आज़ादी विशेषांक / Freedom Special

अंक 13 / Issue 13

वीराने का कोतवाल: चंदन पाँडेय

चोरी के पारम्परिक तरीके जानलेवा और नुकसानदेह हो चुके थे. सेंध लगाने वाले स्मृतियों से अलग कहीं भी सेंध खोद पाने में अक्षम हो चले थे. पॉकेटमार असबाब कम, बेकाबू भीड़ की सेवा अधिक पाते थे. जहरखुरानी के रंचमात्र शिकार मजदूर बचे थे जो चाह कर भी इतनी धन दौलत बचा ही नही पाते थे कि जहरखुरानों का जीवन यापन हो. दूसरे, चोरी की नई चौसठ कलाएँ इतनी सशक्त थी कि ये पुराने चोर अपने शागिर्द ढूँढने में अकथ मुश्किल से दो-चार हो रहे थे.

धीरे धीरे चोर ठप्प पड़ने लगे. किसी ने साईकिल पंचर लगाने की दुकान लगा ली, कोई सब्जीमंडी में कुली लग गया. जिसने अंडे का ठेला लगाना शुरु किया आज उसके पास खपरैल का ही है पर अपना घर है. उसकी बेटी रूपा कक्षा चार की छात्रा है और उड़िया बोलती है. कारण कि उसकी माँ उड़ीसा से है.

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यह नगर परिचय के पहाड़े पर टिका हुआ था. मसल के तौर पर ‘अ’ को ‘ब’ बखूबी जानते हैं और ‘ब’ से जो ‘स’ का नाता है वह बेहद ढीला ढाला है. पर इसी नाते ‘स’ को यह भरोसा है और गुमान भी कि वह ‘अ’ को जानता है. ‘अ’ चूँकि ओहदेदार है, तो वो किसी को जानने की जहमत नहीं उठाता.

एक झूठे समय की बात कि ‘द’ का कोई कीमती सामान गुम हो गया था. और यहीं स्पष्ट कर दूँ कि उन्हें वह सामान मिला नही पर ‘द’ ने कोशिशें बहुत की. सामान नहीं मिला पर इस पूरी प्रक्रिया में ‘द’ को जो अभिमान हुआ कि क्या कहिए. उनका सीना हरवक्त इतना फूला रहने लगा था, जितना कि सेना में भर्ती के इच्छुक रंगरूट मौके पर भी नहीं फूला पाते. हुआ यह कि नगर के सभी आला नामों ने इनकी पैरवी कोतवाल से की. इसमें भी मध्यमार्गी बहुत काम आए. ‘घ’ इन्हें ‘च’ के पास ले गया. ‘च’ ‘ण’ के पास ले जा रहा था पर रास्ते में ‘थ’ मिल गया.

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उसी फलते फूलते जमाने की बात है कि झूठ से आबाद कोई नगर था. वहाँ एक कोतवाल रहते थे. उनकी एक कोतवालिन भी थी. अपूर्व सुन्दरी.

उनके अरूप रूप का अमल यह था कि नवयौवनाएँ उन्हें जहर देकर मार देना चाहती थीं. क्या जवान, क्या बूढ़े और क्या कोंपल की फूट से बाहर निकल रहे किशोर, सब के सब भारती ऊर्फ कनकलता के दिव्य रूप के परस पाते ही निढ़ाल और मलिन हो जाते थे. उनका साहस जबाव दे जाता. उन्हें घर तक पहुंचाने की कवायद भारी होती थी.

