आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

आजादी से पहले और बाद – मीडिया और राजनीति: त्रिभुवन

कभी भारत में पत्रकारिता का पेशा एक व्यवसाय था. अब वह व्यापार बन गया है. वह तो साबुन बनाने जैसा है, उससे अधिक कुछ भी नहीं. उसमें कोई नैतिक दायित्व नहीं है. वह स्वयं को जनता को जिम्मेदार सलाहकार नहीं मानता. भारत की पत्रकारिता इस बात को अपना सर्वप्रथम तथा सर्वोपरि कर्तव्य नहीं मानती कि वह तटस्थ भाव से निष्पक्ष समाचार दे. वह सार्वजनिक नीति के उस पक्ष को प्रस्तुत करे, जिसे वह समाज के लिए हितकारी समझे, चाहे कोई कितने भी ऊंचे पद पर हो, उसकी परवाह किए बिना और निर्भीक होकर उन सभी को सीधा करे और लताड़े, जिन्होंने गलत अथवा उजाड़ पंथ का अनुसरण किया है.

उसका तो प्रमुख कर्तव्य हो गया है कि वह नायकत्व को स्वीकार करे और उसकी पूजा करे. उसकी छत्रछाया में समाचार पत्रों का स्थान सनसनी ने और विवेकसम्मत मत का विवेकहीन भावावेश ने ले लिया है. लार्ड सेलिसबरी ने नार्थक्लिप पत्रकारिता के बारे में कहा है कि वह तो कार्यालय-कर्मचारियों का लेखन है. भारतीय पत्रकारिता तो उससे भी दो कदम आगे है. वह तो ऐसा लेखन है, जैसे ढिंढोरचियों ने अपने नायकों का ढिंढोरा पीटा हो. नायक पूजा के प्रचार-प्रसार के लिए कभी भी इतनी नामसझी से देशहित की बलि नहीं चढ़ाई गई है. नायकों के प्रति ऐसी अंधभक्ति कभी देखने में नहीं आई, जैसी कि आज चल रही है. कुछ अपवाद भी हैं, लेकिन वे ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं. उनकी बातों को सदा ही अनसुना कर दिया जाता है.

ऐसा लगता है ये पंक्तियां हमारी आज की पत्रकारिता के बारे में किसी क्षुब्ध व्यक्ति ने कही हैं. लेकिन सच ये है कि ये पंक्तियां उस भाषण से ली गई हैं, जो डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 18 जनवरी 1943 को पूना के गोखले मेमोरियल हॉल में महादेव गोविंद रानाडे के 101वें जयंती समारोह में दिए गए भाषण में बोली थीं. इस भाषण में अंबेडकर ने आजादी से पहले के मीडिया और राजनीति की दुरभिसंधियों और पतनोन्मुखी संस्कृति का खुलकर जिक्र किया है. आज भले टू-जी स्पैक्ट्रम घोटाले में मीडिया के भीतर छद्म प्रतिष्ठा अर्जित कर सेलिब्रिटी बने चेहरों पर दाग-धब्बे  साफ नज़र आ रहे हों, लेकिन इसके बीज तो आजादी से पहले ही पड़ गए थे. पाखंड की बात तो ये है कि जैसे आजादी से पहले नैतिक मूल्यों की वायवीय बातें करके लोगों को आकर्षित किया जाता था, उसी तरह आज भी जब कोई अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ धरना देता है तो मीडिया में भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे चेहरे सबसे पहले उनके चारों तरफ मंडराने लगते हैं.

साफ-सुथरा समाज बनाना और संवैधानिक उद्देश्यों की पूर्ति स्वतंत्र और उत्तरदायित्वपूर्ण मीडिया के बिना कभी संभव नहीं है. आधुनिक लोकतंत्र में स्वतंत्र प्रेस जनमत बनाने का शक्तिशाली माध्यम है. यही वजह है कि इसे चौथा स्तंभ कहा जाता है. आज जब भी कोई राजनेता या वयोवृद्ध पत्रकार मीडिया को लेकर संबोधित करता है तो वह यही कहता है कि आजादी से पहले मीडिया एक मिशन था, लेकिन आज वह व्यापार हो गया है. आज जगह-जगह कहा जाता है कि मीडिया और राजनेताओं की मिलीभगत के कारण अब चुनाव जैसे महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक पर्व के दौरान जनता से जुड़े मुद्दों, राजनीतिक समझ और लोकतांत्रिक विचारों की हत्या हो रही है.

