अनिद्रा का पत्थर: महेश वर्मा
पोलिश कवि ज़्बीग्न्येव हेर्बेर्त के लिए छह कविताएँ
नेलकटर
नेलकटर आदमियों से चिढ़ता है, वह एक भूखा जंतु है लेकिन आप उसे कीट-पतंगों या सरिसृपों में से किसी भी समूह में नहीं रख सकते। अपनी आंतों की बीमारी से दांत किटकिटाता वह पनी चिड़चिड़ाहट के बीच भी आपके हाथ की सुस्ती पर तेज़ निगाह रखता है उसके काटे जब आप उसे ज़मीन पर गिरता या टेबल पर बेपरवाह पड़ा छोड़कर डिटाल खोजने लगते हैं तब ऐसे में कभी एक पल रूककर उसके शैतानी से हंसते मुंह को देखियेगा। आपको अपनी ओर देखता देखते ही यह भोला निर्जीव सा मुंह बना लेगा।
खिड़कियाँ
ये खिड़कियाँ ही हैं जो आखिरी तक हमारे सुधार की कोशिश कर रही हैं। कितना भी इन्हें बंद रखा जाये ये दीवार न होंगी। थोड़ी मशक्कत से खुला जायेंगी धूप और हवा और धूल की शोर की ओर। विस्मृति के विरूद्ध हमारी लड़ार्इ ये ही लड़ रहीं हैं। ये चाहती हैं हमें याद रहें सुबह और शाम के रंग, सार्इकिल चलाते और बीड़ी पीते लोग। हमारा बाहर इन्हीं के फेफड़ों से गुज़रकर हमारी सांस में पैवस्त होता आया है।
बारिश जब इनसे ज्यादा लाड़ दिखाने लगती है तो ये उसको डांट भी देती है।
भाषाएँ
भाषाएँ एक निराकार की ओर जाना चाहती हैं। बगैर उतार चढ़ाव वाली एक सर्वत्रिक आवाज़ में अंतिमत:विलीन होकर वे अभिव्यकित को पूर्णता देने के प्राचीन मिशन पर कार्यरत हैं। शब्दकोश वे अपनी दीर्घायु के लिये नहीं बढ़ा रहीं बलिक वे सबकुछ समेट कर ले जाना चाहती हैं अपनी अंतिम इच्छा के समुद्र में। गणनाएँ उनके विरूद्ध हैं, कविता और संगीत उनके साथ।
यह चुप का एकान्त नहीं होगा अंत पर, सबकी एक ही भाषा की पहचानहीन आवाज़ होगी। संज्ञा की उसे ज़रूरत न होगी।
पत्थर
मौसम से बेअसर रहा आया है अनिद्रा का पत्थर। इसका धैर्य इसे स्थायी बनाता है। बिस्तर के साफ़ कोने में बैठकर यह देखता रहता है कमरे का स्थापत्य और इसकी सजावट।चाय के लिये पूछने पर यह उदासी से मुस्कुरा देता है और सिरहाने पड़ी किताब उठा लेता है यूँ ही पलटने के लिये। इसे तर्कों से नहीं जीता जा सकता, ना विनम्रता से ना बेचैनी से। एक तपस्वी है यह। तपस्या के अंत पर यह उठेगा और मुझको ख़त्म कर देगा।
बोतलें
बोतलों की देह को कभी भी युवा स्त्री की आकृति से नहीं जोड़ा जाना चाहिये। इससे बोतलों की भूरी उदासी थोड़ी और गहरी हो जाती है। उनके आँखें नहीं होती, अगर होतीं मुझे यकीन है- बड़ी-बड़ी और पनीली होतीं। वे डरी हुर्इ आवाज़ में फुसफुसा कर बोलती हैं और अपने लुढ़कने को अंत तक गरिमापूर्ण बनाए रखती हैं। अपने से चिपटे रहने वाले लेबल्स से उनकी चिढ़ तो जगजाहिर है ही। वे इतनी शर्मीली हैं कि आज तक कर ही नहीं पार्इं प्यार।
सिलार्इ मशीनें
सिलार्इ मशीनें बूढ़ी नहीं हुर्इ हैं उन औरतों की तरह जो अपने पचासवें साल में भी मेहनत से अपना शरीर सुडौल बनाए रखती हैं। कहीं भी उनके चर्बी नहीं चढ़ी हैं और सारे दांत अपनी जगह पर मौजूद। उनकी टूटी सुर्इ बदलने का सौभाग्य आपको मिला हो तो आप ज़रूर चौंके होंगे उनके मुंह में ग़लती से चली गर्इ अपनी उंगली पर उनके तेज़ दांतों की चुभन से। उनकी आवाज़ में वही अधिकारपूर्ण फटकार है जो अत्यधिक धनी औरतों या मठों के कठोर अनुशासन में कुँआरी रही आर्इ भक्तिनों की आवाज़ में ही पायी जाती है। दोपहरों में सोते से जगा दिये जाने पर उनकी आवाज़ में आर्इ कड़वाहट शाम तक चली जाती है।
गर्मियों में उन्हें खूब चुन्नटों वाले और घेरदार कपड़े पसंद आते हैं, हल्के रंग के और जाड़ों में रंग-बिरंगी छीटें और फूल वाले प्रिंट।
वे मानिनी नायिका की भावमुद्रा में हैं लेकिन एक त्रासद नाटक के आवश्यंभावी दुखांत में उनका मरना निशिचत है।
अधूरी नज़्म
किसी एक उदास शाम
अपने खिलाफ़ तुम्हारे फैसले के लिए हूँ
मुझे खींचकर लाओ मेरे सामने
और मुझे मेरी भाषा की गवाही पर शर्मसार करो
मेरा जवाब मेरे खिलाफ़ जाये
मुझसे कहो कि अपना फैसला लिखूँ अपने खि़लाफ़
और रहम की भीख माँगूं अपने आप से
अपनी मौत की नज़्म नज्र करूँ अपने आपको को
आप ही दाद दूँ आप ही उसकी बहर दुरूस्त करूँ
अपनी फरियाद को अनसुना करके
अपने आप को फांसी दूँ
और अपने मकतल पर रोज़ आकर बैठा रहूँ ख़ामोश.