हुआ यह भी था वक्ष भार से जरा झुकी उनकी आकृति निहार कर कईयों ने जीने की इच्छा ही छोड़ दी थी. मसलन, इनके होने के आभास मात्र से लोग मृत्यु के दर्शन की चर्चा छेड़ देते. कमर के नीचे के आयतन से वो पानी पर मंथर बहती हुई नाव दीख पड़ती थी. जानने वाले जानते थे कि मल्लाह खुद कोतवाल है जिसने नाव पानी पर छोड़ रखी है. जबकि पानी अपनी धार की शुष्क और तीव्र चोट से नाव पर गहरे निशान बना रहा है, इसका पता अभी न मल्लाह को था ना ही जीने की इच्छा छोड़ चुके आशिकों को. और यह भी कि कनक का झुकना स्तनों के भार से नहीं, चंचलायमान स्मृतियों की ‘मूवी’ से था.

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चूँकि जमाने पर ही अन्धेरा छा रहा था इसलिए आकृति स्पष्ट नहीं हुई कि वह न्यायाधीश था या पत्रकार या फिर कमनिगाही का मरीज राजनीतिज्ञ, पर इन्हीं किन्हीं साथी से मिलकर कनकलता लौट रही थीं. सब्जी मंडी का भीड़ भड़क्का देख कर मैडम ने गाड़ीवान को रोका. खुद, उतर आईं. मंडी में इससे पहले इतनी खूबसूरत और नाजुक कोई चीज नहीं आई थी, सो क्या खरीददार और क्या विक्रेता, सब के सब काम ठप्प कर बैठ गए. यहाँ होना यह था कि मैडम कुछ खरीद फरोख़त करती और कितनों के सीने से दिल निकाल वहीं के वहीं मरोड़ कर चल देती. पर यह नहीं हुआ.

शाश्वत से लगते सन्नाटे में मैडम की निगाह अपनी उंगली पर गई – बाएँ हाथ की बड़े बड़े पोरों वाली लम्बी और पतली उंगली से अँगूठी गायब थी. जिसने जाना, वे अपनी ही जगह पर बुत बन गया. शहर कोतवाल की बीवी के अंगूठी उनके हाथ से गायब ! मैडम ने तुरत फुरत अपना मोबाईल फोन निकाला और साहब को फोन लगा दिया.

यह खबर और इससे उपजा भय धुँए की तरह शहर पर पसर गया. कोतवाल ने सभी थाने और पुलिस चौकी पर फोन घुमा दिया. शहर के दरोगाओं के लिए आज इम्तिहान था. अबोला कर्फ्यू अगर कुछ होता है तो वही शहर पर छा रहा था. मैडम अपनी लरज सम्भालते हुए घर आईं. आईं और बिखर गईं.

कोतवाल ने तमाम तरीके से मनाने की कोशिशें की. अंगूठी तो अंगूठी, सुनारों को ही घर पर बुला लिया. वे मूँगा, मोती, हीरे और सोने की खदान तक साथ में लाए पर कोतवालिन के सलोने मुखड़े पर लालिमा गर्दिश की तरह फैली हुई थी, वह जा ही नहीं रही थी. सबका कहना यही था कि शहर कोतवाल की बीवी जिस शहर में सुरक्षित नहीं, वहाँ की आम अमरूद जनता जाए तो कहाँ जाए. ऐन उसी पल सभी थानेदारों के फोन आने शुरु हुए : कुल चालीस चोर पकड़े गए हैं.

इन चालीस में इक्कीस वे थे जिन पर वस्तु चोरी के आरोप फ्रेम की तरह मढ़े हुए थे. साईकिल पम्चर लगाने वाला, सब्जी मंडी का कुली, अंडे बेचने वाला सभी के सभी शामिल थे. ग्यारह जनों की शक्लें पिछली पीढ़ी के नामी चोरों से मिलती थीं. बाकी बचे आठ लोगों पर उनके जमानों में दिल चुराने का आरोप लगा था, इसलिए उन्हें भी बुला लिया गया था.

कोतवाल ने शहर में जो आदेश दिए हों पर घर में पत्नी का चेहरा उससे देखा नहीं जा रहा था. उसने कोतवालिन को ओढ़कर मनाया, बिछा कर मनाया, आड़ी तिरछी सारी कलाएँ आजमा लीं पर कोतवालिन का मलिन चेहरा उनके पूरे व्यतित्व को लेकर लाईलाज डूबे जा रहा था. पर हुआ यह कि एक खबर ने कोतवाल के चेहरे पर रौनके बिखेर दीं.