सचमुच लोकतंत्र के लिहाज से यह बहुत दुर्भाग्य से भरा और डर में डूब समय है, क्योंकि राजनीति, मीडिया और समाज के पतन के लेकर चारों तरफ चिंताएं व्याप्त हैं. लेकिन सच तो यह है कि ये सब बोया हुआ काटने का ही नतीजा है. इससे अलग कुछ नहीं. अगर आजादी वाले दौर में मीडिया और राजनीति के रिश्तों की पड़ताल करें तो सारे निर्मम सच उजागर हो जाते हैं. हालांकि पुराने दौर को बहुत आदर्शपूर्ण बताया जाता है, लेकिन तथ्यों को देखें तो यह सोचना मिथ्या अभिमान से ज्यादा कुछ नहीं. आज ज्यादातर लोग इसी विश्वास में गर्क हैं कि अतीत के सामाजिक लोग, राजनेता और पत्रकार बहुत महान थे. और वे सब होते तो सीना तानकर चलने वाले अपराधियों को संरक्षण देने का तो सवाल ही नहीं था, रुपए-पैसे का भी आज जैसा बोलबाला नहीं रहता.

आखिर मीडिया और राजनीति के रिश्तों के बीच लोकतांत्रिक दायित्वों के पतन और उत्थान, द्वंद्व और अंतद्र्वंद्व तथा हर्ष और विषाद से जुड़े इस यथार्थ की पड़ताल तो करनी ही चाहिए. इस सच को जानने के लिए हमें भारतीय राजनीति के प्रमुख विचारक और आंदोलनकारी डॉ. भीमराव अंबेडकर के पास लौटना होगा, जिनके यहां सनद रहे और भविष्य में काम आए वाले अंदाज में कुछ सचाइयां हमारी पीढ़ी के लिए सहेज कर रखी हैं. यह समय है 1943 का, जिस समय देश में आजादी की लड़ाई बहुत गर्वीले दौर में थी. डॉ. अंबेडकर 22 पृथ्वीराज रोड पर रहते थे. उन्हें पूना के गोखले मेमोरियल हॉल में 18 जनवरी 1943 को महादेव गोविंद रानाडे के 101वें जयंती समारोह में मुख्य वक्ता के तौर पर बुलाया गया था. अंबेडकर ने इस भाषण में जो कुछ कहा, वह राजनीति और पत्रकारिता के रिश्तों की ऐसी तस्वीर दिखाता है कि अतीत से आत्मीयता रखने वाले बहुत से लोगों के चेहरे तकलीफ से विकृत हो जाएंगे. लेकिन यह भी सच है कि इस यथार्थ को जाने बिना आज की राजनीति, पत्रकारिता और हमारे अतीत के महान नेताओं का असली चेहरा सामने आ ही नहीं सकता.

अंबेडकर ने आज से 66 साल पहले आजादी के मरजीवड़ों वाले और मिशनरी मीडिया के उस दौर की असलियत बखान करते हुए कहा महात्मा गाँधी और मुहम्मद अली जिन्ना को मीडिया और राजनीति की दुरभिसंधि के लिए जिम्मेदार ठहराया था. अंबेडकर ने कहा : ”समाचार पत्रों की वाहवाही का कवच धारण करके इन दोनों महानुभावों ने प्रभुत्व जमाने की भावना से भारतीय राजनीति को भ्रष्ट बना दिया है. इन दोनों ने अपने प्रभुत्व से अपने आधे अनुयायियों को मूर्ख तथा शेष आधों को पाखंडी बना दिया है. अपनी सर्वोच्चता के दुर्ग को सुदृढ़ करने में उन्होंने बड़े व्यापारिक घरानों तथा धनकुबेरों की सहायता ली है. हमारे देश में पहली बार पैसा संगठित शक्ति के रूप में मैदान में उतरा है.”

संभवत: बहुत से लोगों को डॉ. अंबेडकर की यह टिह्रश्वपणी नागवार गुजरेंगी, क्योंकि उनकी नज़रों में आजादी के दौर का हमारा गौरवशाली अतीत आज से बहुत महान था. लेकिन क्या अंबेडकर के कहे इन शब्दों से उस दौर के मीडिया, समाज और राजनीति की जो तस्वीर उभरती है, वह आज से जरा भी अलग है? आज की राजनीति और पत्रकारिता को लगभग उन्मत्त घोषित करते हुए कई तरह की टिप्पणियां सुनने को मिलती हैं. कहने वाले कहते हैं कि न कहीं आंदोलन की आहट है और न रोशनी की कोई फांक दिखाई देती है. लोगों को लगता है कि चारों तरफ अवसाद के अंधेरे के अलावा कुछ नहीं है. लेकिन 1943 के सामाजिक यथार्थ के बारे में अगर अंबेडकर के इन विचारों को पढ़ेंगे तो शायद हम मीडिया और राजनीति में छाए भ्रष्टाचार की एक झलक पा सकें.

