आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

वॉन ट्रिअर और सिनेमा: अभय तिवारी

तकनीक, निर्देशक और दर्शक की आज़ादी

लार्स वॉन ट्रिअर कहते हैं, “मेरी फ़िल्मे आदर्शों के बारे में हैं जो दुनिया से जा टकराते हैं. जब भी मुख्य भूमिका पुरुष की होती है, वो आदर्श भुला बैठते हैं. और जब भी एक स्त्री मुख्य भूमिका निभाती है तो वो आदर्शों को अपने अन्तिम परिणति तक ले कर जाती है.” इस उत्तरआधुनिक समय में एक नए लक्षण का उदय हुआ है. रचनाकार स्वयं अपना आलोचक और समीक्षक भी होने लगा है. वह रचना करता है और फिर यह भी बताता है कि उसकी रचना को कैसे देखा जाय, कैसे पढ़ा जाय और उसने कहाँ, कौन सा तत्व, कैसे और क्यों गढ़ा है और उसका कैसे अर्थ किया जाय. लार्स वॉन ट्रिअर भी इससे मुक्त नहीं है. अपने काम के बारे में लार्स वॉन ट्रिअर का अपना नज़रिया हो सकता है मगर कोई ज़रूरी नहीं कि उससे सहमत हुआ ही जाय.

लार्स वॉन ट्रिअर की फ़िल्मों की दो विशेषताएं हैं. एक तो यह कि वे प्रचण्ड रूप से भावनाप्रधान होती हैं और दूसरे उनमें तकनीक के स्तर पर नए और अनोखे प्रयोग होते हैं. इसी अनूठे मेल के चलते वॉन ट्रिअर विश्व सिनेमा के लाडले फ़िल्मकार बने हुए हैं. उनकी फ़िल्म देखकर निरपेक्ष बने रहना मुश्किल है. फ़िल्म देखने के बाद लोग अक्सर उनके प्रबल पक्षधर या विरोधी बन जाते हैं. यह उनके सिनेमा की ताक़त है. इस लेख में मैं उनके सिनेमा के भावनात्मक पहलू को मोटे तौर पर नज़रअन्दाज़ करते हुए उनकी तकनीक पर चर्चा करूँगा.

***

वॉन ट्रिअर के जीवन का एक बड़ा ही महत्वपूर्ण साल १९९५ का है जब पैरिस में सिनेमा के सौ साल का उत्सव मनाने के लिए एक कौन्फ़्रेन्स में सिनेमा के भविष्य पर बोलने के लिए उनका नाम पुकारा गया तो लार्स वॉन ट्रिअर उठे और उन्होने सभागार में बैठी जनता पर किसी जोशीले क्रांतिकारी की तरह लाल पर्चों की एक बरसात कर दी. इन लाल पर्चों पर एक ‘शुद्धता की शपथ’ ली गई थी और जिसे उन्होने ‘डॉग्मा ९५’ का नाम दिया था. इस घोषणापत्र के दस बिन्दु थे, जो मोटे तौर पर इस प्रकार हैं-

१. शूटिंग लोकेशन पर की जानी चाहिये. न सेट लगाना चाहिये और न ही बाहर से कोई साज़ोसामान लाना चाहिये. अगर किसी ख़ास सामान की ज़रूरत हो तो वहीं शूटिंग करनी चाहिये जहाँ पर सामान मौजूद है.

२. ध्वनि और छवि, दोनों को एक साथ ही रेकार्ड करना चाहिये, अलग-अलग कभी नहीं. संगीत अगर इस्तेमाल करना है तो उसका उद्गम सीन के अन्दर से होना चाहिये.

३. कैमरा हैण्डहेल्ड होना चाहिये.

४. फ़िल्म रंगीन होनी चाहिये. विशेष प्रकाश व्यवस्था स्वीकार्य नहीं होगी. अगर रौशनी कम है तो कैमरे के ऊपर एक अकेला बल्ब लगाकर शूटिंग करनी चाहिये.

५. औप्टिकल ईफ़ेक्ट्स और फ़िल्टर्स इस्तेमाल नहीं किए जा सकते.

६. फ़िल्म में हथियार और हत्या आदि बनावटी कार्यव्यापार नहीं हो सकते.

७. दिक्काल की सीमाओं को नहीं तोड़ा जा सकता यानी फ़िल्म ‘अभी और यहाँ’ में ही शूट की जा सकती है. भूतकाल और भविष्य की फ़िल्में नहीं बनाई जा सकतीं.

८. ‘ज़ान्र’ फ़िल्में अस्वीकार्य होंगी.

९. सभी फ़िल्में ऐकडमी ९५ के फ़ौरमेट पर ही शूट होंगी.

१०. निर्देशक का नाम नहीं जाएगा.

डॉग्मा के इन बन्धनों के पीछे मूल विचार हॉलीवुड के लगातार मँहगे होते जाते फ़िल्म निर्माण के प्रतिमानों को चुनौती देना और फ़िल्म को अधिक से अधिक ‘जीवन’ के क़रीब लेकर जाना था. उनकी उम्मीद थी कि इस तरह कहानी और अभिनेता पर ध्यान केन्द्रित करके फ़िल्मकार दर्शक को ज़्यादा अपनी तरफ़ खींच पाएगा.

यह घोषणापत्र बहुत कुछ साठ के दशक के आन्दोलन सिनेमा वेरिते (सच का सिनेमा) के नक़्शे क़दम पर है मगर एक बुनियादी फ़र्क़ यह है कि जहाँ सिनेमा वेरिते वास्तविक लोगों की वास्तविक घटनाओं का चित्रण होता था, वहीं डॉग्मा ९५ सिनेमा वेरिते के कपड़े पहन कर काल्पनिक कथाओं के नाटकीय मंचन की प्रस्तावना हैं. ज़ाँ लुक गोदार की पहली फ़िल्म ‘अ बू द सूफ़्ल’ सिनेमा वेरिते के एक महानायक ज़ाँ रूश की एक फ़िल्म ‘म्वा उन न्वाह’ (मैं एक काला) से इतनी मिलती जुलती है कि ‘अ बू द सूफ़्ल’ को ‘म्वा उन ब्लाँ’ (मैं एक गोरा) कहा जा सकता है. मगर दो बुनियादी फ़र्क़ उनमें भी है. गोदार की फ़िल्म अभिनेताओं के द्वारा मंचित की गई; और भले ही उन्होने किसी छपी हुई स्क्रिप्ट का इस्तेमाल नहीं किया और फ़िल्म शूट करने के दौरान ही कथानक को विकसित करते रहे, यह बात नहीं भूलनी चाहिये कि कथानक के अहम फ़ैसले लेने वाले व्यक्ति स्वयं गोदार थे. जबकि असली सिनेमा वेरिते की फ़िल्म रूश की ‘म्वा उन न्वाह’ वास्तविक लोगों की कहानी है और जिसका कथानक किस दिशा में जाएगा और क्या मोड़ लेगा यह फ़ैसला रूश नहीं, फ़िल्म के परदे पर दिखने वाले वास्तविक लोग स्वयं कर रहे थे. तो अगर रूश अपनी फ़िल्म में निर्देशक का नाम न दें तो समझ में आता है; हालांकि वो देते हैं. मगर जब डॉग्मा के निर्देशक सारे फ़ैसले करने के बाद भी अपना नाम न दें तो यह शुद्ध पाखण्ड लगता है.