पहर दो पहर बाद की बात है. थक कर चूर, सभी थानेदारों ने मिलकर यह खबर दी : चालीस के चालीस, सभी चोरों ने अपना अपना गुनाह कबूल लिया है. कोतवाल ने कहा : ‘गुड’ ‘वेलडन’, वे अंगूठियाँ कब तक लौटा रहे हैं ? इस तरह थानेदारों ने सभी चोरो को एक दिन की मुहलत दी और अगले दिन कोतवालिन के पैरों पर एक एक तोले वाली सोने की चालीस अंगूठियाँ पड़ी हुई थीं. सबकी नक्काशी हू ब हू वैसी ही थी जैसी मैडम की खोई अंगूठी. किसी में न एक सूत कम की बनावट, ना एक सूत अधिक का खिंचाव.

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मैडम की उदासी चालीस तोले सोने के साथ गई या समय के साथ, ठीक ठीक नहीं बताया जा सकता. जो हो सकता था, वही हुआ और वह यह कि चालीस अंगूठियाँ एक साथ पहनना कहाँ सम्भव था. इस खातिर सुनार बुलाए गए. उन सबने मिलकर चालीस अंगूठियों को गलाकर, नए नुकूश वाला एक करधन बना डाला.

करधन के लिए कोतवालिन ने अपनी सुडौल कमर का माप एक हरे धागे पर लिया था. पहले गुलाबी धागे के सहारे माप लिया जा रहा था पर धागे और शरीर के उस बेचैन हिस्से के रंग इस तरह यक्साँ थे कि घागा उनके शरीर में गुम- बहुत गुम हो जा रहा था. अगर करधनी की कहानी बतानी न होती तो मैं उस धागे का किस्सा जरूर बताता जो कनकलता के शरीर का स्पर्श अपने में सँजोये था और जिसे छूते ही सुनार की हड्डियों में छुपा ज्वर बाहर निकल आता.

करधन तैयार हुआ और यह खबर सुगन्ध की तरह उड़ी कि वैसी करधनी नगर के इतिहास में नहीं बनी थी. सारा शहर करधनी देखने के लिए बावला हुआ जा रहा था. करधन की सुघढ़ नक्काशी को लेकर जो सूचनाएँ या अफवाहें आ रही थीं उनमें से तीनों की तीनों एक दूसरे में कोई मेल न था. राजनीतिज्ञ और विचारक खेमें से खबर यह उड़ी थी कि करधन की एक सौ आठ लड़ियों में समूची राम कथा पिरोई हुई है. दूसरी तरफ, पत्रकार और बुद्धिजीवी खेमे की आवाज में सुना यह जा रहा था कि करधन की बारीक झालरें प्राचीन गुफाओं की याद दिला रही हैं. कारीगर ने कमाल कर दिखाया है.

इनसे अलग न्यायाधीश और न्यायविद के खेमे का सुर था. उनके अनुसार, हो न हो, लड़ियों की कुल संख्या उतनी ही है जितनी संविधान में मौजूद, इधर उधर बहती हुई, धाराएँ. उन झालरों पर जो चित्र हैं वे हरेक धारा को नीति कथा में बदल कर दिखाते हैं. यह जनता के लिए सीखने और नैतिक होते जाने का भला मार्ग प्रशस्त करता है. न्यायाधीश का जो कुछ अनुभव था वह धूसर रौशनी का दिया था.

तीनों की नींद हवा हो चुकी थी. कोतवालिन के मन में क्या था इसे तो कोई थाह नहीं पाया पर ये लोग कोतवालिन से बेइन्तिहा इश्क रखते थे. तीनों ने तीन अलग अलग मौको पर और तीन अलग अलग रौशनियों में इस करधन को देखा था पर तीनों के मन में समान उत्पात मचा था.

