नागार्जुन और विचारधारा का सवाल: अशोक कुमार पाण्डेय
ये समझना कि वो अस्थिर हैं और उनकी राजनीतिक विचारधारा अस्थिर रही, सही बात नहीं है. मैं तो ये कह सकता हूँ कि बहुत-सी पार्टियों में वामपक्ष भी पार्टियां हैं, उनकी विचारधारा अधिक अस्थिर रही है नागार्जुन की तुलना में. नागार्जुन के विचारों में परिवर्तन होता रहा है. ये बात सही है और हमेशा सही दिशा में परिवर्तन नहीं हुआ है. लेकिन यह बात वामपक्ष की पार्टियों के बारे में भी कही जा सकती है. देखिये, नागार्जुन के साथ ये बहुत बड़ी बात है और ये उन राजनीतिक पार्टियों के साथ नहीं है, वो हमेशा जनता के साथ जुड़े रहे हैं.
रामविलास शर्मा, अंगद तिवारी के साथ एक साक्षात्कार में
( कल के लिए का नागार्जुन अंक-२ , पेज ४०, मार्च-१९९६)
आखिरकार नागार्जुन क्यों विभिन्न वामपंथी दलों में आते-जाते रहे? वामपंथ से आशय एक ऐसे मानवीय विचार से है जिसमें समाज को बदलने की एक बेचैनी हो… सच्चाई यह है कि उनमें भी बदलाव या परिवर्तन की एक बुनियादी बेचैनी है. लेकिन जब वे इस उम्मीद में किसी पार्टी से जुड़ते हैं और कुछ समय बाद उन्हें ऐसा लगता है कि यहाँ भी वही सत्ता के जोड़-तोड़ का खेल है या तो उसी से मिलती-जुलती कोई चीज़ है तो वे उस पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टी में चले जाते हैं और वहाँ भी उन्हें वही बात दिखाई देती है. वहाँ से उनका मोहभंग होता है. आप जिसे अस्थिरता कहते हैं वह उनकी अत्यंत सजग और सच्ची राजनीतिक चेतना है… आप देखेंगे कि अनेक बार मोहभंग के बावजूद वे वामपंथी ही हैं.
मंगलेश डबराल, (कल के लिए का नागार्जुन अंक-१, दिसंबर -१९९५, पेज-१५)
नागार्जुन पर लिखना आसान काम नहीं है. खासतौर पर उनकी विचारधारा पर लिखना. इसके जितने कारण उनके अपने जीवन में लिए गए निर्णयों में है उससे कम कारण हिन्दी के ‘साहित्यिक’ तथा ‘राजनीतिक वाम’ आन्दोलनों के भीतर भी नहीं. आजादी के बाद के जिस दौर में वह सक्रिय थे, वह उम्मीद और संघर्ष के साथ-साथ मोहभंगों का दौर भी था. कम्यूनिस्ट पार्टियों के भीतर और बाहर बहुत कुछ लगातार बदल रहा था, समाजवाद का जो बैनर आजादी के बाद बने संविधान में लहराया गया था उसके ढेरों दाग साफ़ दिखने लगे थे, दुनिया भर में जारी शीतयुद्ध के बीच दोनों ब्लाक्स की साम्राज्यवादी आकांक्षाएँ उभरती दिख रही थीं और देश-दुनिया में नए तरह के आंदोलनों के उभरने के साथ ही हिन्दी में पद-प्रतिष्ठा-पुरस्कार के खेल आहिस्ता-आहिस्ता जड़ें जमा रहे थे. नागार्जुन इस पूरे दौर में सक्रिय थे. १९३८ में बाबा सहजानंद की प्रेरणा से किसान आंदोलन में हिस्सेदारी से लेकर नब्बे के दशक में वी पी सिंह के चुनाव के प्रचार के लिए इलाहाबाद जाने तक के बीच शायद ही कोई ऎसी बड़ी राजनीतिक उथल-पुथल हुई हो जिसमें उन्होंने अपने तरह से भागीदारी न की हो. जहाँ थे, वहाँ सीधे लड़ाई में शामिल हो रहे थे, जहाँ नहीं जा पाए उसे कविता में सेलीब्रेट कर रहे थे, जैसे ‘लाल भवानी प्रगट हुई है, सुना है तिलंगाने में’. इस बीच में उनकी कविता ने तमाम रास्ते तय किये हैं, गिरधर राठी ने ठीक ही लक्षित किया है कि ‘कई बार उन्होंने कविता से अख़बार का काम लिया है’[i]. साथ ही उनके स्टैंड्स में लगातार तब्दीलियाँ दिखाई दी हैं, मार्क्सवाद और समाजवाद