अंबेडकर ने कहा था :

शासन कौन करेगा? पैसा या इनसान? कौन नेतृत्व देगा? पैसा या प्रतिभा? सार्वजनिक पदों पर आसानी कौन होगा? शिक्षित, स्वतंत्र, देशभक्त या पूंजीवान गुटों के सामंती दास? भारतीय राजनीति का हिन्दूवंश अध्यात्म की ओर से उन्मुख होने के बजाय नख से शिख तक अर्थ प्रधान और धन लोलुप हो गया है. यहां तक कि वह भ्रष्टाचार का पर्याय बन गया है. अनेक सुसंस्कृत व्यक्ति इस मलकुंड से कतरा रहे हैं. राजनीति तो असहनीय गंदगी और मल वाले गंदे नाले जैसी हो गई है. राजनीति में भाग लेने और गंदी नाली साफ करने में कोई भेद नहीं रह गया है. (‘रानाडे, गांधी और जिन्ना : बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर संपूर्ण वाड्.मय, पेज : 274)

इससे यह वास्तविकता सामने आ जाती है कि औद्योगिक घरानों के वर्चस्व वाले भारतीय मीडिया ने सरकारों और उस दौर के सबसे शक्तिशाली और प्रमुख नेताओं की मूल नीतियों और उनके गौरवान्वयन का काम 1947 से बहुत पहले शुरू हो चुका था. आज के दौर में नाहक ही कहा जाता है कि भारतीय मीडिया भ्रष्ट हो गया है. सच बात तो यह है कि आज आजादी के बाद भारतीय पत्रकारों ने अपनी खोजी पत्रकारिता के जरिए अपनी शैली, संस्कृति और रचना में बहुत सुधार किए हैं. भले ही व्यक्तिवादी और सनसनीखेज राजनीति को प्रमुखता देकर मुद्दों पर आधारित राजनीति को गौण हैसियत दी है. फलत: जनता में ऐसी व्यक्तिवादी चेतना पैदा हुई है, जिसमें राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जानकारियों का अभाव है. लेकिन आजादी से पहले तो राजनीति बड़े नेताओं के हाथों में बेतुके कामों की होड़ बनकर रह गई थी. और इसका परिणाम यह निकला कि उस समय के नेता महानायक हो गए और आम जनता दलित-दमित ही रही.

अंबेडकर ने गांधी और जिन्ना के नेतृत्व वाली राजनीति को लेकर जो कुछ कहा, वह बहुत चौंकाने वाला और आकर्षक है : इन दो महापुरुषों के हाथों में राजनीति बेतुके कामों की होड़ बनकर रह गई है. यदि गांधी जी को महात्मा गांधी कहा जाता है तो जिन्ना को कायदे-आजम कहा ही जाना चाहिए. यदि गांधी की कांग्रेस है तो जिन्ना की मुस्लिम लीग होनी ही चाहिए. . . .कब उनके बीच कोई समझौता होगा. निकट भविष्य में तो कोई आशा नहीं है. वे केवल अनर्गल शर्तों को लेकर ही भेंट करेंगे. जिन्ना का आग्रह है कि गांधी स्वीकार करें कि वह हिन्दू हैं और गांधी का आग्रह है कि जिन्ना स्वीकार करें कि वह भी एक मुस्लिम नेता हैं. कूटनीतिज्ञता का ऐसा खोखला और दयनीय दीवालियापन तो कभी देखने में नहीं आया, जैसा कि आज भारत के इन दोनों नेताओं के आचरण में दीख रहा है. ये दोनों ही वकील हैं और वकीलों का तो काम ही है कि वह बात-बात पर बहस करें, कुछ भी स्वीकार न करें, और समय का रुख देखकर बात करें. गतिरोध को समाप्त करने के लिए दोनों में से किसी को भी सुझाव दें तो सदा यही उत्तर मिलेगा- ‘नहीं’. उनमें से कोई भी उस समाधान पर पर विचार नहीं करेगा, जो सनातन नहीं है. प्रसिद्ध वाणिज्यिक उक्ति के अनुसार उनके चक्कर में फंसकर राजनीति का दीवाला पिट गया है और कोई भी राजनीतिक लेन-देन नहीं हो सकता.