इसके अलावा एक और बुनियादी फ़र्क़ यह भी है कि सिनेमा वेरिते की फ़िल्मों का सम्पादन अक्सर बहुत तरल नहीं हो पाता था क्योंकि उसका सिनेमाई दिक्काल वास्तविक दिक्काल के अधीन था. जबकि यथार्थवादी काल्पनिक फ़िल्मों में मामला उलटा होता है. वास्तविक दिक्काल काल्पनिक दिक्काल के अधीन रखकर फ़िल्म का निर्माण किया जाता है. उसके चलते फ़िल्मकार के पास यह सुविधा होती है कि वह अपने सम्पादन को अपने दर्शक के लिए अधिक से अधिक तरल बना सके. चाहते तो सिनेमा वेरिते के फ़िल्मकार भी यही थे मगर अपनी सीमाओं के चलते मजबूर थे. दिलचस्प बात यह है कि डॉग्मा के सिद्धान्तकार वॉन ट्रिअर एक तरल सम्पादन कर सकने की सारी सुविधाओं और क्षमताओं के मालिक होने के बावजूद जम्पकट्स की ऊबड़खाबड़ता का चुनाव करते हैं.

***

स घोषणापत्र के एक साल बाद आई फ़िल्म ब्रेकिंग द वेव्स के निर्माण में लार्स वॉन ट्रिअर १९९१ से ही लगे हुए थे. हालांकि ब्रेकिंग द वेव्स डॉग्मा के अधिकतर बन्धनों से आज़ादी लेती है मगर फिर भी वह फ़िल्म वॉन ट्रिअर की पहले की फ़िल्मों से निहायत जुदा है और उनके कृतित्व में एक नया मोड़ ले कर आती है. इस फ़िल्म के साथ वॉन ट्रिअर की जीवन में बाधाओं का एक सिलसिला और फ़िल्मोग्राफ़ी में एक नया अध्याय शुरु होता है जिसे ‘गोल्डेन हार्ट त्रयी’ के नाम से जाना जाता है.

इस के पहले भी वो चार फ़िल्में बना चुके थे जिनमें से तीन स्वयं उन्ही के अनुसार ‘योरोपा त्रयी’ का हिस्सा हैं, मगर तकनीक और निर्माण की दृष्टि से वे चारों ही एक अलग दौर की प्रतिनिधि हैं. अनावश्यक विस्तार के भय उनकी चर्चा यहाँ मुमकिन नहीं है.

ब्रेकिंग द वेव्स बैस नाम की एक आस्थावान लड़की की कहानी है जो ईश्वर से निजी वार्तालाप में अपने जीवन को संचालित करने के निर्देश प्राप्त करती है. बैस के परिवार व संकीर्ण ईसाई समुदाय की नज़र से बैस मंदबुद्धि है. फ़िल्म की शुरुआत ही यहाँ से होती है कि बैस समुदाय के बाहर के एक व्यक्ति यान से शादी करने का फ़ैसला करती है. यान समुद्र में तेल के कुँए पर काम करता है और वो लगातार बैस के साथ नहीं रह सकता और बैस को उससे जुदाई असह मालूम होती है. वो एक सीधे संवाद में अपने ईश्वर से इसरार करती है कि यान को घर वापस भेज दिया जाय. संयोग से एक दुर्घटना के बाद यान मरणासन्न होकर घर वापस भेज दिया जाता है. बैस को लगता है कि यह सब ईश्वर के आगे उसकी ज़िद के चलते हुआ है. दूसरी तरफ़ मानसिक और शारीरिक रूप से बीमार हो चुका यान उसे दूसरे मर्दों से सम्बन्ध बनाने के लिए प्रेरित करता है. सरलहृदय बैस इसे भी अपने उच्च प्रेम का ही एक स्वरूप समझ और ईश्वरीय आदेश मानकर करती जाती है. अंत में एक यौन-उत्पीड़क का शिकार होकर उसकी मौत हो जाती है जबकि यान चंगा हो जाता है.

पश्चिमी साहित्य में इस तरह की सरल हृदय नायिका की एक परम्परा रही है जिसमें जोन ऑफ़ आर्क, दि साद की जस्टीन और ग्राहम ग्रीन के उपन्यास एण्ड ऑफ़ दि अफ़ैयर की नायिकाएं शामिल हैं. तीस के दशक में जोन ऑफ़ आर्क बनाने वाले प्रसिद्ध डैनिश निर्देशक कार्ल ड्रायर के मनोयथार्थ से स्वयं को प्रभावित मानने वाले वॉन ट्रिअर ब्रेकिंग द वेव्स को एक सरल प्रेम कथा बताते हैं. पर इसे देखना क़तई सरल अनुभव नहीं है. फ़िल्म की कहानी जितनी ही भावुक और दारुण है, फ़िल्म की तकनीक बिलकुल भी उससे मेल खाती हुई नहीं है. कहानी दर्शक को काफ़ी कुछ फ़ंसाने और उलझाने की कोशिश करती है मगर लार्स वॉन ट्रिअर की सिनेमाई तकनीक उसे अजब तरह से विलगाती हुई चलती है. एक तरफ़ तो वॉन ट्रिअर क्लोज़प और एक्सट्रीम क्लोज़प का बहुत उदारता से इस्तेमाल कर के दर्शक को फ़िल्म के चरित्रों के साथ बहुत ही अंतरंग सम्बन्ध बनाने के लिए न्योता देते हैं. मगर दूसरी तरफ़ डाक्यू परम्परा के हैण्डहैल्ड कैमरे की नज़र देकर उस सम्बन्ध को कभी स्थिर नहीं रहने देते. और इतना ही नहीं इस तरह के गतिमान कैमरे के द्वारा इकट्ठे किए हुए शाट्स को वे किसी तरल संयोजन में नहीं प्रस्तुत करते बल्कि पूरी फ़िल्म जम्पकट्स में ही सम्पादित करते हैं.

अब ये बड़ी विचित्र और दुविधापूर्ण बात है कि एक तरफ़ तो निर्देशक अतीव क्लोज़प के ज़रिये दर्शक को चरित्रों के इतना क़रीब ले आए और दूसरी तरफ़ बार-बार जम्पकट करके उन्हे झटके देता जाय. बड़ा विरोधाभासी प्रभाव पैदा होता है. और बावजूद वॉन ट्रिअर के सारे लटको-झटकों के, कहानी का भावुकबल डाक्यू स्टाइल कैमरे और जम्पकट्स जैसी तकनीकों का कोई मायने नहीं रहने देता. बस थोड़ी देर ही वो दर्शक को डिसओरियेन्ट करती है. बीस-पचीस मिनट बाद दर्शक कहानी में गहरे उतरते हुए इन सारे तत्वों को नज़रअन्दाज़ करना शुरु कर देता है.

फ़िल्म के सिनेमेटोग्राफ़र रॉबी मुलर का काम उनकी एक दूसरी फ़िल्म ‘पैरिस, टेक्सास’ से बिलकुल जुदा नज़र आता है. ‘पैरिस, टेक्सास’ की कुदरती ख़ूबसूरती आपको निरन्तर अचम्भित किए रहती है. मगर यहाँ वॉन ट्रिअर ने उन्हे ऐसा सीमाबद्ध किया है कि कैमरा कुदरत को देखता ही नहीं, सिर्फ़ मनुष्यों को पछियाये रहता है. और छवि को फ़िल्म से वीडियो और वीडियो से वापस फ़िल्म पर छापने के बाद वॉन ट्रिअर ने छवि में दृश्य की सारी सूक्ष्मता को मारकर उसमें से सारे रंग निचोड़ लिए और छवि को सिर्फ़ चरित्रों के हाव-भाव तक सीमित कर दिया. वैसे ये कोई अनोखा कारनामा नहीं है- हिन्दी फ़िल्में दशकों से यही काम कर रही हैं. इसीलिए इस फ़िल्म पर अगर किसी मुम्बईया या तमिल फ़िल्म निर्माता की नज़र पड़ जाय तो करोड़ों का मुनाफ़ा कमाने की उसकी मुराद पूरी हो जाएगी.

