आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

The Girls Who Read Poems: Shirish Kumar Mourya

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कविताएँ पढ़ने वाली लड़कियाँ

(शालिनी को समर्पित)

कम ही सही पर वे हर जगह हैं
इस महादेश की करोड़ों लड़कियों के बीच
अपने लायक जगह बनाती
घर से कालेज और कालेज से सीधे घर आने के
सख़्त पारिवारिक निर्देशों को निभातीं
वे हर कहीं हैं
मैं सोचता हूँ कि हिन्दुस्तान के बेहद करिश्माई सिनेमा
और घर-घर में घुसी केबल की सहज उपलब्ध अन्तहीन रंगीन दुनिया के बावजूद वे क्यों पढ़ती हैं
एक बेरंग पत्रिका में छपी
जीवन के कुछ बेहद ऊबड़खाबड़ अनुभवों से भरी
हमारी कविताएँ
जिन पच्चीस रुपयों से ली जा सकती हो
गृहशोभा
मेरी सहेली
वनिता
बुनाई – कढ़ाई या सौन्दर्य विशेषांक
या फिर फेमिना जैसी कोई चमचमाती
अंग्रेज़ी पत्रिका
क्यों बरबाद कर देती हैं उन्हें वे
हिन्दी की
कुछेक कविताओं की ख़ातिर?

कल फ़ोन पर मुझसे बात की थी एक ऐसी ही लड़की ने
पूर्वांचल के एक दूरस्थ सामन्ती क़स्बे से आती
उसकी आवाज़ में
एक अजीब-सा ठोस विश्वास था
और थोड़ा-सा तयशुदा अल्हड़पन भी
वह धड़ाधड़ देती जा रही थी प्रतिक्रिया
मेरी महीना भर पहले छपी
एक कविता पर जो प्रेम के बारे में थी

मैं लगभग हतप्रभ था उसकी उस निश्छल आवाज़ के सामने
वह बाँज के जंगल में छुपे किसी पहाड़ी सोते-सी मीठी
और निर्मल थी
और वैसी ही छलछलाती भी
मैं चाहता था कि उससे पूछूँ
वही एक सवाल-
कि दुनिया की इतनी सारी मज़ेदार चीजों को छोड़ आख़िर तुम क्यों पढ़ती हों कविताएँ
लेकिन काफ़ी देर तक मैं चुपचाप सुनता रहा उसकी बात
उसमें एक गूँज थी
जो कालेज से घर लौटती
सारी लड़कियों की आवाज़ में होती है
घर लौटने के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद
जो रुक जाती हैं थोड़ी देर गोलगप्पे खाने को
और साथ ही ख़रीद लाती हैं
वह पत्रिका भी
जिसमें मुझ जैसे ही किसी नौजवान कवि की
कोई कविता होती है

वे पढ़ती हैं उसे बैठकर घर की ख़ामोशी में
किसी तरह समझातीं और चुप करातीं अपने भीतर बिलख रहे संसार को
छुपातीं अपने सपने
अपने दुःख
अपनी यातनाएँ
और कभी अमल में न लाई जा सकने वाली
अपनी योजनाएँ
वे कविताएँ पढ़ती हैं
घर के सारे कामकाज और कालेज की ज़रूरी पढ़ाई के
साथ-साथ
किसी तरह मौक़ा निकालकर

अन्त पर पहुँचाते हुए इस बातचीत को जब पूछ ही बैठा मैं
तो पलटकर बोली वह बड़ी निर्दयता से
कि पहले आप बताइए
आप क्यों लिखते हैं कविताएँ ?
अब अगर किसी पाठक की समझ में आ गया हो
तो वह कृपया मुझको भी समझाए
कि बाहर की सारी लुभावनी चकाचैंध से भागकर
हर बार
अपने भीतर के घुप्प अन्धेरों में
कहीं किसी बचे-खुचे प्रेम की थोड़ी रोशनी जलाए
ये कुछ लड़कियाँ
आख़िर क्यों पढ़ती हैं
कविताएँ?

जगह

इस पृथ्वी पर एक जगह है
जिसे मैं याद करता हूँ
अक्षांश और देशांतर की सीमाओं में बाँधे बगैर

क्यों होती हैं जगहें हमारी ज़िन्दगी में ?
क्या उनका होना इतना ज़रूरी है ?

क्या उनमें बसे बिना
हम नहीं रह सकते इस पृथ्वी पर
प्रेम की तरह क्या वे भी हमारे अस्तित्व की
कोई मज़बूरी हैं ?

कुछ भी हो मगर वे होती हैं
और हम न भी बसाएँ उन्हें तो भी वे होंगी
जैसे हम ना भी करें प्रेम तब भी वह होगा
हमारे लिए जीवन में कहीं न कहीं
मेरी ज़िन्दगी की कई सारी जगहों में से
सिर्फ़
उस एक जगह के बारे में
मैं सोचता हूँ इस तरह

मुझे वहाँ कई बरस पहले पहुँचना चाहिए था
इतने बरस पहले
कि मैं उसका बनना देख पाता
मुझे वहाँ से कई बरस पहले निकल आना चाहिए था
इतने बरस पहले
कि मैं उसका उजड़ना देखने से
बच जाता

लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ
और अब मैं उसे
सिर्फ़ याद करता हूँ
कभी
शराब पीकर गिरे हुए आदमी की तरह
तो कभी
उसे उठाते हुए आदमी में छुपी हुई
ज़रूरी
सदाशयता की तरह!

मैं ऐसे बोलता हूँ जैसे कोई सुनता हो मुझे

रात भर
पुरानी फिल्मों की एक श्वेत-श्याम नायिका की तरह
स्मृतियाँ मंडराती
सर से पाँव तक कपड़ों से ढंकी
कुछ बेहद मज़बूत पहाड़ी पेड़ों और घनी झरबेरियों के साए में
कुछ दृश्य बेडौल बुद्दू नायकों जैसे गाते आते ढलान पर

एक निरंतर नीमबेहोशी के बाद
मैं उठता तो एक और सुबह पड़ी मिलती दरवाज़े के पार
उसकी कुहनियों से रक्त बहता
उसकी पीठ के नीचे अखबार दबा होता उतना ही लहूलुहान
वह किसी पिटी हुई स्त्री सरीखी लगती
मेरी पत्नी उसे अनदेखा करती जैसे वह सिर्फ मेरी सुबह हो उसकी नहीं

मैं अपनी सुबह के उजाले में अपने सूजे हुए पपोटे देखता
ठंडी होती रहती मेज़ पर राखी चाय

मेरे मुंह में पुराने समय की बास बसी रहती बुरी तरह साफ़ करने के बाद वह कुछ और गाढ़ी हो जाती

मेरे हाथों से उतरती निर्जीव त्वचा की परत और मेरा बेटा हैरत से ताकता उसे

इस तरह अंततः मैं तैयार होता और जाता बाहर की दुनिया में
और वहां बोलता ज़ोर ज़ोर से ऐसे जैसे कि कोई सुनता हो मुझे.

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2 comments
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  1. i thought i was wandering through a dense forest in girls’ passionate world….the translations secceeded in sustaining the local colours and mood of all the poems….! the first poem enforces me to introspect my relation with poetry and this world….this very chaotic world…!
    thank u giriraj bhai….and congrats shirish bhai…!

  2. bharatbhooshan ji has definately made a great attempt but…the real magic comes when you go through Shirishji in Hindi. जैसे कोई सुनता हो मुझे….
    yes! we are listening to you!

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