32 comments
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  1. bahut satik

  2. A story with full of metaphors — Such kind of story we always expect from someone mature like chandan bhai—

  3. अद्भुत कहानी….चालीस चोरों की चालीस अंगूठियाँ..और नए नुकूश का करधन. साफ़ साफ़ दीखता हैं की रसूख वाले क्या क्या कर सकते हैं और उससे भी आगे जाकर समाज के प्रतिष्ठित लोगो की अपनी अपनी व्याखाएं. भ्रष्टाचार और चापलूसी दोनों अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में पेश करी हैं चन्दन जी ने लेकिन ….असली अंगूठी का न मिलना थोडा खला जरुर हैं. वैसे चोरी को भी लुप्तप्राय होने से बचाने के लिए कुछ प्रयत्न होना चाहिए या फिर इसका नया चरण आयें दिन हो रहे घोटालों के रूप में स्वीकार कर लिया जाए.

    बहुत बहुत धन्यवाद चन्दन जी और प्रतिलिपि इस प्रस्तुति के लिए.

  4. kahani to bahut achhi hai… lekin puri kahani padhvayiye…

  5. अच्छी कहानी …………………. बधाई स्वीकारें

  6. excellent!!!

  7. छोटी मगर धारदार कहानी । बधाई ।

  8. kachot raha hai anta:s mai kuch, kab ohdaa / rasookh hume jimmedaari ka ehsaas dilaayega, shayad kabhi nahi. human sada yahi kiya jitana ba-izzat ya taqatwar hu’e , utane hee besharam hu’e.phir hamara kaha hee qaayadaa ho gaya aur jo na maana vo MANSOOR ho gaya.

  9. sarcastic !! I hope this should not be the actual indian scene. very well knitted story.
    Mr. Editor, can u give this writers email address or contact number ?

  10. hamesha kii tarah …is baar bhi adbhut kahani ….chandan sahab kii kalam se ..

  11. chandan bhaiya ap behtar likhate hi hain,is kahani me bhi wo pradarshit ho raha hai, behtarin…

  12. मुझे आधुनिक फिक्शन बिलकुल समझ में नहीं आता पर इतना जरुर लग रहा है की ये कहानियां वर्ल्ड क्लासिक की श्रेणी में शुमार होंगी ………हाँ विधा कोई भी हो पर सुबोध होना रचना का एक महान गुण है, ये तथ्य वर्तमान समय में और भी प्रासंगिक हो गया है. पर इतना महान कहानीकार मेरा फेस बुक मित्र है , ये मेरे लिए तो गौरव की बात है ही …….

  13. Intensity and integrity of the story is superb ……. Congrats

  14. अद्भुत कहानी , चन्दन ,अभिनंदन !मेरी तो कहने की इच्छा हो रही है -‘ओए चन्दन , चन्दन ओए !'( जाहिर है क्यों ! )
    ….बस एक बात , दूसरे खंड की कहानी में क्या जरूरत थी ?