इस पूरी कसरत का असर यही होता है कि आप चरित्रों के अलावा किसी और चीज़ पर अपना ध्यान केन्द्रित कर ही नहीं सकते. और वॉन ट्रिअर की यह फ़िल्म दर्शक के लिए बहुत दमनकारी हो जाती है. वो उसे पूरी तरह बन्धन में रखती है और उसकी भावनाओं पर बुरी तरह से शासन करती है. उसके जज़्बातों का वैसे ही शोषण करती है जैसे संजय लीला भंसाली ब्लैक जैसी फ़िल्मों से करते हैं. एक नज़र से देखा जाय निरन्तर गतिमान कैमरे और जम्पकट्स के आवरण के पार यह फ़िल्म बुरी तरह से एक टीयरजर्कर है. नायिका को इतना पीड़ित किया गया है कि आप को रोना ही पड़ेगा.

***

वॉन ट्रिअर की पहली और अकेली डॉग्मा फ़िल्म ईडियट्स है जिसके निर्माण में डॉग्मा की लगभग सभी बाधाओं का पालन किया गया. बताते हैं कि ईडियट्स की पटकथा वॉन ट्रिअर ने चार दिन में तैयार कर ली थी. और इसके फ़िल्मांकन में डैनमार्क के शीर्ष अभिनेताओं ने भाग लिया. यह फ़िल्म डॉग्मा फ़िल्म होने के साथ-साथ वॉन ट्रिअर की गोल्डेन हार्ट त्रयी का दूसरा हिस्सा है. तो ज़ाहिर है कहानी के केन्द्र में एक सरल हृदय निश्छल स्त्री कैरेन है जो एक रेस्तरां में कुछ मन्दबुद्धि लोगों के एक समूह से टकरा जाती है और वे उसे अपने साथ ले जाते हैं. निश्छल कैरेन उनका दिल रखने के लिए उनके साथ चली जाती है. आगे राज़ यह खुलता है कि उनमें से कोई भी मंदबुद्धि नहीं है. वे सारे के सारे एक क़िस्म के अराजक कम्यून के सदस्य हैं जो अपने भीतर के मंदबुद्धि को अभिव्यक्ति देकर मध्यवर्गीय दुनियादारी और नैतिकता को चुनौती देना पसन्द करते हैं और ऐसा करके अपना मनोरंजन करते हैं. मुश्किल ये है इतना करने पर भी वे दुनिया का सामना करने के बजाय एक टापूयी जीवन बसर कर रहे हैं. इसीलिए कम्यून का नेता उन्हे चुनौती देता है कि वे अपने-अपने पारिवारिक, और पेशेवर हालात में मंदबुद्धि बनकर दिखायें. उसकी इस चुनौती को पूरा करने में सभी असफल रहते हैं सिवाय कैरेन के. जो अपने परिवार के आगे अपने भीतर के मंदबुद्धि को आज़ाद करके दिखाती है और अपने मध्यवर्गीय पति से एक तमाचा भी खाती है. और उसके साथ ही हमें उसके जीवन की त्रासदी का ज्ञान होता है- जिस दिन वो कम्यून के सदस्यों से मिली उसी दिन उसके छोटे बालक की मृत्यु का भी दिन था.

एक अनोखी कहानी वाली यह बेहद दिलचस्प फ़िल्म अपने शिल्प में काफ़ी कुछ डाक्यूमेण्टरी होने का धोखा देती है. हालांकि ब्रेकिंग द वेव्स के मुक़ाबले ईडियट्स में झटकेदार छायांकन की तीव्रता कम है. कैमरा अपेक्षाकृत स्थिर दिखता है. आप कम से कम देख सकते है कि फ़्रेम के भीतर क्या-क्या है. हालांकि डिजिटल माध्यम पर शूट करने के कारण स्ट्रोब प्रभाव के विशिष्ट डिजिटल गुण को हर पैन शाट में देखा जा सकता है. जो वास्तविकता का भ्रम पैदा करने की एक तरक़ीब ही है. याद रखा जाय कि वास्तविकता नहीं है वास्तविकता का भ्रम है और इसलिए इस पद्धति को छद्म डाक्यूमेण्टरी कहा जाय तो ग़लत नहीं होगा. फ़िल्म के भीतर बीच-बीच में टांके गए फ़िल्म के चरित्रों से साक्षात्कार के टुकड़े भी इसी विन्यास का हिस्सा हैं. डॉग्मा का घोषणापत्र कहीं यह नहीं कहता कि अदृश्य सम्पादन से छुट्टी पा लेनी चाहिये मगर फिर भी वॉन ट्रिअर ऐसा करते हैं. डॉग्मा ९५ घोषणापत्र द्वारा प्रमाणित पहली फ़िल्म ‘फ़ेस्टेन’, जो डॉग्मा के सह-सिद्धान्तकार टामस विन्टरबेर्ग ने बनाई थी, में डॉग्मा के लगभग सभी नियमों का पालन किया है लेकिन उस फ़िल्म में कोई जम्पकट्स नहीं है. ‘फ़ेस्टेन’ में सम्पादन में गति और दृष्टि की तरलता को बनाए रखने की कोशिश की गई है. यानी कि डाक्यूमेण्टरी की यह अदा वॉन ट्रिअर की ख़ास अपनी है उसका डॉग्मा से कोई सैद्धान्तिक रिश्ता नहीं है.

एक तरफ़ तो वॉन ट्रिअर जैसे फ़िल्मकार अपनी फ़िल्म को अधिक से अधिक वास्तविक बताने के लिए फ़िक्शन की परम्परागत तकनीकों को तिलांजलि दे रहे हैं और दूसरी तरफ़ वास्तविक लोगों और परिघटनाओं पर फ़िल्म बनाने वाले डौक्यूमेन्टरी फ़िल्मकार अपनी फ़िल्मों को बनाने के लिए अधिक से अधिक फ़िक्शनल परम्परा के तत्वों का सहारा ले रहे हैं जैसे कि अदृश्य सम्पादन, एनीमेशन, कृत्रिम प्रकाश आदि. यह एक अजब उलटफेर सा हुआ है. लेकिन यह कोई अनोखी बात नहीं. इसे एक तरह का द्वन्द्वात्मक विकास समझा जा सकता है. सिनेमा के इतिहास की शुरुआत से ही ये दो आरम्भिक वृत्तियां – लूमियर बन्धुओं का शुद्ध डाक्यूमेन्टेशन और मेलियस का जादू- लगातार एक दूसरे को प्रभावित करके एक दूसरे में बदलती रही हैं.

इस तरह की डाक्यूमेन्टरी तकनीक के इस्तेमाल को दो तरह से देखा जा सकता है. एक तो यह कि निर्देशक (हांलाकि डॉग्मा ९५ उसके अस्तित्व को नकारती है, जबकि वो पूरी रूप से मौजूद है, वरना वो कौन है जो इन सब नियमों का पालन कर रहा है?) एक विलगाव का प्रभाव पैदा कर रहा है और दूसरा यह कि वह वास्तविकता का भ्रम पैदा कर रहा है. दोनों एकदम विरोधी बाते हैं लेकिन एक के भीतर से दूसरे ने जन्म ले लिया है. जो फ़र्क़ भद्र और भद्दा में है वही इन दोनों में भी है हालांकि दोनों अपने मूल में एक ही शब्द हैं. कभी इस तरह का प्रभाव विलगाव का असर दे सकता था मगर अब वो बात नहीं.