अंबेडकर ने मीडिया की इस बात के लिए भी आलोचना की कि वह गांधी और जिन्ना की राजनीतिक गतिविधियों की सही रिपोर्टिंग नहीं कर रहा है. गांधी और जिन्ना के बारे में अंबेडकर की विवेचना बड़ी रोचक है. वे कहते हैं : ”आज भारत के क्षितिज पर दो महापुरुष हैं और वे इतने महान हैं कि उन्हें बिना नाम लिए भी पहचाना जा सकता है. ये हैं गांधी और जिन्ना. वे कैसे इतिहास की रचना करेंगे, इसे तो भावी पीढ़ी ही बताएगी. हमारे लिए तो इतना काफी है कि निर्विवाद रूप से वे अखबारों की सुर्खियों पर छाए हुए हैं. उनके हाथों में बागडोर है. एक हिन्दुओं का नेता है, दूसरा मुसलमानों का. . . .सबसे पहले यह बात कौंधती है कि जहां पर उनके विराट अहं भाव का संबंध है, उन जैसे अन्य दो व्यक्तियों को खोज पाना कठिन है. उनके लिए व्यक्तिगत प्रभुत्व ही सब कुछ है और देशहित तो शतरंज की गोट है. उन्होंने भारतीय राजनीति को निजी मलयुद्ध का अखाड़ा बना रखा है. परिणामों की उन्हें कोई परवाह नहीं है. वास्तव में तो उन्हें परिणामों की सुध तभी आती है जब वे घटित हो जाते हैं. या तो वे उनके कारणों को भुला देते हैं या यदि वे उन्हें याद भी रखते हैं तो वे उसकी उपेक्षा कर देते हैं. वे आत्मतुष्टि की ओढऩी ओढ़ लेते हैं और वह उनके सभी पश्चातापों को हर लेती है. वे विलक्षण एकाकीपन के ऊंचे मंच पर खड़े हो जाते हैं. वे अपने बराबरी वालों से ओट खड़ी कर लेते हैं. वे अपने से घटिया लोगों से मेलजोल पसंद करते हैं. . . .

”आलोचना से वे बड़े क्षु_ध और व्यग्र हो जाते हैं. पर चाटुकारों की चाटुकारिता की चाट वे बड़े प्रेम से खाते हैं. दोनों ने एक अदभुत रंगमंच तैयार किया है और वे चीजों को इस ढंग से प्रस्तुत करते हैं कि जहां भी वे जाते हैं, वहां सदा उनकी जय-जयकार होती है. निश्चय ही दोनों सर्वोच्च होने का दावा करते हैं. यदि सर्वोच्चता ही उनका दावा होती तो यह अधिक अचरज की बात नहीं होती. सर्वोच्चता के अलावा दोनों इस बात का दावा करते हैं कि उनसे तो कभी भूल और चूक हो ही नहीं सकती. धर्मपरायण नौवें पोप के शासनकाल में जब अचूकत्व का अहं उफन रहा था तो उन्होंने कहा था कि पोप बनने से पहले मैं पोपीय अचूकत्व में विश्वास रखता था. अब मैं उसे अनुभव करता हूं. यह ठीक ही रवैया इन दो नेताओं का है, जिन्हें विधाता ने अपनी असावधानी के क्षणों में हमारे नेतृत्व के लिए नियुक्त किया है. सर्वोच्चता और अचूकत्व की इस भावना को भारतीय समाचार पत्रों ने हवा दी है, यह तो कहना ही पड़ेगा.”

अंबेडकर ने अतीत को लेकर हमारे दिलों में उतर चुके सूने अंधियारे को कार्लाइल की इस उक्ति से दूर किया कि अगर समाचार पत्र हाथ में हों तो महापुरुषों का उत्पादन बाएं हाथ का खेल है. उन्होंने कहा कि महापुरुष करंसी नोट की तरह होते हैं. करंसी नोटों की तरह वे स्वर्ण के प्रतीक हैं. उनका एक मूल्य होता है. हमें देखना यह है कि वे जाली नोट तो नहीं हैं? कार्लाइल का कहना था कि इतिहास में ऐसे ढेर सारे महापुरुष हुए हैं, जो झूठे और स्वार्थी थे. लेकिन हम सब जानते हैं कि डॉ. अंबेडकर एक ऐसे जाली नोट नहीं थे, जिसे किसी समाचार पत्र या मीडिया ने निर्मित किया हो. वे खरे सिक्के थे और खरी-खरी बातें कहते थे. अंबेडकर उन गिने-चुने लोगों में थे, जिन्होंने गांधी तक को सावधान करने का काम किया. लेकिन क्या हमें समाचार पत्रों या मीडिया से जुड़े लोगों की भी तुलना करंसी नोट से नहीं करनी चाहिए? क्या यह नहीं देखना चाहिए कि कहीं यह जाली नोट तो नहीं है?