को लेकर उनके संशय सामने आये हैं और पुरस्कार आदि के संबंध में उन्होंने तमाम निर्णय लिए हैं. मेरा मानना है कि नागार्जुन की राजनीतिक विचारधारा को परखने का रास्ता इन सबसे गुजरे बिना नहीं मिल सकता. केवल इस आधार पर कि वह कब-कब और किस-किस पार्टी या लेखक संगठन में रहे, या इस आधार पर कि वह खुद को क्या कहते थे, केवल एक सतही निर्णय तक पहुँचा जा सकता है. किसी भी समकालीन या वरिष्ठ साहित्यकार की विचारधारा का मूल्यांकन केवल उसके सांगठनिक जुड़ाव के आधार पर नहीं किया जा सकता. इसके लिए ज़रूरी यह है कि इस बात का परीक्षण किया जाय कि उसके साहित्य में और उसके जीवन में उसके द्वारा लिए गए जो वास्तविक निर्णय और पक्षधरताएं हैं उनका उत्स कहाँ से है और उनकी वास्तविक वर्ग अवस्थिति क्या है?
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नागार्जुन के किसी भी पाठक के सामने जो सबसे स्पष्ट बात है वह यह कि वह मूलतः एक राजनीतिक कवि हैं. और इस ‘मूलतः’ में किसी ‘भूलतः’ के लिए कोई जगह नहीं. और इस राजनीतिक कविता में भी सबसे बड़ा और प्रमुख हिस्सा राजनीतिक सटायर का है. एक सतत विद्रोही तेवर उनकी कविता में लगातार दिखाई देता है. इसीलिए उनकी राजनीतिक कविता उनके एक अन्य समकालीन कवि केदार नाथ अग्रवाल की तुलना में कहीं अधिक समृद्ध और विविध है, तल्ख़ भी. यह तुलना मैंने जान-बूझकर की है. वैसे इसके पहले रामविलास जी तथा अन्य कई आलोचक एकाधिक बार नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन और केदार पर बात करते हुए उन्हें और केदार जी को एक खांचे में रख कर देखते हैं. लेकिन दोनों में जो फर्क है वह बहुत मानीखेज है. केदार ‘केन कूल’ पर बसे बांदा से कदाचित ही बाहर गए और वैसे ही एक बार पार्टी में शामिल हो जाने के बाद पार्टी या लेखक संगठन से भी कभी अधिक दूर नहीं गए. ज़ाहिर है कि उनकी कविताएँ भी बहुत दूर नहीं जातीं. अपनी राजनीतिक कविताओं में वे पार्टी लाइन की काव्यात्मक प्रस्तुति से आगे शायद ही कभी जाते दीखते हैं. एक समय के बाद तो उन्होंने राजनीतिक कविताएँ न के बराबर लिखी हैं. इसीलिए वह जब प्रकृति और परिवार में रमते हैं तो कहीं अधिक आथेन्टिक लगते हैं. शमशेर इस चतुष्टय में इकलौते थे जो बाकायदा कम्यूनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर रहे. बम्बई जाकर कम्यून में रहे. मार्क्सवाद का कायदे से अध्ययन किया और लगातार खुद को मार्क्सिस्ट क्लेम भी करते रहे. लेकिन विचारधारा और संगठन को लेकर उनके भी अपने आत्मसंघर्ष थे. उनके ये संघर्ष कविताओं के भीतर अपने तरीके से प्रकट हुए. अपनी तमाम राजनीतिक कविताओं के बावजूद वे उस तरह के राजनीतिक कवि नहीं हैं जैसे नागार्जुन. नागार्जुन की राजनीतिक कविताएँ इसके विपरीत बहुत बड़ा कैनवास घेरती हैं. वह बार-बार पार्टियों की लाइन का अतिक्रमण करते हैं. संगठन में रहते हुए भी संगठन का अतिक्रमण करते हैं. मनोहर श्याम जोशी से अपनी बातचीत में वह स्वीकारते भी हैं ‘हम संगठन के विरुद्ध नहीं हैं, लेकिन संगठन के साथ होने का मतलब अगर यह हो कि हम अपने विवेक के शत्रु हो जाएँ तो हमें स्वीकार नहीं. हम सर्वहारा के साथ हैं, अपनी राजनीति में, अपने साहित्य में, किन्तु हमें इस विषय में किसी की लगायी कोई क़ैद मंजूर नहीं है’[ii].