पर मेरे तर्क से यह अर्थ न निकाला जाय कि मैं काल्पनिक फ़िल्मों के ख़िलाफ़ हूँ या फिर ये कि मेरा आशय यह है कि वे किसी तरह का सत्यसंधान करती ही नहीं हैं. अगर डाक्यूमेण्टरी एक तरह की वास्तविकता का बयान हैं तो काल्पनिक फ़िल्में भी एक अन्य तरह की वास्तविकता का बयान हैं. कल्पना वास्तविकता का ही एक विकास है और उससे जुदा कल्पना का कोई अस्तित्व नहीं है. सवाल यह है कि इस मूल मुद्दे पर वॉन ट्रिअर की क्या सोच है? और काल्पनिक फ़िल्मों में इस तरह की डाक्यूमेण्टरी फ़िल्मों का भ्रम पैदा करने के पीछे उनकी क्या मुराद है? वे कहते हैं कि वे एक सरल फ़िल्म बनाना चाहते हैं मगर बनाते नहीं. अपनी तकनीक से कहानी और दर्शको के बीच चल रहे संवाद को बराबर उलझाते रहते हैं.

अब देखिये ऊपर-ऊपर से मालूम दे सकता है कि फ़िल्म की कहानी ने ‘बुर्ज़ुआ कथाशैली’ से एक बड़ा विस्थापन किया है. लार्स वॉन ट्रिअर स्वयं कहते हैं कि डॉग्मा ९५ और उनकी फ़िल्म ईडियट्स का अहम मक़सद है फ़िल्मकार के हाथ से कलात्मक नियंत्रण को छुड़वाना और उस आदर्श नाटकीय स्थिति की ओर बढ़ना जिससे फ़िल्में मुख्यधारा की हस्पताली चमक-धमक के बजाय कैमकार्डर वायुरिज़्म के अधिक क़रीब हो जाय. मगर वॉन ट्रिअर की यह तथाकथित क्रांतिकारी डॉग्मा फ़िल्म, ‘कैमकार्डर वायुरिज़्म’ की माला जपते हुए भी पटकथा के परम्परागत ढांचों में कोई बुनियादी तोड़फोड़ नहीं करती बल्कि बहुत हद तक उनका अनुगमन ही करती है. फ़िल्म में प्राचीन ‘थ्री एक्ट’ ढांचा स्पष्ट देखा जा सकता है. और जोसेफ़ कैम्पबेल के ‘हीरोज़ जर्नी’ के नए ढांचे के भी सभी मुक़ाम फ़िल्म के कथानक में मौजूद हैं. कैरेन अपनी दुनिया से निकलकर एक दूसरी दुनिया में जाती है वहाँ तमाम तरह की परीक्षाओं को पार कर के एक नयी जीवन दृष्टि का ‘अमृत’ लेकर अपनी दुनिया में लौट आती है. परम्परागत तथाकथित ‘बुर्ज़ुआ’ पटकथालेखक अपने दर्शक के साथ सूचनाओं को छुपाने और बताने का जो खेल खेलते हैं, लार्स वॉन ट्रिअर भी उसे खेलने में पीछे नहीं रहते. और उसी अनुद्घाटित सूचना के आधार पर अपनी फ़िल्म को चरम तक ले कर जाते हैं. अपने ढांचे में यह फ़िल्म भी दर्शक के साथ वही खेल खेलती है जो दूसरी फ़िल्में.

***

ईडियट्स फ़िल्म के क्रेडिट्स में वॉन ट्रिअर का नाम नहीं गया. मगर उनकी अगली ही फ़िल्म शुरु होते ही परदे की पूरी चौड़ाई में विराट अक्षरों से लिख कर आया ‘लार्स वॉन ट्रिअर’ और फिर कुछ देर बाद इसी नाम को पृष्ठभूमि बना कर फ़िल्म का नाम अपेक्षाकृत काफ़ी छोटे अक्षरों में आया. यानी जैसे कहा जा रहा हो कि फ़िल्म लार्स वॉन ट्रिअर के वृहद व्यक्तित्व का एक अंश भर है. कहाँ ये रवैया है और कहाँ डॉग्मा का निर्देश कि निर्देशक का नाम फ़िल्म के क्रेडिट्स में जाना ही नहीं चाहिये? मतलब साफ़ था वॉन ट्रिअर ने डॉग्मा के सिद्धान्तों को दफ़्न कर दिया था. फ़िल्म निर्देशक का माध्यम है. और अभिनेता समेत बाक़ी सभी योगदानकर्ता निर्देशक द्वारा उसके नज़रिये को मूर्त रूप देने में कच्चे माल और औज़ार की तरह इस्तेमाल होते हैं. यह बात जनता और मीडिया भलीभात जानते हैं. इसीलिए ईडियट्स फ़िल्म में वॉन ट्रिअर का कोई नाम न भी होने के बावजूद फ़िल्म उन्ही के नाम से जानी और पहचानी जाती है. अच्छी बात ये रही कि वॉन ट्रिअर ने अपनी ख़ब्त को जल्दी ही अलविदा कह दिया और अपने मूल स्वर पर लौट आए. डांसर इन द डार्क में वॉन ट्रिअर अपने डॉग्मा के शेष सिद्धान्तों को भी एकदम पलट देते हैं.

डांसर इन द डार्क एक ग़रीब ख़ुशदिल, चेक शरणार्थी सेलमा की कहानी है. वो वाशिंगटन की एक फ़ैक्ट्री में मज़दूर है और धीरे-धीरे अंधी हो रही है. अपनी सारी कमाई वो अपने बेटे की आँखों के इलाज के लिए बचा रही है क्योंकि उसे डर है कि वो भी आगे चलकर अंधा हो सकता है. मगर उसका पुलिसवाला मकानमालिक सेलमा की सारी बचत लूट लेता है. जब वह अपना पैसा वापस लेने की कोशिश करती है तो ग़लती से उसके हाथों पुलिसवाले की मौत हो जाती है. और फिर उसके ख़ून के जुर्म में सेलमा को सज़ाए मौत. तो अपने इकलौते बेटे के इलाज के लिए जो पैसा उसने इकट्ठा किया था, वो उसे अपने मुक़द्दमे के लिए खर्च करने के बजाय फ़ांसी पर चढ़ जाना चुनती है बावजूद इसके कि उसे ज़िन्दगी से बहुत प्यार है.

डांसर इन द डार्क एक म्यूज़िकल है. आम तौर पर म्यूज़िकल्स कॉमेडी होती हैं मगर वॉन ट्रिअर ने इस विश्वविख्यात हॉलीवुड जॉनर को सर के बल खड़ा कर दिया और एक ट्रैजिक म्यूज़िकल बनाई है. सेलमा एक जगह कहती है कि उसे म्यूज़िकल बहुत पसन्द है और वो फ़ैक्ट्री में काम करते हुए म्यूज़िकल्स की कल्पना करती थी क्योंकि म्यूज़िकलस में कभी कुछ भी बुरा नहीं होता. मगर सेलमा लार्स वॉन ट्रिअर की जिस सच्चाई में क़ैद की गई है उसमें सब बुरा ही बुरा है हालांकि वो बहुत ही हमदर्दी रखने वाले चरित्रों से घिरी हुई है. ये अमरीका की सच्चाई नहीं है यह अमरीका की सच्चाई को लेकर लार्स वॉन ट्रिअर की कल्पना है. और वॉन ट्रिअर अपने हुनर के बादशाह हैं. वो जो असर चाहते हैं पैदा कर सकते हैं. सिनेमा के औज़ारों के इस्तेमाल पर उनको महारत हासिल है. सेलमा के लौकिक जीवन और काल्पनिक जीवन में बुनियादी फ़र्क़ दिखाने के लिए वे लौकिक जीवन में फ़ीके रंग और जम्पकट्स का इस्तेमाल करते हैं मगर उसकी कल्पना की संगीतमय दुनिया में खिले हुए चमकदार रंग हैं और तरल अदृश्य सम्पादन है जैसा कि हॉलीवुड फ़िल्मों में होता है. उन्हे अपने फ़न की सारी तरक़ीबें मालूम हैं और अपनी कलाकारी को कैसे दिखाते हैं और कैसे छिपाते हैं ये भी वो बख़ूबी जानते हैं.