क्यूं अक्सर
लिखते हुए तुम क्यों लौट आते हो काग़ज पर कलम पर और
अक्सर अपने लिखने पर: जैसे कि इस बार
तुम्हारे पास जंगल नहीं है
न अपने भेडि़ये
न हत्यारे जिन्हें जानते हो न आपना दिल!
तुम्हें तो अत्याचारी और मित्र के चेहरे भी
परेशान कर देते हैं- पहचानने में
जो आवाजे़ तुम्हारे पास थीं जो अक्स थे
तुम्हारें भंगुर हृदय के धसकते तहखाने में
कब का उनकी मौत हो चुकी
तस्वीर तस्वीर होती है- इंसान नहीं
न कोई जिन्दा चीज़
आंसुओं और तलवार का तुम्हारा विवरण
न किसी आंख से आया है न नमक से
यह किसी तफ़सील की तफ़सील है
यह झूठ के सफेद पर्दे को हटाकर विजेता की तरह
मंच पर आया है जो एक विदूषक के हाथों मारा जायेगा
उस दुर्घटना में जिसे नाटककार ने नायक से छुपाकर लिख दिया था.
तुम्हारी यादें दरअसल यादें नहीं है
वे यादों की इच्छाएँ हैं कि यादें होतीं
अपनी इच्छाओं से तो तुम आप ही डरते हो
इस बार तुमने उन्हें कहां छुपाया है कि खु़द भूल गये?
तुम इतने ठोस हो कि कोई खाली जगह भी नहीं हो.
तुम्हारा लिखना गोया खालीपन, भाषा के ठोस आकार के भीतर
और इसमें कोई भी रूपक नहीं है
सपने की शायरी
मेरी स्त्री एक सपने के सिनेमा की ओर मुझे
खींच रही थी जिसका दरवाज़ा उग आया था मेरे
पढ़ने के कमरे के फर्श पर. सिनेमा भी ऐसा ही था
कुछ कि सपनों पर काबू करके दूसरों के इरादे
के मकान बनाने के मुताल्लिक कि वहां अचानक बहने
लगा ख़ून और लोग धीरे धीरे हत्यारों में तब्दील
होने की ओर बढ़ रहे थे किसी लपट में. सबके
सपनों में गोया सच की और यकीन की उलझने थीं.
लोग जाग जाग पड़ते, हम भी यानी मैं और मेरी स्त्री
कि तभी बीच में किसी ने सपने से जाग पड़ने का
सरलार्थ किया- हत्या!
वह सिनेमा की सीट थी जगह जगह से उधड़ी
बचपन के गांव की या मेरी स्त्री का सपना जहां बैठा
था या आप साहिब का कोई ख़्वाब जो यह
लिखता हूँ इस यकीन के साथ के जो जागूंगा
किसी और ही ख़ाब में अब जागूंगा
महेश जी बहुत ख़ूब। आपके जैसे हमसफ़र हैं जिन्हें पढ़कर लगातार अहसास बना रहता कि कविता एक गम्भीर कर्म है। आपकी इन कविताओं में आयी वस्तुएं बिलकुल अनकहा-अनलिखा संसार रचती हैं।
सुन्दर कविताएँ हैं. रोजमर्रा की चीजों और दृश्यों को कविता की विषय वस्तु में बदलना और उनमें नई भाषा भरना दोनों ही उतने सरल काम नहीं हैं जितने इन कविताओं को पढ़ते वक्त महसूस हो रहे होते हैं. दरअसल इस सरल महसूस होते नएपन के पीछे गहरी मेहनत छिपी होती है.
शानदार कविताएं!!
आपकी कविताएं अच्छी कविता पढ़ने की संतुष्टि देती हैं जो कविताओं के मुसलाधार के बीच भी अब दुर्लभ सी हो चली है. आपकी कविताओं के शब्दों में वो जादू है जिनसे छू कर ’नेलकटर’ एक भूखे जंतु में और ’सिलाई मशीने’ मानिनी नायिका की भावमुद्रा में आ जाती हैं और हम उन्हें अपने सामने उनकी जीवंत उपस्थिति में पाते हैं… इन्हें पढने के बाद क्या उनका वैसा ही उदासीन ’प्रयोग’ संभव है????
’अधूरी नज़्म’ तो खैर न भूलने वाली कविता है…..
“अपनी मौत की नज़्म नज्र करूँ अपने आपको को
आप ही दाद दूँ आप ही उसकी बहर दुरूस्त करूँ”
— इन शानदार कविताओं के लिये बधाई.
Mahesh Ki Kavya Bhasha Taza Ann Ki Tarah Dilfareb Hai. Achhi Kaviton K liye Badhai.
Mahesh verma ko padh laga …nahi..abhi nahi padha…abhi padhna h…in kavitaon ke kavi mubarak ki usne or akela kr diya.print me padhne ka aadi hone…v…dheema..sochne ki vajh se screen pr padh…apne ko kosta rahaa…magr..jo bhi rachnaa bhetrcke ujaaad ko ughadti…h…use m kisi nastr ki trh samhaal kr rakhta hu…mahhes ..ki kavitaa se apne ekaant me guftgoo karoonga. Shukriya is mouke ko farahum karane ke liye.
वाह!