उनकी यह आजादी की चाह उन्हें एक खास तरह की अराजकता की ओर भी ले जाती है, ऐसा तब और जबकि मार्क्सवाद का उन्होंने कभी बहुत विधिवत या गहन अध्ययन नहीं किया था. हिन्दी के ‘साहित्यिक वाम’ के अधिकाँश सदस्यों की तरह वह भी शोषित-पीड़ित जन के प्रति अपनी स्वाभाविक संवेदना के मनोगत आधार पर वामपक्ष के साथ खड़े हुए थे. पूर्वोद्धरित साक्षात्कार में रामविलास शर्मा ने ठीक ही लक्ष्य किया है कि ‘नागार्जुन में कुछ खामियां हैं, अध्ययन की और जानकारी की, जिसकी वज़ह से वो प्रतिक्रियाओं में कहीं-कहीं गडबडा जाते हैं.’ लेकिन इसके साथ ही एक दूसरा लेकिन उतना ही ज़रूरी तथ्य और है. नागार्जुन हिन्दी के ‘साहित्यिक वाम’ की बहुसंख्या से बिल्कुल उलट जनता से सबसे अधिक संबद्ध और आबद्ध कवि हैं. न केवल वह लोकजीवन से गहरे जुड़े हैं, बल्कि बिल्कुल असली ज़मीन पर चलने वाले राजनीतिक-सामाजिक जालसाजियों-छल-प्रपंचों को बखूबी जानते हैं. यह ‘जानना’ भी केवल प्रेक्षक का जानना नहीं, बल्कि एक ‘भागीदार’ का जानना है, एक भुक्तभोगी का जानना है. साथ ही यह ‘जानना’ जनता के प्रतिरोध में शामिल एक कवि का भी ‘जानना’ है. नागार्जुन हिन्दी के शायद पहले कवि हैं जो जनसंघर्षों के प्रत्यक्ष भागीदार हैं. ‘प्रगतिशील’ और ‘जनपक्षधर’ कवियों की जमात में लगभग अकेले कवि जो सभाओं, समारोहों और रस्मी विरोधों से आगे जाकर जन संघर्षों में सीधी भागीदारी करता था. केदार हों, शमशेर हों, मुक्तिबोध हों, इन सबके संघर्ष कविता के भीतर ही फलित होते थे. नागार्जुन का संघर्ष सड़कों से जेलों तक घटित और फलित होता था. इसीलिए उनकी भाषा, उनका कहन और उनका शिल्प अपने समकालीनों से बिल्कुल अलग है. राजनीतिक व्यवहार भी. वह एक्शन में हिस्सा लेते हैं तो गलत भी साबित होते हैं, जो सिर्फ कविताओं में हिस्सेदारी करते हैं उनके लिए पोलिटिकल करेक्ट होना ज़्यादा आसान होता है. उनके सामने यह सवाल ही नहीं उठता कि ‘जनता मुझसे पूछ रही है क्या बतलाऊं/ जनकवि हूँ मैं क्यूँ हकलाऊं?’ लेकिन नागार्जुन के सामने यह सवाल सतत उपस्थित था. यही सवाल उनकी कविताओं का शिल्प भी रचता है, उनकी भाषा भी गढता है और जीवन में उनकी पक्षधरता भी तय करता है. इसीलिए जहाँ मुक्तिबोध या शमशेर की भाषा पूरी तरह से नगरीय और इलीट है और शिल्प काफी उलझा और सघन, केदार की कविता, खासतौर पर राजनीतिक कविता, काफी हद तक कास्मेटिक है, अज्ञेय की पीड़ा (भाषा