अब वॉन ट्रिअर ने जो कहानी चुनी है वो दर्शक पर क्या असर छोड़ेगी यह इस बात पर निर्भर करेगा कि निर्देशक उसे किस अन्दाज़ और ढब से सुनाता है. यही कहानी एक एक्शन फ़िल्म भी बन सकती है. विडम्बना भी पैदा कर सकती है. और कोई हुनरमंद निर्देशक इसमें कटु हास्य भी उपजा सकता है. मगर वॉन ट्रिअर इस करुण कथा को अपने अन्दाज़ के चुनाव से और करुण बनाते हैं. इतना कि आपका दिल टुकडे-टुकड़े हो जाता है. अपने करुणरस के सौन्दर्यशास्त्र में इस तरह चरम तक धंसी हुई रहती है यह फ़िल्म कि उसके समर्थन में मेरे जैसे भावुक दर्शकों की आँखों से एक अन्य रस का स्राव होने लगता है. मगर ये जो असर है इसमें से कुछ भी अनायास नहीं. सब कुछ बहुत आयोजित है. अब जैसे आज के अमेरिका में मृत्युदण्ड फांसी के द्वारा नहीं दिया जाता. तो सिर्फ़ इसी एक बात के लिए वॉन ट्रिअर ने फ़िल्म की कहानी को १९६० में धकेल दिया क्योंकि वो फ़ांसी के ज़रिये ही सेलमा की मौत दिखाना चाहते थे. शायद इसलिए कि वो कहीं अधिक भावोद्वेलक है? निश्चित ही फ़िल्मकार दर्शक के भीतर दया का उद्वेलन ही पैदा करना चाहता है. और उसके लिए चरित्रों और घटनाओं को निरन्तर मैनिपुलेट कर रहा है. और शायद उनके इसी गुण के चलते डांसर इन द डार्क की नायिका, प्रसिद्ध और विलक्षण गायिका ब्योर्क ने किसी मौक़े पर उन्हे ‘इमोशनल पोर्नोग्राफ़र’ का तमगा दे दिया.

वॉन ट्रिअर के मैनिपुलेशन की मिसाल के तौर पर डांसर इन द डार्क की सेलमा का चरित्र लें. सेलमा एक अंधी चेक शरणार्थी है जो अपने बच्चे के इलाज के लिए पैसे बचा रही है. मगर शुद्ध घटनाक्रम के आधार पर देखें तो वो एक ख़ूनी भी है. अपने मकानमालिक का ख़ून करने के बाद भी फ़िल्मकार चतुराई से उसके इस अपराध को तुरन्त धो डालते हैं. सेलमा चेकोस्लावाकिया में बिताए अपने बचपन के दौरान हॉलीवुड म्यूज़िकल देखती रही है और उन म्यूज़िकल्स की काल्पनिक दुनिया की ईंटो से ही उसके सपनों की दुनिया की इमारत खड़ी हुई है. तो ख़ून करने के बाद सेलमा एक दिवास्वप्न में उतर जाती है जिसमें ख़ून किया हुआ शख़्स ख़ुद उठकर खड़ा हो जाता है और उसे अपने ख़ून के अपराध से मुक्त कर देता है. एक पल के लिए भी हम यानी दर्शक सेलमा को ख़ूनी नहीं मान पाते क्योंकि निर्देशक ने उसके दूसरे गुणों की आड़ में उसके अपराध को ढक दिया है. अधिकतर बाज़ारू फ़िल्में यही करती हैं कि वो अपने नायिका और नायक के हर कर्म को न्यायपूर्ण सिद्ध करती हैं और उनके पापों को नैतिकता का आवरण देती हैं. वॉन ट्रिअर भी यही करते हैं.

फ़िल्म पूरी तरह से एक ही चरित्र के गिर्द घूमती है. इस बात में कोई बुराई नहीं. मगर यह तब अखरने लगता है जब सारे चरित्रों का जीवन भी फ़िल्म की नायिका के चरित्र चित्रण की सेवा में अर्पित होते दिखाई देता है. हम उनका स्वतंत्र जीवन न देखें ये समझ में आता है मगर उनका स्वतंत्र जीवन मानो हो ही न, ये समझ में नहीं आता. चाहे वो सेलमा का शालीन आशिक़ हो, या फ़ैक्ट्री में साथ काम करने वाली उसकी पक्की सहेली हो या फिर जेल की अटेंडेंट- ऐसा लगता है कि उनका पूरा जीवन सेलमा के लिए ही हो. इसे सहूलियती लेखन कहते है.

ये कोई नया अन्दाज़ नहीं है. बहुत पहले से फ़िल्मकार और पटकथाकार इस तरह का लेखन करते आ रहे हैं. इसके पीछे उनकी मंशा दर्शक के दिलोदिमाग़ पर अधिकतम असर पैदा करने की होती है, दर्शक के भीतर अपने चरित्र और कहानी के प्रति अधिकतम भावना और करुणा जगाने की होती है. इसी तर्क के रास्ते पर चलकर वह विधा अपना पूरा आकार पाती है जिसे मेलोड्रामा कहा जाता है. वॉन ट्रिअर होशियार हैं, वो अपने इरादों को जम्प कट्स और छद्म डाक्यूमेण्टरी स्टाईल में छिपा के पेश करते हैं और अधिकतर लोग ऊपर-ऊपर धोखा खा जाते हैं कि वे क्या कर रहे हैं. क्लोज़प और अति क्लोज़प के कारण दर्शक को फ़िल्मकार चरित्र के इतना क़रीब धकेल देता है कि वो उसकी भावनाओं में इस तरह डूबने-उतराने लगे कि पूरी तरह से यथार्थ का सम्यकबोध खो बैठे. कान्स जैसे महोत्सव में पॉमे दि’ओर का ईनाम मिल जाने से उनका असर नहीं बदलता. देखिये कि दर्शक पर उनका असर क्या हो रहा है? क्या वो दर्शक को रुला रहे हैं? क्या वो दर्शक के मानस में भावनाओं का विरेचन कर रहे हैं. वही विरेचन या कैथारसिस जिसकी वक़ालत दो हज़ार साल पहले अरस्तू साहब कर गए हैं. और हॉलीवुड, बॉलीवुड समेत और दुनिया भर की सभी बाज़ारू फ़िल्में तनाव और दुख की भावनाओं का विरेचन करके दर्शक को हलका महसूस करने में मदद करते हैं. और अगर वही वॉन ट्रिअर भी कर रहे हैं तो वॉन ट्रिअर क्या अलग कर रहे हैं?

