चाँद पर
    गोबर और भूंसी से बने चाँद पर
    पुआल और सूखे पत्तों से बने चाँद पर।

    उन पैरों को पहचानना होगा और रोकना होगा
    कैसे भी कच्चे चाँद पर चलने से
    चाँद को बचाना होगा टूटने से कुचलने से।

    Yh kavitaien mn ko Sarthak Ummeed K Sath vichlit krti hain. Bahut badhai.

    Kumar anupam.

  5. दोनों कविताये नायाब है..शुरू तो ऐसे होती है जैसे ये आवाजे कही पहुचेंगी ही नहीं , और इस चाँद को शायद कोई बचा ही नहीं पायेगा लेकिन दोनों कविताओ का अंत जिस आशा और विश्वास के साथ होता है वही इन्हें महान कविता की श्रेणी में भी बनाता/ रखता है…आज के समय साहित्य के साथ साथ जीवन में भी इसी आशावादिता और बेहतरी को देख -पहचान सकने की आवश्यकता है…बहुत बधाई भाई बोधिसत्व जी को

  6. aavazo ke liye fark nhi hota andher ujaale me.. sookshmta ko bakhoobi pakda hai.. sundar kvitayen..

Leave Comment