तो खैर छोड़ ही दीजिए) ‘असाध्य वीणा’ को साध लेने भर की है, नागार्जुन की भाषा संस्कृत से लेकर मैथिली तक से अपने प्राणतत्व प्राप्त करती हुई बेहद सजीव और आमफहम है, उनका शिल्प राजनीतिक व्यंग्य के लिए सबसे सटीक और सबसे आसान ताल कहरवा में घटित होता है, और उनकी पीड़ा अपने समकालीनों से यह पूछने में अभिव्यक्त होती है कि भईया कहीं आपको भीड़ भरी ट्राम में ठुंसे मज़दूरों की देह से घिन तो नहीं आती? ज़ाहिर तौर पर मेरा आशय कम से कम मुक्तिबोध या शमशेर की किसी अवज्ञा का नहीं. उनकी कविता एक दूसरे संस्तर पर घटित होती है, बौद्धिक बहस में एक बड़ी भूमिका निभाती है और इस रूप में वाम का एक मज़बूत वैचारिक आधार तैयार करती है, लेकिन नागार्जुन की कविता अपनी मूल प्रवृति में सामान पक्षधरताओं के बावजूद एक आंदोलनधर्मी कविता है जिसका मकसद सीधे जनता से संवाद करना है. इस रूप में वह विशिष्ट है और इसीलिए उसके मूल्यांकन की पद्धति भी अलग होगी ही. इसे सिर्फ कमतर या बेहतर कविता कह कर खत्म नहीं किया जा सकता.
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उनके कई सारे स्टैंड जो उस समय राजनीतिक दलों से अलग थे वे बाद में सही साबित हुए. लेकिन सारे नहीं. जनता के प्रति जवाबदेही के साथ-साथ एक खास तरह की बेचैनी और जल्दबाजी भी उनमें खूब थी. सत्ता के प्रति एक सतत आलोचनात्मक रुख और आन्दोलनों को लेकर एक मोहावेश जैसी स्थिति. और फिर यह आंदोलन अगर सशस्त्र हो तो कहना ही क्या? तेलंगाना के आंदोलन को सुनकर अगर वह ‘लाल भवानी के प्रकट होने’ पर उत्तेजित थे तो भोजपुर की आग की गंध तो वह साक्षात सूंघ रहे थे. इस गंध के बिना तो उनका जीवन अकारथ है. — ‘यही धूंआ मैं ढूंढ रहा था/ यही आग मैं ढूंढ रहा था/ यही गंध मुझे चाहिए … बारूदी छर्रे की खुशबू, ठहरो/ ठहरो इन नथुनों में इसको भर लूँ/ महायुक्ति की अग्निगंध / ठहरो ठहरो इन नथुनों में इसे भर लूँ/ अपना जनम सकारथ कर लूँ.’ इसमें एक खास तरह की अतिवादिता भी है, जो इन आन्दोलनों की वैचारिक समझ से उतनी नहीं उपजी जितनी कि सत्ता से उनकी घृणा से. लेकिन इन सबके बीच जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है सत्ता के प्रति उनका रुख, वह हर परिस्थिति में आलोचनात्मक ही है. इसे उनकी भागीदारियों में भी देखा जा सकता है और ‘विचलनों’ में भी. इसकी सबसे बड़ी अभिव्यक्ति जे पी आंदोलन में उनकी भागीदारी के रूप में हुई.