  15. बहुत प्यारी कहानी है यार! बहुत सारे अर्थों को समाये हुए है अपने आप में! यह रूपक है आज के ज़माने का. ज़माने पर कहानीकर के शब्द हैं:
    “उसी फलते फूलते जमाने की बात है कि झूठ से आबाद कोई नगर था. वहाँ एक कोतवाल रहते थे. उनकी एक कोतवालिन भी थी.”
    “चूँकि जमाने पर ही अन्धेरा छा रहा था इसलिए आकृति स्पष्ट नहीं हुई कि वह न्यायाधीश था या पत्रकार या फिर कमनिगाही का मरीज राजनीतिज्ञ, पर इन्हीं किन्हीं साथी से मिलकर कनकलता लौट रही थीं.”
    इस कहानी को पढ़कर हिंदी कि दो मशहूर रचनाएँ याद आयीं: एक भारतेंदु हरिश्चंद का नाटक “अंधेर नगरी” और मुक्तिबोध की कविता “अँधेरे में”! दोनों रचनाएँ अपने ज़माने के अँधेरे को सामने लाती हैं. दूसरे उद्धरण का का वाक्य- ” ज़माने पर ही अँधेरा अँधेरा छा रहा था”- बड़ा सारगर्भित है!
    “अंधेर नगरी” में भी एक कोतवाल हैं. राजा, अंधेर नगरी के राजा, के दरबार में हाजिर किये जाते हैं. अपना पक्ष रखते हुए कहते हैं: “महराज महराज! मैंने कोई कसूर नहीं किया, मैं तो शहर के इंजम के वास्ते जाता था.” कहानी के कोतवाल को भी किसी चीज से मतलब नहीं! “अंधेर नगरी चौपट राजा.” इस कहानी का “झूठ से आबाद कोई नगर” भारतेंदु की “नगरी” का सामयिक संस्करण है!
    ज़माने के अंधेर की वजह से “वह न्यायाधीश था या पत्रकार या फिर कमनिगाही का मरीज राजनीतिज्ञ” पाता नहीं चला! मुक्तिबोध के “अँधेरे में” साफ दिखाई देता है: जुलूस में बुद्धिजीवी, कवी पत्रकार, डाकू , हत्यारे सब एक साथ हैं”
    यहाँ कुछ पता ही नहीं चला की वह कौन था- न्यायाधीश, या पत्रकार, या राजनीतिज्ञ “. आधुनिक समय में औपचारिक विभेदों के परे जाकर एक ही “अपराध” करने वाले. सब सामान हैं. कोई फ़र्क नहीं, अँधेरा इतना घना है और फिर है तो ” झूठ” का नगर!
    यह कहानी अपने समय का एक सार्थक और विशिष्ट रूपक है. कहा गया कम अहुर अनकहा ज्यादा. इसी से यह एक ताकतवर कहानी बन पाती है.

  16. इस कहानी में भाषा की धार तो श्रीलाल शुक्ल के रागदरबारी की याद दिला गया. वही तंज, वही तेवर, वही तल्खी और वही मुरहे, वही मार और वही शिनाख्त. बहुत बधाई.

  17. abhi thodi der pahle ye kaani padhi..bhasha ka adbht khiland andaj,ek saans me poori kahani padh gaya..chandan ki kahaniyan pahle bhi dekhi h..ve nirantar acchi kahaniyan likh rahe h….badhaiyan

  18. nice. complete kar dete toh aur maza aata

  19. अनुपम कहानी है भाई, लाजवाब कर देने वाली। लोक, मिथक और गल्‍प का विशिष्‍ट समन्‍वय है इसमें। भाषा के स्‍तर पर चमत्‍कारिक और प्रवाहमान। कहानी का रस लेता हुआ पाठक अपने समय के तमाम छल-छद्म को पकड़ ही लेता है। आज की परम पतित सत्‍ता के सारे किरदार यहां अपनी पूरी नंगई के साथ मौजूद हैं। मन तो करता है कि कहानी के मिथ को तोड़ा जाए, लेकिन फिर उसका जादू खत्‍म हो जाएगा। कोतवालिन का चरित्र कमाल का है, हमारी सत्‍ता जैसा… सब उसके रूप पर मुग्‍ध हैं और वो अंगूठी के बदले करधन बना लेने में माहिर है। बधाई चंदन भाई और शुक्रिया गिरिराज…

  20. यहाँ पर कहानी के रूप में हम जो देख रहे हैं, वह एक तरीके से शिल्पगत पुरानेपन का श्राद्ध करते हुए आता एक संस्कार है, जहाँ से आगे की संभावनाओं का कोई आंकलन नहीं किया जा सकता. चन्दन पाण्डेय की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है कि वे संभावनाओं को संभावित नहीं होने देते हैं और कहानी-लेखन की सबसे पुरानी परम्परा को discard करते चले आते हैं. ये कोई शिल्प से जुड़ी परम्परा नहीं है, विचार से जुड़ी है.