लेकिन मीडिया और राजनीति की दुर्भिसंधि की इस त्रासद फंतासी ने देश की लोकतांत्रिक यात्रा के सिर्फ इसी दौर में गुल नहीं खिलाए हैं, वह अतीत में भी ऐसा करती रही है. सच तो ये है कि हम वही काट रहे हैं, जो आजादी के आंदोलन के दौरान और संविधान निर्माण तथा लोकतंत्र के विकास की यात्रा के समय हमने या हमारे पुरखों ने जो बोया. लेकिन अतीत हो या वर्तमान, गलतियां तभी सुधरती हैं, जब लोगों के दिलोदिमाग में इन चीजों का पूरी उद्विग्नता के साथ एहसास हो. लोगों के जिस्म में कोई आंदोलन हो या न हो, कम से कम हमारी आत्माओं में जुंबिश होती रहे. हमारे दिलों का गुस्सा आत्मघाती हिंसा या दयनीय कुंठा के बजाय परिवर्तनकामी आंदोलन की राह बने. हमारा लोकतंत्र तभी समृद्ध और स्वप्निल बनेगा, जब मीडिया और राजनीति के बीच कोई अस्वस्थ दुर्भिसंधि नहीं होगी और दोनों जनता के सच्चे सरोकारों से जुड़े रहेंगे.

आज अगर चारों तरह हिंसा और भ्रष्टाचार का वातावरण है तो इसीलिए कि लोगों के दिलों में असंतोष है और अंसतोष की वजहें ये हैं कि हम उन्हें अनसुना करते रहते हैं. मीडिया को भी इन अनसुनी आवाजों को सुनना होगा. आचरण की भ्रष्टता न तो आज की समस्या है और न ही कल की. यह पूरी मानव जाति और हर युग की समस्या रही है. विचारक और क्रांतिकारी रूसो ने अपनी आत्मकथा द कन्फेशन में एक जगह 1761 में चिंता जताई, आचरण की भ्रष्टता तो आज हर जगह है. सद्चरित्रता और नैतिकता का आज कोई अस्तित्व नहीं रह गया है. लेकिन अगर कोई ऐसी जगह है जहां इन गुणों के लिए आज भी एक तड़प बाकी है तो वह जगह पेरिस ही है. . . .यह जगह दरअसल पेरिस नहीं, हर वह जगह है, जहां हम इनसान रहते हैं. उस जगह का नाम पेरिस भी है, दिल्ली भी, इस्लामाबाद भी, कोलंबो और ढाका भी. वह जगह वॉशिंगटन या लंदन भी हो सकती है. मीडिया को इस तड़प को सुनना होगा. सबसे पहले अपने भीतर और फिर बाहर.

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6 comments
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  1. an excellently written sensitive piece comprising of the reality prevailing within the Indian media. Congrats Tribhuvanji. Warm regards. Dr BK Sharma

  2. Shabas mere yaar ke! Useful peace and excellent and informative. needs to be widely circulated. B.R.poonia

  3. Every working journalist should at least read this piece before making any false claims about the mission of journalism. Thank U, Tribhuvan ji for this insight and thought provoking piece. Keep writing on these issues so that new generation keeps updated about the real and harsh facts. Saadhuvaad.

  4. very very nice, pehli baar dr.ambed ji ke vichaar jane- ab aur bahut kuchch unka likha padne ko ji chahta hai,

  5. त्रिभुवन जी प्रणाम आपने सही समय पैर सच्चाई उजागर करी है जिसकी आज जरुरत खासकर उन युवाओ को जिनको आगे देश में महत्वपूर्ण योगदान देना है इसको अधिक से अधिक प्रचरित करने की जरुरत है आपका आभार

  6. good now we are seeing that type of problems in our media. pad news it also burning issue good tribhuvan ji

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