सम्पूर्ण क्रान्ति के दौर में वह हमेशा की तरह सक्रिय हुए. बाकायदा पटना की सड़कों पर आंदोलन किया. कविता लिखी – ‘इंदु जी, इंदु जी क्या हुआ आपको/ सत्ता के मद में भूल गयीं बाप को/ छात्रों के खून का चस्का लगा आपको’. यहाँ तक कि एक और कविता उनके नाम से उद्धरित की जाती रही – ‘होंगे दक्षिण/होंगे वाम/ जनता को रोटी से काम’, खगेन्द्र ठाकुर ने बाकायदा इसे उद्धरित किया है और यह भी कि जब नागार्जुन से पूछा गया कि क्या यह उनकी कविता है तो वह चुप्पी साध गए.[iii] खैर उस आंदोलन में आपातकाल लागू होने के पहले ही वह गिरफ्तार हुए और काफी दिनों तक जेल में रहे. फिर माफी मांग के जेल से बाहर आये. और तर्क दिया कि जेल में कुछ और दिन रहते तो मर जाते.[iv] फिर बाहर आकर जो कविताएँ लिखीं वे सब ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के खिलाफ. जिस आंदोलन को वह अभी कुछ दिन पहले पटना की सड़कों पर नया इन्कलाब बताते हुए सी पी आई का विरोध कर रहे थे, ‘जयप्रकाश को पड़ी लाठियां लोकतंत्र की’ लिख रहे थे, अब वह उसे ‘खिचडी विप्लव’ बता रहे थे (बाद में तो एक संकलन ही इसी नाम से छपा). उस आंदोलन को ‘भडुए और रंडियों की गली’ बता रहे थे..और जिस साक्षात्कार में यह सब कहा गया उसे सी पी आई की पत्रिका में छपवा रहे थे. पूर्वोद्धरित लेख में खगेन्द्र ठाकुर ने लिखा है कि जब जयप्रकाश ने यह पढ़ा तो कहा ‘नागार्जुन से तो ऎसी ही उम्मीद थी’! यह भी नागार्जुन का एक पक्ष है. कहना मुश्किल है कि वह जेल की मुश्किलात से डर गए थे या फिर ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ की वर्गीय पक्षधरता और उसके पीछे के आर एस एस के खेल को पहचान गए थे और आत्मालोचन कर पार्टी की शरण में लौट आये थे.
आज अन्ना आंदोलन में जिस तरह साहित्यकारों का एक तबका ‘जनता सड़क पर है और हम उसके खिलाफ नहीं हो सकते’ के नारे के साथ समर्थन जता रहा है ( हालांकि हमेशा की तरह यह समर्थन बस रस्मी है, विरोध भी, इसकी तुलना नागार्जुन के सड़क पर विरोध और जेल जाने से करनी सही नहीं होगी, फिर भी) नागार्जुन का भी सम्पूर्ण क्रान्ति को समर्थन उसी तरह की जनभावनाओं तथा कांग्रेस की सरकार के प्रति अपनी असीम घृणा के दबाव में लिया हुआ निर्णय था. इसके पीछे किसी तरह की गहरी राजनीतिक समझदारी के आधार पर उस आंदोलन के वर्ग चरित्र की पहचान की जगह एक लोकरंजक और भावनात्मक आधार अधिक था. और यह न तो जे पी के आंदोलन में शुरू हुआ था, न ही वहाँ खत्म हुआ.
चीन युद्ध के समय भी उन्होंने चीन को गालियाँ देते हुए कविताएँ लिखीं. फिर दो सालों के भीतर ही लिखा – ‘रूस का तो बदन लाल है/ पर चीन का कलेजा लाल है.’ उत्तर प्रदेश में जब बोफर्स घटनाक्रम के बाद वी पी सिंह जनमोर्चे से इलाहाबाद में चुनाव लड़ रहे थे तो उनके प्रचार के लिए वह इलाहाबाद पहुँच गए. फिर उत्तर प्रदेश में बसपा के उभार के समय उसके समर्थन में भी कविता लिखी. इंदिरा गाँधी के प्रति वह सबसे अधिक कटु रहे. उनके प्रधानमंत्री बनने पर नागार्जुन ने जो कमेन्ट किया था कि ‘ल्लो गुलाब गया तो गुलबिया आ गयी’ वह तो खैर उनके घोर प्रशंसकों को भी बुरा लगा था, लेकिन आपातकाल के दौरान इंदिरा के घोर विरोधी