डांसर इन द डार्क में भी वॉन ट्रिअर जम्प कट्स और डिजिटल कैमरों के ज़रिये छद्म डाक्यूमेन्टरी स्टाईल का छायांकन (यानी इस तरह भटकता हुआ सा कैमरा जैसे उस पता ही न हो कि दृश्य में क्या होने वाला है) का प्रयोग करते हैं. जिसके चलते वो चरित्रों और उनकी गति के अलावा कुछ भी दिखाने की ज़रूरत नहीं समझते. इस तरह की तकनीक का क्या अर्थ निकाला जाय? क्या यह कि दृश्य में चरित्र के अलावा कोई और शै किसी भी अहमियत की नहीं है? चरित्र के सिवाय कोई भी चीज़ चरित्र पर या उसकी मार्फ़त दर्शक पर किसी तरह का कोई असर छोड़ने में बिलकुल योग्य नहीं है? तो क्या इसे चरित्र और उसके वातावरण के बीच का विलगाव माना जाय या फ़िल्मकार और उसके वातावरण के बीच का अलगाव? निश्चित ही डांसर इन द डार्क में यह चरित्र और उसके वातावरण के बीच का विलगाव है क्योंकि फ़िल्म में जब भी सेलमा की कल्पना का संसार परदे पर दिखाई देने लगता है तो उसमें रंग पूरी तरह खिले हुए होते हैं, कैमरा हर समय हिलता हुआ और भटकता हुआ सा नहीं है, और दृश्य का सम्पादन भी शास्त्रीय परम्परा में निरन्तरता के भ्रम को पैदा करने वाला है. डांसर इन द डार्क में सच्चाई और सपने में इस तरह का अन्तर रखना समझ में आता है मगर गोल्डेन हार्ट ट्रायलजी की दूसरी फ़िल्मों का क्या? इडियट्स में तो वॉन ट्रिअर के पास डॉग्मा ९५ के घोषणापत्र का पालन करने का तर्क था मगर ब्रेकिंग द वेव्स में आले दर्ज़े की रूहानियत रखने वाली बैस अपने वातावरण से विलगित क्यों है?

***

डांसर इन द डार्क जब कान्स फ़िल्मोत्सव में प्रदर्शित हुई तो कुछ अमरीकियों ने फ़िल्म के भीतर मौजूद अमरीकी समाज की आलोचना को बरदाश्त न करते हुए वॉन ट्रिअर से कहा कि उन्हे अमरीका के बारे में फ़िल्म बनाने का क्या हक़ है? वे जानते ही क्या हैं उस देश के बारे में? वॉन ट्रिअर अपने हवाई यात्रा के भय के चलते कभी अमरीका नहीं जा सके हैं. वॉन ट्रिअर ने इस आलोचना को बिलकुल दिल से लगा लिया और ऐलान किया कि वो अमेरिकी समाज पर तीन और फ़िल्में बनायेंगे. अगर हॉलीवुड के फ़िल्मकार बिना गए, बिना जाने और बिना समझे दुनिया भर की संस्कृतियों और समाजों के बारे में फ़िल्में बना सकते हैं तो वो क्यों नहीं. २००३ की डॉगविल और २००५ की माण्डरले उनकी इसी खुन्दक का नतीजा हैं. इस त्रयी की तीसरी फ़िल्म उन्होने अब तक नहीं बनाई है.

डॉगविल एक अमरीकी क़स्बे की कहानी है. फ़िल्म की शुरुआत होती है जब ग्रॆस नामक एक अनजान लड़की अमरीकी माफ़िया से बचते हुए डॉगविल में आ जाती है. क़स्बे के लोगों और ग्रॆस के बीच हुए एक समझौते के तहत, वह मिली हुई शरण के बदले उनके लिए मेहनत-मज़ूरी करती है. समझौते की एक शर्त के अनुसार उसका डॉगविल में रहना समुदाय के सभी लोगों की सहमति पर निर्भर करता है; लिहाज़ा उसे सबको खुश रखना लाज़िमी हो जाता है. और यहीं से शुरु होता है उसके शोषण का एक सिलसिला. और धीरे-धीरे क़स्बे का लगभग हर मर्द उसका बलात्कार करता है. उसकी भागने की कोशिश भी नाकाम रहती हैं. और एक अन्तिम दण्ड के रूप में उसका हितैषी और प्रेमी माफ़िया को उसकी मौजूदगी की सूचना दे देता है. वे आते हैं मगर उनके आते ही पासा पलट जाता है. ग्रॆस असल में माफ़िया सरदार की बेटी है जो अपने पिता के साथ नैतिक असहमति के कारण भाग आई थी. उसका पिता उसे विकल्प देता है कि क़स्बे के लोगों के साथ क्या न्याय करना चाहिये. कुछ सोचने के बाद ग्रॆस फ़ैसला करती है कि वे सब मौत की सज़ा के अधिकारी हैं, बच्चे व औरतें भीं. और ऐसा ही होता है.

वॉन ट्रिअर ने अपनी कहानियों को फ़िल्माने के लिए जिस तरह चरित्र को वातावरण से अलगाते रहे हैं, उसी विचार को वो अपनी इस फ़िल्म में एक अलग स्तर पर ले गए. डॉगविल में बजाय कैमरे और सम्पादन के ज़रिये परिवेश को महत्वहीन करने के उन्होने एक नई तरक़ीब ईजाद की. जिसके तहत उन्होने पूरी कहानी को एक स्टूडियो में शूट किया. कहानी को फ़िल्माने के लिए स्टूडियो में सेट लगाने की परम्परा मेलियस के ज़माने से चली आ रही है. लार्स वॉन ट्रिअर ने उसे एक नया मरोड़ दिया. उन्होने सेट तो लगाया मगर एकदम नए ख़याल का. जिसमें कुछ भी प्राकृतिक नहीं है जो भी है सब कुछ कृत्रिम है. जैसे किसी प्रायोगिक नाटक का मंच होता है जिसमें घरो व मकानों की सीमाओं के लिए एक तख़्ती या पट्टी टांग कर या खड़िया से अंकित कर के बता दिया जाता है कि ये फलां का घर है और वो ढिकां का. कोई दीवारें नहीं और कोई दरवाज़े नहीं मगर अभिनेता उनकी अदृश्य उपस्थिति दर्ज करते हैं जैसे कि थियेटर में होता है. सम्भव है ऐसा करके वॉन ट्रिअर का इरादा बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की तर्ज़ पर ‘एलीनियेशन ईफ़ेक्ट’ पैदा करने का रहा हो. मगर ठीक-ठीक ऐसा होता नहीं कथावस्तु की प्रगाढ़ता के चलते दर्शक इन कमियों की और ध्यान न देकर अपने विश्वास को कहानी की पेंग पर झूलने देता है. मेरे समेत बहुत से दूसरे लोगों का भी यही अनुभव रहा है. फ़िल्म के शुरुआती बीस-पचीस मिनट कष्टसाध्य रहे मगर बाद की फ़िल्म मक्खन की तरह निकलती है. अब विकट प्रश्न यह है कि इसे वॉन ट्रिअर की सफलता माना जाय या असफलता?

लार्स वॉन ट्रिअर इसे अपनी अमेरिकन त्रयी की पहली फ़िल्म बताते हैं. फ़िल्म के अन्त में डेविड बोई के गीत ‘यंग अमेरिकन’ के बरक्स अमेरिकी समाज में हाशिये पर रहने वाले समुदायों की असहायता के चित्रों को संजोया गया है. वे चित्र अमेरिकी लोगों के जीवन के अलग-अलग प्रसंग की परेशानियों की तस्वीरें है. तीन घण्टे तक फ़िल्म में स्थान और वातावरण के सभी तत्वों को नगण्य बना कर वॉन ट्रिअर ने एक तरह से अपनी कहानी की सार्वभौमिकता पर ज़ोर दिया था. और फिर फ़िल्म के अन्त में इन चित्रों और गाने को डाल कर वॉन ट्रिअर ने फ़िल्म के पाठ को सिर्फ़ अमेरिकी सन्दर्भ में ही सीमित कर दिया. और अमेरिकी राज्य की इस तरह सीधी आलोचना करके उन्होने अपने दर्शक से मुख्य फ़िल्म को किसी भी अन्य सन्दर्भ में देखने की आज़ादी छीन ली. साथ ही साथ उन चित्रों को किसी भी अन्य सन्दर्भ में देखने की आज़ादी भी. वॉन ट्रिअर हमेशा की ही तरह फिर से एक बार अपने दर्शक को आज़ादी देते नहीं उस से आज़ादी छीन लेते हैं.

