हर दिन चटनी: विष्णु गोपाल मीणा
अलवर जिले की उमरैण पंचायत समिति में एक गाँव है रूंध बीणक. शहर से मात्र 20 किमी की दूरी पर स्थित यह गाँव सीलीसेड झील के उस इलाके में है जहाँ के बरसाती पानी से सीलीसेड झील ही नहीं जिले के सबसे बड़े बांध जयसमंद में भी पानी जाता है. सरिस्का अभयारण्य के जंगल में स्थित इस गाँव में 15 के लगभग परिवार हैं. गुर्जर जाति के इन लोगों का जीवन इस जंगल के पत्तों पर निर्भर रहता है. घर के सभी सदस्य पशु पालन करके अपना जीवन गुजारने का प्रयास करते है. यहाँ एक भी सरकारी स्कूल नहीं है. सबसे पास की सड़क 5 किमी दूर है. बिजली के अभाव में पूरा गाँव अंधेरे में गुजर कर रहा है. झील और बांधों को पानी देने वाले इस पथरीले गाँव के लोगों का जीवन बड़ा कठिन है. बरसाती दिनों में पत्थरों के बीच बाजरे के दाने फेंक दिये जाते हैं. जंगली जानवरों से बचाने के बाद जो बाजरा हाथ लगता है उसे ये वर्षभर खाते हैं. जब कभी शहर जाना हुआ तो लाल साबुत मिर्च खरीद लाते हें जिसे नमक पानी के साथ पीसकर रोटी पर लगा कर खाते हैं. यदि घर में कोई मेहमान आ जाए तो उस चटनी को तेल की कुछ बूंदों से छोंक दिया जता है. बच्चे तो इस छुंकी चटनी के लिए झगड़ा करते हैं. यह चटनी इन लोगों के लिए पकवान से कम नहीं होती है. इतना सादा सरल जीवन जीने के लिए भी पूरे परिवार को जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है. चारे पानी के अभाव में पूरा दिन अपने पशुधन को जीवित रखने की कोशिश में चला जाता है. एक भैंस एक दिन में एक-दो किलो से अधिक दूध नहीं देती है. यही थोड़ा सा दूध इनकी चटनी रोटी है. पुरूष पशुओं के लिए दूर दूर तक पत्तों की तलाश करते हैं. परन्तु सर्दी के बाद तो कहीं दूर दूर तक कुछ नहीं होता. औरतें सुबह अंधेरे में ही कुल्हाड़ी और रस्सी लेकर दूर जंगल में चली जाती हैं. वहाँ छीले के पेड़ की मौटी डालियां (डाले) काटकर नीचे गिराती हैं फिर कुल्हाड़ी से कट लगाकर उस तने या डाल की छाल उतारी जाती है. उस छाल को रस्सी से बांधकर जंगली जानवरों और फोरेस्ट वालों से बचते हए दोपहर तक घर आती हैं. घर आकर उसी कुल्हाड़ी से छाल के छोटे-छोटे टुकड़े किये जाते हैं और फिर इन टुकड़ों को बड़े से ओखले में डालकर कूटा जाता है. जब ये टुकड़े नरम हो जाते हैं तो फिर शाम तक जाकर पशुओं को खाने को दिया जाता है.
दिनभर के भूखे पशु इसे ऐसे खाते है जैसे वे रोटयां खा रहे हों. तब जाकर ये पशु शाम को से दो किलो दूध दे पाते हैं. इस थोड़े से दूध से चटनी रोटी की लड़ाई लड़ रहे ये लोग इतना दयनीय जीवन जी रहे हैं कि इनके बच्चे घरों में चूल्हे के सिवाय कोई सामान नहीं मिलता. फटे चीथड़ों को तन पर लटकाए हुए इन लोगों के घरों में ना दरवाजा है और ना ही ताला. इनको ना चोरी का डर सताता है और ना ही किसी सांप बिच्छू की चिन्ता. मर जाना तो जैसे छुटकारा है इस नरक से. ऐसा कठिन जीवन जीने वाले इन लोगों को सरकार ने अभी तक कोई मदद नहीं की, अपितु उनको वहाँ से भी जंगल बचाने के नाम पर खदेड़ना चाहती है.
क्या पर्यावरण बचाने वालों को इंसान बचाने की कोई जुगत नहीं मालूम?
bisnu ji ……..
aap ne jis problem ke bare likha h wo really bahut badhi.
or aap ne jis tarah se manavta se likha h wo aap samajh rahe honge.
mera isara.
thanks
9672281281