होने के बाद जनता शासन को अपदस्थ कर पुनः सत्ता में आईं इंदिरा गाँधी से उन्होंने १९ मई १९८३ को उत्तर प्रदेश हिन्दी साहित्य संस्थान का (जी हाँ यह उन दिनों की बात है जब यह पुरस्कार प्रधानमंत्री प्रदान करते थे, साहित्यकारों को इस वज़ह से पुरस्कार वापस नहीं करने पड़ते थे कि कहीं उन्हें एक जूनियर मंत्री द्वारा निपटा दिए जाने का अपमान न झेलना पड़े) १५ हज़ार रुपयों का पुरस्कार बेहिचक ले लिया था. फिर सवाल किये जाने पर कहा था कि ‘यह बुरा तब है कि मैं पुरस्कार लेकर चारण बन जाऊं…अगर देखा जाय तो यह जनता के, जन संघर्षों के दबाव में ही मुझे पुरस्कृत किया गया है.’ यहाँ यह उद्धरित कर देना विषयान्तर न होगा कि ‘जनता के पैसे’ वाले तर्क के साथ ही एक और जनपक्षधर रचनाकार हरिशंकर परसाई ने भी इसी दौर में सरकारी पुरस्कार स्वीकार किया था और इन दोनों घटनाओं ने भविष्य में शासक वर्ग से उपकृत होने वाले तमाम साहित्यकारों की शर्म का शमन करने के लिए तर्क उपलब्ध कराये…नागार्जुन या परसाई भले इन पुरस्कारों के बावजूद चारण नहीं बने लेकिन सबके लिए यह संभव न था. खैर, इसके पहले भी सम्पूर्ण क्रान्ति का पहले समर्थन और फिर विरोध कर चुके नागार्जुन कांग्रेस को अपदस्थ कर सत्ता में आई बिहार की जनता सरकार से मासिक वृत्ति बाकायदा ‘कोशिश’ कर प्राप्त कर चुके थे.
नागार्जुन के ये आर्थिक समझौते कई बार अचरज में डालते हैं, संशय पैदा करते हैं. लेकिन अगर गौर से देखिये तो पूरी तरह मसिजीवी हिन्दी के कवियों की अंतिम पीढ़ी के नागार्जुन के लिए शातिर प्रकाशकों और पत्रं-पुष्पं वाले लघु पत्रिका के माहौल में ये समझौते कई बार मज़बूरी भी होते ही होंगे. उनके अन्य समकालीन, खासतौर पर मुक्तिबोध और शमशेर को इन आर्थिक संकटों से जूझे ही. मुक्तिबोध जिस तरह रोज़गार की तलाश में भटकते हुए कम उम्र में काल-कवलित हुए वह भयावह था. शमशेर को भी अगर अंतिम समय में रंजना अरगड़े ने ठिकाना न दिया होता तो न जाने क्या होता. नागार्जुन इन सब की तुलना में अधिक व्यवहारिक थे. जनता के बीच रहते हुए वे ज़िंदगी में भी उतनी राजनीति जानते थे. लेकिन यह छल-प्रपंच नहीं था. यह अपने लक्ष्य या अपनी कविता के साथ गद्दारी नहीं थी. इसकी तुलना पद-प्रतिष्ठा-पुरस्कार की अंधी दौड़ में लगे लोगों से नहीं की जा सकती. इतने मकबूल होने के बावजूद वह कभी हिन्दी के सत्ता प्रतिष्ठान के हिस्सेदार नहीं हुए. इन पुरस्कारों या वृत्तियों के बावजूद सत्ता के प्रति उनकी आलोचनात्मक दृष्टि कहीं खंडित होती नज़र नहीं आती. इन तमाम ‘विचलनों’ के बावजूद उनकी दिशा बिल्कुल स्पष्ट है और वह है एक बेहतर समाज के लिए संघर्ष की ओर. अब इस रोड मैप की पहचान में अगर वह कई बार भटकते हैं तो यह भटकना सहज स्वाभाविक है – जो ‘यात्री’ होगा वही भटकेगा, कन्फर्म टिकटों वाला ‘पर्यटक’ तो सीधी रेखा में जाकर लौट आएगा.
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मुझे लगता है कि नागार्जुन के इन ‘विचलनों’, इन स्वतःस्फूर्त निर्णयों, इन समझौतों और पार्टियों के प्रति उनके रवैये से कवि, पार्टी, विचारधारा और प्रतिबद्धता के अंतर्संबंध को समझने के लिए कुछ बेहद ज़रूरी सूत्र मिलते हैं.