इस फ़िल्म में उनके एक और पुराने औज़ार आकाशवाणी यानी कि नैरेशन की वापसी होती है. आकाशवाणी के ज़रिये फ़िल्मकार अपने सारे चरित्रों के प्रति दर्शक का रवैया तय करता चलता है. आकाशवाणी प्राचीन साहित्य और मिथकों में ईश्वर के हस्तक्षेप के तौर पर इस्तेमाल होती रही है. जब सिनेमा वेरिते तथा अन्य क़िस्म की डाक्यूमेण्टरीज़ में नैरेशन का इस्तेमाल होता था तो उसे भी एक तरह के ईश्वरीय हस्तक्षेप की तरह देखा जाता था और आज भी उसे निर्देशक के रूप में ईश्वर का हस्तक्षेप मानना अनुचित नहीं होगा. पर उनके ऐसा करने के पीछे उनकी तकनीकि सीमाएं थीं जबकि वॉन ट्रिअर इस ईश्वरीय हस्तक्षेप का सजग चुनाव करते हैं. इसके अलावा इस फ़िल्म में तो ईश्वर की बहुत प्रबल उपस्थिति भी है. फ़िल्म शुरु होती है और ख़त्म भी होती है ईश्वर के टौप एंगल व्यू से. फ़िल्म के दौरान भी बीच-बीच में यह नज़रिया लौटता रहता है. और इसके अलावा अदृश्य सूत्रधार की आकाशवाणी के ज़रिये भी ईश्वर की उपस्थिति पूरी फ़िल्म में बनी रहती है. या कहें कि वॉन ट्रिअर की उपस्थिति बनी रहती है क्योंकि परोक्ष रूप से ये निर्देशक ही तो है जो अपने ही बनाए चरित्रों पर लगातार फ़ैसले सुनाता रहता है. इस इब्राहिमी ईश्वर का सबसे बड़ा प्रमाण तो फ़िल्म के क्लाईमैक्स में दिखता है जब ग्रॆस का गैंगस्टर पिता उसे डॉगविल के निवासियों को मार देने या माफ़ कर देने का विकल्प देता है. और ग्रॆस अचानक ईसा मसीह से ईर्ष्यालु ईश्वर में तब्दील हो जाती है. और पूरे क़स्बे के लोगों को, बच्चों और औरतों को भी उनके गुनाहों के एवज़ में बेरहमी से मरवा देती है. ये फ़ैसला ग्रॆस के चरित्र ने दूसरे चरित्रों के प्रति लिया या निर्देशक ने अपने चरित्रों के प्रति लिया? यह सवाल बेहद मौज़ूं है कि असली ईश्वर की भूमिका इस फ़िल्म में किसने अदा की? मेरी समझ में यह फ़िल्म अमेरिकी समाज विशेष के बारे में तो उतना कुछ नहीं कहती मगर लार्स वॉन ट्रिअर व्यक्ति विशेष के बारे में बहुत कुछ कहती है. यहाँ पर यह भी याद कर लें कि ब्रेकिंग द वेव्स का अंत भी ईश्वरीय टॉप एंगल शॉट से होता है. जिसमें स्वर्ग में बजते हुए घंटे बैस की चारित्रिक उच्चता और उसके स्वर्ग में प्रवेश की घोषणा कर रहे होते हैं.

एक बार इस पर विचार कर लेना भी अप्रसांगिक नहीं होगा कि लार्स वॉन ट्रिअर अपनी नायिकाओं के लिए ऐसे कठिन जीवन का चुनाव क्यों करते हैं? माना डॉगविल अमरीकी सच्चाई की उनकी व्याख्या है. मगर इसके पहले ब्रेकिंग द वेव्स में भी बैस के साथ जो क्रूर व्यवहार होता है, वो तो किसी अमेरिकी समाज में नहीं होता? और न ही वो कोई शरणार्थी है? न ही डांसर इन द डार्क की कथा को अमेरिका में स्थापित करने का कारण उनकी ओर से अमेरिकी समाज की असहिष्णुता प्रचारित किया गया था, जैसे कि इस मामले में उन्होने किया है. मगर फिर भी सेलमा को जिस क्रूरताओं का सामना करना पड़ा, वो किस उपलक्ष्य में? क्या उसे भी किसी राजनीति से प्रेरित माना जाय? या वॉन ट्रिअर की इस तथाकथित राजनीति को किसी और प्रवृत्ति से प्रेरित माना जाय?

पूरी फ़िल्म में अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों को ईसा मसीह की करुणा व क्षमा के साथ समझने वाली ग्रॆस भी दूसरे चरित्रों की ही तरह अपनी शक्ति का अवसरवादी इस्तेमाल करती है. उसकी करूणा तभी तक कारगर थी जब तक वह अशक्त थी जैसे ही उसके पास लोगो को जीवन देने या लेने की ताक़त आती है वह अचानक महाक्रूर बन जाती है. हालांकि तमाम लोग इस फ़िल्म के तमाम निष्कर्ष निकालते हैं मगर मानवता का इससे निराशाजनक चित्रण मैंने बहुत कम देखा है. यदि मानवता सचमुच वॉन ट्रिअर की समझ के अनुसार होती तो कब की विनष्ट हो गई होती. ये माना कि अधिकतर समाज निर्बल के साथ ऐसा दमनकारी सुलुक़ करते हैं मगर क्या निर्बल भी ऐसे ही अहिंसक और करुणासम्पन्न होते हैं जैसे कि ग्रॆस दिखाई गई है? ये क्या यथार्थ का मैनिपुलेशन नहीं है? और इसीलिए फ़िल्म की तमाम सूक्ष्मताओं के बावजूद कुछ आलोचक इस फ़िल्म की कहानी में ‘बलात्कार का बदला’ जैसा सस्ता पाठ कर पाते हैं. क्योंकि एक स्तर पर यह वह है भी- एक तरह की नैतिक या धार्मिक फ़न्तासी.

***

विचित्र बात है कि लार्स वॉन ट्रिअर की सारी विलागववादी तकनीकें भी फ़िल्म का भावनात्मक तत्व धूमिल नहीं कर पातीं और फ़िल्म के अन्त आने-आने तक दर्शक रोने-रोने हो आता है? ये कोई चक्र है, कोई कौशल है, या कोई वृत्ति है? वहीं दूसरी तरफ़ एक अंधी लड़की को फांसी पर चढ़ाने की कहानी दुनिया के हर कोने में आँख में से आंसू निकाल देती है? ये क्या मामला है?