  21. चंदन इसे में कहानी कहने की गुस्ताखी नहीं कर सकता। अक्सर होता यह है कि एक कहानी पढने की प्यास बुझा देती है। अच्छी कहानी प्यास को शांत करते हुए हमें नए अनुभवों, बिंबों और जानकारियों से लबरेज कर देती है, लेकिन कमाल यह है कि वीराने के कोतवाल ने प्यास को तेज कर दिया है। कनकलता, करधनी और विभिन्न वर्गों के विश्लेषण जिस लोक की सैर कराते हैं, वे सोच की सूईयों को भी चुभोते हैं। मेरे जैसे सीधे सीधे और लट्ठमार पाठक के लिए भी यह संवेदना और जिज्ञासा के साथ कल्पना की सैर कराती है। बधाई सहित शुक्रिया कबूल करो यार। हिंदी कहानी की पुरानी हथेलियों में जिस तरह झुर्रियां पड रही हैं, उसके बरअक्स तुम्हारे शब्दों की सिहरन हौसला बढाती है। गीत भाई के साथ तुम्हें आगामी भविष्य में हिंदी कहानी का स्टारडम संभालना संभालना है। तैयार रहना। पूरी जिम्मेदारी के साथ कह रहा हूं। कसम “रिवाल्वर” की “भूलना” मत वरना “शहर की खुदाई” करा देंगे अपन

  22. बांधे रखने वाली कहानी. अद्भुत व्यंग्य ! कहीं-कहीं तो परसाई जी की याद ताज़ा हो जाती है. वैसे उद्देश्य और कथा-प्रभाव की दृष्टि से कहानी वहां भी खत्म हो जा सकती थी, जहां चालीस अंगूठियां कोतवालिन के क़दमों में आ गिरती हैं. अद्भुत रचना है. चंदन को ढेर सारी बधाई और शुभकामनाएं.

  23. कहानी पढ़ रहा था, पर लगा जैसे चन्दन भाई सामने बैठे खुद कहानी सुना रहे हों … किस्सागोई का लाजवाब फन …. अदभुत …!!!!!!!!!

  24. कहानी पढ़ रहा था पर लगा जैसे चन्दन भाई सामने बैठे खुद कहानी सुना रहे हों … किस्सागोई का लाजवाब फन …. अदभुत …!!!!!!!!!

  25. वाह… चंदन भाई !!!

  26. बहुत अच्छी कहानी |

  27. चन्दन पांडेय की कहानिया पहले भी पढ़ी है पर यह भाषा चन्दन के पास है, जान कर हैरत हुई. सुखद आश्चर्य. पहली बार चन्दन ने भाषा पर कहानी खड़ी की है. बधाई. कहानी तो है ही कमाल की.

  28. हमेशा की तरह बेहतरीन………भाषा ,शिल्प ,किस्सागोई और सबसे बढ़कर वर्तमान समाज की नब्ज को ठीक – ठीक समझ पाने की यही ताकत चन्दन को श्रेष्ठ युवा कथाकारों की पंक्ति में खड़ी करती है…..बहुत बधाई मित्र.

  29. bahut achhi kahani hai ….

  30. अद़भुत रचना…….बेहद प्रभावी है कहानी चंदन जी।

  31. तीन डेग में भ्रष्‍ट व्‍यवस्‍था के पूरे ब्रह्मांड को नाप लिया है चंदन जी ने …..हार्दिक बधाई

  32. यह कहानी मैंने नहीं पढ़ी थी चन्दन। अद्भुत कहानी है। खासकर इसके शिल्प पर मुग्ध रह जाना पड़ता है। तुमने मुझे और कहानियों की लिंक अभी नहीं दी है। शैतान…

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