एक लेखक/कवि की प्रतिबद्धता एक पार्टी कार्यकर्ता से अलग होती है. वह पार्टियों की मशीनरी का उस तरह से हिस्सा नहीं हो सकता (सवाल तो यह भी है कि क्या कार्यकर्ता को भी इस मशीनरी का ‘उस’ तरह से अन्धानुगामी हिस्सा होना चाहिए, पर उस पर चर्चा फिर कहीं, फिर कभी). उसमें अपना एक तार्किक विवेक होना चाहिए कि अगर किसी मुद्दे पर उसे पार्टी का सामूहिक विवेक जनता की सामूहिक आकाँक्षा के विपरीत लगता है तो वह इसके खिलाफ स्टैंड ले सके. लेकिन इसके लिए भी दो ज़रूरतें हैं, पहली तो यह कि उसकी जनता से वैसी संबद्धता हो, जिसे ग्राम्शी ‘जैविक’ कहते हैं. उसके लिए कविता कमरों में लिखकर समारोहों में पढ दी जाने वाली चीज़ भर न हो. यह संबद्धता ही उसमें वह जवाबदारी भी पैदा करेगी जो इन सवालों से टकराने को बाध्य करेगी और उस आत्मविश्वास के लिए आधार भी प्रदान करेगी जो इस टकराने के लिए ज़रूरी उर्जा दे सके. दूसरी ज़रूरत उस कवि के पास एक गहन और गंभीर राजनीतिक समझदारी की है जिससे वह घटनाओं और आन्दोलनों के वर्गीय आधारों की सटीक पहचान कर सके. इनमें से किसी एक का अभाव एक सच्चे जनकवि की राह का बड़ा रोड़ा है. जहाँ तक मेरा सवाल है मैं इन दोनों में भी पहली शर्त को अधिक महत्वपूर्ण मानूंगा. समझ संघर्ष के साथ हासिल की जा सकती है लेकिन अपने सुरक्षित ठिकानों पर अनंत काल तक समझ विकसित करते रहने पर भी संघर्ष का ‘स’ भी अपनेआप हासिल नहीं होगा.
दूसरी बात यह कि वास्तविक जीवन में चुनाव के अवसरों के समय उसका व्यवहार उसकी असली प्रतिबद्धता का निर्णायक है. एक तरफ सत्ता के विरोध की कविता और दूसरी तरफ साहित्य की सत्ता के प्रति अगाध लोलुपता ‘जनपक्षधरता’ के उसी नकली और लिजलिजे संस्करण को जन्म दे सकती है जिसे हम हिन्दी में आज हर तरफ पाँव पसारते देख रहे हैं. लेखक संगठनों को जिस तरह हमने सत्ता के सांस्कृतिक उद्घोषकों के रूप में देखा है, वह इसी आकाँक्षा से उपजा है. ऐसे में इन लेखक संगठनों से जुड़ाव या फिर अपने कन्धों पर लाल फीते लगाने भर से जनकवि का दर्ज़ा पाने को लालायित कवियों की जमात साहित्य के इतिहास में भले दर्ज हो जाए लेकिन जनता के सामूहिक विवेक के निर्माण में इनकी कोई भूमिका नहीं हो सकती.
तीसरी और फिलहाल आखिरी बात. हिन्दी के अंतहीन भक्तिकाल के माहौल में नागार्जुन को ‘वामपंथी कवि’ बताकर इतिश्री कर लेना भी अपने तमाम (कु) कृत्यों पर पर्दा डालकर उनकी परम्परा में शामिल हो जाने की कुटिल राजनीति हो सकती है. समारोहों और रस्मी प्रतिरोध के इस दौर में नागार्जुन की परम्परा में होने का अर्थ सीधे सड़क पर होना है, जनांदोलनों में होना है. नागार्जुन के लिए वामपंथ कोई किताबी या समारोही चीज़ नहीं थी. वह सतत परिवर्तन के लिए संघर्ष में भागीदारी थी. वह प्रतिरोध के सबसे मुखर कवि थे, इसलिए उनका पथ ‘वाम’ ही हो सकता था, इसे आप ऐसे नहीं कह सकते कि वह ‘वामपक्षी’ थे इसलिए उनकी कविता में ‘प्रतिरोध’ होना ही था.