ये सवाल पूरी तरह से तार्किक है कि आख़िर कोई भी फ़िल्मकार अपने दर्शक के फ़िल्म देखने के अनुभव में भटकाव क्यों पैदा करना चाहेगा? सहज बात यह होगी कि वह अपने दर्शको कों अपनी कहानी के प्रति एकाग्रता के लिए प्रेरित करे? मगर वॉन ट्रिअर ऐसा नहीं करते, तिस पर भी उनके दर्शक कहानी में मन रमा लेते हैं? अचरज की बात है कि यह कैसे मुमकिन होता है? क्या इसलिए कि जिस तरह शब्द घिस-घिस कर अपना अर्थ खो बैठते हैं, उसी तरह तकनीक भी असर खो बैठती है? किसी समय में गुण्डा बड़ी गाली रही होगी, किसी को कमीना कहना उसके चरित्र की हत्या करना जैसा रहा होगा. मगर अजीब बात है कि आज लोग अपने बच्चे को या बच्ची को भी गुण्डा कहकर प्रसन्न होते हैं; दोस्त आपस में मिलते हैं तो एक-दूसरे को कमीना कहकर गले लगा लेते हैं? ऐसी स्थिति में किसी को गुण्डा या कमीना कहने से उसका अपमान न होगा. किसी का वास्तव में अपमान करने के लिए आपको कोई ऐसा शब्द पकड़ना होगा जो तत्कालीन भाषा में अपमान का अर्थ वहन कर रहा हो. तो क्या यह माना जाय कि वॉन ट्रिअर भी इसी कारण से अपने दर्शक को डिसओरिएण्ट कर रहे हैं? क्योंकि एमटीवी के बाद की पीढ़ी किसी भी चीज़ को एकाग्रता से देखने की ताब खो चुकी है? ध्वनियों और दृश्यों में लगातार व्यवधान और भटकाव की तो उन्हे आदत जैसी पड़ गई है? तो क्या छद्म डाक्यूमेण्टरी की यह तकनीक उनके मानस में प्रवेश करने का पासपोर्ट बनी? क्योंकि ये बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि ब्रेकिंग द वेव्स और डांसर इन द डार्क जैसी फ़िल्मों के प्रचण्ड अनुभव के बाद आख़िर में दर्शक के पास कहानी के ही तत्व बचे रहे जाते हैं तकनीक के नहीं. और किसी भी श्रेष्ठ फ़िल्म में यही वांछनीय भी है.

ये तो हम जानते हैं कि मानव शिशु तीन साल की उमर से ही विस्थापन का जो हुनर जो सीखता है तो फिर उसके ज़रिये अनेक करामात करता चलता है. सिर्फ़ शब्दों के सहारे चित्रों की कल्पना कर लेता है. चित्र भर के सहारे आवाज़ें सुन लेता है. चार रेखा खींच दो तो मान लेता है कि ये घर है. इतना सब होने पर भी मनुष्य का मन बेहद प्रभावशील है. और उसकी भेदबुद्धि हर छोटे से छोटे अन्तर को भी को पहचानने में सक्षम है. हर रंग, रूप, क्रम और आकार एक विशेष प्रभाव पैदा करता है. इसी वजह से कलाकार अपने शिल्प में निरन्तर प्रयोग करते रहते हैं. मगर वो कौन सी मानव वृत्ति है जिसके चलते एक समय का फ़िल्म शिल्प का क्रांतिकारी औज़ार जम्पकट, पाला बदलकर पेशेवर विज्ञापन की दुनिया का कारगर हथियार बन जाता है? नुसरत की रूहानी तान पश्चिम में पहुँचकर कैबरे संगीत बन जाती है? रूप के भीतर एक प्राकृतिक कथ्य मौजूद होता है या नहीं? जब गोदार ने कहा था कि मेरी फ़िल्मों में शिल्प कथ्य का आवरण है और कथ्य शिल्प का अन्तस, तो क्या वह सिर्फ़ एक ख़ूबसूरत बयान था जो अगर लागू होता था तो सिर्फ़ और सिर्फ़ उनकी फ़िल्मों पर? यह बड़ा प्रश्न है कि क्या रूप और रूह में कोई एकता नहीं? हसीन सूरत वाले असली में हसीन सीरत नहीं रखते?

***

००५ में आई अमेरिकन त्रयी की दूसरी कड़ी माण्डरले में न तो तकनीक के स्तर कोई नयापन था और न ही असर में कामयाबी. उसके बाद २००७ में वॉन ट्रिअर ने पहली बार एक कॉमेडी पर अपना हाथ आज़माया और कामयाबी भी हासिल की. उस फ़िल्म के बारे में साक्षात्कार देते हुए उन्होने कहा कि वो एक सरल फ़िल्म बनाना चाहते थे. मगर वॉन ट्रिअर किसी भी कहानी को सरल कैसे बना सकते हैं? फ़िल्म की कहानी में जाए बग़ैर ये बताना चाहता हूँ कि ‘द बॉस ऑफ़ इट ऑल’ में वॉन ट्रिअर एक नई तकनीक इस्तेमाल करते हैं जिसका नाम उन्होने दिया है ऑटोमाविज़न. उनका कहना है कि अभी तक कैमरे या तो स्थिर होते आए हैं या फिर गतिमान जिसका सबसे नया स्वरूप है स्टेडीकैम. वॉन ट्रिअर ने अपनी कई फ़िल्म स्टेडीकैम पर ही शूट की हैं. दोनों में स्पष्ट अन्तर होते हुए भी एक समानता है- वो ये कि दोनों ही ये तय करते हैं कि वे फ़्रेम क्या रखेंगे और उसके भीतर क्या-क्या रखेंगे. ये एक सीधा-सीधा फ़िल्मकार का तर्क है- वो अपनी समझ और मंशा से तय करता है कि फ़्रेम के भीतर क्या आएगा और क्या उसके बाहर रखा जाएगा. इस तरह से दर्शक किस चीज़ को कितना महत्व देगा इस बात पर फ़िल्मकार नियंत्रण रख सकता है. वॉन ट्रिअर के अनुसार उन्होने इस फ़िल्म में वो नियंत्रण छोड़ दिया और ऑटोमाविज़न की तकनीक के ज़रिये एक कम्प्यूटर को रैण्डम आधार पर यह तय करने दिया कि उपलब्ध सेट पर वो क्या फ़्रेम बनाएगा. वॉन ट्रिअर के मुताबिक़ यह नियंत्रण छोड़ना है मगर मेरी समझ में यह तो और भी कस कर लगाम पकड़ना है. ऑटोमाविज़न उनके लिए क्या करने वाला है यह सोचसमझ कर उन्होने उस तकनीक का प्रयोग किया. ऑटोमाविज़न ज़रूर रैण्डम आधार पर फ़्रेम का चुनाव कर रहा है लेकिन वॉन ट्रिअर अनियमित आधार पर ऑटोमाविज़न का चुनाव नहीं कर रहे हैं, जानबूझकर कर रहे हैं. ये फिर आज़ादी का ही मामला है ऊपर से ऐसा लग सकता है कि वे दर्शक पर से अपना नियन्त्रण हटा रहे हैं मगर वॉन ट्रिअर हमेशा की ही तरह फिर से एक बार अपने दर्शक को आज़ादी देते नहीं, उस से आज़ादी छीन लेते हैं.

Tags:

4 comments
Leave a comment »

  1. Behad khoobsurat aur informative lekh. Shukriya Abhay ji!

  2. शुक्रिया, अभय,

    डॉग्मा के बारे में सुन रखा था, ट्रियर की फ़िल्मों के बारे में ख़ासा ज्ञानवर्धन हुआ। इसी तरह लिखते रहें।

    रविकान्त

  3. बहुत दिनों बाद फिल्मों पर इतना अच्छा लेखन पढ़ा। यह विश्लेषण न तो तुरंत फिदा होता है और न ही खड्ग लेकर सब कुछ तहस नहस करता है। यह एक जरूरी दूरी के साथ फिल्मकार और उसकी फिल्म को देखने की कोशिश है जिसमें संयम भी है धैर्य भी है और संतुलित विश्लेषण करने की समझ भी। हिंदी में फिल्मों पर इस तरह का लेखन नियमित होने लगे तो क्या बात है।
    अभय तिवारी जी को बधाई और शुभकामनाएं इस आशा के साथ कि यहां भी और अन्य जगह भी (जिनमें उनका ब्लॉग भी शामिल है) सिनेमा पर इसी तरह का लेखन पढ़ने को मिलता रहेगा।

  4. excellent article by abhaya tiwari ji . thanks a lot. can you pls give me the address of Abhaya ji .

Leave Comment