बहुत अच्छा लिखा आपने अशोक जी ।आपको और प्रतिलिपि को बधाई ।आपने उन परिस्थितियों का ढ़ंग से अध्ययन किया है जो न केवल विचारधारा ,पुरस्कार और सरकार की फांस को बल्कि जीवन ,जनता और कविता के अंर्तसम्बन्धों को भी स्पष्ट करते हैं ।केदार नाथ सिंह ने अपने किताब ‘ मेरे समय के शब्द’ में नागार्जुन की राजनीतिक कविता की बहुस्तरीयता को खोली है, आपने एक दूसरी और जरूरी पक्ष पर लिखा है ,आपको फिर से बधाई
ashok g dhanwad.nagarjun ki janmshati ke samroho or is awasar par likhe gaye lekho me tamam patrikao ne jo nishpakshta nahi dikhai usake darshan huye.
अशोक भाई! बहुत तथ्य और समझपरक आकलन-विवेचन किया है। यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ी आलेख है जिसे पढकर नागार्जुन की विचारधारा को लेकर फ़ैलायी गयी कई भ्रांतियां दूर होगी, मेरा ऎसा विश्वास है। आपने बिल्कुल सही कहा है कि’ नागार्जुन की राजनीतिक विचारधारा को परखने का रास्ता इन सबसे गुजरे बिना नहीं मिल सकता’
अच्छा लिखा है. कई बार लगता है, और इस लेख को पढ़ कर तो और भी ज़्यादा कि नागार्जुन के यहां ‘ विचार’ और ‘विचारधारा’ के बीच का फ़र्क़ और अधिक ध्यान दिया जाने वाला पक्ष है. विचारधारा अधिक सुसंगत और सापेक्षतया अधिक टिकाऊ चीज़ है. तसल्ली से, ठीक-ठीक विश्लेषण किया है, नागार्जुन के “आवागमन” का (मैं भी उसे ‘विचलन’ इसलिए नहीं मानता कि वह विचारधारा से उस तरह जुड़े ही नहीं थे जैसे अन्य कवि जिनकी चर्चा तुमने की है). वह ‘तात्कालिक विचार’ से अधिक प्रतिबद्ध होते चले जाने के कारण ” जनता” के साथ तो जुड़े रहे, पर विचारधारा के एक बिंदु पर टिके नहीं रह सके. नागार्जुन होने के असल मायने भी कदाचित यहीं कहीं देखे भी जा सकते हैं. मुझे लगता है, केदार के मूल्यांकन के संदर्भ में “कॉस्मेटिक’ विशेषण का प्रयोग उनके साथ ‘ज्यादती’ भी है, और अति-सरलीकरण भी. जो भी हो, इतना बेबाक़ लिखने के लिए बधाई.
वाम दक्छिन के बकवास में क्या परना .मनुष्य से उनका सरोकार था
राजनीती बिल्ली की तरह रास्ता कटती थी तब लोगों के साथ विकल्प तलासते थे
संग्रहणीय !
जो ‘यात्री’ होगा वही भटकेगा, कन्फर्म टिकटों वाला ‘पर्यटक’ तो सीधी रेखा में जाकर लौट आएगा….तार्किकता के साथ बेहतरीन विश्लेषण .
आपने बैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’/ नागार्जुन पर काफी विचार कर लिखा है. मैं मिथिला मका हूँ -पिछले साल उनके गजर भी गया था- अंग्नेमे तुलसी चौडा है इससे आप समझ सकते हैं की व क्या थे? मिथिला में गरीबी है – जीवन में समझौता अनेक बार करना पड़ता है – मैं उनसे एक बार मिला था जब RSS के NMO के सचिव ने १९८५ में अपना रक्तदान कर उन्हें बचाया था – मिथिला का प्रायः हर आदमी अध्यात्मिक है और गरीबी के कारण साम्यवादी लगता है- मैं उसे ‘आध्यत्मिक मार्क्सवाद’ कहता हूँ -काश १९७५ से सोची मैं अपनी इस थ्योरी को विस्तार कर पाता – यात्री वही थे …हर यात्री वही होगा …वैसे सच्चा अध्यात्मवाद मार्क्सवाद पर नहीं अध्यात्मवाद पर ही अंत हो जाएगा जबकि मार्क्सवाद का अंत मेरे विचार से पूंजीवाद में होता है जैसा रूस में हुआ , चीन में हो रहा है (और भारतीय समाजवाद का जातिवाद में जैसा कर्पूरी. लालू,मुलायम आदि का हुवा )